[[22:51, 5/28/2018] Kumar Mith: सुना है मैंने,
नादिर एक स्त्री को प्रेम करता था।
लेकिन उस स्त्री ने नादिर की तरफ कभी ध्यान नहीं दिया। नादिरशाह साधारण आदमी नहीं था, असाधारण आदमी था।
हत्यारों में उस जैसा असाधारण दूसरा नहीं है।
अभी-अभी हमने कुछ रिकार्ड तोड़े हैं–हिटलर, स्टैलिन के साथ।
लेकिन हिटलर और स्टैलिन का जो हत्यारापन है, वह बड़ा परोक्ष है।
उन्हें कभी ठीक पता नहीं चलता कि वे मार रहे हैं।
नादिरशाह का हत्यारापन सीधा, प्रत्यक्ष था;
वही मार रहा था सामने छाती में।
नादिरशाह को उस स्त्री ने ध्यान नहीं दिया।
लेकिन जब नादिरशाह को पता चला कि
वह उसके ही एक पहरेदार को,
साधारण सिपाही को प्रेम करती है,
तो पागल हो गया।
अपने बुद्धिमानों को उसने बुलाया
और कहा कि सजा बताओ, क्या सजा दूं?
बुद्धिमान हैरान हुए, क्योंकि नादिरशाह सजा इनवेंट करने में इतना कुशल था कि वह बुद्धिमानों से पूछे?
बुद्धिमान थोड़े हैरान हुए!
उन्होंने कहा, आपकी कुशलता हम न पा सकेंगे। आपसे ज्यादा कुशल और कौन है?
सताने में आप ऐसी-ऐसी तरकीबें निकालते हैं! आपसे ज्यादा हम कुछ न बता सकेंगे।
लेकिन नादिरशाह ने कहा कि नहीं;
मैं जो भी सोच सका, सब कम पड़ता है।
तुम कुछ ऐसा सोचकर आओ कि जैसा कभी किसी ने किसी को न सताया हो।
उसके विद्वानों में से एक मनसशास्त्री ने कहा कि अगर मेरी मानें, तो मैं आपको बताऊं।
नादिरशाह मान गया, जो उसने बताया।
और सजा दी गई।
ऐसी सजा पहली दफा दी गई;
और अगर बहुत दफे दी जाए,
तो दुनिया में बड़ी मुसीबत हो जाए।
सजा बड़ी अजीब थी। सोच भी नहीं सकते, ऐसी थी।
दोनों को नग्न करके, आलिंगन में बांधकर रस्सियों से, और एक खंभे में बांध दिया गया। न खाना, न पीना।
दोनों के चेहरे एक-दूसरे की तरफ।
क्षणभर को तो उन्हें लगा कि हमारे जीवन का स्वर्ग मिल गया। इसी के लिए आतुर थे कि एक-दूसरे की बांह में पहुंच जाएं!
पहुंच गए! थोड़े हैरान हुए कि नादिर को यह क्या हुआ है! लेकिन उन्हें पता नहीं कि एक मनोवैज्ञानिक ने सलाह दी है।
और राजनीतिज्ञों को जब भी मनोवैज्ञानिक सलाहकार मिल जाएंगे, तब दुनिया में जितनी दुर्घटनाएं होंगी, उतनी और कभी नहीं हो सकतीं।
मिनट, दो मिनट, फिर घबड़ाहट शुरू हुई।
क्योंकि कोई किसी को आलिंगन में ले ले, तो क्षणभर में आलिंगन टूट जाए, तो सुख का खयाल रह जाता है।
दस मिनट रह जाए, तो घबड़ाहट और बेचैनी शुरू हो जाती है।
पंद्रह मिनट, आधा घंटा…।
जिन ओंठों में समझा था कि गुलाब के फूल खिलते हैं, उनसे बदबू आने लगी।
कहीं खिलते नहीं, किन्हीं ओंठों में गुलाब के फूल नहीं खिलते। सिर्फ उन कवियों की कविताओं में खिलते हैं, जिन्हें ओंठों का कोई पता नहीं है।
जिनको भी ओंठों का थोड़ा अनुभव है,
वे जानते हैं, फूल नहीं खिलते।
सब तरह की बदबू मुंह से उठती है।
उठने लगी।
दिन बीता, चौबीस घंटे हो गए। सोए नहीं।
रातभर की तंद्रा आंखों में, शरीर में भर गई।
ऐसा लगने लगा कि दोनों लाश हो गए हैं।
आदमी जिंदा नहीं हैं। फिर मल-मूत्र भी बहने लगा; क्योंकि दो दिन बीत गए।
फिर तो गंदगी भारी हो गई।
फिर तो वे चीखने-चिल्लाने लगे कि हमें छुड़ा दो; माफ करो।
लेकिन नादिर रोज आकर देख जाता कि प्रेमियों की क्या हालत है!
फिर तो ऐसा मन होने लगा कि अगर हाथ खुले हों, तो एक-दूसरे की गर्दन दबा दें।
उस जगत में उन दोनों को उन क्षणों में जैसी शत्रुता अनुभव हुई होगी, ऐसी किन्हीं प्रेमियों को कभी नहीं हुई है।
प्रेमियों का सबसे बड़ा सौभाग्य यह है कि वे कभी मिल न पाएं। मिल जाएं, तो उपद्रव शुरू होते हैं।
और इस भांति मिल जाएं, इस पूरी तरह मिल जाएं, तब तो बहुत कठिनाई है।
पंद्रह दिन बाद सोच सकते हैं कि क्या हालत हुई होगी!
दो लाशों की तरह मुर्दा, पागल, विक्षिप्त!
कहते हैं कि जब पंद्रह दिन बा…
[04:19, 5/30/2018] Kumar Mith: जय श्री कृष्ण
स्वर-साधना का ज्ञान
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परिचय
जिस तरह वायु का बाहरी उपयोग है वैसे ही उसका आंतरिक और सूक्ष्म उपयोग भी है। जिसके विषय में जानकर कोई भी प्रबुद्ध व्यक्ति आध्यात्मिक तथा सांसरिक सुख और आनंद प्राप्त कर सकता है। प्राणायाम की ही तरह स्वर विज्ञान भी वायुतत्व के सूक्ष्म उपयोग का विज्ञान है जिसके द्वारा हम बहुत से रोगों से अपने आपको बचाकर रख सकते हैं और रोगी होने पर स्वर-साधना की मदद से उन रोगों का उन्मूलन भी कर सकते हैं। स्वर साधना या स्वरोदय विज्ञान को योग का ही एक अंग मानना चाहिए। ये मनुष्य को हर समय अच्छा फल देने वाला होता है, लेकिन ये स्वर शास्त्र जितना मुश्किल है, उतना ही मुश्किल है इसको सिखाने वाला गुरू मिलना। स्वर साधना का आधार सांस लेना और सांस को बाहर छोड़ने की गति स्वरोदय विज्ञान है। हमारी सारी चेष्टाएं तथा तज्जन्य फायदा-नुकसान, सुख-दुख आदि सारे शारीरिक और मानसिक सुख तथा मुश्किलें आश्चर्यमयी सांस लेने और सांस छोड़ने की गति से ही प्रभावित है। जिसकी मदद से दुखों को दूर किया जा सकता है और अपनी इच्छा का फल पाया जाता है।
प्रकृति का ये नियम है कि हमारे शरीर में दिन-रात तेज गति से सांस लेना और सांस छोड़ना एक ही समय में नाक के दोनो छिद्रों से साधारणत: नही चलता। बल्कि वो बारी-बारी से एक निश्चित समय तक अलग-अलग नाक के छिद्रों से चलता है। एक नाक के छिद्र का निश्चित समय पूरा हो जाने पर उससे सांस लेना और सांस छोड़ना बंद हो जाता है और नाक के दूसरे छिद्र से चलना शुरू हो जाता है। सांस का आना जाना जब एक नाक के छिद्र से बंद होता है और दूसरे से शुरू होता है तो उसको `स्वरोदय´ कहा जाता है। हर नथुने में स्वरोदय होने के बाद वो साधारणतया 1 घंटे तक मौजूद रहता है। इसके बाद दूसरे नाक के छिद्र से सांस चलना शुरू होता है और वो भी 1 घंटे तक रहता है। ये क्रम रात और दिन चलता रहता है।
जानकारी-
जब नाक से बाएं छिद्र से सांस चलती है तब उसे `इड़ा´ में चलना अथवा `चंद्रस्वर´ का चलना कहा जाता है और दाहिने नाक से सांस चलती है तो उसे `पिंगला´ में चलना अथवा `सूर्य स्वर´ का चलना कहते हैं और नाक के दोनो छिद्रों से जब एक ही समय में बराबर सांस चलती है तब उसको `सुषुम्ना में चलना कहा जाता है।
स्वरयोग-
योग के मुताबिक सांस को ही स्वर कहा गया है। स्वर मुख्यत: 3 प्रकार के होते हैं-
चंद्रस्वर-
जब नाक के बाईं तरफ के छिद्र से सांस चल रही हो तो उसको चंद्रस्वर कहा जाता है। ये शरीर को ठंडक पहुंचाता है। इस स्वर में तरल पदार्थ पीने चाहिए और ज्यादा मेहनत का काम नही करना चाहिए।
सूर्यस्वर-
जब नाक के दाईं तरफ के छिद्र से सांस चल रही हो तो उसे सूर्य स्वर कहा जाता है। ये स्वर शरीर को गर्मी देता है। इस स्वर में भोजन और ज्यादा मेहनत वाले काम कर
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स्वर बदलने की विधि-
नाक के जिस तरफ के छिद्र से स्वर चल रहा हो तो उसे दबाकर बंद करने से दूसरा स्वर चलने लगता है।
जिस तरफ के नाक के छिद्र से स्वर चल रहा हो उसी तरफ करवट लेकर लेटने से दूसरा स्वर चलने लगता है।
नाक के जिस तरफ के छिद्र से स्वर चलाना हो उससे दूसरी तरफ के छिद्र को रुई से बंद कर देना चाहिए।
ज्यादा मेहनत करने से, दौड़ने से और प्राणायाम आदि करने से स्वर बदल जाता है। नाड़ी शोधन प्राणायाम करने से स्वर पर काबू हो जाता है। इससे सर्दियों में सर्दी कम लगती है और गर्मियों में गर्मी भी कम लगती है।
स्वर ज्ञान से लाभ-
जो व्यक्ति स्वर को बार-बार बदलना पूरी तरह से सीख जाता है उसे जल्दी बुढ़ापा नही आता और वो लंबी उम्र भी जीता है।
को…
[22:28, 5/30/2018] Kumar Mith: इक़ खूबसूरत सा सवाल हो तुम ...
मौन पड़े सारे शब्दों की कोलाहल हो तुम
फ़िज़ाओं में फैले रंगों की इक़ नई पहचान हो तुम
[22:29, 5/30/2018] Kumar Mith: मुस्कुरा कर जो तू देख ले मुझको इक़ नज़र
इश्क़ क्या इसी को कहते हैं ...
मैं देखूँ जिधर - जिधर तू आये मुझको नज़र उधर -उधर
कितनी गहराई है तेरी आँखों में ...
कौन हूँ मैं , क्या हूँ मैं बस इतना तो बता दे मुझको एक बार
इश्क़ की हदों के पार उतर जाने दे ...
प्यासा है चकोर आवारा बादलों को बरस तो जाने दे
इक़ खूबसूरत सा सवाल हो तुम ...
मौन पड़े सारे शब्दों की कोलाहल हो तुम
फ़िज़ाओं में फैले रंगों की इक़ नई पहचान हो तुम
ओशो ...
[22:30, 5/30/2018] Kumar Mith: मैं देखूँ जिधर - जिधर तू आये मुझको नज़र उधर -उधर
कितनी गहराई है तेरी आँखों में ...
इक़ खूबसूरत सा सवाल हो तुम ...
मौन पड़े सारे शब्दों की कोलाहल हो तुम
फ़िज़ाओं में फैले रंगों की इक़ नई पहचान हो तुम
[17:31, 5/31/2018] Kumar Mith: कुछ भी ध्यान बन सकता है -
" कामवासना का उठना "
मूलबंध घटाने का बेहतर प्रयोग
जब भी तुम्हें लगे कि कामवासना तुम्हें पकड़ रही है, तब डरो मत। शांत होकर बैठ जाओ। जोर से श्वास को बाहर फेंको "उच्छवास"। भीतर मत लो श्वास को, क्योंकि जैसे ही तुम भीतर गहरी श्वास को लोगे, भीतर जाती श्वास काम-ऊर्जा को नीचे की ओर धकाती है।
जब तुम्हें कामवासना पकड़े, तब एक्सहेल करो, बाहर फेंको श्वास को। नाभि को भीतर खींचो, पेट को भीतर लो, और श्वास को बाहर फेंको, जितनी फेंक सको। धीरे-धीरे अभ्यास होने पर तुम संपूर्ण रूप से श्वास को बाहर फेंकने में सफल हो जाओगे।
जब सारी श्वास बाहर फिंक जाती है, तो तुम्हारे पेट और नाभि वैक्यूम हो जाते हैं, शून्य हो जाते हैं, और जहां कहीं शून्य हो जाता है, वहां आसपास की ऊर्जा शून्य की तरफ प्रवाहित होने लगती है। शून्य खींचता है, क्योंकि प्रकृति शून्य को बर्दाश्त नहीं करती, शून्य को भरती है।
तुम्हारी नाभि के पास शून्य हो जाए, तो मूलाधार से ऊर्जा तत्क्षण नाभि की तरफ उठ जाती है और तुम्हें बड़ा रस मिलेगा जब तुम पहली दफा अनुभव करोगे कि एक गहन ऊर्जा बाण की तरह आकर नाभि में उठ गई। तुम पाओगे, सारा तन एक गहन स्वास्थ्य से भर गया, एक ताजगी! यह ताजगी वैसी ही होगी, ठीक वैसा ही अनुभव होगा ताजगी का, जैसा संभोग के बाद उदासी का होता है, जैसे ऊर्जा के स्खलन के बाद एक शिथिलता पकड़ लेती है।
संभोग के बाद जैसे विषाद का अनुभव होगा, वैसे ही अगर ऊर्जा नाभि की तरफ उठ जाए , तो तुम्हें हर्ष का अनुभव होगा, एक प्रफुल्लता घेर लेगी। ऊर्जा का रूपांतरण शुरु हुआ, तुम ज्यादा शक्तिशाली, ज्यादा सौमनस्यपूर्ण, ज्यादा उत्फुल्ल, सक्रिय, अनथके, विश्रामपूर्ण मालूम पड़ोगे, जैसे गहरी नींद के बाद उठे हो, ताजगी आ गई।
यह मूलबंध की सहजतम प्रक्रिया है कि तुम श्वास को बाहर फेंक दो। नाभि शून्य हो जाएगी, ऊर्जा उठेगी नाभि की तरफ, मूलबंध का द्वार अपने आप बंद हो जाएगा। वह द्वार खुलता है ऊर्जा के धक्के से। जब ऊर्जा मूलाधार में नहीं रह जाती, धक्का नहीं पड़ता, द्वार बंद हो जाता है।
इसे अगर तुम निरंतर करते रहे, अगर इसे तुमने एक सतत साधना बना ली, और इसका कोई पता किसी को नहीं चलता। तुम इसे बाजार में खड़े हुए कर सकते हो, किसी को पता भी नहीं चलेगा, तुम दुकान पर बैठे हुए कर सकते हो, किसी को पता भी नहीं चलेगा। अगर एक व्यक्ति दिन में कम से कम तीन सौ बार, क्षण भर को भी मूलबंध लगा ले, कुछ ही महीनों के बाद पाएगा, कामवासना तिरोहित हो गई। काम-ऊर्जा रह गई...वासना तिरोहित हो गई....।
ओशो
ध्यान योग
[11:06, 6/2/2018] Kumar Mith: बड़ी मीठी कथा है, कि जनक ने एक बड़ी शास्त्रार्थ—सभा बुलाई थी।
बड़े—बड़े पंडितों को निमंत्रण दिया था। वे सब विवाद के लिए आ गए थे।
एक ब्राह्मण को निमंत्रण नहीं दिया गया था, क्योंकि वह सभा के योग्य न था।हमारे पास शब्द है, सभ्य या सभ्यता। वह सभा से ही बना है। सभ्य का मतलब होता है, सभा में बैठने योग्य। और सभ्यता का मतलब होता है, जो सभा में बैठने योग्य है, वह सभ्यता को उपलब्ध हो गया।
एक ब्राह्मण भर को राजधानी में छोड़ दिया था, निमंत्रण न दिया था। वह था अष्टावक्र। उसका शरीर आठ जगह से तिरछा था। अब आठ जगह से तिरछे आदमी को सभा में बुलाकर क्या और हंसी करवानी? वह चलता, तो लोग हंसने लगते। उसका सारा व्यक्तित्व एक व्यंग्य था। वह कार्टून ज्यादा रहा होगा, बजाय आदमी के। आठ जगह से तिरछा! एकाध जगह से तिरछा होना ही काफी उपद्रव कर देता है, आठ स्थानों से तिरछा था। कैसे चलता था, वह भी एक चमत्कार रहा होगा। उसकी चाल ऊंट जैसी रही होगी। उस पर अगर तुम सवारी करते, तो मुश्किल में पड़ जाते। जैसा ऊंट पर बैठना मुश्किल हो जाता है। बड़े अभ्यास की जरूरत हैं।
लेकिन उसे तो कुछ पता ही नहीं था कि यह सभा हो रही है और विवाद हो रहा है। उसे तो कुछ काम आ गया और पिता को कुछ बात कहनी थी। खोजा, तो पिता घर में न मिले। पूछा, तो पता चला, वे राज—दरबार गए हैं। तो वह पिता को मिलने राज—दरबार पहुंच गया। ऐन वक्त पर उसको छोड़ दिया था, वह ऐन वक्त पर हाजिर हो गया। संयोग की बात।
बड़ा विवाद चल रहा था, ब्रह्मज्ञान की चर्चा चल रही थी। सब रुक गई। लोग हंसने लगे। जैसे ही वह राज—दरबार में प्रविष्ट हुआ, जनक तक को हंसी आ गई। और लोग तो मुंह रोक लिए। उस अष्टावक्र ने चारों तरफ देखा और वह भी खिलखिलाकर हंसा। वह आदमी गजब का था। उस जैसे गजब के आदमी जमीन पर बहुत थोडे हुए हैं, अंगुलियों पर गिने जा सकें।
उसके हंसने से सन्नाटा छा गया दरबार में। क्योंकि किसी ने यह न सोचा था कि वह हंसेगा। जनक ने पूछा, हम क्यों हंसते हैं, वह तो साफ है। तुम क्यों हंस रहे हो? उसने कहा, मैं इसलिए हंसता हूं कि मैंने घर में सुना, मां ने कहा कि पंडितों की बड़ी सभा है, ब्राह्मणों की, ब्रह्मज्ञानियों की। यहां सब चमार इकट्ठे हैं। क्योंकि जिनको चमडी दिखाई पड़ती है, वे चमार हैं। इनमें से आत्मा किसी को दिखाई नहीं पडती। मेरा शरीर आठ जगह से झुका है, यह सच है। लेकिन इनमें एक भी ब्रह्मज्ञानी नहीं है। इन मूढ़ों के साथ क्यों समय खराब कर रहे हो! अगर इनमें एक भी ब्रह्मज्ञानी होता, तो वह मुझे देखता, मेरे शरीर को नहीं।
जनक चरणों पर गिर पड़े अष्टावक्र के। और बात सच थी। ज्ञानी कहीं शास्त्रार्थ के लिए सभाओं में इकट्ठे होते हैं? कि विवाद करने आते हैं? कि प्रतियोगिता जीतने आते हैं? ज्ञानी को अब जीतने को कुछ बचा? और ज्ञानी को कोई पुरस्कार शेष रहा जो जनक दे सकते हैं? जनक के पास क्या रखा है? जिनको दिखाई पड़ता है जनक के पास कुछ है, वे अज्ञानी हैं, तभी दिखाई पड़ता है।
अष्टावक्र तो चला गया, लेकिन जनक के मन में एक आग की लपट छोड़ गया। अष्टावक्र का पीछा किया जनक ने। और जनक की जिज्ञासाओं से इस पृथ्वी पर एक श्रेष्ठतम ग्रंथ का जन्म हुआ, वह है अष्टावक्र—गीता। कृष्ण की गीता भी फीकी है। उसको मैं महागीता कहता हूं।
ओशो ...गीता दर्शन
[10:23, 6/3/2018] Kumar Mith: एक नगर में एक मशहूर चित्रकार रहता था ।
चित्रकार ने एक बहुत सुन्दर तस्वीर बनाई
और उसे नगर के चौराहे मे लगा दिया
और नीचे लिख दिया कि जिस किसी को ,
जहाँ भी इस में कमी नजर आये वह वहाँ निशान लगा दे ।
जब उसने शाम को तस्वीर देखी उसकी पूरी तस्वीर पर निशानों से ख़राब हो चुकी थी ।
यह देख वह बहुत दुखी हुआ ।
उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि अब क्या करे वह दुःखी बैठा हुआ था ।
तभी उसका एक मित्र वहाँ से गुजरा उसने उस के दुःखी होने का कारण पूछा तो उसने उसे पूरी घटना बताई ।
उसने कहा एक काम करो कल दूसरी तस्वीर बनाना और उस मे लिखना कि जिस किसी को इस तस्वीर मे जहाँ कहीं भी कोई कमी नजर आये उसे सही कर दे ।
उसने अगले दिन यही किया । शाम को जब उसने अपनी तस्वीर देखी तो उसने देखा की तस्वीर पर किसी ने कुछ नहीं किया । वह संसार की रीति समझ गया ।
"कमी निकालना , निंदा करना , बुराई करना आसान लेकिन उन कमियों को दूर करना अत्यंत कठिन होता ह This is life........
जब दुनिया यह कहती है कि
‘हार मान लो’
तो आशा धीरे से कान में कहती है कि.,,,,
‘एक बार फिर प्रयास करो’
और यह ठीक भी है..,,,
"जिंदगी आईसक्रीम की तरह है, टेस्ट करो तो भी पिघलती है;.,,,
वेस्ट करो तो भी पिघलती है,,,,,,
इसलिए जिंदगी को टेस्ट करना सीखो,
वेस्ट तो हो ही रही है.,
[18:43, 6/4/2018] Kumar Mith: अक्सर आपने साधु-संतो या तपस्वियों, पंडितों के माथे पर चन्दन या भस्म से बनी तीन रेखाएं देखी होंगी. ये कोई साधारण रेखाएं नहीं हैं बल्कि इन्हें त्रिपुण्ड कहा जाता है. माथे पर चंदन या भस्म से बनी तीन रेखाएं त्रिपुण्ड कहलाती हैं. चन्दन या भस्म द्वारा तीन उंगुलियों की मदद से त्रिपुंड बनाया जाता है. त्रिपुण्ड की तीन रेखाओं में 27 देवताओं का वास होता है. प्रत्येक रेखा में 9 देवताओं का वास होता हैं. त्रिपुण्ड धारण करने वालों पर शिव की विशेष कृपा होती है.
ये विचार मन में ना रखें कि त्रिपुण्ड केवल माथे पर ही लगाया जाता है. त्रिपुण्ड शरीर के कुल 32 अंगों पर लगाया जाता है क्योंकि अलग- अलग अंग पर लगाए जाने वाले त्रिपुण्ड का प्रभाव और महत्व भी अलग है. इन अंगों में मस्तक, ललाट, दोनों कान, दोनों नेत्र, दोनों कोहनी, दोनों कलाई, ह्रदय, दोनों पाश्र्व भाग, नाभि, दोनों घुटने, दोनों पिंडली और दोनों पैर शामिल हैं.
शरीर के हर हिस्से में देवताओं का वास माना गया है. मस्तक में शिव, केश में चंद्रमा, दोनों कानों में रुद्र और ब्रह्मा मुख में गणेश, दोनों भुजाओं में विष्णु और लक्ष्मी, ह्रदय में शंभू, नाभि में प्रजापति, दोनों उरुओं में नाग और नागकन्याएं, दोनों घुटनों में ऋषि कन्याएं, दोनों पैरों में समुद्र और विशाल पुष्ठभाग में सभी तीर्थ देवता रूप में रहते हैं.
भस्म जली हुई वस्तुओं की राख होता है लेकिन सभी राख भस्म के रूप में प्रयोग करने योग्य नहीं होती हैं. भस्म के तौर पर उन्हीं राख का प्रयोग करना चाहिए, जो पवित्र कार्य के लिए किये गये हवन या यज्ञ से प्राप्त हो. शिव पुराण के अनुसार जो व्यक्ति नियमित अपने माथे पर भस्म से त्रिपुण्ड यानी तीन रेखाएं सिर के एक सिरे से दूसरे सिरे तक धारण करता है, उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और व्यक्ति शिव कृपा का पात्र बन जाता है.
त्रिपुण्ड चंदन या भस्म से लगाया जाता है. चंदन और भस्म माथे को शीतलता प्रदान करता है. अधिक मानसिक श्रम करने से विचारक केंद्र में पीड़ा होने लगती है. ऐसे में त्रिपुण्ड ज्ञान-तंतुओं को शीतलता प्रदान करता है. इससे मानसिक शांति मिलती है.! ✨👁✨
ॐ नमः शिवाया ~ जय भोलेनाथ ~ हरी ॐ तत् सत!
[18:49, 6/4/2018] Kumar Mith: अक्सर आपने साधु-संतो या तपस्वियों, पंडितों के माथे पर चन्दन या भस्म से बनी तीन रेखाएं देखी होंगी. ये कोई साधारण रेखाएं नहीं हैं बल्कि इन्हें त्रिपुण्ड कहा जाता है. माथे पर चंदन या भस्म से बनी तीन रेखाएं त्रिपुण्ड कहलाती हैं. चन्दन या भस्म द्वारा तीन उंगुलियों की मदद से त्रिपुंड बनाया जाता है. त्रिपुण्ड की तीन रेखाओं में 27 देवताओं का वास होता है. प्रत्येक रेखा में 9 देवताओं का वास होता हैं. त्रिपुण्ड धारण करने वालों पर शिव की विशेष कृपा होती है.
ये विचार मन में ना रखें कि त्रिपुण्ड केवल माथे पर ही लगाया जाता है. त्रिपुण्ड शरीर के कुल 32 अंगों पर लगाया जाता है क्योंकि अलग- अलग अंग पर लगाए जाने वाले त्रिपुण्ड का प्रभाव और महत्व भी अलग है. इन अंगों में मस्तक, ललाट, दोनों कान, दोनों नेत्र, दोनों कोहनी, दोनों कलाई, ह्रदय, दोनों पाश्र्व भाग, नाभि, दोनों घुटने, दोनों पिंडली और दोनों पैर शामिल हैं.
शरीर के हर हिस्से में देवताओं का वास माना गया है. मस्तक में शिव, केश में चंद्रमा, दोनों कानों में रुद्र और ब्रह्मा मुख में गणेश, दोनों भुजाओं में विष्णु और लक्ष्मी, ह्रदय में शंभू, नाभि में प्रजापति, दोनों उरुओं में न
[18:53, 6/4/2018] Kumar Mith: अक्सर आपने साधु-संतो या तपस्वियों, पंडितों के माथे पर चन्दन या भस्म से बनी तीन रेखाएं देखी होंगी. ये कोई साधारण रेखाएं नहीं हैं बल्कि इन्हें त्रिपुण्ड कहा जाता है. माथे पर चंदन या भस्म से बनी तीन रेखाएं त्रिपुण्ड कहलाती हैं. चन्दन या भस्म द्वारा तीन उंगुलियों की मदद से त्रिपुंड बनाया जाता है. त्रिपुण्ड की तीन रेखाओं में 27 देवताओं का वास होता है. प्रत्येक रेखा में 9 देवताओं का वास होता हैं. त्रिपुण्ड धारण करने वालों पर शिव की विशेष कृपा होती है.
ये विचार मन में ना रखें कि त्रिपुण्ड केवल माथे पर ही लगाया जाता है. त्रिपुण्ड शरीर के कुल 32 अंगों पर लगाया जाता है क्योंकि अलग- अलग अंग पर लगाए जाने वाले त्रिपुण्ड का प्रभाव और महत्व भी अलग है. इन अंगों में मस्तक, ललाट, दोनों कान, दोनों नेत्र, दोनों कोहनी, दोनों कलाई, ह्रदय, दोनों पाश्र्व भाग, नाभि, दोनों घुटने, दोनों पिंडली और दोनों पैर शामिल हैं.
शरीर के हर हिस्से में देवताओं का वास माना गया है. मस्तक में शिव, केश में चंद्रमा, दोनों कानों में रुद्र और ब्रह्मा मुख में गणेश, दोनों भुजाओं में विष्णु और लक्ष्मी, ह्रदय में शंभू, नाभि में प्रजापति, दोनों उरुओं में नाग और नागकन्याएं, दोनों घुटनों में ऋषि कन्याएं, दोनों पैरों में समुद्र और विशाल पुष्ठभाग में सभी तीर्थ देवता रूप में रहते हैं.
भस्म जली हुई वस्तुओं की राख होता है लेकिन सभी राख भस्म के रूप में प्रयोग करने योग्य नहीं होती हैं. भस्म के तौर पर उन्हीं राख का प्रयोग करना चाहिए, जो पवित्र कार्य के लिए किये गये हवन या यज्ञ से प्राप्त हो. शिव पुराण के अनुसार जो व्यक्ति नियमित अपने माथे पर भस्म से त्रिपुण्ड यानी तीन रेखाएं सिर के एक सिरे से दूसरे सिरे तक धारण करता है, उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और व्यक्ति शिव कृपा का पात्र बन जाता है.
त्रिपुण्ड चंदन या भस्म से लगाया जाता है. चंदन और भस्म माथे को शीतलता प्रदान करता है. अधिक मानसिक श्रम करने से विचारक केंद्र में पीड़ा होने लगती है. ऐसे में त्रिपुण्ड ज्ञान-तंतुओं को शीतलता प्रदान करता है. इससे मानसिक शांति मिलती है.! ✨👁✨
ॐ नमः शिवाया ~ जय भोलेनाथ ~ हरी ॐ तत् सत!
[18:54, 6/4/2018] Kumar Mith: दोनों उरुओं में नाग और नागकन्याएं, दोनों घुटनों में ऋषि कन्याएं, दोनों पैरों में समुद्र और विशाल पुष्ठभाग में सभी तीर्थ देवता रूप में रहते हैं.
भस्म जली हुई वस्तुओं की राख होता है लेकिन सभी राख भस्म के रूप में प्रयोग करने योग्य नहीं होती हैं. भस्म के तौर पर उन्हीं राख का प्रयोग करना चाहिए, जो पवित्र कार्य के लिए किये गये हवन या यज्ञ से प्राप्त हो. शिव पुराण के अनुसार जो व्यक्ति नियमित अपने माथे पर भस्म से त्रिपुण्ड यानी तीन रेखाएं सिर के एक सिरे से दूसरे सिरे तक धारण करता है, उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और व्यक्ति शिव कृपा का पात्र बन जाता है.
त्रिपुण्ड चंदन या भस्म से लगाया जाता है. चंदन और भस्म माथे को शीतलता प्रदान करता है. अधिक मानसिक श्रम करने से विचारक केंद्र में पीड़ा होने लगती है. ऐसे में त्रिपुण्ड ज्ञान-तंतुओं को शीतलता प्रदान करता है. इससे मानसिक शांति मिलती है.! ✨👁✨
ॐ नमः शिवाया ~ जय भोलेनाथ ~ हरी ॐ तत् सत!
[19:58, 6/7/2018] Kumar Mith: इस पजल के लिए पीछे से हल करना आसान होगा।
छोटी बहन के यहाँ वो ( 5000 + 2000 )/2 = 3500 रकम लेकर आया होगा
मंझली बहन के यहां वो ( 3500 + 2000 )/2 = 2750 रकम लेकर आया होगा
इसी तरह बढ़ी बहन के यहाँ वो ( 2750 + 2000 ) / 2 = 2375 की रकम लेकर आया होगा
[20:53, 6/7/2018] Kumar Mith: जानें कुण्डलिनी चक्र कैसे आपके स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं
[20:53, 6/7/2018] Kumar Mith: चक्र को सिर्फ आध्यात्मिकता के साथ ही जोड़ा जाता है, लेकिन इनका प्रभाव हमारे शरीरिक स्वास्थ्य पर भी देखने को मिलता है। इसमें किसी एक चक्र में समस्या होने पर भी यह हमारे शरीर को सीधे तौर पर प्रभावित करता है।
[20:53, 6/7/2018] Kumar Mith: 2.स्वाधिस्तना (सेक्रल): इस चक्र के बंद होने के कारण व्यक्ति को कमर के नीचे काफी ज्यादा दर्द, पेशाब और किडनी में इन्फेक्शन, अल्सर, बांझपन, असामान्य माहवारी, भावनात्मक बदलाव देखने को मिलता है। ऐसा होने का कारण होता है उससे सम्बंधित अंगों में हार्मोन्स का असंतुलित होना, इसमें प्रमुख रूप से प्रोजेस्टेरोन और एस्ट्रोजेन, टेस्ट्स हार्मोन्स शामिल होते हैं। [ये भी पढ़ें: अध्यात्मिक होने के लिये जरुरी है खुुद से रुबरु होना]
[20:53, 6/7/2018] Kumar Mith: इन सात चक्रों का स्वास्थ पर पड़ने वाला प्रभाव:
1.मूलाधार (रूट): इस चक्र के बंद हो जाने के कारण व्यक्ति को थकावट, भूख में परिवर्तन, वित्तीय तनाव, उत्सुकता, घबराहट आदि जैसे समस्याएं होने लगती है। इसके पीछे का कारण होता है, इस चक्र से संबंधित अंगों में एड्रिनल नामक हार्मोन्स में असंतुलन होने लगता है जिसके कारण यह समस्याएं देखने को मिलती है।
[20:53, 6/7/2018] Kumar Mith: 3.मनिपुरा (सोलर प्लेक्सस) : मनिपुरा चक्र में बंद हो जाने के कारण डायबिटीज, अग्नाशयशोथ, भाटा, वजन के संबंधित समस्याएं, अल्सर, क्रोध आदि जैसी स्वास्थ्य सम्बंधित दिक्कतें होने लगती हैं। इन समस्याओं के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार पैंक्रियास से निकलने वाले हार्मोन्स होते हैं।
[20:53, 6/7/2018] Kumar Mith: 4. अनाहत ( हार्ट): अनाहत चक्र व्यक्ति के दिल, फेफड़े, बाहें, स्तन, ऊपरी पीठ, कंधों, पसलियों से संबंध रखता है। इस चक्र में बंद होने पर व्यक्ति को फेफड़े की समस्याएं, पाचन समस्याओं, कम ऊर्जा, ईर्ष्या, क्षमा करने में असमर्थता जैसी समस्याएं देखने को मिलती है। यह चक्र हमारे शरीर में पाए जाने वाले थाइमस नामक हार्मोन ऑर्गन से संबधित होता है।
[20:53, 6/7/2018] Kumar Mith: 5.विशुद्धा (थ्रोट): इस चक्र के बंद होने पर यह सीधे तौर पर व्यक्ति के गले और उसके आस-पास के हिस्से में समस्या देखने को मिलता है। इसके बंद होने पर गले में लंबे समय में तक दर्द रहता है, दांतों से जुड़ी समस्याएं होने लगती है और गर्दन में दर्द रहने लगता है। इस चक्र का संबंध हमारे गले के निचले हिस्से में पाया जाने वाला हार्मोन थाइरॉइड से होता है।
[20:53, 6/7/2018] Kumar Mith: सात चक्र और उससे संबंधित शारीरिक अंग
सात चक्र अंग मूलाधार – घुटना, एड़ियां, पैर, कुल्हे।स्वाधिस्तना – पीठ का निचला हिस्सा, बड़ी आंत, जननांग, मूत्राशय।मनिपुरा – लिवर ,पित्ताशय की थैली, गुर्दे और छोटी आंत।अनाहत – दिल, फेफड़े, हथियार, बाहें, स्तन, ऊपरी पीठ, कंधों, पसलियों।विशुद्धा – गले, गर्दन, जबड़े, दांत, कंधों, कान, मुंह।अजन – आँखें, सिर, मस्तिष्क, नाक, साइनस, माथे।सहस्रार – सिर।
[20:53, 6/7/2018] Kumar Mith: 6.अजन (थर्ड ऑय): इस चक्र का सम्बन्ध व्यक्ति के सिर और उसके आस-पास के अंगों जैसे नाक, आंख, माथा से होता है। अजन चक्र के बंद हो जाने के कारण व्यक्ति को सिर में दर्द, मेमोरी का कमजोर हो जाना, मानसिक रूप से थकावट अादि समस्याएं होने लगती है। इसका कारण होता है हमारे शरीर में पाए जाने वाले पिट्यूटरी हार्मोन के कारण होता है। 7.सहस्रार (क्राउन): यह चक्र व्यक्ति के शरीर में सबसे ऊपर का चक्र माना जाता है, जिसके बंद होने पर व्यक्ति को मानसिक विकार, डिप्रेशन, एंग्जायटी, सिरदर्द जैसे समस्याएं होने लगती है। जो हमारे शरीर में पीनल नामक हार्मोन के कारण होता है। [ये भी पढ़ें: उपाय जो आपके जीवन में लाएंगे अध्यात्मिकता का प्रकाश]
[11:24, 6/8/2018] Kumar Mith: मैंने एक कहानी सुनी है। एक आदमी को शिव की पूजा करते—करते और रोज शिव का सिर खाते—खाते...क्योंकि पूजा और क्या है, सिवाय सिर खाने के। एक ही धुन, एक ही रट हे प्रभु, कुछ ऐसी चीजें दे दो कि जिंदगी में मजा आ जाए। एक ही बार मांगता हूं। मगर देना कुछ ऐसा कि फिर मांगने को ही न रह जाए। परेशानी में, हैरान होकर, क्योंकि सुबह देखे न सांझ यह आदमी, न देखे रात, जब उठे तभी, आधी रात शिव के पीछे पड़ जाए। आखिर इसे वरदान में एक शंख शिव ने उठाकर दे दिया जो उन्हीं के पूजा स्थल में इसने रख छोड़ा था। और इसको कहा इस शंख की आज से यह खूबी है कि तुम इससे जो मांगोगे, तुम्हें देगा। अब तुम्हें कुछ और परेशान होने की जरूरत नहीं और पूजा—प्रार्थना की जरूरत नहीं। अब मुझे छुट्टी दो। जो तुम्हें चाहिए,वह इससे ही मांग लेना। यह तत्क्षण देगा। तुमने मांगा और मौजूद हुआ। उसने मांगकर देखा, सोने के रुपए और सोने के रुपए बरस गए। धन्यभाग हो गया। शिव न भी कहते तो भूल जाता। भूल—भाल गया शिव कहां गए, क्या हुआ, उन बेचारों पर क्या गुजरी, इस सब की कोई फिकर भी न रही। फिर न कोई पूजा थी, न कोई पाठ। फिर तो यह शंख था और जो चाहिए।
लेकिन एक मुसीबत हो गई। एक महात्मा इसके महल में मेहमान हुए। महात्मा के पास भी एक शंख था। इसके पास जो शंख था बिलकुल वैसा, लेकिन दो गुना बड़ा। और महात्मा उसे बड़े संभाल कर रखते था। उनके पास कुछ और न था। उनकी झोली में बस एक बड़ा शंख था। इसने पूछा कि आप इस शंख को इतना सम्हाल कर क्यों रखते हैं? उन्होंने कहा, यह कोई साधारण शंख नहीं, महाशंख, है। मांगों एक, देता है दो। कहो, बना दो एक महल—दो महल बताता है। एक की तो बात ही नहीं। हमेशा।
उस आदमी को लालच उठा। उसने कहा यह तो बड़े गजब की बात है। उसने कहा एक शंख तो मेरे पास भी है मगर छोटा मोटा। आपने नाहक मुझे दीन—दुखी बना दिया। मैं गरीब आदमी हो गया। जरा देखूं चमत्कार।
उन्होंने कहा, इसका चमत्कार देखना बड़ा मुश्किल है। रात के सन्नाटे में जब सब सो जाते हैं, तब निश्चित महूर्त में, अर्धरात्रि के सन्नाटों में इससे कुछ मांगने का नियम है। तुम जागते रहना और सुन लेना।
महात्मा शंख से ठीक अर्धरात्रि में कहा, दे दे कोहिनूर। उसने कहा, एक नहीं दूंगा, दो दूंगा। महात्मा ने कहा, भला सही दो दे दे। उसने कहा, दो नहीं चार। किससे बात कर रहा है, कुछ होश से बात करो! महात्मा ने कहा, भई चार ही दे दे। वह महाशंख बोला, अब आठ दूंगा। उस आदमी ने सुना, उसने कहा, हद हो गई, हम भी कहां का गरीब शंख लिए बैठे हैं! महात्मा के पैर पकड़ लिए। कहा आप तो महात्मा हैं, त्यागी व्रती हैं। इस गरीब का शंख आप ले लो, यह महाशंख मुझे दे दो।
महात्मा ने कहा, जैसी तुम्हारी मर्जी। हम तो इससे छुटकारा पाना ही चाहते थे। क्योंकि इस बेईमान ने हमें परेशान कर रखा है। मांगो कुछ, बकवास इतनी होती है, रात—रात गुजर जाती है। फिर भी वह न समझा कि मामला क्या है कि वह सिर्फ महाशंख था, कि वह सिर्फ बातचीत करता था, देता—वेता कुछ भी नहीं था। हमेशा संख्या दोहरी कर देता था। तुम कहो चार तो वह कहे आठ, तुम कहो आठ तो वह कहे सोलह। तुम कहो सोलह सही, वह कहे बत्तीस। तुम बोले संख्या कि उसने दो का गुणा किया। बस उसको दो का गुणा करना ही आता था। और उसको कुछ नहीं आता था।
महात्मा तो सुबह चले गए। जब इसने उस शंख से दूसरी रात्रि ठीक मुहूर्त में कुछ मांगा तो उसने कहा,अरे नालायक! क्या मांगता है एक? दूंगा दो। उसने कहा, भई दो दे दो। उसने कहा, दूंगा चार। चार ही दे दो। उसने कहा, दूंगा आठ। सुबह होने लगी। संख्या लंबी होने लगी। मोहल्ले के लोग इकट्ठे हो गए कि यह हो क्या रहा है? सारा मोहल्ला जग गया कि मामला क्या है संख्या बढ़ती जाती है, लेना…
[12:53, 6/8/2018] Kumar Mith: Sanjeev 2nd Floor
[11:42, 6/9/2018] Kumar Mith: कुछ भी ध्यान बन सकता है।
"काम वासना का उठना"
योनमुद्रा ध्यान-
काम -उर्जा को ध्यान में नियोजित कर,
तुरंत परिणाम देने वाला चमत्कारिक ध्यान प्रयोग।
ओशो इस ध्यान प्रयोग को 'योनमुद्रा' कहते हैं। और इस प्रयोग को तब करना है, जब किसी सुंदर चेहरे को देखकर मन को कामवासना पकड़े, और शरीर उत्तेजित हो, गहरी श्वास लेते हुए उर्जा को कामकेंद्र पर भेजने लगे।
तब इस प्रयोग को करना है।यानि इसे कहीं भी और कभी भी, जब मन कामातुर हो और शरीर को कामवासना घेरने लगे, तब इस ध्यान प्रयोग को करना है।
मन में कामवासना का विचार आते ही हमारा शरीर उसका अनुगमन करने लगता है। वह गहरी श्वास लेकर उर्जा को कामकेंद्र पर पहुंचाते हुए, कामवासना में उतरने की तैयारी करने लगता है, अर्थात मन में उठे कामवासना के 'विचार' को 'क्रिया' में परिवर्तित करने लगता है।
उर्जा यदि कामकेन्द्र पर पहुंच चुकी है, तो उसे लौटाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन भी है! जो उर्जा उठ चुकी है, यदि हम उसका उपयोग नहीं करेंगे तो वह अपना काम करेगी!
'सृजन' नहीं, तो 'विध्वंस'!
उर्ध्वगामी नहीं तो अधोगामी!
तो इस बाहर जाती उर्जा का, क्यों न हम भीतर के लिए उपयोग करें? साक्षी के लिए, ध्यान के लिए उपयोग करें?
कामवासना के पकड़ने पर पहले तो श्वास को धीमा करें, क्योंकि कामवासना में उतरने के लिए ज्यादा आक्सीजन की जरूरत होती है, इसलिए शरीर तेज श्वास लेने लगता है। यदि हम श्वास की इस लयबद्धता को तोड़ दें, यानि श्वास को धीमा लेना शुरू कर दें, तो कामवासना को उठने के पहले ही हम रोक देंगे।क्योंकि कामवासना को उठने के लिए श्वास की जितनी चोट मूलाधार चक्र पर होनी चाहिए, उतनी हम नहीं होने दे रहे हैं। यानि हम मालिक हो गए! हमने वासना को उसके मूल में ही रोक दिया। यदि हम कामवासना को उसके मूल में पकड़ सकते हैं तो यही बात क्रोध के संबंध में भी लागू हो सकती है! अर्थात यह ध्यान प्रयोग हमें अपने मन में उठने वाले भावों और विचारों पर मालकियत प्रदान करता है! भाव और विचारों के मालिक, यानि मन के मालिक। यहाँ आकर हम विचारों को देखने में समर्थ होंगे। अतः यहां आकर हमारा साक्षी में प्रवेश हो जाता हैं।
तो पहले श्वास को गहरी और धीमी कर लें। उतनी धीमी और गहरी, जितनी रात सोते समय नींद में होती है।
फिर आंखें बंद करके मूत्रद्वार और गुदाद्वार दोनों को भीतर सिकोड़ लें।
ठीक उसी तरह, जिस तरह से हम मल-मूत्र को रोकते हैं।
और अब आंखें बंद करके सारा ध्यान सिर में केन्द्रित करें। आँखें बंद करके सारा ध्यान सिर में लगा दें, जहां अंतिम सहस्त्रार चक्र है। सिर में उस जगह ध्यान केन्द्रित करना है जहां चुटिया होती है। यानी चुटिया वाली जगह को आंख बंद करके भीतर से देखना है।
ठीक उसी तरह से देखना है, जिस तरह मानो हम अपने कमरे में बैठे उपर छत को देख रहे हैं।
उर्जा हमारे भावों और विचारों से संचालित होती है। यानि जैसा भाव हम करेंगे, या जैसा विचार हम करेंगे, उसी दिशा में उर्जा नियोजित हो जाती है। यानि जहां हमारा ध्यान होगा उस दिशा में नियोजित होगी! तो क्यों न हम कामवासना वाले पहले मूलाधार चक्र से हटाकर राम वासना वाले सहस्त्रार चक्र पर ध्यान को लगा दें, ताकि उर्जा उस दिशा में बढने लगे।
हम चकित होंगे! यदि हम मूत्रद्वार और गुदाद्वार को भीतर सिकोड़ लेते हैं, जिसे योग में मूलबंध लगाना कहते हैं।
और आँखें बंद कर सारा ध्यान सिर में केन्द्रित करते हैं... और देखते रहते हैं... देखते रहते हैं... देखते रहते हैं... तो कुछ ही क्षणों में कामकेन्द्र पर उठी उर्जा, रीढ़ के माध्यम से चक्रों पर गति करती हुई सहस्त्रार की ओर बढ़ने लगती है, और कामकेंद्र शिथिल होने लगता है।…
[12:59, 6/11/2018] Kumar Mith: एक फकीर था। एक युवा फकीर था जपान के एक गांव में। उसकी बड़ी कीर्ति थी, उसकी बड़ी महिमा थी। सारा गांव उसे पूजता और आदर करता। उसके सम्मान में सारे गांव में गीत गाए जाते। लेकिन एक दिन सब बात बदल गई। गांव की एक युवती को गर्भ रह गया और उसे बच्चा हो गया। और उस युवती को घर के लोगों ने पूछा कि किसका बच्चा है, तो उसने उस साधु का नाम ले दिया कि उस युवा फकीर का यह बच्चा है। फिर देर कितनी लगती है, प्रशंसक शत्रु बनने में कितनी देर लेते हैं? जरा सी भी देर नहीं लेते, क्योंकि प्रशंसक के मन में हमेशा भीतर तो निंदा छिपी रहती है। मौके की तलाश करती है, जिस दिन प्रशंसा खत्म हो जाए उस दिन निंदा शुरू हो जाती है। आदर देने वाले लोग, एक क्षण में अनादर देना शुरू कर देते हैं। पैर छूने वाले लोग, एक क्षण में सिर काटना शुरू कर देते हैं, इसमें कोई भेद नहीं है इन दोनों में। यह एक ही आदमी की दो शक्लें हैं।
वे सारे गांव के लोग फकीर के झोपड़े पर टूट पड़े। इतने दिनों का सप्रेस था भीतर, इतनी श्रद्धा दी थी तो दिल में तो क्रोध इकट्ठा हो ही गया था कि यह आदमी बड़ी श्रद्धा लिए जा रहा है! आज अश्रद्धा देने का मौका मिला था तो कोई भी पीछे नहीं रहना चाहता था। उन्होंने जाकर उस फकीर के झोपड़े पर आग लगा दी। और जाकर उस बच्चे को, एक दिन के बच्चे को उस फकीर के ऊपर पटक दिया।
उस फकीर ने पूछा कि बात क्या है? तो उन लोगों ने कहा यह भी हमसे पूछते हो कि बात क्या है? यह बच्चा तुम्हारा है, यह भी हमें बताना पड़ेगा कि बात क्या है? अपने जलते मकान को देखो, और अपने भीतर दिल को देखो, और इस बच्चे को देखो, और इस लड़की को देखो। हमसे पूछने की जरूरत नहीं, यह बच्चा तुम्हारा है।
वह फकीर बोला इज इट सो? ऐसी बात है, बच्चा मेरा है? वह बच्चा रोने लगा तो उस बच्चे को वह चुप कराने के लिए गीत गाने लगा। वे लोग उसका मकान जला कर वापस लौट गए। फिर वह अपने रोज के समय पर, दोपहर हुई और भीख मांगने निकला। लेकिन आज उस गांव में उसे कौन भीख देगा? आज जिस द्वार पर भी वह खड़ा हुआ, वह द्वार बंद हो गया। आज उसके पीछे बच्चों की टोली और लोगों की भीड़ चलने लगी, मजाक करती, पत्थर फेंकती। वह उस घर के सामने पहुंचा जिस घर की वह लड़की थी और जिस लड़की का वह बच्चा था। उसने वहां आवाज दी और उसने कहा कि मेरे लिए भीख मिले न मिले, लेकिन इस बच्चे के लिए तो दूध मिल जाए! मेरा कसूर भी हो सकता है, लेकिन इस बेचारे का क्या कसूर हो सकता है?
वह बच्चा रो रहा है, भीड़ वहां खड़ी है। उस लड़की के सहनशीलता के बाहर हो गई बात। वह अपने पिता के पैर पर गिर पड़ी और उसने कहा : मुझे माफ करें, मैंने साधु का नाम झूठा ही ले दिया। उस बच्चे के असली बाप को बचाने के लिए मैंने सोचा कि साधु का नाम ले दूं। साधु से मेरा कोई परिचय भी नहीं है।
बाप तो घबड़ा आया। यह तो बड़ी दुर्घटना हो गई। वह नीचे भागा हुआ आया, फकीर के पैर पर गिर पड़ा और उससे बच्चा छीनने लगा।
और उस फकीर ने पूछा : बात क्या है? उसके बाप ने कहा : माफ करें, भूल हो गई, यह बच्चा आपका नहीं है। उस फकीर ने पूछा : इज इट सो। ऐसी बात है कि यह बच्चा मेरा नहीं है? तो उस बाप ने, उस गांव के लोगों ने कहा. पागल हो तुम! तुमने सुबह ही क्यों नहीं इनकार किया? उस फकीर ने कहा. इससे क्या फर्क पड़ता था, बच्चा किसी न किसी का होगा ही। और एक झोपड़ा तुम जला ही चुके थे। अब तुम दूसरा जलाते। और एक आदमी को तुम बदनाम करने का मजा ले ही चुके थे, तुम एक आदमी को और बदनाम करने का मजा लेते। इससे क्या फर्क पड़ता था? बच्चा किसी न किसी का होगा, मेरा भी हो सकता है; इसमें क्या हर्जा! इसमें क्या फर्क क्या पड़ गया? तो लोगों ने कहा : तुम्हें इतनी भी समझ …
[13:54, 6/11/2018] Kumar Mith: बिना किसी समस्या के जीवन भर तंदरुस्त रहने का सबसे अच्छा, सुरक्षित, आसान और स्वस्थ तरीका योग है। इसके लिए केवल शरीर के क्रियाकलापों और श्वास लेने के सही तरीकों का नियमित अभ्यास करने की आवश्यकता है। यह शरीर के तीन मुख्य तत्वों; शरीर, मस्तिष्क और आत्मा के बीच संपर्क को नियमित करना है। यह शरीर के सभी अंगों के कार्यकलाप को नियमित करता है और कुछ बुरी परिस्थितियों और अस्वास्थ्यकर जीवन-शैली के कारण शरीर और मस्तिष्क को परेशानियों से बचाव करता है। यह स्वास्थ्य, ज्ञान और आन्तरिक शान्ति को बनाए रखने में मदद करता है। अच्छे स्वास्थ्य प्रदान करने के द्वारा यह हमारी भौतिक आवश्यकताओं को पूरा करता है, ज्ञान के माध्यम से यह मानसिक आवश्यकताओं को पूरा करता है और आन्तरिक शान्ति के माध्यम से यह आत्मिक आवश्यकता को पूरा करता है, इस प्रकार यह हम सभी के बीच सामंजस्य बनाए रखने में मदद करता है।
सुबह को योग का नियमित अभ्यास हमें अनगिनत शारीरिक और मानसिक तत्वों से होने वाली परेशानियों को दूर रखने के द्वारा बाहरी और आन्तरिक राहत प्रदान करता है। योग के विभिन्न आसन मानसिक और शारीरिक मजबूती के साथ ही अच्छाई की भावना का निर्माण करते हैं। यह मानव मस्तिष्क को तेज करता है, बौद्धिक स्तर को सुधारता है और भावनाओं को स्थिर रखकर उच्च स्तर की एकाग्रता में मदद करता है। अच्छाई की भावना मनुष्य में सहायता की प्रकृति के निर्माण करती है और इस प्रकार, सामाजिक भलाई को बढ़ावा देती है। एकाग्रता के स्तर में सुधार ध्यान में मदद करता है और मस्तिष्क को आन्तरिक शान्ति प्रदान करता है। योग प्रयोग किया गया दर्शन है, जो नियमित अभ्यास के माध्यम से स्व-अनुशासन और आत्म जागरुकता को विकसित करता है।
योग का अभ्यास किसी के भी द्वारा किया जा सकता है, क्योंकि आयु, धर्म या स्वस्थ परिस्थितियों परे है। यह अनुशासन और शक्ति की भावना में सुधार के साथ ही जीवन को बिना किसी शारीरिक और मानसिक समस्याओं के स्वस्थ जीवन का अवसर प्रदान करता है। पूरे संसार में इसके बारे में जागरुकता को बढ़ावा देने के लिए, भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने, संयुक्त संघ की सामान्य बैठक में 21 जून को अन्तरराष्ट्रीय योग दिवस के रुप में मनाने की घोषणा करने का सुझाव दिया था, ताकि सभी योग के बारे में जाने और इसके प्रयोग से लाभ लें। योग भारत की प्राचीन परम्परा है, जिसकी उत्पत्ति भारत में हुई थी और योगियों के द्वारा तंदरुस्त रहने और ध्यान करने के लिए इसका निरन्तर अभ्यास किया जाता है। निक जीवन में योग के प्रयोग के लाभों को देखते हुए संयुक्त संघ की सभा ने 21 जून को अन्तरराष्ट्रीय योग दिवस या विश्व योग दिवस के रुप में मनाने की घोषणा कर दी है।
हम योग से होने वाले लाभों की गणना नहीं कर सकते हैं, हम इसे केवल एक चमत्कार की तरह समझ सकते हैं, जिसे मानव प्रजाति को भगवान ने उपहार के रुप में प्रदान किया है। यह शारीरिक तंदरुस्ती को बनाए रखता है, तनाव को कम करता है, भावनाओं को नियंत्रित करता है, नकारात्मक विचारों को नियंत्रित करता है और भलाई की भावना, मानसिक शुद्धता, आत्म समझ को विकसित करता है साथ ही प्रकृति से जोड़ता है।
[13:57, 6/11/2018] Kumar Mith: दोस्तों , आज की तेज रफ्तार जिंदगी में अनेक ऐसे पल हैं जो हमारी स्पीड पर ब्रेक लगा देते हैं। हमारे आस-पास ऐसे अनेक कारण विद्यमान हैं जो तनाव, थकान तथा चिड़चिड़ाहट को जन्म देते हैं, जिससे हमारी जिंदगी अस्त-व्यस्त हो जाती है। ऐसे में जिंदगी को स्वस्थ तथा ऊर्जावान बनाये रखने के लिये योग एक ऐसी रामबाण दवा है जो, माइंड को कूल तथा बॉडी को फिट रखता है। योग से जीवन की गति को एक संगीतमय रफ्तार मिल जाती है।
[14:00, 6/11/2018] Kumar Mith: दोस्तों , आज की तेज रफ्तार जिंदगी में अनेक ऐसे पल हैं जो हमारी स्पीड पर ब्रेक लगा देते हैं। हमारे आस-पास ऐसे अनेक कारण विद्यमान हैं जो तनाव, थकान तथा चिड़चिड़ाहट को जन्म देते हैं, जिससे हमारी जिंदगी अस्त-व्यस्त हो जाती है। ऐसे में जिंदगी को स्वस्थ तथा ऊर्जावान बनाये रखने के लिये योग एक ऐसी रामबाण दवा है जो, माइंड को कूल तथा बॉडी को फिट रखता है। योग से जीवन की गति को एक संगीतमय रफ्तार मिल जाती है।
योग हमारी भारतीय संस्कृति की प्राचीनतम पहचान है। संसार की प्रथम पुस्तक ऋग्वेद में कई स्थानों पर यौगिक क्रियाओं के विषय में उल्लेख मिलता है। भगवान शंकर के बाद वैदिक ऋषि-मुनियों से ही योग का प्रारम्भ माना जाता है। बाद में कृष्ण, महावीर और बुद्ध ने इसे अपनी तरह से विस्तार दिया। इसके पश्चात पतंजली ने इसे सुव्यवस्थित रूप दिया।
पतंजली योग दर्शन के अनुसार – योगश्चित्तवृत्त निरोधः
अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है।
योग धर्म, आस्था और अंधविश्वास से परे एक सीधा विज्ञान है… जीवन जीने की एक कला है योग। योग शब्द के दो अर्थ हैं और दोनों ही महत्वपूर्ण हैं।
पहला है- जोड़ और दूसरा है समाधि।
जब तक हम स्वयं से नहीं जुड़ते, समाधि तक पहुँचना कठिन होगा अर्थात जीवन में सफलता की समाधि पर परचम लहराने के लिये तन, मन और आत्मा का स्वस्थ होना अति आवश्यक है और ये मार्ग और भी सुगम हो सकता है, यदि हम योग को अपने जीवन का हिस्सा बना लें। योग विश्वास करना नहीं सिखाता और न ही संदेह करना और विश्वास तथा संदेह के बीच की अवस्था संशय के तो योग बिलकुल ही खिलाफ है। योग कहता है कि आपमें जानने की क्षमता है, इसका उपयोग करो।
अनेक सकारात्मक ऊर्जा लिये योग का गीता में भी विशेष स्थान है। भगवद्गीता के अनुसार –
सिद्दध्यसिद्दध्यो समोभूत्वा समत्वंयोग उच्चते
अर्थात् दुःख-सुख, लाभ-अलाभ, शत्रु-मित्र, शीत और उष्ण आदि द्वन्दों में सर्वत्र समभाव रखना योग है।
महात्मा गांधी ने अनासक्ति योग का व्यवहार किया है। योगाभ्यास का प्रामाणिक चित्रण लगभग 3000 ई.पू. सिन्धु घाटी सभ्यता के समय की मोहरों और मूर्तियों में मिलता है। योग का प्रामाणिक ग्रंथ ‘योग सूत्र’ 200 ई.पू. योग पर लिखा गया पहला सुव्यवस्थित ग्रंथ है।
ओशो के अनुसार, ‘योग धर्म, आस्था और अंधविश्वास से परे एक सीधा प्रायोगिक विज्ञान है। योग जीवन जीने की कला है। योग एक पूर्ण चिकित्सा पद्धति है। एक पूर्ण मार्ग है-राजपथ। दरअसल धर्म लोगों को खूँटे से बाँधता है और योग सभी तरह के खूँटों से मुक्ति का मार्ग बताता है।’
प्राचीन जीवन पद्धति लिये योग, आज के परिवेश में हमारे जीवन को स्वस्थ और खुशहाल बना सकते हैं। आज के प्रदूषित वातावरण में योग एक ऐसी औषधि है जिसका कोई साइड इफेक्ट नहीं है, बल्कि योग के अनेक आसन जैसे कि, शवासन हाई ब्लड प्रेशर को सामान्य करता है, जीवन के लिये संजीवनी है कपालभाति प्राणायाम, भ्रामरी प्राणायाम मन को शांत करता है, वक्रासन हमें अनेक बीमारियों से बचाता है। आज कंप्यूटर की दुनिया में दिनभर उसके सामने बैठ-बैठे काम करने से अनेक लोगों को कमर दर्द एवं गर्दन दर्द की शिकायत एक आम बात हो गई है, ऐसे में शलभासन तथा तङासन हमें दर्द निवारक दवा से मुक्ति दिलाता है। पवनमुक्तासन अपने नाम के अनुरूप पेट से गैस की समस्या को दूर करता है। गठिया की समस्या को मेरूदंडासन दूर करता है। योग में ऐसे अनेक आसन हैं जिनको जीवन में अपनाने से कई बीमारियां समाप्त हो जाती हैं और खतरनाक बीमारियों का असर भी कम हो जाता है। 24 घंटे में से महज कुछ मिनट का ही प्रयोग यदि योग में उपयोग करते हैं तो अपनी सेहत को हम चुस्त-दुरुस्त रख सकते हैं। फिट रहने के साथ ही …
[18:56, 6/12/2018] Kumar Mith: लेकिन खोजना और मांगना दो अलग बातें हैं। असल में, जो खोजना नहीं चाहता वही मांगता है। खोजना और मांगना एक तो हैं ही नहीं, विपरीत बातें हैं। खोजने से जो बचना चाहता है वह मांगता है, खोजी कभी नहीं मांगता। और खोज और मांगने की प्रक्रिया बिलकुल अलग है। मांगने में दूसरे पर ध्यान रखना पड़ेगा—जिससे मिलेगा। और खोजने में अपने पर ध्यान रखना पड़ेगा—जिसको मिलेगा।
यह तो ठीक है कि साधक के मार्ग पर बाधाएं हैं। लेकिन साधक के मार्ग पर बाधाएं हैं, अगर हम ठीक से समझें तो इसका मतलब होता है कि साधक के भीतर बाधाएं हैं; मार्ग भी भीतर है। और अपनी बाधाओं को समझ लेना बहुत कठिन नहीं है। तो इस संबंध में थोड़ी सी विस्तीर्ण बात करनी पड़ेगी कि बाधाएं क्या हैं और साधक उन्हें कैसे दूर कर सकेगा।
जैसे मैंने कल सात शरीरों की बात कही, उस संबंध में कुछ और बात समझेंगे तो यह भी समझ में आ सकेगा।
मूलाधार चक्र की संभावनाएं:
जैसे सात शरीर हैं, ऐसे ही सात चक्र भी हैं। और प्रत्येक एक चक्र मनुष्य के एक शरीर से विशेष रूप से जुड़ा हुआ है। जैसे सात शरीर में जो हमने कहे— भौतिक शरीर, फिजिकल बॉडी, इस शरीर का जो चक्र है, वह मूलाधार है; वह पहला चक्र है। इस मूलाधार चक्र का भौतिक शरीर से केंद्रीय संबंध है; यह भौतिक शरीर का केंद्र है। इस मूलाधार चक्र की दो संभावनाएं हैं एक इसकी प्राकृतिक संभावना है, जो हमें जन्म से मिलती है; और एक साधना की संभावना है, जो साधना से उपलब्ध होती है।
मूलाधार चक्र की प्राथमिक प्राकृतिक संभावना कामवासना है, जो हमें प्रकृति से मिलती है; वह भौतिक शरीर की केंद्रीय वासना है। अब साधक के सामने पहला ही सवाल यह उठेगा कि यह जो केंद्रीय तत्व है उसके भौतिक शरीर का, इसके लिए क्या करे? और इस चक्र की एक दूसरी संभावना है, जो साधना से उपलब्ध होगी, वह ब्रह्मचर्य है। सेक्स इसकी प्राकृतिक संभावना है और ब्रह्मचर्य इसका ट्रांसफामेंशन है, इसका रूपांतरण है। जितनी मात्रा में चित्त कामवासना से केंद्रित और ग्रसित होगा, उतना ही मूलाधार अपनी अंतिम संभावनाओं को उपलब्ध नहीं कर सकेगा। उसकी अंतिम संभावना ब्रह्मचर्य है। उस चक्र की दो संभावनाएं हैं एक जो हमें प्रकृति से मिली, और एक जो हमें साधना से मिलेगी।
न भोग, न दमन—वरन जागरण:
अब इसका मतलब यह हुआ कि जो हमें प्रकृति से मिली है उसके साथ हम दो काम कर सकते हैं या तो जो प्रकृति से मिला है हम उसमें जीते रहें, तब जीवन में साधना शुरू नहीं हो पाएगी; दूसरा काम जो संभव है वह यह कि हम इसे रूपांतरित करें। रूपांतरण के पथ पर जो बड़ा खतरा है, वह खतरा यही है कि कहीं हम प्राकृतिक केंद्र से लड़ने न लगें। साधक के मार्ग में खतरा क्या है? या तो जो प्राकृतिक व्यवस्था है वह उसको भागे, तब वह उठ नहीं पाता उस तक जो चरम संभावना है—जहां तक उठा जा सकता था; भौतिक शरीर जहां तक उसे पहुंचा सकता था वहां तक वह नहीं पहुंच पाता; जहां से शुरू होता है वहीं अटक जाता है। तो एक तो भोग है। दूसरा दमन है, कि उससे लड़े। दमन बाधा है साधक के मार्ग पर— पहले केंद्र की जो बाधा है। क्योंकि दमन के द्वारा कभी ट्रांसफामेंशन, रूपांतरण नहीं होता।
दमन बाधा है तो फिर साधक क्या बनेगा? साधन क्या होगा?
समझ साधन बनेगी, अंडरस्टैंडिंग साधन बनेगी। कामवासना को जो जितना समझ पाएगा उतना ही उसके भीतर रूपांतरण होने लगेगा। उसका कारण है. प्रकृति के सभी तत्व हमारे भीतर अंधे और मूर्च्छित हैं। अगर हम उन तत्वों के प्रति होशपूर्ण हो जाएं तो उनमें रूपांतरण होना शुरू हो जाता है। जैसे ही हमारे भीतर कोई चीज जागनी शुरू होती है वैसे ही प्रकृति के तत्व बदलने शुरू हो जाते हैं। जागरण कीमिया है, अवेयरनेस केमिस्ट्री है उ…
[18:58, 6/12/2018] Kumar Mith: मणिपुर चक्र की संभावनाएं:
तीसरा शरीर मैंने कहा, एस्ट्रल बॉडी है, सूक्ष्म शरीर है। उस सूक्ष्म शरीर के भी दो हिस्से हैं। प्राथमिक रूप से सूक्ष्म शरीर संदेह, विचार, इनके आसपास रुका रहता है। और अगर ये रूपांतरित हो जाएं—संदेह अगर रूपांतरित हो तो श्रद्धा बन जाता है; और विचार अगर रूपांतरित हो तो विवेक बन जाता है।
संदेह को किसी ने दबाया तो वह कभी श्रद्धा को उपलब्ध नहीं होगा। हालांकि सभी तरफ ऐसा समझाया जाता है कि संदेह को दबा डालो, विश्वास कर लो। जिसने संदेह को दबाया और विश्वास किया, वह कभी श्रद्धा को उपलब्ध नहीं होगा; उसके भीतर संदेह मौजूद ही रहेगा— दबा हुआ; भीतर कीड़े की तरह सरकता रहेगा और काम करता रहेगा। उसका विश्वास संदेह के भय से ही थोपा हुआ होगा।
न, संदेह को समझना पड़ेगा, संदेह को जीना पड़ेगा, संदेह के साथ चलना पड़ेगा। और संदेह एक दिन उस जगह पहुंचा देता है, जहां संदेह पर भी संदेह हो जाता है। और जिस दिन संदेह पर संदेह होता है उसी दिन श्रद्धा की शुरुआत हो जाती है। विचार को छोड्कर भी कोई विवेक को उपलब्ध नहीं हो सकता। विचार को छोड़नेवाले लोग हैं, छुड़ानेवाले लोग हैं; वे कहते हैं—विचार मत करो, विचार छोड़ ही दो। अगर कोई विचार छोड़ेगा, तो विश्वास और अंधे विश्वास को उपलब्ध होगा। वह विवेक नहीं है। विचार की सूक्ष्मतम प्रक्रिया से गुजरकर ही कोई विवेक को उपलब्ध होता है।
विवेक का क्या मतलब है?
विचार में सदा ही संदेह मौजूद है। विचार सदा इनडिसीसिव है। इसलिए बहुत विचार करनेवाले लोग कभी कुछ तय नहीं कर पाते। और जब भी कोई कुछ तय करता है, वह तभी तय कर पाता है जब विचार के चक्कर के बाहर होता है। डिसीजन जो है वह हमेशा विचार के बाहर से आता है। अगर कोई विचार में पड़ा रहे तो वह कभी निश्चय नहीं कर पाता। विचार के साथ निश्चय का कोई संबंध नहीं है।
इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि विचारहीन बड़े निश्चयात्मक होते हैं, और विचारवान बड़े निश्चयहीन होते हैं। दोनों से खतरा होता है। क्योंकि विचारहीन बहुत डिसीसिव होते हैं। वे जो करते हैं, पूरी ताकत से करते हैं। क्योंकि उनमें विचार होता ही नहीं जो जरा भी संदेह पैदा कर दे। दुनिया भर के डाग्मेटिक, अंधे जितने लोग हैं, फेनेटिक जितने लोग हैं, ये बड़े कर्मठ होते हैं; क्योंकि इनमें शक का तो सवाल ही नहीं है, ये कभी विचार तो करते नहीं। अगर इनको ऐसा लगता है कि एक हजार आदमी मारने से स्वर्ग मिलेगा, तो एक हजार एक मारकर ही फिर रुकते हैं, उसके पहले वे नहीं रुकते। एक दफा उनको खयाल नहीं आता कि यह ऐसा— ऐसा होगा? उनमें कोई इनडिसीजन नहीं है। विचारवान तो सोचता ही चला जाता है, सोचता ही चला जाता है।
तो विचार के भय से अगर कोई विचार का द्वार ही बंद कर दे, तो सिर्फ अंधे विश्वास को उपलब्ध होगा। अंधा विश्वास खतरनाक है और साधक के मार्ग में बड़ी बाधा है। चाहिए आंखवाला विवेक, चाहिए ऐसा विचार जिसमें डिसीजन हो। विवेक का मतलब इतना ही होता है। विवेक का मतलब है कि विचार पूरा है, लेकिन विचार से हम इतने गुजरे हैं कि अब विचार की जो भी संदेह की, शक की बातें थीं, वे विदा हो गई हैं; अब धीरे— धीरे निष्कर्ष में शुद्ध निश्चय साथ रह गया है।
तो तीसरे शरीर का केंद्र है मणिपुर, चक्र है मणिपुर। उस मणिपुर चक्र के ये दो रूप हैं. संदेह और श्रद्धा। संदेह रूपांतरित होगा तो श्रद्धा बनेगी।
लेकिन ध्यान रखें श्रद्धा संदेह के विपरीत नहीं है, शत्रु नहीं है, श्रद्धा संदेह का ही शुद्धतम विकास है, चरम विकास है; वह आखिरी छोर है जहां संदेह का सब खो जाता है, क्योंकि संदेह स्वयं पर संदेह बन जाता है और स्युसाइडल हो जाता है, आत्मघात कर लेता है और श्रद्धा उपलब्ध होती है।
अनाहत चक्र की संभ…
[10:07, 6/16/2018] Kumar Mith: चिन्मय मुद्रा Chinmaya Mudra
इस मुद्रा में अंगूठा और तर्जनी चिन मुद्रा की तरह एक दूसरे को स्पर्श करते हैं, शेष उंगलियाँ मुड़कर हथेली को स्पर्श करती हैं|
हाथों को जाँघो पर हथेलियों को आकाश की ओर करके रखे और लंबी गहरी उज्जयी साँसे लें|
एक बार फिर साँस के प्रवाह और शरीर पर इसके प्रभाव को महसूस करें|
चिन्मय मुद्रा के लाभ |Benefits of Chinmaya Mudra
शरीर में ऊर्जा के प्रवाह को सुचारित करती है
पाचन शक्ति हो बढ़ती है
[10:09, 6/16/2018] Kumar Mith: चिन मुद्रा Chin Mudra |
अपनी तर्जनी व अंगूठे को हल्के से स्पर्श करे और शेष तीनो उंगलियों को सीधा रखे|
अंगूठे व तर्जनी एक दूसरे हो हल्के से ही बिना दबाव के स्पर्श करें|
तीनो फैली उंगलियों को जितना हो सके सीधा रखे|
हाथों को जंघा पर रख सकते हैं, हथेलियों को आकाश की ओर रखे|
अब सांसो के प्रवाह व इसके शरीर पर प्रभाव पर ध्यान दें|
चिन मुद्रा के लाभ |Benefits of Chin Mudra
बेहतर एकाग्रता और स्मरण शक्ति
नींद में सुधार
शरीर में ऊर्जा की वृद्धि
कमर के दर्द में आराम
[23:37, 6/19/2018] Kumar Mith: 😃😃😃😃
गाव की पत्नी अपने पति को पीट रही थी ।
पडोसन बोली : "क्यों मार रही हो बेचारे को...??"
पत्नी बोली : "बेचारे नहीं हे ये !"
इसे फोन किया था तो एक लड़की बोली..
"जिस व्यक्ति से आप संपर्क करना चाहते हे वह अभी व्यस्त है... !"
😃😃😜😍😝
[15:58, 6/21/2018] Kumar Mith: पता है तुम्हारी और हमारी
मुस्कान में फ़र्क क्या है?
तुम खुश हो कर मुस्कुराते हो,
हम तुम्हे खुश देख के मुस्कुराते हैं..
[16:00, 6/21/2018] Kumar Mith: किसी को चाहो तो इस अंदाज़ से चाहो,
कि वो तुम्हे मिले या ना मिले,
मगर उसे जब भी प्यार मिले,
तो तुम याद आओ.
[16:03, 6/21/2018] Kumar Mith: Tere jism pe apne jism ko rakhu
Tere honton ko apne honton se maslu
Tujhe pyar main itni shiddat se karu
Ki us mithe dard se teri aah nikal jaye,
Dard se teri aankho se aasu jhalak jaye
Or tu tan se or mann se sirf meri ho jaye
Badan se tere lipta rahon or subha ho jaye
Subha tujse jb main puchu teri raat ka aalam
Tu sharma kar mere seene se lipat jaye…!
[23:28, 6/22/2018] Kumar Mith: तुम्हारे नाम जैसी, छलकते जाम जैसी
मुहब्बत सी नशीली शरद की चाँदनी है।
ह्रदय को मोहती है, प्रणय संगीत जैसी
नयन को सोहती है, सपन के मीत जैसी,
तुम्हारे रूप जैसी, वसंती धूप जैसी
मधुस्मृति सी रसीली शरद की चाँदनी है।
चाँदनी खिल रही है तुम्हारे हास जैसी,
उमंगें भर रही है मिलन की आस जैसी,
प्रणय की बाँह जैसी, अलक की छाँह जैसी
प्रिये, तुम सी लजीली शरद की चाँदनी है।
हुई है क्या ना जाने अनोखी बात जैसी
भरे पुलकन बदन में प्रथम मधु रात जैसी,
हँसी दिल खोल पुनम, गया अब हार संयम
वचन से भी हठीली शरद की चाँदनी है।
तुम्हारे नाम जैसी, छलकते जाम जैसी
मुहब्बत सी नशीली, शरद की चाँदनी है।
[11:07, 6/23/2018] Kumar Mith: चौथा प्रश्न : भगवान ,
एक बात मेरी समझ में नहीं आती कि जैसे आप बैठते हैं
ठीक वैसे ही पूरे दो घंटा बैठे रहते हैं ।
आपके शरीर का कोई अंग हिलता ही नहीं ,
केवल एक हाथ हिलता है ।
और हम पांच मिनिट भी शांत नहीं बैठ पाते ।
● अमृत कृष्ण ,
वह एक हाथ भी तुम्हारी वजह से हिलाना पड़ता है ।
तुम्हारी अशांति के कारण । नहीं तो उसको भी हिलाने की
कोई जरूरत नहीं है । तुम अगर शांत बैठ जाओ तो वह
हाथ भी न हिले ।
तुम्हारा मन अशांत है तो उसकी प्रतिछाया शरीर पर पड़ती
है । तुम्हारा शरीर तो तुम्हारे मन के अनुकूल होता है ;
उसकी छाया है ।
आनंद ने बुद्ध से पूछा है कि आप जैसे सोते हैं ,
जिस करवट सोते हैं , रात भर उसी करवट सोए रहते हैं !
आनंद कई रात बैठ कर देखता रहा - यह कैसे होता होगा !
स्वाभाविक है उसकी जिज्ञासा । उसने कहा : ' मैंने हर
तरह से आपको जांचा । आप जैसे सोते हैं , पैर जिस पैर
पर रख लिया , रात भर रखे रहते हैं ।
आप सोते हैं कि रात में यह भी हिसाब लगाए रखते हैं कि
पांव उसी पर रहे , बदले नहीं । करवट नहीं बदलते !
बुद्ध ने कहा : ' आनंद , जब मन शांत हो जाए तो शरीर को
अशांत रहने का कोई कारण नहीं रह जाता । '
मुझे कोई चेष्टा नहीं करनी पड़ रही है यूं बैठने में ।
मगर कोई जरूरत नहीं है । लोग बैठे-बैठे करवटें बदलते
रहते हैं । लोग कुर्सी पर बैठे रहते हैं और पैर चलाते रहते
हैं , पैर हिलाते रहते हैं ; जैसे चल रहे हों !
जैसे साइकिल चला रहे हों ! बैठे कुर्सी पर हैं , मगर उनके
प्राण भीतर भागे जा रहे हैं ।
मन चंचल है , मन गतिमान है । उसकी छाया शरीर पर ही
पडे़गी । जब मन शांत हो जाएगा तो शरीर भी शांत हो
जाएगा । जरूरत होगी तो हिलाओगे , नहीं जरूरत होगी
तो क्या हिलाना है ? इसमें कुछ रहस्य नहीं है ,
सीधी-सादी बात है यह ।
तुम जरूर अशांत होते हो । वह मैं जानता हूं ।
पांच मिनिट भी शांत बैठना मुश्किल है ।
असल में पांच मिनिट भी अगर तुम शांत बैठना चाहो तो
हजार बाधाएं आती हैं । कहीं पैर में झुनझुनी चढे़गी ,
कहीं पैर मुर्दा होने लगेगा , कहीं पीठ में चींटियां चढ़ने
लगेंगी । और खोजोगे तो कोई चींटी वगैरह नहीं है !
बडा़ मजा यह है ! कई दफा देख चुके कि चींटी वगैरह
कुछ भी नहीं है , मगर कल्पित चींटियां चढ़ने लगती हैं ।
न मालूम कहां-कहां के खयाल आएंगे !
हजार-हजार तरह की बातें उठेंगी कि यह कर लूं
वह कर लूं , इधर देख लूं उधर देख लूं ।
मन कहेगा : 'क्या बुध्दू की तरह बैठे हो !
अरे उठो , कुछ कर गुजरो ! चार दिन की जिंदगी है ,
ऐसे ही चले जाओगे ? इतिहास के पृष्ठों पर स्वर्ण-अक्षरों में
नाम लिख जाए , ऐसा कुछ कर जाओ ।
ऐसे बैठे रहे तो चूक जाओगे । दूसरे हाथ मारे ले रहे हैं । '
तुम्हारा मन भागा-भागा है , इसलिए शरीर भागा-भागा है ।
और लोग क्या करते हैं ? लोग उल्टा करते हैं ।
लोग शरीर को थिर करने की कोशिश करते हैं ।
इसलिए लोग योगासन सीखते हैं कि शरीर को थिर कर लें ,
तो मन थिर हो जाएगा । वे उल्टी बात करने की कोशिश
कर रहे हैं । यह नहीं हो सकता ।
शरीर को थिर करने से मन थिर नहीं होता ।
मन थिर हो जाए तो शरीर अपने से थिर हो जाता है ।
मैंने कभी कोई योगासन नहीं सीखे ।
जरूरत ही नहीं है । ध्यान पर्याप्त है । और शरीर को अगर
बिठालने की कोशिश में लगे रहे तो सफल हो सकते हो ।
सरकस में लोग सफल हो जाते हैं , मगर उनको तुम योगी
समझते हो ? सरकस में लोग शरीर से क्या-क्या नहीं
कर गुजरते ! सब कुछ करके दिखला देते हैं ।
लेकिन उससे तुम यह मत समझ लेना कि वे योगी हो गए ।
उनकी जिंदगी वही है , जो तुम्हारी है ।
शायद उससे गयी-बीती हो ।
तुम अगर आसन भी सीख गए तो भी कुछ न होगा ।
लेकिन अगर भीतर मन ठहर गया तो सब…
[18:08, 6/23/2018] Kumar Mith: कुछ तो है तेरे - मेरे दरम्यां
वरना ज़िन्दगी इतनी ख़ुशगवार कैसे होती
बेपरवाह होके तुम्हें देखा किये
तुम न होते तो ज़िन्दगी भी क्या ज़िंदगी होती
ख़्वाहिशों में तुम मेरी मन्नतों में भी तुम
मेरी ज़ुस्तजू तुम हो ज़िंदगी की हसरतों की मंज़िल भी तुम
दामन मैं कैसे छोड़ दूं तेरा
मेरी ज़िन्दगी की तलाश मेरी वन्दगी भी तुम हो
ओशो वन्दन ...
[22:44, 6/23/2018] Kumar Mith: क्या करें, जब ध्यान लगाना मुशकिल हो?
जब कभी ऐसा लगे कि बाहर से कोई दबाव आ रहा है- और जीवन में अनेक बार ऐसा होगा - तब सीधा ध्यान में उतरना मुशकिल हो जाता है। इसलिए ध्यान के पहले, पंद्रह मिनट के लिए, इस दबाव को दूर करने के लिये तुम्हें कुछ करना होगा, सिर्फ तब ही तुम ध्यान में प्रवेश कर सकोगे, वर्ना नहीं।
पंद्रह मिनट के लिये बस शांत बैठ जाओ और महसूस करो कि सारा संसार स्वप्न है - और यह स्वप्न है ही! भाव करो कि सारा संसार स्वप्न है और यहां कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं है। एक बात।
दूसरी बात। देर - सबेर हर चीज विदा हो जायेगी - तुम भी ।तुम हमेशा यहां नहीं थे, तुम हमेशा यहां नहीं रहने वाले हो। तो कुछ भी स्थायी नहीं है। और तीसरी बात : तुम बस साक्षी हो। एक सपना, एक फिल्म सामने से गुजर रही है। ये तीन चीजें याद रखो - सारा संसार स्वप्न है। और हर चीज चली जाने वाली है, तुम भी चले जाओगे।मौत आने वाली है और साक्षी सत्य है, तो तुम बस साक्षी मात्र हो। शरीर को विश्रांत करें और तब पंद्रह मिनट के लिये साक्षी हो जाओ और तब ध्यान करो। तुम ध्यान में प्रवेश करने में सफल-सक्षम हो जाओगे, और तब कोई समस्या नहीं होगी।
पर जब तुम्हें लगे कि ध्यान सहज हो रहा है तब यह करने की जरूरत नहीं है वर्ना तुम्हारी आदत पड़ जायेगी। इसे तब करना है जब ध्यान करने में मुश्किल हो रही हो।यदि तुम रोज इसे करते हो तो अच्छा है लेकिन इसका प्रभाव कम पड़ जायेगा, और तब यह काम नहीं आयेगा।
तो इसका औषधि की तरह उपयोग करो। जब चीजें गलत और मुश्किल हो जायें, तब इसे करो ताकि यह राह साफ कर देगा और तुम विश्रांत होने में सक्षम हो जाओगे।
-ओशो
ए रोज इज ए रोज इज ए रोज
20:53, 6/7/2018] Kumar Mith: 3.मनिपुरा (सोलर प्लेक्सस) : मनिपुरा चक्र में बंद हो जाने के कारण डायबिटीज, अग्नाशयशोथ, भाटा, वजन के संबंधित समस्याएं, अल्सर, क्रोध आदि जैसी स्वास्थ्य सम्बंधित दिक्कतें होने लगती हैं। इन समस्याओं के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार पैंक्रियास से निकलने वाले हार्मोन्स होते हैं।
[20:53, 6/7/2018] Kumar Mith: 4. अनाहत ( हार्ट): अनाहत चक्र व्यक्ति के दिल, फेफड़े, बाहें, स्तन, ऊपरी पीठ, कंधों, पसलियों से संबंध रखता है। इस चक्र में बंद होने पर व्यक्ति को फेफड़े की समस्याएं, पाचन समस्याओं, कम ऊर्जा, ईर्ष्या, क्षमा करने में असमर्थता जैसी समस्याएं देखने को मिलती है। यह चक्र हमारे शरीर में पाए जाने वाले थाइमस नामक हार्मोन ऑर्गन से संबधित होता है।
[20:53, 6/7/2018] Kumar Mith: 5.विशुद्धा (थ्रोट): इस चक्र के बंद होने पर यह सीधे तौर पर व्यक्ति के गले और उसके आस-पास के हिस्से में समस्या देखने को मिलता है। इसके बंद होने पर गले में लंबे समय में तक दर्द रहता है, दांतों से जुड़ी समस्याएं होने लगती है और गर्दन में दर्द रहने लगता है। इस चक्र का संबंध हमारे गले के निचले हिस्से में पाया जाने वाला हार्मोन थाइरॉइड से होता है।
[20:53, 6/7/2018] Kumar Mith: सात चक्र और उससे संबंधित शारीरिक अंग
सात चक्र अंग मूलाधार – घुटना, एड़ियां, पैर, कुल्हे।स्वाधिस्तना – पीठ का निचला हिस्सा, बड़ी आंत, जननांग, मूत्राशय।मनिपुरा – लिवर ,पित्ताशय की थैली, गुर्दे और छोटी आंत।अनाहत – दिल, फेफड़े, हथियार, बाहें, स्तन, ऊपरी पीठ, कंधों, पसलियों।विशुद्धा – गले, गर्दन, जबड़े, दांत, कंधों, कान, मुंह।अजन – आँखें, सिर, मस्तिष्क, नाक, साइनस, माथे।सहस्रार – सिर।
[20:53, 6/7/2018] Kumar Mith: 6.अजन (थर्ड ऑय): इस चक्र का सम्बन्ध व्यक्ति के सिर और उसके आस-पास के अंगों जैसे नाक, आंख, माथा से होता है। अजन चक्र के बंद हो जाने के कारण व्यक्ति को सिर में दर्द, मेमोरी का कमजोर हो जाना, मानसिक रूप से थकावट अादि समस्याएं होने लगती है। इसका कारण होता है हमारे शरीर में पाए जाने वाले पिट्यूटरी हार्मोन के कारण होता है। 7.सहस्रार (क्राउन): यह चक्र व्यक्ति के शरीर में सबसे ऊपर का चक्र माना जाता है, जिसके बंद होने पर व्यक्ति को मानसिक विकार, डिप्रेशन, एंग्जायटी, सिरदर्द जैसे समस्याएं होने लगती है। जो हमारे शरीर में पीनल नामक हार्मोन के कारण होता है। [ये भी पढ़ें: उपाय जो आपके जीवन में लाएंगे अध्यात्मिकता का प्रकाश]
[11:24, 6/8/2018] Kumar Mith: मैंने एक कहानी सुनी है। एक आदमी को शिव की पूजा करते—करते और रोज शिव का सिर खाते—खाते...क्योंकि पूजा और क्या है, सिवाय सिर खाने के। एक ही धुन, एक ही रट हे प्रभु, कुछ ऐसी चीजें दे दो कि जिंदगी में मजा आ जाए। एक ही बार मांगता हूं। मगर देना कुछ ऐसा कि फिर मांगने को ही न रह जाए। परेशानी में, हैरान होकर, क्योंकि सुबह देखे न सांझ यह आदमी, न देखे रात, जब उठे तभी, आधी रात शिव के पीछे पड़ जाए। आखिर इसे वरदान में एक शंख शिव ने उठाकर दे दिया जो उन्हीं के पूजा स्थल में इसने रख छोड़ा था। और इसको कहा इस शंख की आज से यह खूबी है कि तुम इससे जो मांगोगे, तुम्हें देगा। अब तुम्हें कुछ और परेशान होने की जरूरत नहीं और पूजा—प्रार्थना की जरूरत नहीं। अब मुझे छुट्टी दो। जो तुम्हें चाहिए,वह इससे ही मांग लेना। यह तत्क्षण देगा। तुमने मांगा और मौजूद हुआ। उसने मांगकर देखा, सोने के रुपए और सोने के रुपए बरस गए। धन्यभाग हो गया। शिव न भी कहते तो भूल जाता। भूल—भाल गया शिव कहां गए, क्या हुआ, उन बेचारों पर क्या गुजरी, इस सब की कोई फिकर भी न रही। फिर न कोई पूजा थी, न कोई पाठ। फिर तो यह शंख था और जो चाहिए।
लेकिन एक मुसीबत हो गई। एक महात्मा इसके महल में मेहमान हुए। महात्मा के पास भी एक शंख था। इसके पास जो शंख था बिलकुल वैसा, लेकिन दो गुना बड़ा। और महात्मा उसे बड़े संभाल कर रखते था। उनके पास कुछ और न था। उनकी झोली में बस एक बड़ा शंख था। इसने पूछा कि आप इस शंख को इतना सम्हाल कर क्यों रखते हैं? उन्होंने कहा, यह कोई साधारण शंख नहीं, महाशंख, है। मांगों एक, देता है दो। कहो, बना दो एक महल—दो महल बताता है। एक की तो बात ही नहीं। हमेशा।
उस आदमी को लालच उठा। उसने कहा यह तो बड़े गजब की बात है। उसने कहा एक शंख तो मेरे पास भी है मगर छोटा मोटा। आपने नाहक मुझे दीन—दुखी बना दिया। मैं गरीब आदमी हो गया। जरा देखूं चमत्कार।
उन्होंने कहा, इसका चमत्कार देखना बड़ा मुश्किल है। रात के सन्नाटे में जब सब सो जाते हैं, तब निश्चित महूर्त में, अर्धरात्रि के सन्नाटों में इससे कुछ मांगने का नियम है। तुम जागते रहना और सुन लेना।
महात्मा शंख से ठीक अर्धरात्रि में कहा, दे दे कोहिनूर। उसने कहा, एक नहीं दूंगा, दो दूंगा। महात्मा ने कहा, भला सही दो दे दे। उसने कहा, दो नहीं चार। किससे बात कर रहा है, कुछ होश से बात करो! महात्मा ने कहा, भई चार ही दे दे। वह महाशंख बोला, अब आठ दूंगा। उस आदमी ने सुना, उसने कहा, हद हो गई, हम भी कहां का गरीब शंख लिए बैठे हैं! महात्मा के पैर पकड़ लिए। कहा आप तो महात्मा हैं, त्यागी व्रती हैं। इस गरीब का शंख आप ले लो, यह महाशंख मुझे दे दो।
महात्मा ने कहा, जैसी तुम्हारी मर्जी। हम तो इससे छुटकारा पाना ही चाहते थे। क्योंकि इस बेईमान ने हमें परेशान कर रखा है। मांगो कुछ, बकवास इतनी होती है, रात—रात गुजर जाती है। फिर भी वह न समझा कि मामला क्या है कि वह सिर्फ महाशंख था, कि वह सिर्फ बातचीत करता था, देता—वेता कुछ भी नहीं था। हमेशा संख्या दोहरी कर देता था। तुम कहो चार तो वह कहे आठ, तुम कहो आठ तो वह कहे सोलह। तुम कहो सोलह सही, वह कहे बत्तीस। तुम बोले संख्या कि उसने दो का गुणा किया। बस उसको दो का गुणा करना ही आता था। और उसको कुछ नहीं आता था।
महात्मा तो सुबह चले गए। जब इसने उस शंख से दूसरी रात्रि ठीक मुहूर्त में कुछ मांगा तो उसने कहा,अरे नालायक! क्या मांगता है एक? दूंगा दो। उसने कहा, भई दो दे दो। उसने कहा, दूंगा चार। चार ही दे दो। उसने कहा, दूंगा आठ। सुबह होने लगी। संख्या लंबी होने लगी। मोहल्ले के लोग इकट्ठे हो गए कि यह हो क्या रहा है? सारा मोहल्ला जग गया कि मामला क्या है संख्या बढ़ती जाती है, लेना…
[12:53, 6/8/2018] Kumar Mith: Sanjeev 2nd Floor
[11:42, 6/9/2018] Kumar Mith: कुछ भी ध्यान बन सकता है।
"काम वासना का उठना"
योनमुद्रा ध्यान-
काम -उर्जा को ध्यान में नियोजित कर,
तुरंत परिणाम देने वाला चमत्कारिक ध्यान प्रयोग।
ओशो इस ध्यान प्रयोग को 'योनमुद्रा' कहते हैं। और इस प्रयोग को तब करना है, जब किसी सुंदर चेहरे को देखकर मन को कामवासना पकड़े, और शरीर उत्तेजित हो, गहरी श्वास लेते हुए उर्जा को कामकेंद्र पर भेजने लगे।
तब इस प्रयोग को करना है।यानि इसे कहीं भी और कभी भी, जब मन कामातुर हो और शरीर को कामवासना घेरने लगे, तब इस ध्यान प्रयोग को करना है।
मन में कामवासना का विचार आते ही हमारा शरीर उसका अनुगमन करने लगता है। वह गहरी श्वास लेकर उर्जा को कामकेंद्र पर पहुंचाते हुए, कामवासना में उतरने की तैयारी करने लगता है, अर्थात मन में उठे कामवासना के 'विचार' को 'क्रिया' में परिवर्तित करने लगता है।
उर्जा यदि कामकेन्द्र पर पहुंच चुकी है, तो उसे लौटाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन भी है! जो उर्जा उठ चुकी है, यदि हम उसका उपयोग नहीं करेंगे तो वह अपना काम करेगी!
'सृजन' नहीं, तो 'विध्वंस'!
उर्ध्वगामी नहीं तो अधोगामी!
तो इस बाहर जाती उर्जा का, क्यों न हम भीतर के लिए उपयोग करें? साक्षी के लिए, ध्यान के लिए उपयोग करें?
कामवासना के पकड़ने पर पहले तो श्वास को धीमा करें, क्योंकि कामवासना में उतरने के लिए ज्यादा आक्सीजन की जरूरत होती है, इसलिए शरीर तेज श्वास लेने लगता है। यदि हम श्वास की इस लयबद्धता को तोड़ दें, यानि श्वास को धीमा लेना शुरू कर दें, तो कामवासना को उठने के पहले ही हम रोक देंगे।क्योंकि कामवासना को उठने के लिए श्वास की जितनी चोट मूलाधार चक्र पर होनी चाहिए, उतनी हम नहीं होने दे रहे हैं। यानि हम मालिक हो गए! हमने वासना को उसके मूल में ही रोक दिया। यदि हम कामवासना को उसके मूल में पकड़ सकते हैं तो यही बात क्रोध के संबंध में भी लागू हो सकती है! अर्थात यह ध्यान प्रयोग हमें अपने मन में उठने वाले भावों और विचारों पर मालकियत प्रदान करता है! भाव और विचारों के मालिक, यानि मन के मालिक। यहाँ आकर हम विचारों को देखने में समर्थ होंगे। अतः यहां आकर हमारा साक्षी में प्रवेश हो जाता हैं।
तो पहले श्वास को गहरी और धीमी कर लें। उतनी धीमी और गहरी, जितनी रात सोते समय नींद में होती है।
फिर आंखें बंद करके मूत्रद्वार और गुदाद्वार दोनों को भीतर सिकोड़ लें।
ठीक उसी तरह, जिस तरह से हम मल-मूत्र को रोकते हैं।
और अब आंखें बंद करके सारा ध्यान सिर में केन्द्रित करें। आँखें बंद करके सारा ध्यान सिर में लगा दें, जहां अंतिम सहस्त्रार चक्र है। सिर में उस जगह ध्यान केन्द्रित करना है जहां चुटिया होती है। यानी चुटिया वाली जगह को आंख बंद करके भीतर से देखना है।
ठीक उसी तरह से देखना है, जिस तरह मानो हम अपने कमरे में बैठे उपर छत को देख रहे हैं।
उर्जा हमारे भावों और विचारों से संचालित होती है। यानि जैसा भाव हम करेंगे, या जैसा विचार हम करेंगे, उसी दिशा में उर्जा नियोजित हो जाती है। यानि जहां हमारा ध्यान होगा उस दिशा में नियोजित होगी! तो क्यों न हम कामवासना वाले पहले मूलाधार चक्र से हटाकर राम वासना वाले सहस्त्रार चक्र पर ध्यान को लगा दें, ताकि उर्जा उस दिशा में बढने लगे।
हम चकित होंगे! यदि हम मूत्रद्वार और गुदाद्वार को भीतर सिकोड़ लेते हैं, जिसे योग में मूलबंध लगाना कहते हैं।
और आँखें बंद कर सारा ध्यान सिर में केन्द्रित करते हैं... और देखते रहते हैं... देखते रहते हैं... देखते रहते हैं... तो कुछ ही क्षणों में कामकेन्द्र पर उठी उर्जा, रीढ़ के माध्यम से चक्रों पर गति करती हुई सहस्त्रार की ओर बढ़ने लगती है, और कामकेंद्र शिथिल होने लगता है।…
[12:59, 6/11/2018] Kumar Mith: एक फकीर था। एक युवा फकीर था जपान के एक गांव में। उसकी बड़ी कीर्ति थी, उसकी बड़ी महिमा थी। सारा गांव उसे पूजता और आदर करता। उसके सम्मान में सारे गांव में गीत गाए जाते। लेकिन एक दिन सब बात बदल गई। गांव की एक युवती को गर्भ रह गया और उसे बच्चा हो गया। और उस युवती को घर के लोगों ने पूछा कि किसका बच्चा है, तो उसने उस साधु का नाम ले दिया कि उस युवा फकीर का यह बच्चा है। फिर देर कितनी लगती है, प्रशंसक शत्रु बनने में कितनी देर लेते हैं? जरा सी भी देर नहीं लेते, क्योंकि प्रशंसक के मन में हमेशा भीतर तो निंदा छिपी रहती है। मौके की तलाश करती है, जिस दिन प्रशंसा खत्म हो जाए उस दिन निंदा शुरू हो जाती है। आदर देने वाले लोग, एक क्षण में अनादर देना शुरू कर देते हैं। पैर छूने वाले लोग, एक क्षण में सिर काटना शुरू कर देते हैं, इसमें कोई भेद नहीं है इन दोनों में। यह एक ही आदमी की दो शक्लें हैं।
वे सारे गांव के लोग फकीर के झोपड़े पर टूट पड़े। इतने दिनों का सप्रेस था भीतर, इतनी श्रद्धा दी थी तो दिल में तो क्रोध इकट्ठा हो ही गया था कि यह आदमी बड़ी श्रद्धा लिए जा रहा है! आज अश्रद्धा देने का मौका मिला था तो कोई भी पीछे नहीं रहना चाहता था। उन्होंने जाकर उस फकीर के झोपड़े पर आग लगा दी। और जाकर उस बच्चे को, एक दिन के बच्चे को उस फकीर के ऊपर पटक दिया।
उस फकीर ने पूछा कि बात क्या है? तो उन लोगों ने कहा यह भी हमसे पूछते हो कि बात क्या है? यह बच्चा तुम्हारा है, यह भी हमें बताना पड़ेगा कि बात क्या है? अपने जलते मकान को देखो, और अपने भीतर दिल को देखो, और इस बच्चे को देखो, और इस लड़की को देखो। हमसे पूछने की जरूरत नहीं, यह बच्चा तुम्हारा है।
वह फकीर बोला इज इट सो? ऐसी बात है, बच्चा मेरा है? वह बच्चा रोने लगा तो उस बच्चे को वह चुप कराने के लिए गीत गाने लगा। वे लोग उसका मकान जला कर वापस लौट गए। फिर वह अपने रोज के समय पर, दोपहर हुई और भीख मांगने निकला। लेकिन आज उस गांव में उसे कौन भीख देगा? आज जिस द्वार पर भी वह खड़ा हुआ, वह द्वार बंद हो गया। आज उसके पीछे बच्चों की टोली और लोगों की भीड़ चलने लगी, मजाक करती, पत्थर फेंकती। वह उस घर के सामने पहुंचा जिस घर की वह लड़की थी और जिस लड़की का वह बच्चा था। उसने वहां आवाज दी और उसने कहा कि मेरे लिए भीख मिले न मिले, लेकिन इस बच्चे के लिए तो दूध मिल जाए! मेरा कसूर भी हो सकता है, लेकिन इस बेचारे का क्या कसूर हो सकता है?
वह बच्चा रो रहा है, भीड़ वहां खड़ी है। उस लड़की के सहनशीलता के बाहर हो गई बात। वह अपने पिता के पैर पर गिर पड़ी और उसने कहा : मुझे माफ करें, मैंने साधु का नाम झूठा ही ले दिया। उस बच्चे के असली बाप को बचाने के लिए मैंने सोचा कि साधु का नाम ले दूं। साधु से मेरा कोई परिचय भी नहीं है।
बाप तो घबड़ा आया। यह तो बड़ी दुर्घटना हो गई। वह नीचे भागा हुआ आया, फकीर के पैर पर गिर पड़ा और उससे बच्चा छीनने लगा।
और उस फकीर ने पूछा : बात क्या है? उसके बाप ने कहा : माफ करें, भूल हो गई, यह बच्चा आपका नहीं है। उस फकीर ने पूछा : इज इट सो। ऐसी बात है कि यह बच्चा मेरा नहीं है? तो उस बाप ने, उस गांव के लोगों ने कहा. पागल हो तुम! तुमने सुबह ही क्यों नहीं इनकार किया? उस फकीर ने कहा. इससे क्या फर्क पड़ता था, बच्चा किसी न किसी का होगा ही। और एक झोपड़ा तुम जला ही चुके थे। अब तुम दूसरा जलाते। और एक आदमी को तुम बदनाम करने का मजा ले ही चुके थे, तुम एक आदमी को और बदनाम करने का मजा लेते। इससे क्या फर्क पड़ता था? बच्चा किसी न किसी का होगा, मेरा भी हो सकता है; इसमें क्या हर्जा! इसमें क्या फर्क क्या पड़ गया? तो लोगों ने कहा : तुम्हें इतनी भी समझ …
[13:54, 6/11/2018] Kumar Mith: बिना किसी समस्या के जीवन भर तंदरुस्त रहने का सबसे अच्छा, सुरक्षित, आसान और स्वस्थ तरीका योग है। इसके लिए केवल शरीर के क्रियाकलापों और श्वास लेने के सही तरीकों का नियमित अभ्यास करने की आवश्यकता है। यह शरीर के तीन मुख्य तत्वों; शरीर, मस्तिष्क और आत्मा के बीच संपर्क को नियमित करना है। यह शरीर के सभी अंगों के कार्यकलाप को नियमित करता है और कुछ बुरी परिस्थितियों और अस्वास्थ्यकर जीवन-शैली के कारण शरीर और मस्तिष्क को परेशानियों से बचाव करता है। यह स्वास्थ्य, ज्ञान और आन्तरिक शान्ति को बनाए रखने में मदद करता है। अच्छे स्वास्थ्य प्रदान करने के द्वारा यह हमारी भौतिक आवश्यकताओं को पूरा करता है, ज्ञान के माध्यम से यह मानसिक आवश्यकताओं को पूरा करता है और आन्तरिक शान्ति के माध्यम से यह आत्मिक आवश्यकता को पूरा करता है, इस प्रकार यह हम सभी के बीच सामंजस्य बनाए रखने में मदद करता है।
सुबह को योग का नियमित अभ्यास हमें अनगिनत शारीरिक और मानसिक तत्वों से होने वाली परेशानियों को दूर रखने के द्वारा बाहरी और आन्तरिक राहत प्रदान करता है। योग के विभिन्न आसन मानसिक और शारीरिक मजबूती के साथ ही अच्छाई की भावना का निर्माण करते हैं। यह मानव मस्तिष्क को तेज करता है, बौद्धिक स्तर को सुधारता है और भावनाओं को स्थिर रखकर उच्च स्तर की एकाग्रता में मदद करता है। अच्छाई की भावना मनुष्य में सहायता की प्रकृति के निर्माण करती है और इस प्रकार, सामाजिक भलाई को बढ़ावा देती है। एकाग्रता के स्तर में सुधार ध्यान में मदद करता है और मस्तिष्क को आन्तरिक शान्ति प्रदान करता है। योग प्रयोग किया गया दर्शन है, जो नियमित अभ्यास के माध्यम से स्व-अनुशासन और आत्म जागरुकता को विकसित करता है।
योग का अभ्यास किसी के भी द्वारा किया जा सकता है, क्योंकि आयु, धर्म या स्वस्थ परिस्थितियों परे है। यह अनुशासन और शक्ति की भावना में सुधार के साथ ही जीवन को बिना किसी शारीरिक और मानसिक समस्याओं के स्वस्थ जीवन का अवसर प्रदान करता है। पूरे संसार में इसके बारे में जागरुकता को बढ़ावा देने के लिए, भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने, संयुक्त संघ की सामान्य बैठक में 21 जून को अन्तरराष्ट्रीय योग दिवस के रुप में मनाने की घोषणा करने का सुझाव दिया था, ताकि सभी योग के बारे में जाने और इसके प्रयोग से लाभ लें। योग भारत की प्राचीन परम्परा है, जिसकी उत्पत्ति भारत में हुई थी और योगियों के द्वारा तंदरुस्त रहने और ध्यान करने के लिए इसका निरन्तर अभ्यास किया जाता है। निक जीवन में योग के प्रयोग के लाभों को देखते हुए संयुक्त संघ की सभा ने 21 जून को अन्तरराष्ट्रीय योग दिवस या विश्व योग दिवस के रुप में मनाने की घोषणा कर दी है।
हम योग से होने वाले लाभों की गणना नहीं कर सकते हैं, हम इसे केवल एक चमत्कार की तरह समझ सकते हैं, जिसे मानव प्रजाति को भगवान ने उपहार के रुप में प्रदान किया है। यह शारीरिक तंदरुस्ती को बनाए रखता है, तनाव को कम करता है, भावनाओं को नियंत्रित करता है, नकारात्मक विचारों को नियंत्रित करता है और भलाई की भावना, मानसिक शुद्धता, आत्म समझ को विकसित करता है साथ ही प्रकृति से जोड़ता है।
[13:57, 6/11/2018] Kumar Mith: दोस्तों , आज की तेज रफ्तार जिंदगी में अनेक ऐसे पल हैं जो हमारी स्पीड पर ब्रेक लगा देते हैं। हमारे आस-पास ऐसे अनेक कारण विद्यमान हैं जो तनाव, थकान तथा चिड़चिड़ाहट को जन्म देते हैं, जिससे हमारी जिंदगी अस्त-व्यस्त हो जाती है। ऐसे में जिंदगी को स्वस्थ तथा ऊर्जावान बनाये रखने के लिये योग एक ऐसी रामबाण दवा है जो, माइंड को कूल तथा बॉडी को फिट रखता है। योग से जीवन की गति को एक संगीतमय रफ्तार मिल जाती है।
[14:00, 6/11/2018] Kumar Mith: दोस्तों , आज की तेज रफ्तार जिंदगी में अनेक ऐसे पल हैं जो हमारी स्पीड पर ब्रेक लगा देते हैं। हमारे आस-पास ऐसे अनेक कारण विद्यमान हैं जो तनाव, थकान तथा चिड़चिड़ाहट को जन्म देते हैं, जिससे हमारी जिंदगी अस्त-व्यस्त हो जाती है। ऐसे में जिंदगी को स्वस्थ तथा ऊर्जावान बनाये रखने के लिये योग एक ऐसी रामबाण दवा है जो, माइंड को कूल तथा बॉडी को फिट रखता है। योग से जीवन की गति को एक संगीतमय रफ्तार मिल जाती है।
योग हमारी भारतीय संस्कृति की प्राचीनतम पहचान है। संसार की प्रथम पुस्तक ऋग्वेद में कई स्थानों पर यौगिक क्रियाओं के विषय में उल्लेख मिलता है। भगवान शंकर के बाद वैदिक ऋषि-मुनियों से ही योग का प्रारम्भ माना जाता है। बाद में कृष्ण, महावीर और बुद्ध ने इसे अपनी तरह से विस्तार दिया। इसके पश्चात पतंजली ने इसे सुव्यवस्थित रूप दिया।
पतंजली योग दर्शन के अनुसार – योगश्चित्तवृत्त निरोधः
अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है।
योग धर्म, आस्था और अंधविश्वास से परे एक सीधा विज्ञान है… जीवन जीने की एक कला है योग। योग शब्द के दो अर्थ हैं और दोनों ही महत्वपूर्ण हैं।
पहला है- जोड़ और दूसरा है समाधि।
जब तक हम स्वयं से नहीं जुड़ते, समाधि तक पहुँचना कठिन होगा अर्थात जीवन में सफलता की समाधि पर परचम लहराने के लिये तन, मन और आत्मा का स्वस्थ होना अति आवश्यक है और ये मार्ग और भी सुगम हो सकता है, यदि हम योग को अपने जीवन का हिस्सा बना लें। योग विश्वास करना नहीं सिखाता और न ही संदेह करना और विश्वास तथा संदेह के बीच की अवस्था संशय के तो योग बिलकुल ही खिलाफ है। योग कहता है कि आपमें जानने की क्षमता है, इसका उपयोग करो।
अनेक सकारात्मक ऊर्जा लिये योग का गीता में भी विशेष स्थान है। भगवद्गीता के अनुसार –
सिद्दध्यसिद्दध्यो समोभूत्वा समत्वंयोग उच्चते
अर्थात् दुःख-सुख, लाभ-अलाभ, शत्रु-मित्र, शीत और उष्ण आदि द्वन्दों में सर्वत्र समभाव रखना योग है।
महात्मा गांधी ने अनासक्ति योग का व्यवहार किया है। योगाभ्यास का प्रामाणिक चित्रण लगभग 3000 ई.पू. सिन्धु घाटी सभ्यता के समय की मोहरों और मूर्तियों में मिलता है। योग का प्रामाणिक ग्रंथ ‘योग सूत्र’ 200 ई.पू. योग पर लिखा गया पहला सुव्यवस्थित ग्रंथ है।
ओशो के अनुसार, ‘योग धर्म, आस्था और अंधविश्वास से परे एक सीधा प्रायोगिक विज्ञान है। योग जीवन जीने की कला है। योग एक पूर्ण चिकित्सा पद्धति है। एक पूर्ण मार्ग है-राजपथ। दरअसल धर्म लोगों को खूँटे से बाँधता है और योग सभी तरह के खूँटों से मुक्ति का मार्ग बताता है।’
प्राचीन जीवन पद्धति लिये योग, आज के परिवेश में हमारे जीवन को स्वस्थ और खुशहाल बना सकते हैं। आज के प्रदूषित वातावरण में योग एक ऐसी औषधि है जिसका कोई साइड इफेक्ट नहीं है, बल्कि योग के अनेक आसन जैसे कि, शवासन हाई ब्लड प्रेशर को सामान्य करता है, जीवन के लिये संजीवनी है कपालभाति प्राणायाम, भ्रामरी प्राणायाम मन को शांत करता है, वक्रासन हमें अनेक बीमारियों से बचाता है। आज कंप्यूटर की दुनिया में दिनभर उसके सामने बैठ-बैठे काम करने से अनेक लोगों को कमर दर्द एवं गर्दन दर्द की शिकायत एक आम बात हो गई है, ऐसे में शलभासन तथा तङासन हमें दर्द निवारक दवा से मुक्ति दिलाता है। पवनमुक्तासन अपने नाम के अनुरूप पेट से गैस की समस्या को दूर करता है। गठिया की समस्या को मेरूदंडासन दूर करता है। योग में ऐसे अनेक आसन हैं जिनको जीवन में अपनाने से कई बीमारियां समाप्त हो जाती हैं और खतरनाक बीमारियों का असर भी कम हो जाता है। 24 घंटे में से महज कुछ मिनट का ही प्रयोग यदि योग में उपयोग करते हैं तो अपनी सेहत को हम चुस्त-दुरुस्त रख सकते हैं। फिट रहने के साथ ही …
[18:56, 6/12/2018] Kumar Mith: लेकिन खोजना और मांगना दो अलग बातें हैं। असल में, जो खोजना नहीं चाहता वही मांगता है। खोजना और मांगना एक तो हैं ही नहीं, विपरीत बातें हैं। खोजने से जो बचना चाहता है वह मांगता है, खोजी कभी नहीं मांगता। और खोज और मांगने की प्रक्रिया बिलकुल अलग है। मांगने में दूसरे पर ध्यान रखना पड़ेगा—जिससे मिलेगा। और खोजने में अपने पर ध्यान रखना पड़ेगा—जिसको मिलेगा।
यह तो ठीक है कि साधक के मार्ग पर बाधाएं हैं। लेकिन साधक के मार्ग पर बाधाएं हैं, अगर हम ठीक से समझें तो इसका मतलब होता है कि साधक के भीतर बाधाएं हैं; मार्ग भी भीतर है। और अपनी बाधाओं को समझ लेना बहुत कठिन नहीं है। तो इस संबंध में थोड़ी सी विस्तीर्ण बात करनी पड़ेगी कि बाधाएं क्या हैं और साधक उन्हें कैसे दूर कर सकेगा।
जैसे मैंने कल सात शरीरों की बात कही, उस संबंध में कुछ और बात समझेंगे तो यह भी समझ में आ सकेगा।
मूलाधार चक्र की संभावनाएं:
जैसे सात शरीर हैं, ऐसे ही सात चक्र भी हैं। और प्रत्येक एक चक्र मनुष्य के एक शरीर से विशेष रूप से जुड़ा हुआ है। जैसे सात शरीर में जो हमने कहे— भौतिक शरीर, फिजिकल बॉडी, इस शरीर का जो चक्र है, वह मूलाधार है; वह पहला चक्र है। इस मूलाधार चक्र का भौतिक शरीर से केंद्रीय संबंध है; यह भौतिक शरीर का केंद्र है। इस मूलाधार चक्र की दो संभावनाएं हैं एक इसकी प्राकृतिक संभावना है, जो हमें जन्म से मिलती है; और एक साधना की संभावना है, जो साधना से उपलब्ध होती है।
मूलाधार चक्र की प्राथमिक प्राकृतिक संभावना कामवासना है, जो हमें प्रकृति से मिलती है; वह भौतिक शरीर की केंद्रीय वासना है। अब साधक के सामने पहला ही सवाल यह उठेगा कि यह जो केंद्रीय तत्व है उसके भौतिक शरीर का, इसके लिए क्या करे? और इस चक्र की एक दूसरी संभावना है, जो साधना से उपलब्ध होगी, वह ब्रह्मचर्य है। सेक्स इसकी प्राकृतिक संभावना है और ब्रह्मचर्य इसका ट्रांसफामेंशन है, इसका रूपांतरण है। जितनी मात्रा में चित्त कामवासना से केंद्रित और ग्रसित होगा, उतना ही मूलाधार अपनी अंतिम संभावनाओं को उपलब्ध नहीं कर सकेगा। उसकी अंतिम संभावना ब्रह्मचर्य है। उस चक्र की दो संभावनाएं हैं एक जो हमें प्रकृति से मिली, और एक जो हमें साधना से मिलेगी।
न भोग, न दमन—वरन जागरण:
अब इसका मतलब यह हुआ कि जो हमें प्रकृति से मिली है उसके साथ हम दो काम कर सकते हैं या तो जो प्रकृति से मिला है हम उसमें जीते रहें, तब जीवन में साधना शुरू नहीं हो पाएगी; दूसरा काम जो संभव है वह यह कि हम इसे रूपांतरित करें। रूपांतरण के पथ पर जो बड़ा खतरा है, वह खतरा यही है कि कहीं हम प्राकृतिक केंद्र से लड़ने न लगें। साधक के मार्ग में खतरा क्या है? या तो जो प्राकृतिक व्यवस्था है वह उसको भागे, तब वह उठ नहीं पाता उस तक जो चरम संभावना है—जहां तक उठा जा सकता था; भौतिक शरीर जहां तक उसे पहुंचा सकता था वहां तक वह नहीं पहुंच पाता; जहां से शुरू होता है वहीं अटक जाता है। तो एक तो भोग है। दूसरा दमन है, कि उससे लड़े। दमन बाधा है साधक के मार्ग पर— पहले केंद्र की जो बाधा है। क्योंकि दमन के द्वारा कभी ट्रांसफामेंशन, रूपांतरण नहीं होता।
दमन बाधा है तो फिर साधक क्या बनेगा? साधन क्या होगा?
समझ साधन बनेगी, अंडरस्टैंडिंग साधन बनेगी। कामवासना को जो जितना समझ पाएगा उतना ही उसके भीतर रूपांतरण होने लगेगा। उसका कारण है. प्रकृति के सभी तत्व हमारे भीतर अंधे और मूर्च्छित हैं। अगर हम उन तत्वों के प्रति होशपूर्ण हो जाएं तो उनमें रूपांतरण होना शुरू हो जाता है। जैसे ही हमारे भीतर कोई चीज जागनी शुरू होती है वैसे ही प्रकृति के तत्व बदलने शुरू हो जाते हैं। जागरण कीमिया है, अवेयरनेस केमिस्ट्री है उ…
[18:58, 6/12/2018] Kumar Mith: मणिपुर चक्र की संभावनाएं:
तीसरा शरीर मैंने कहा, एस्ट्रल बॉडी है, सूक्ष्म शरीर है। उस सूक्ष्म शरीर के भी दो हिस्से हैं। प्राथमिक रूप से सूक्ष्म शरीर संदेह, विचार, इनके आसपास रुका रहता है। और अगर ये रूपांतरित हो जाएं—संदेह अगर रूपांतरित हो तो श्रद्धा बन जाता है; और विचार अगर रूपांतरित हो तो विवेक बन जाता है।
संदेह को किसी ने दबाया तो वह कभी श्रद्धा को उपलब्ध नहीं होगा। हालांकि सभी तरफ ऐसा समझाया जाता है कि संदेह को दबा डालो, विश्वास कर लो। जिसने संदेह को दबाया और विश्वास किया, वह कभी श्रद्धा को उपलब्ध नहीं होगा; उसके भीतर संदेह मौजूद ही रहेगा— दबा हुआ; भीतर कीड़े की तरह सरकता रहेगा और काम करता रहेगा। उसका विश्वास संदेह के भय से ही थोपा हुआ होगा।
न, संदेह को समझना पड़ेगा, संदेह को जीना पड़ेगा, संदेह के साथ चलना पड़ेगा। और संदेह एक दिन उस जगह पहुंचा देता है, जहां संदेह पर भी संदेह हो जाता है। और जिस दिन संदेह पर संदेह होता है उसी दिन श्रद्धा की शुरुआत हो जाती है। विचार को छोड्कर भी कोई विवेक को उपलब्ध नहीं हो सकता। विचार को छोड़नेवाले लोग हैं, छुड़ानेवाले लोग हैं; वे कहते हैं—विचार मत करो, विचार छोड़ ही दो। अगर कोई विचार छोड़ेगा, तो विश्वास और अंधे विश्वास को उपलब्ध होगा। वह विवेक नहीं है। विचार की सूक्ष्मतम प्रक्रिया से गुजरकर ही कोई विवेक को उपलब्ध होता है।
विवेक का क्या मतलब है?
विचार में सदा ही संदेह मौजूद है। विचार सदा इनडिसीसिव है। इसलिए बहुत विचार करनेवाले लोग कभी कुछ तय नहीं कर पाते। और जब भी कोई कुछ तय करता है, वह तभी तय कर पाता है जब विचार के चक्कर के बाहर होता है। डिसीजन जो है वह हमेशा विचार के बाहर से आता है। अगर कोई विचार में पड़ा रहे तो वह कभी निश्चय नहीं कर पाता। विचार के साथ निश्चय का कोई संबंध नहीं है।
इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि विचारहीन बड़े निश्चयात्मक होते हैं, और विचारवान बड़े निश्चयहीन होते हैं। दोनों से खतरा होता है। क्योंकि विचारहीन बहुत डिसीसिव होते हैं। वे जो करते हैं, पूरी ताकत से करते हैं। क्योंकि उनमें विचार होता ही नहीं जो जरा भी संदेह पैदा कर दे। दुनिया भर के डाग्मेटिक, अंधे जितने लोग हैं, फेनेटिक जितने लोग हैं, ये बड़े कर्मठ होते हैं; क्योंकि इनमें शक का तो सवाल ही नहीं है, ये कभी विचार तो करते नहीं। अगर इनको ऐसा लगता है कि एक हजार आदमी मारने से स्वर्ग मिलेगा, तो एक हजार एक मारकर ही फिर रुकते हैं, उसके पहले वे नहीं रुकते। एक दफा उनको खयाल नहीं आता कि यह ऐसा— ऐसा होगा? उनमें कोई इनडिसीजन नहीं है। विचारवान तो सोचता ही चला जाता है, सोचता ही चला जाता है।
तो विचार के भय से अगर कोई विचार का द्वार ही बंद कर दे, तो सिर्फ अंधे विश्वास को उपलब्ध होगा। अंधा विश्वास खतरनाक है और साधक के मार्ग में बड़ी बाधा है। चाहिए आंखवाला विवेक, चाहिए ऐसा विचार जिसमें डिसीजन हो। विवेक का मतलब इतना ही होता है। विवेक का मतलब है कि विचार पूरा है, लेकिन विचार से हम इतने गुजरे हैं कि अब विचार की जो भी संदेह की, शक की बातें थीं, वे विदा हो गई हैं; अब धीरे— धीरे निष्कर्ष में शुद्ध निश्चय साथ रह गया है।
तो तीसरे शरीर का केंद्र है मणिपुर, चक्र है मणिपुर। उस मणिपुर चक्र के ये दो रूप हैं. संदेह और श्रद्धा। संदेह रूपांतरित होगा तो श्रद्धा बनेगी।
लेकिन ध्यान रखें श्रद्धा संदेह के विपरीत नहीं है, शत्रु नहीं है, श्रद्धा संदेह का ही शुद्धतम विकास है, चरम विकास है; वह आखिरी छोर है जहां संदेह का सब खो जाता है, क्योंकि संदेह स्वयं पर संदेह बन जाता है और स्युसाइडल हो जाता है, आत्मघात कर लेता है और श्रद्धा उपलब्ध होती है।
अनाहत चक्र की संभ…
[10:07, 6/16/2018] Kumar Mith: चिन्मय मुद्रा Chinmaya Mudra
इस मुद्रा में अंगूठा और तर्जनी चिन मुद्रा की तरह एक दूसरे को स्पर्श करते हैं, शेष उंगलियाँ मुड़कर हथेली को स्पर्श करती हैं|
हाथों को जाँघो पर हथेलियों को आकाश की ओर करके रखे और लंबी गहरी उज्जयी साँसे लें|
एक बार फिर साँस के प्रवाह और शरीर पर इसके प्रभाव को महसूस करें|
चिन्मय मुद्रा के लाभ |Benefits of Chinmaya Mudra
शरीर में ऊर्जा के प्रवाह को सुचारित करती है
पाचन शक्ति हो बढ़ती है
[10:09, 6/16/2018] Kumar Mith: चिन मुद्रा Chin Mudra |
अपनी तर्जनी व अंगूठे को हल्के से स्पर्श करे और शेष तीनो उंगलियों को सीधा रखे|
अंगूठे व तर्जनी एक दूसरे हो हल्के से ही बिना दबाव के स्पर्श करें|
तीनो फैली उंगलियों को जितना हो सके सीधा रखे|
हाथों को जंघा पर रख सकते हैं, हथेलियों को आकाश की ओर रखे|
अब सांसो के प्रवाह व इसके शरीर पर प्रभाव पर ध्यान दें|
चिन मुद्रा के लाभ |Benefits of Chin Mudra
बेहतर एकाग्रता और स्मरण शक्ति
नींद में सुधार
शरीर में ऊर्जा की वृद्धि
कमर के दर्द में आराम
[23:37, 6/19/2018] Kumar Mith: 😃😃😃😃
गाव की पत्नी अपने पति को पीट रही थी ।
पडोसन बोली : "क्यों मार रही हो बेचारे को...??"
पत्नी बोली : "बेचारे नहीं हे ये !"
इसे फोन किया था तो एक लड़की बोली..
"जिस व्यक्ति से आप संपर्क करना चाहते हे वह अभी व्यस्त है... !"
😃😃😜😍😝
[15:58, 6/21/2018] Kumar Mith: पता है तुम्हारी और हमारी
मुस्कान में फ़र्क क्या है?
तुम खुश हो कर मुस्कुराते हो,
हम तुम्हे खुश देख के मुस्कुराते हैं..
[16:00, 6/21/2018] Kumar Mith: किसी को चाहो तो इस अंदाज़ से चाहो,
कि वो तुम्हे मिले या ना मिले,
मगर उसे जब भी प्यार मिले,
तो तुम याद आओ.
[16:03, 6/21/2018] Kumar Mith: Tere jism pe apne jism ko rakhu
Tere honton ko apne honton se maslu
Tujhe pyar main itni shiddat se karu
Ki us mithe dard se teri aah nikal jaye,
Dard se teri aankho se aasu jhalak jaye
Or tu tan se or mann se sirf meri ho jaye
Badan se tere lipta rahon or subha ho jaye
Subha tujse jb main puchu teri raat ka aalam
Tu sharma kar mere seene se lipat jaye…!
[23:28, 6/22/2018] Kumar Mith: तुम्हारे नाम जैसी, छलकते जाम जैसी
मुहब्बत सी नशीली शरद की चाँदनी है।
ह्रदय को मोहती है, प्रणय संगीत जैसी
नयन को सोहती है, सपन के मीत जैसी,
तुम्हारे रूप जैसी, वसंती धूप जैसी
मधुस्मृति सी रसीली शरद की चाँदनी है।
चाँदनी खिल रही है तुम्हारे हास जैसी,
उमंगें भर रही है मिलन की आस जैसी,
प्रणय की बाँह जैसी, अलक की छाँह जैसी
प्रिये, तुम सी लजीली शरद की चाँदनी है।
हुई है क्या ना जाने अनोखी बात जैसी
भरे पुलकन बदन में प्रथम मधु रात जैसी,
हँसी दिल खोल पुनम, गया अब हार संयम
वचन से भी हठीली शरद की चाँदनी है।
तुम्हारे नाम जैसी, छलकते जाम जैसी
मुहब्बत सी नशीली, शरद की चाँदनी है।
[11:07, 6/23/2018] Kumar Mith: चौथा प्रश्न : भगवान ,
एक बात मेरी समझ में नहीं आती कि जैसे आप बैठते हैं
ठीक वैसे ही पूरे दो घंटा बैठे रहते हैं ।
आपके शरीर का कोई अंग हिलता ही नहीं ,
केवल एक हाथ हिलता है ।
और हम पांच मिनिट भी शांत नहीं बैठ पाते ।
● अमृत कृष्ण ,
वह एक हाथ भी तुम्हारी वजह से हिलाना पड़ता है ।
तुम्हारी अशांति के कारण । नहीं तो उसको भी हिलाने की
कोई जरूरत नहीं है । तुम अगर शांत बैठ जाओ तो वह
हाथ भी न हिले ।
तुम्हारा मन अशांत है तो उसकी प्रतिछाया शरीर पर पड़ती
है । तुम्हारा शरीर तो तुम्हारे मन के अनुकूल होता है ;
उसकी छाया है ।
आनंद ने बुद्ध से पूछा है कि आप जैसे सोते हैं ,
जिस करवट सोते हैं , रात भर उसी करवट सोए रहते हैं !
आनंद कई रात बैठ कर देखता रहा - यह कैसे होता होगा !
स्वाभाविक है उसकी जिज्ञासा । उसने कहा : ' मैंने हर
तरह से आपको जांचा । आप जैसे सोते हैं , पैर जिस पैर
पर रख लिया , रात भर रखे रहते हैं ।
आप सोते हैं कि रात में यह भी हिसाब लगाए रखते हैं कि
पांव उसी पर रहे , बदले नहीं । करवट नहीं बदलते !
बुद्ध ने कहा : ' आनंद , जब मन शांत हो जाए तो शरीर को
अशांत रहने का कोई कारण नहीं रह जाता । '
मुझे कोई चेष्टा नहीं करनी पड़ रही है यूं बैठने में ।
मगर कोई जरूरत नहीं है । लोग बैठे-बैठे करवटें बदलते
रहते हैं । लोग कुर्सी पर बैठे रहते हैं और पैर चलाते रहते
हैं , पैर हिलाते रहते हैं ; जैसे चल रहे हों !
जैसे साइकिल चला रहे हों ! बैठे कुर्सी पर हैं , मगर उनके
प्राण भीतर भागे जा रहे हैं ।
मन चंचल है , मन गतिमान है । उसकी छाया शरीर पर ही
पडे़गी । जब मन शांत हो जाएगा तो शरीर भी शांत हो
जाएगा । जरूरत होगी तो हिलाओगे , नहीं जरूरत होगी
तो क्या हिलाना है ? इसमें कुछ रहस्य नहीं है ,
सीधी-सादी बात है यह ।
तुम जरूर अशांत होते हो । वह मैं जानता हूं ।
पांच मिनिट भी शांत बैठना मुश्किल है ।
असल में पांच मिनिट भी अगर तुम शांत बैठना चाहो तो
हजार बाधाएं आती हैं । कहीं पैर में झुनझुनी चढे़गी ,
कहीं पैर मुर्दा होने लगेगा , कहीं पीठ में चींटियां चढ़ने
लगेंगी । और खोजोगे तो कोई चींटी वगैरह नहीं है !
बडा़ मजा यह है ! कई दफा देख चुके कि चींटी वगैरह
कुछ भी नहीं है , मगर कल्पित चींटियां चढ़ने लगती हैं ।
न मालूम कहां-कहां के खयाल आएंगे !
हजार-हजार तरह की बातें उठेंगी कि यह कर लूं
वह कर लूं , इधर देख लूं उधर देख लूं ।
मन कहेगा : 'क्या बुध्दू की तरह बैठे हो !
अरे उठो , कुछ कर गुजरो ! चार दिन की जिंदगी है ,
ऐसे ही चले जाओगे ? इतिहास के पृष्ठों पर स्वर्ण-अक्षरों में
नाम लिख जाए , ऐसा कुछ कर जाओ ।
ऐसे बैठे रहे तो चूक जाओगे । दूसरे हाथ मारे ले रहे हैं । '
तुम्हारा मन भागा-भागा है , इसलिए शरीर भागा-भागा है ।
और लोग क्या करते हैं ? लोग उल्टा करते हैं ।
लोग शरीर को थिर करने की कोशिश करते हैं ।
इसलिए लोग योगासन सीखते हैं कि शरीर को थिर कर लें ,
तो मन थिर हो जाएगा । वे उल्टी बात करने की कोशिश
कर रहे हैं । यह नहीं हो सकता ।
शरीर को थिर करने से मन थिर नहीं होता ।
मन थिर हो जाए तो शरीर अपने से थिर हो जाता है ।
मैंने कभी कोई योगासन नहीं सीखे ।
जरूरत ही नहीं है । ध्यान पर्याप्त है । और शरीर को अगर
बिठालने की कोशिश में लगे रहे तो सफल हो सकते हो ।
सरकस में लोग सफल हो जाते हैं , मगर उनको तुम योगी
समझते हो ? सरकस में लोग शरीर से क्या-क्या नहीं
कर गुजरते ! सब कुछ करके दिखला देते हैं ।
लेकिन उससे तुम यह मत समझ लेना कि वे योगी हो गए ।
उनकी जिंदगी वही है , जो तुम्हारी है ।
शायद उससे गयी-बीती हो ।
तुम अगर आसन भी सीख गए तो भी कुछ न होगा ।
लेकिन अगर भीतर मन ठहर गया तो सब…
[18:08, 6/23/2018] Kumar Mith: कुछ तो है तेरे - मेरे दरम्यां
वरना ज़िन्दगी इतनी ख़ुशगवार कैसे होती
बेपरवाह होके तुम्हें देखा किये
तुम न होते तो ज़िन्दगी भी क्या ज़िंदगी होती
ख़्वाहिशों में तुम मेरी मन्नतों में भी तुम
मेरी ज़ुस्तजू तुम हो ज़िंदगी की हसरतों की मंज़िल भी तुम
दामन मैं कैसे छोड़ दूं तेरा
मेरी ज़िन्दगी की तलाश मेरी वन्दगी भी तुम हो
ओशो वन्दन ...
[22:44, 6/23/2018] Kumar Mith: क्या करें, जब ध्यान लगाना मुशकिल हो?
जब कभी ऐसा लगे कि बाहर से कोई दबाव आ रहा है- और जीवन में अनेक बार ऐसा होगा - तब सीधा ध्यान में उतरना मुशकिल हो जाता है। इसलिए ध्यान के पहले, पंद्रह मिनट के लिए, इस दबाव को दूर करने के लिये तुम्हें कुछ करना होगा, सिर्फ तब ही तुम ध्यान में प्रवेश कर सकोगे, वर्ना नहीं।
पंद्रह मिनट के लिये बस शांत बैठ जाओ और महसूस करो कि सारा संसार स्वप्न है - और यह स्वप्न है ही! भाव करो कि सारा संसार स्वप्न है और यहां कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं है। एक बात।
दूसरी बात। देर - सबेर हर चीज विदा हो जायेगी - तुम भी ।तुम हमेशा यहां नहीं थे, तुम हमेशा यहां नहीं रहने वाले हो। तो कुछ भी स्थायी नहीं है। और तीसरी बात : तुम बस साक्षी हो। एक सपना, एक फिल्म सामने से गुजर रही है। ये तीन चीजें याद रखो - सारा संसार स्वप्न है। और हर चीज चली जाने वाली है, तुम भी चले जाओगे।मौत आने वाली है और साक्षी सत्य है, तो तुम बस साक्षी मात्र हो। शरीर को विश्रांत करें और तब पंद्रह मिनट के लिये साक्षी हो जाओ और तब ध्यान करो। तुम ध्यान में प्रवेश करने में सफल-सक्षम हो जाओगे, और तब कोई समस्या नहीं होगी।
पर जब तुम्हें लगे कि ध्यान सहज हो रहा है तब यह करने की जरूरत नहीं है वर्ना तुम्हारी आदत पड़ जायेगी। इसे तब करना है जब ध्यान करने में मुश्किल हो रही हो।यदि तुम रोज इसे करते हो तो अच्छा है लेकिन इसका प्रभाव कम पड़ जायेगा, और तब यह काम नहीं आयेगा।
तो इसका औषधि की तरह उपयोग करो। जब चीजें गलत और मुश्किल हो जायें, तब इसे करो ताकि यह राह साफ कर देगा और तुम विश्रांत होने में सक्षम हो जाओगे।
-ओशो
ए रोज इज ए रोज इज ए रोज
[04:16, 6/24/2018] Kumar Mith: कामवासना का केंद्र सूर्य होता है : ओशो
'' हमारे भीतर सूर्य कहां है? हमारे अंतस के सौर-तंत्र का केंद्र कहा है? वह केंद्र ठीक प्रजनन-तंत्र की गहनता में छिपा हुआ है। इसीलिए कामवासना में एक प्रकार की ऊष्णता, एक प्रकार की गर्मी होती है।
कामवासना का केंद्र सूर्य होता है। इसीलिए तो कामवासना व्यक्ति को इतना ऊष्ण और उत्तेजित कर देती है। जब कोई व्यक्ति कामवासना में उतरता है तो वह उत्तप्त से उत्तप्त होता चला जाता है। व्यक्ति कामवासना के प्रवाह में एक तरह से ज्वर-ग्रस्त हो जाता है, पसीने से एकदम तर-बतर हो जाता है, उसकी श्वास भी अलग ढंग से चलने लगती है। और उसके बाद व्यक्ति थककर सो जाता है।
बाहर के सूर्य की भांति मनुष्य के भीतर भी सूर्य छिपा हुआ है, बाहर के चांद की ही भांति मनुष्य के भीतर भी चांद छिपा हुआ है। और पंतजलि का रस इसी में है कि वे अंतर्जगत के आंतरिक व्यक्तित्व का संपूर्ण भूगोल हमें दे देना चाहते हैं। इसलिए जब वे कहते हैं कि - 'भुवन ज्ञानम् सूर्ये संयमात।' - सूर्य पर संयम संपन्न करने से सौर ज्ञान की उपलब्धि होती है।' तो उनका संकेत उस सूर्य की ओर नहीं है जो बाहर है। उनका मतलब उस सूर्य से है जो हमारे भीतर है।जैसे सूर्य जीवन है, वैसे ही कामवासना भी जीवन है। इस पृथ्वी पर जीवन सूर्य से ही है, और ठीक इसी तरह से कामवासना से ही जीवन जन्म लेता है- सभी प्रकार के जीवन का जन्म काम से ही होता है।
अफ्रीका में वृक्ष अधिक से अधिक ऊंचे जाना चाहते हैं, ताकि वे सूर्य को उपलब्ध हो सकें और सूर्य उन्हें उपलब्ध हो सके। इन वृक्षों को ही देखो। जिस तरह से वृक्ष इस ओर हैं- यह पाइन के वृक्ष, ठीक वैसे ही वृक्ष दूसरी ओर भी हैं- और उस तरफ के वृक्ष छोटे ही रह गए हैं। इस तरह के वृक्ष ऊपर छोटे ही रह गए हैं। इस तरह के वृक्ष ऊपर ऊपर बढ़ते ही चले जा रहे हैं। क्योंकि इस ओर सूर्य की किरणें अधिक पहुँच रही हैं, दूसरी ओर सूर्य की किरणें अधिक नहीं पहुँच पा रही हैं।
काम भीतर का सूर्य है, और सूर्य सौर-मंडल का काम-केंद्र है। भीतर के सूर्य के प्रतिबिंब के माध्यम से व्यक्ति बाहर के सौर-तंत्र का ज्ञान भी प्राप्त कर सकता है, लेकिन बुनियादी बात तो आंतरिक सौर-तंत्र को समझने की है।
'सूर्य पर संयम संपन्न करने से, संपूर्ण सौर-ज्ञान की उपलब्धि होती है।'
इस पृथ्वी के लोगों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है, सूर्य-व्यक्ति और चंद्र-व्यक्ति, या हम उन्हें यांग और यिन भी कह सकते हैं। सूर्य पुरुष का गुण है; स्त्री चंद्र का गुण है। सूर्य आक्रामक होता है, सूर्य सकारात्मक है; चंद्र ग्रहणशील होता है, निष्क्रिय होता है।
सारे जगत के लोगों को सूर्य और चंद्र इन दो रूपों में विभक्त किया जा सकता है। और हम अपने शरीर को भी सूर्य और चंद्र में विभक्त कर सकते हैं; योग ने इसे इसी भांति विभक्त किया है।'' - OSHO
#OSHO
[19:36, 6/24/2018] Kumar Mith: 🌷श्री गुरुवे नमः। मस्त रहिये।🌷
💐 स्त्री अंतिम विजय का नाद है :👏
" सारी की सारी शिक्षा पुरुष के लिए ईजाद की गई है। और उसी पुरुष के लिए ईजाद की गई, स्त्री को भी उसी शिक्षा के ढांचे में ढाला जा रहा है। उसके परिणाम घातक हो रहे हैं। यूनिवर्सिटी से पढ़-लिख कर जो लड़की निकलती है, उसमें स्त्रैण तत्व अनिवार्यत: कम हो जाता है। क्योंकि शिक्षा पुरुष के लिए ईजाद की गई थी।
थोड़ा उलटा सोचें तो समझ में आ जाएगी बात। कोई नगर ऐसा हो, जहां की सारी शिक्षा स्त्रियों के लिए ईजाद की गई हो। संगीत की शिक्षा वहां दी जाती हो, नृत्य की शिक्षा दी जाती हो, काव्य की शिक्षा दी जाती हो, भोजन बनाने की, कपड़े सीने की, मकान सजाने की, बच्चों को पालने और बड़ा करने की--यह सारी शिक्षा दी जाती हो। किसी नगर में स्त्रियों के लिए शिक्षा दी जाती हो और उस नगर में पुरुष बहुत दिन तक अशिक्षित रखे गए हों। फिर पुरुषों में बगावत फैले और वे कहें कि हमें शिक्षा की जरूरत है, हम भी शिक्षा लेंगे। और स्त्रियां कहें कि ठीक है, हमारे कॅालेजेस में आकर तुम शिक्षा ले डालो। तो वे पुरुष भी नाचें, गाएं, गीत बनाएं, कविता करें, घर सजाएं, बच्चों को पालने की शिक्षा लें, तो क्या परिणाम होगा उस गांव में?
उस गांव के पुरुष किसी गहरे अर्थ में स्त्रैण हो जाएंगे। उस गांव के पुरुषों में, जो पुरुष होना है वह कम हो जाएगा। वह जो पुरुष की तीव्रता है, वह जो पुरुष की प्रखरता है, वह क्षीण हो जाएगी। वह जो पुरुष के कोने हैं व्यक्तित्व में, वह गोल हो जाएंगे, वह राउंड हो जाएंगे, उनको झाड़ दिया जाएगा।
जैसा दुर्भाग्य उस गांव में पुरुषों के साथ होगा, वैसा दुर्भाग्य पूरी पृथ्वी पर आज स्त्रियों के साथ हो रहा है। उनके व्यक्तित्व का बुनियादी भेद छोड़ा जा रहा है। उस बुनियादी भेद को समझ लेना बहुत ही उचित है, क्योंकि वह बुनियादी भेद ठीक से समझ कर अगर दोनों को अपनी दिशाओं में सम-शिक्षित किया जाए, सम-विकास दिया जाए और समकक्ष लाया जाए तो ही दांपत्य शांतिपूर्ण हो सकता है। और यह पृथ्वी पूरी शांत हो जाए, अगर दंपति शांत हो जाएं। क्योंकि हमारा सारा वैमनस्य, सारा दुख, सारी पीड़ा हमारे छोटे-छोटे घरों के उपद्रवों में पैदा होती है।
जैसे एक गांव में घर-घर से धुआं निकलता है, अपने-अपने चौके से और फिर गांव के पूरे आकाश पर धुआं छा जाता है। छोटा-छोटा, एक-एक चौके से निकला हुआ धुआं धीरे-धीरे पूरे गांव के आकाश को भर देता है। सारी पृथ्वी अशांति से भर जाती है, क्योंकि जो व्यक्तियों के मिलन का मूल-बिंदू है, मूल इकाई है स्त्री और पुरुष, वह मिलन दुखद है, वहां अशांति है। वह अशांति फैलते-फैलते सारे जगत को घेर लेती है। फिर बहुत रूपों में प्रकट होती है। यह रूप इतने भिन्ना हो जाते हैं कि कहना मुश्किल है।
नारी होने का ठीक अर्थ पुरुष से बहुत भिन्न है और दोनों के व्यक्तित्व के भेद को भी थोड़ा समझना उपयोगी है। पुरुष एक्टिव है, पुरुष का सारा व्यक्तित्व क्रियात्मक है, विधायक है। स्त्री का सारा व्यक्तित्व पैसिव है, निषेधात्मक है। इस फर्क को समझ लेना जरूरी है, तो हम उनकी दोनों की शिक्षाएं, उन दोनों के जीवन का ढंग अलग तरह से सोचेंगे।
एक स्त्री किसी पुरुष को कितना ही प्रेम करती हो तो भी कभी कोई स्त्री ने पुरुष के प्रति निवेदन नहीं किया है कि मैं तुम्हें प्रेम करती हूं। स्त्री कितना ही प्रेम करती हो तो भी वह प्रतीक्षा करती है कि पुरुष निवेदन करे। स्त्री पैसिव है, पैसिव का मतलब है, वह प्रतीक्षा कर सकती है--आक्रामक नहीं हो सकती है, आक्रमण नहीं करेगी, पहल नहीं करेगी। पुरुष को ही आक्रमण करना होगा, पुरुष को ही पहल करनी होगी। पुरुष को ही पहला कदम उठाना होगा स्त्…
[20:04, 6/24/2018] Kumar Mith: उलझने इश्क़ में बस इतनी रही...
ना उनसे हाँ हुई.. ना हमसे ना हुई...!
[09:20, 6/27/2018] Kumar Mith: ये जिनको तुम योगी समझते हो , ये सब सरकसों में भर्ती करने योग्य है । इनका कोई भी मूल्य नहीं । अच्छा है , शरीर के स्वास्थ के लिए ठीक है , पर इससे कुछ परमात्मा के मिलने का लेना-देना नहीं है । परमात्मा से कौन मिलता है । जो स्वस्थ है । जो स्वयं में स्थित है । जो वर्तमान में आरूढ़ है । क्योंकि परमात्मा का द्वार वर्तमान है । अतीत है नहीं अब , न हो चुका ; भविष्य अभी आया नहीं , वह भी नहीं है । है क्या ? यह क्षण ! इस क्षण से ही तुम प्रवेश करो तो परमात्मा में पहुंच सकते हो । क्योंकि यही क्षण वास्तविक है , अस्तित्ववान है । और परमात्मा है महाअस्तित्व । इसी क्षण के द्वार से सरको और परमात्मा में पहुंच जाओगे । ध्यान की सारी प्रक्रियाएं इसी क्षण में उतर जाने की प्रक्रियाएं हैं । जब चित्त में कोई विचार नहीं होता , तो स्वभावतः समय मिट जाता है । क्योंकि विचार या तो अतीत के होते हैं या भविष्य के होते हैं । वर्तमान का तो विचार कभी होता ही नहीं । तुम करना भी चाहो तो न कर सकोगे ; बैठ कर कोशिश करना । वर्तमान का कोई विचार संभव नहीं है ; वह असंभावना है । तुम जब भी विचार करोगे तो अतीत का होगा । यह भी हो सकता है कि सामने गुलाब का फूल खिला है और जैसे ही तुमने कहा , ' अहा ' कितना सुंदर फूल ! ' यह अतीत हो गया । यह तुम्हारी जो प्रतीति हुई थी सौंदर्य की , उसकी स्मृति है अब । यह अतीत हो गया , यह अब वर्तमान न रहा । तुम बोले कि अतीत में गये , या भविष्य में गये । विचार उठा , कि अतीत या भविष्य । तुम डोल गये दायें या बायें , मध्य खो गया । मध्य तो निर्विचार में होता है । ध्यान का अर्थ होता है : चुप , मौन , कोई विचार नहीं उठता , कोई विचार की तरंग नहीं उठती , झील शांत है ...... । यह शांत झील वर्तमान से जोड़ देती है । और जो वर्तमान से जुडा़ , वही योगी है । ध्यानी योगी है । और जो वर्तमान से जुड़ गया , वह परमात्मा से जुड़ गया ; क्योंकि वर्तमान परमात्मा का द्वार है । अगर तुम्हारा जीवन सहज हो जाये तो बस ठहर गए , आसन लग गया । यही असली आसन है । पालथी मारकर और सिद्धासन लगाना असली आसन नहीं है । वह तो कोई भी लगा ले । वह तो कवायद है । व्यायाम है , अच्छा है ; करो तो शरीर के लिए स्वास्थ्य कर है ; लेकिन उससे कोई आत्मा नहीं मिल जायेगी । सहजता में , निजता में जो आसन लग जाता है , तो आत्मा का अनुभव शुरू होता है ।
सतगुर मिलै त ऊबरै - प्रवचन 3 एवं प्रवचन 1
[19:18, 6/27/2018] Kumar Mith: ध्यान में बैठने से पूर्व रेचन अनिवार्य चरण - 4
रेचन क्या है, और रेचन क्यों अनिवार्य है?
रेचन क्या है?
रेचन योग का प्राथमिक और महत्वपूर्ण चरण है। रेचन शरीर शुद्धि का एक उपाय है। रेचन का अर्थ है ध्यान में बाधा पहुंचाने वाले तत्वों को शरीर से बाहर फेंकना।
हम जरूरत से ज्यादा भोजन कर लेते हैं, तो हमारे शरीर में अनावश्यक तत्व इकट्ठा हो जाते हैं, जो ध्यान में बैठने में बाधा देते हैं। हम काम में, बातचीत या विचारों में उलझे होते हैं तो हमें पता नहीं चल पाता है, लेकिन जब हम ध्यान में बैठते हैं और शरीर विश्राम में जाता है, तब ये तत्व सक्रिय हो जाते हैं। तो कहीं खुजली चलती है, कहीं चींटी काट रही है, कहीं एंठन होने लगती है और कहीं दर्द होने लगता है। जबकि ध्यान में प्रवेश करने के लिए हमें कम से कम पैंतालीस मिनट से एक घंटे तक शांत और शिथिल यानि पूरी तरह से विश्राम में रहना जरूरी है ।
इसके लिए हमें श्रम करके, व्यायाम करके पसीना निकालकर ध्यान में बाधा पहुंचाने वाले इन तत्वों को शरीर से बाहर निकलना होगा। ताकि ध्यान में प्रवेश हो सके। यह है चमड़ी द्वारा पसीने का रेचन।
हमारे फेफड़ों में धूल और धुंए के कण जमा हो जाते हैं, जो हमारी श्वास को गहरा नहीं होने देते, तथा ध्यान में बैठने पर खांसी उठाकर बाधा पहुंचाते हैं। भस्त्रिका या कपालभाति प्राणायाम करके जब हम इन्हें बाहर निकल देते हैं, तो यह रेचन कहलाता है। ध्यान में प्रवेश के लिए फेफड़ों का शुद्ध होना बहुत जरूरी है।
हमने अपने भावों का भी दमन किया है, उन्हें दबाया है। हमने रोना दबाया है।
बहन जब ससुराल जा रही थी, बचपन से साथ खेलते हुए बड़े हुए थे, खूब रोने को दिल हुआ, लेकिन "लोग क्या कहेंगे कि जवान आदमी होकर रोता है?" इस भय से हम रो नहीं पाये हैं, और जब अपने किसी परिजन की मृत्यु पर हमें रोना आया तो लोगों ने "जवान आदमी होकर रोता है?" ऐसा कहते हुए हमें चुप करवा दिया है।
वह रूलाई बाहर निकलना चाह रही है, तभी तो भावुक और संवेदनशील मोकों पर हमारी आंखें भर आती है। हमने आंसुओं को रोका है, वे रुके हुए आंसू ध्यान में बाधा डाल रहे हैं, हमें उन आंसुओं को बाहर निकालना है, ताकि ध्यान में प्रवेश हो सके। आंसुओं को बाहर निकालना, यह है रेचन करना।
हमने हंसना दबाया है। बड़ों के भय से हम कभी खुलकर नहीं हंसे हैं। हमेशा हंसने पर हमें टोक दिया गया है। कई बार तो हमें अपनी हंसी को बीच में ही रोक देना पड़ा है। वह दबी हुई, रूकी हुई हंसी ध्यान में बाधा डाल रही है। उसे बाहर निकालना होगा। हमें फिर से दिल खोलकर हंसना होगा, इतना हंसना होगा कि पेट दुखने लगे। यह हंसी को बाहर निकालना रेचन कहलाता है।
हमने नृत्य को दबाया है। मधुर संगीत सुनकर हमारे पैर थिरकने लगे थे, और हमने "मुझे नाचना नहीं आता" कहते हुए अपने को रोक लिया है। वह दबा हुआ नृत्य बाहर आना चाहता है। हमें नाच कर उसे बाहर निकालना है ताकि हमारा ध्यान में प्रवेश हो सके।
हमने क्रोध को दबाया है। जब भी हमें क्रोध आया तो हमारी मुठ्ठियां बंध गई थी, दांत भींच गए थे, हमारे पैर लात मारने को उतावले हो गए थे, यानि हमारे शरीर ने लड़ने की पूरी तैयारी कर ली थी, लेकिन हम कुछ भी नहीं कर पाए, क्योंकि जिस व्यक्ति पर हमें क्रोध आया वह हमसे बड़ा था, या कि हमसे शक्तिशाली था। अतः हमें क्रोध को वहीं रोकना पड़ा, दबाना पड़ा। वह दबा हुआ क्रोध ध्यान में बाधा डाल रहा है। क्रोध में मुठ्ठी भींचने पर जो उर्जा इकठ्ठी हुई थी, वह बाहर निकलना चाहती है। तभी तो हम उंगली में चाबी का छल्ला फंसाकर उसे घुमाने लगते हैं, रास्ते चलते छोटों पर धोल जमाने लगते हैं। और यह हमारे अंजाने ही होने लगता है। …
[00:30, 6/29/2018] Kumar Mith: 🔴
क्रोध की ऊर्जा का सार्थक उपयोग-
ओशो
क्रोध उठे तो तुम्हारे भीतर एक ऊर्जा उठी है, उसका कुछ उपयोग करो अन्यथा वह घातक हो जाएगी। अगर तुम दूसरे के ऊपर क्रोध को फेंकोगे तो दूसरे को नुकसान होगा; और क्रोध और क्रोध लाता है। वैर से वैर मिटता नहीं। उसका कोई अंत नहीं है। वहसिलसिला अंतहीन है। अगर तुम क्रोध को भीतर दबाओगे तो तुम्हारे भीतर घाव हो जाएगा, वह घाव भी खतरनाक है। वह तुम्हें रुग्ण कर देगा। तुम्हारे जीवन की खुशी खो जाएगी।
तो न तो दूसरे पर क्रोध फेंको, न अपने भीतर क्रोध को दबाओ, क्रोध को रूपांतरित करो। घृणा उठे, क्रोध उठे, ईर्ष्या उठे, इन शक्तियों का सदुपयोग करो। मार्ग के पत्थर भी, बुद्धिमान व्यक्ति मार्ग की सीढ़ियां बना लेते हैं। और तब तुम बड़े सुख को उपलब्ध होओगे। दो कारण से। एक तो क्रोध करके जो दुख उत्पन्न होता, वह नहीं होगा। क्योंकि तुमने किसी को गाली दे दी इससे कुछ सिलसिला अंत नहीं हो गया। वह दूसरा आदमीफिर गाली देने की प्रतीक्षा करेगा। अब उसके ऊपर क्रोध घिरा है, वह भी तो क्रोध करेगा। अगर तुमने क्रोध को दबा लिया तो तुम्हारे भीतर के स्रोत विषाक्त हो जाते हैं। क्रोध जहरहै। तुम्हारे जीवन का सुख धीरे-धीरे समाप्त हो जाता है। तुम फिर प्रसन्न नहीं हो सकते। प्रसन्नता खो ही जाती है। तुम हसोगे भी तो झूठ। ओंठों पर रहेगी हंसी; तुम्हारे प्राण तक उसका कंपन न पहुंचेगा। तुम्हारे हृदय से न उठेगी। तुम्हारी आंखें कुछ और कहेंगी, तुम्हारे ओंठ कुछ और कहेंगे। तुम धीरे-धीरे टुकड़े-टुकड़े में टूट जाओगे।
तो न तो दूसरे पर क्रोध करने से तुम सुखी हो सकते हो, क्योंकि कोई दूसरे को दुखी करकेकब सुखी हो पाया! और न तुम अपने भीतर क्रोध को दबाकर सुखी हो सकते हो, क्योंकि वह क्रोध उबलने के लिए तैयार होगा, इकट्ठा होगा। और रोज-रोज तुम क्रोध को इकट्ठा करते चले जाओगे, भीतर भयंकर उत्पात हो जाएगा। किसी भी दिन तुमसे पागलपन प्रगट हो सकता है। किसी भी दिन तुम विक्षिप्त हो सकते हो। एक सीमा तक तुम बैठे रहोगे अपने ज्वालामुखी पर, लेकिन विस्फोट किसी न किसी दिन होगा। दोनों ही खतरनाक हैं।
रूपातरण चाहिए। क्रोध कीऊर्जा को विधेय में लगा दो। कुछन करते बन सके, दौड़ आओ। क्रोध उठा है, नाच लो। तुम थोड़ा प्रयोगकरके देखो। जब क्रोध उठे तो नाचकर देखो। जब क्रोध उठे तो एकगीत गाकर देखो। जब क्रोध उठे तोघूमने निकल जाओ। जब क्रोध उठे तो किसी काम में लग जाओ, खाली मतबैठो। क्योंकि जो ऊर्जा है उसकाउपयोग कर लो। और तुम पाओगे कि जल्दी ही तुम्हें एक सूत्र मिल गया, एक कुंजी मिल गई-कि जीवन केसभी निषेधात्मक भाव उपयोग किए जा सकते हैं। राह के पत्थर सीढ़ियां बन सकते हैं।
[04:21, 7/2/2018] Kumar Mith: प्रकृति हर पल बदलती है। अलग-अलग जलवायु व तापमान के बीच रहने से शरीर मौसम संबंधी चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार होता है। इसलिए व्यस्तता के बीच ब्रेक लेने, प्रकृति के साथ कुछ पल बिताने से न सिर्फ एकरसता भंग होती है बल्कि दिन-प्रतिदिन के कार्यों में एकाग्रता भी बढ़ती है।
5. शोध बताते हैं कि जो लोग आउटडोर एक्सरसाइज को अपने फिटनेस रूटीन में शामिल करते हैं, वे बोरियत से दूर रहते हैं और उन्हें व्यायाम का अधिक लाभ होता है। इसकी वजह है- अलग-अलग दृश्यों, फूल-पत्तियों व पंछियों को देखने और उनकी आवाजों सुनने से जीवन के प्रति लगाव बढ़ता है।
6. प्रकृति मन की बेचैनी व तनाव को भी कम करती है, जिससे एक्सरसाइज करने की क्षमता बढ़ जाती है। ताजी हवा में व्यायाम करने से फेफड़ों को ऑक्सीजन मिलती है, जिससे मुश्किल वर्कआउट्स जैसे साइक्लिंग, रनिंग, हाइकिंग भी आसान लगने लगती है।
[04:24, 7/2/2018] Kumar Mith: जिम में नहीं बल्कि प्रकृति के बीच करें एक्सरसाइज़, बॉडी और माइंड दोनों रहेंगे फिट
[04:36, 7/3/2018] Kumar Mith: सदियों से पता रहा है। विज्ञान तो अब इसको वैज्ञानिक रूप दे रहा है। भाई-बहन का संबंध भी अवैज्ञानिक है। इसका कोई नैतिकता से संबंध नहीं है। सीधी सी बात इतनी है कि भाई और बहन दोनों के वीर्यकण इतने समान होते है कि उनमें तनाव नहीं होता। उनमें खिंचाव नहीं होता। इसलिए उनसे जो व्यक्ति पैदा होगा, वह फुफ्फुस होगा; उसमें खिंचाव नहीं होगा, तनाव नहीं होगा, उसमें ऊर्जा नहीं होगी। जितने दूर का नाता होगा, उतना ही बच्चा सुंदर होगा। स्वस्थ होगा, बलशाली होगा। मेधावी होगा। इसलिए फिक्र की जाती रही कि भाई-बहन का विवाह न हो। दूर संबंध खोजें जाते है। जिनसे गोत्र का भी नाता न हो, तीन-चार पाँच पीढ़ियों का भी नाता न हो। क्योंकि जितने दूर का नाता हो, उतना ही बच्चे के भीतर मां और पिता के जो वीर्याणु और अंडे का मिलन होगा, उसमें दूरी होगी। तो उस दूरी के कारण ही व्यक्तित्व में गरिमा होती है।
जैसे बिजली पैदा करनी हो तो ऋण और धन, इन दो ध्रुवों के बीच ही बिजली पैदा होती है। तुम एक ही तरह के ध्रुव - धन और धन, ऋण और ऋण - इनके साथ बिजली पैदा करना चाहो, बिजली पैदा नहीं होगी। बिजली पैदा करने के लिए ऋण और धन की दूरी चाहिए। व्यक्तित्व में उतनी ही बिजली होती है, उतनी ही विद्युत होती है, जितना वह दूर का हो।
इसलिए मैं इस पक्ष में हूं कि भारतीय को भारतीय से विवाह नहीं करना चाहिए; जापनी से करे, चीनी से करे, तिब्बती से करे, इरानी से करे, जर्मन से करे, भारतीय से न करे। क्योंकि जब दूर ही करनी है जितनी दूर हो उतना अच्छा।
और अब तो वैज्ञानिक रूप से सिद्ध हो चुकी है बात। पशु-पक्षियों के लिए हम प्रयोग भी कर रहे है। लेकिन आदमी हमेशा पिछड़ा हुआ होता है, क्योंकि उसकी जकड़ रूढ़िगत होती है। अगर हमको अच्छी गाय की नस्ल पैदा करनी है तो हम बाहर से वीर्य-अणु बुलाते है। अंग्रेज सांड का वीर्य अणु बुलाते है। भारतीय गाय के लिए। और कभी नहीं सोचते कि गऊमाता के साथ क्या कर रहे हो तुम यह! गऊमाता और अंग्रेज पिता, शर्म नहीं आती? लाज-संकोच नहीं?... मगर उतने ही स्वस्थ बच्चे पैदा होंगे। उतनी ही अच्छी नस्ल होगी।
इसलिए पशुओं की नसलें सुधरती जा रही है, खासकर पश्चिम में तो पशुओं की नसलें बहुत सुधर गई है। कल्पनातीत!साठ-साठ लीटर दूध देने वाली गायें कभी दूनिया में नहीं थी। और उसका कुल कारण यह है कि दूर-दूर के वीर्याणु को मिलाते जाते है। हर बार। आने वाले बच्चे और ज्यादा स्वास्थ और भी स्वस्थ होते जाते है। कुत्तों की नसलों में इतनी क्रांति हो गई है कि जैसे कुत्ते कभी नहीं थे दुनियां में। रूस में फलों में क्रांति हो गई हे। क्योंकि फलों के साथ भी यही प्रयोग कर रहे है। आज रूस के पास जैसे फल है, दुनिया में किसी के पास नहीं है। उनके फल बड़े है, ज्यादा रस भरे है, ज्यादा पौष्टिक हे। और सारी तरकीब एक है: जितनी ज्यादा दूरी हो। यह सीधा सा सत्य आदिम समाज को भी पता
भारत की दीन हीनता में यह भी एक कारण है। भारत के लोच-पोच आदमियों में यह भी एक कारण है। क्योंकि जैन सिर्फ जैनों के साथ ही विवाह करेंगे। अब जैनों की कुल संख्या तीस लाख है। महावीर को मरे पच्चीस सौ साल हो गए। अगर महावीर ने तीस जोड़ों को संन्यास दिया होता तो तीस लाख की संख्या हो जाती। तीस जोड़े काफ़ी थे।
ब्राह्मण सिर्फ ब्राह्मणों से शादी करेंगे। और वह भी सभी ब्राह्मणों से नहीं; कान्यकुब्ज ब्राह्मण कान्यकुब्ज से करेंगे। और देशस्थ -देशस्थ से, और कोंकणस्थ -कोंकणस्थ से। और स्वास्थ ब्राह्मण तो मिलते ही कहां हे। मुझे तो अभी तक नहीं मिला। कोई भी। और असल में, स्वस्थ हो उसी को ब्राह्मण कहना चाहिए। स्वयं में स्थित हो, वही ब्राह्मण है।
और यह जो भारत की दुर्गति है, उसमें एक बुनियादी कारण यह भी है कि यहां सब जातिय…
[10:16, 7/3/2018] Kumar Mith: शीर्षासन योग से जुडी कुछ सावधानियाँ:-
जिन लोगो को ब्लड प्रेशर की शिकायत है, उन्हें इस आसन को नहीं करना चाहिए|
यदि आंखों की कोई बीमारी है तो भी इस आसन को ना करें|
जिन लोगो को गर्दन में दर्द या फिर कोई अन्य समस्या है तो उन्हें भी यह आसन का अभ्यास नहीं करना चाहिए|
नादिर एक स्त्री को प्रेम करता था।
लेकिन उस स्त्री ने नादिर की तरफ कभी ध्यान नहीं दिया। नादिरशाह साधारण आदमी नहीं था, असाधारण आदमी था।
हत्यारों में उस जैसा असाधारण दूसरा नहीं है।
अभी-अभी हमने कुछ रिकार्ड तोड़े हैं–हिटलर, स्टैलिन के साथ।
लेकिन हिटलर और स्टैलिन का जो हत्यारापन है, वह बड़ा परोक्ष है।
उन्हें कभी ठीक पता नहीं चलता कि वे मार रहे हैं।
नादिरशाह का हत्यारापन सीधा, प्रत्यक्ष था;
वही मार रहा था सामने छाती में।
नादिरशाह को उस स्त्री ने ध्यान नहीं दिया।
लेकिन जब नादिरशाह को पता चला कि
वह उसके ही एक पहरेदार को,
साधारण सिपाही को प्रेम करती है,
तो पागल हो गया।
अपने बुद्धिमानों को उसने बुलाया
और कहा कि सजा बताओ, क्या सजा दूं?
बुद्धिमान हैरान हुए, क्योंकि नादिरशाह सजा इनवेंट करने में इतना कुशल था कि वह बुद्धिमानों से पूछे?
बुद्धिमान थोड़े हैरान हुए!
उन्होंने कहा, आपकी कुशलता हम न पा सकेंगे। आपसे ज्यादा कुशल और कौन है?
सताने में आप ऐसी-ऐसी तरकीबें निकालते हैं! आपसे ज्यादा हम कुछ न बता सकेंगे।
लेकिन नादिरशाह ने कहा कि नहीं;
मैं जो भी सोच सका, सब कम पड़ता है।
तुम कुछ ऐसा सोचकर आओ कि जैसा कभी किसी ने किसी को न सताया हो।
उसके विद्वानों में से एक मनसशास्त्री ने कहा कि अगर मेरी मानें, तो मैं आपको बताऊं।
नादिरशाह मान गया, जो उसने बताया।
और सजा दी गई।
ऐसी सजा पहली दफा दी गई;
और अगर बहुत दफे दी जाए,
तो दुनिया में बड़ी मुसीबत हो जाए।
सजा बड़ी अजीब थी। सोच भी नहीं सकते, ऐसी थी।
दोनों को नग्न करके, आलिंगन में बांधकर रस्सियों से, और एक खंभे में बांध दिया गया। न खाना, न पीना।
दोनों के चेहरे एक-दूसरे की तरफ।
क्षणभर को तो उन्हें लगा कि हमारे जीवन का स्वर्ग मिल गया। इसी के लिए आतुर थे कि एक-दूसरे की बांह में पहुंच जाएं!
पहुंच गए! थोड़े हैरान हुए कि नादिर को यह क्या हुआ है! लेकिन उन्हें पता नहीं कि एक मनोवैज्ञानिक ने सलाह दी है।
और राजनीतिज्ञों को जब भी मनोवैज्ञानिक सलाहकार मिल जाएंगे, तब दुनिया में जितनी दुर्घटनाएं होंगी, उतनी और कभी नहीं हो सकतीं।
मिनट, दो मिनट, फिर घबड़ाहट शुरू हुई।
क्योंकि कोई किसी को आलिंगन में ले ले, तो क्षणभर में आलिंगन टूट जाए, तो सुख का खयाल रह जाता है।
दस मिनट रह जाए, तो घबड़ाहट और बेचैनी शुरू हो जाती है।
पंद्रह मिनट, आधा घंटा…।
जिन ओंठों में समझा था कि गुलाब के फूल खिलते हैं, उनसे बदबू आने लगी।
कहीं खिलते नहीं, किन्हीं ओंठों में गुलाब के फूल नहीं खिलते। सिर्फ उन कवियों की कविताओं में खिलते हैं, जिन्हें ओंठों का कोई पता नहीं है।
जिनको भी ओंठों का थोड़ा अनुभव है,
वे जानते हैं, फूल नहीं खिलते।
सब तरह की बदबू मुंह से उठती है।
उठने लगी।
दिन बीता, चौबीस घंटे हो गए। सोए नहीं।
रातभर की तंद्रा आंखों में, शरीर में भर गई।
ऐसा लगने लगा कि दोनों लाश हो गए हैं।
आदमी जिंदा नहीं हैं। फिर मल-मूत्र भी बहने लगा; क्योंकि दो दिन बीत गए।
फिर तो गंदगी भारी हो गई।
फिर तो वे चीखने-चिल्लाने लगे कि हमें छुड़ा दो; माफ करो।
लेकिन नादिर रोज आकर देख जाता कि प्रेमियों की क्या हालत है!
फिर तो ऐसा मन होने लगा कि अगर हाथ खुले हों, तो एक-दूसरे की गर्दन दबा दें।
उस जगत में उन दोनों को उन क्षणों में जैसी शत्रुता अनुभव हुई होगी, ऐसी किन्हीं प्रेमियों को कभी नहीं हुई है।
प्रेमियों का सबसे बड़ा सौभाग्य यह है कि वे कभी मिल न पाएं। मिल जाएं, तो उपद्रव शुरू होते हैं।
और इस भांति मिल जाएं, इस पूरी तरह मिल जाएं, तब तो बहुत कठिनाई है।
पंद्रह दिन बाद सोच सकते हैं कि क्या हालत हुई होगी!
दो लाशों की तरह मुर्दा, पागल, विक्षिप्त!
कहते हैं कि जब पंद्रह दिन बा…
[04:19, 5/30/2018] Kumar Mith: जय श्री कृष्ण
स्वर-साधना का ज्ञान
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परिचय
जिस तरह वायु का बाहरी उपयोग है वैसे ही उसका आंतरिक और सूक्ष्म उपयोग भी है। जिसके विषय में जानकर कोई भी प्रबुद्ध व्यक्ति आध्यात्मिक तथा सांसरिक सुख और आनंद प्राप्त कर सकता है। प्राणायाम की ही तरह स्वर विज्ञान भी वायुतत्व के सूक्ष्म उपयोग का विज्ञान है जिसके द्वारा हम बहुत से रोगों से अपने आपको बचाकर रख सकते हैं और रोगी होने पर स्वर-साधना की मदद से उन रोगों का उन्मूलन भी कर सकते हैं। स्वर साधना या स्वरोदय विज्ञान को योग का ही एक अंग मानना चाहिए। ये मनुष्य को हर समय अच्छा फल देने वाला होता है, लेकिन ये स्वर शास्त्र जितना मुश्किल है, उतना ही मुश्किल है इसको सिखाने वाला गुरू मिलना। स्वर साधना का आधार सांस लेना और सांस को बाहर छोड़ने की गति स्वरोदय विज्ञान है। हमारी सारी चेष्टाएं तथा तज्जन्य फायदा-नुकसान, सुख-दुख आदि सारे शारीरिक और मानसिक सुख तथा मुश्किलें आश्चर्यमयी सांस लेने और सांस छोड़ने की गति से ही प्रभावित है। जिसकी मदद से दुखों को दूर किया जा सकता है और अपनी इच्छा का फल पाया जाता है।
प्रकृति का ये नियम है कि हमारे शरीर में दिन-रात तेज गति से सांस लेना और सांस छोड़ना एक ही समय में नाक के दोनो छिद्रों से साधारणत: नही चलता। बल्कि वो बारी-बारी से एक निश्चित समय तक अलग-अलग नाक के छिद्रों से चलता है। एक नाक के छिद्र का निश्चित समय पूरा हो जाने पर उससे सांस लेना और सांस छोड़ना बंद हो जाता है और नाक के दूसरे छिद्र से चलना शुरू हो जाता है। सांस का आना जाना जब एक नाक के छिद्र से बंद होता है और दूसरे से शुरू होता है तो उसको `स्वरोदय´ कहा जाता है। हर नथुने में स्वरोदय होने के बाद वो साधारणतया 1 घंटे तक मौजूद रहता है। इसके बाद दूसरे नाक के छिद्र से सांस चलना शुरू होता है और वो भी 1 घंटे तक रहता है। ये क्रम रात और दिन चलता रहता है।
जानकारी-
जब नाक से बाएं छिद्र से सांस चलती है तब उसे `इड़ा´ में चलना अथवा `चंद्रस्वर´ का चलना कहा जाता है और दाहिने नाक से सांस चलती है तो उसे `पिंगला´ में चलना अथवा `सूर्य स्वर´ का चलना कहते हैं और नाक के दोनो छिद्रों से जब एक ही समय में बराबर सांस चलती है तब उसको `सुषुम्ना में चलना कहा जाता है।
स्वरयोग-
योग के मुताबिक सांस को ही स्वर कहा गया है। स्वर मुख्यत: 3 प्रकार के होते हैं-
चंद्रस्वर-
जब नाक के बाईं तरफ के छिद्र से सांस चल रही हो तो उसको चंद्रस्वर कहा जाता है। ये शरीर को ठंडक पहुंचाता है। इस स्वर में तरल पदार्थ पीने चाहिए और ज्यादा मेहनत का काम नही करना चाहिए।
सूर्यस्वर-
जब नाक के दाईं तरफ के छिद्र से सांस चल रही हो तो उसे सूर्य स्वर कहा जाता है। ये स्वर शरीर को गर्मी देता है। इस स्वर में भोजन और ज्यादा मेहनत वाले काम कर
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स्वर बदलने की विधि-
नाक के जिस तरफ के छिद्र से स्वर चल रहा हो तो उसे दबाकर बंद करने से दूसरा स्वर चलने लगता है।
जिस तरफ के नाक के छिद्र से स्वर चल रहा हो उसी तरफ करवट लेकर लेटने से दूसरा स्वर चलने लगता है।
नाक के जिस तरफ के छिद्र से स्वर चलाना हो उससे दूसरी तरफ के छिद्र को रुई से बंद कर देना चाहिए।
ज्यादा मेहनत करने से, दौड़ने से और प्राणायाम आदि करने से स्वर बदल जाता है। नाड़ी शोधन प्राणायाम करने से स्वर पर काबू हो जाता है। इससे सर्दियों में सर्दी कम लगती है और गर्मियों में गर्मी भी कम लगती है।
स्वर ज्ञान से लाभ-
जो व्यक्ति स्वर को बार-बार बदलना पूरी तरह से सीख जाता है उसे जल्दी बुढ़ापा नही आता और वो लंबी उम्र भी जीता है।
को…
[22:28, 5/30/2018] Kumar Mith: इक़ खूबसूरत सा सवाल हो तुम ...
मौन पड़े सारे शब्दों की कोलाहल हो तुम
फ़िज़ाओं में फैले रंगों की इक़ नई पहचान हो तुम
[22:29, 5/30/2018] Kumar Mith: मुस्कुरा कर जो तू देख ले मुझको इक़ नज़र
इश्क़ क्या इसी को कहते हैं ...
मैं देखूँ जिधर - जिधर तू आये मुझको नज़र उधर -उधर
कितनी गहराई है तेरी आँखों में ...
कौन हूँ मैं , क्या हूँ मैं बस इतना तो बता दे मुझको एक बार
इश्क़ की हदों के पार उतर जाने दे ...
प्यासा है चकोर आवारा बादलों को बरस तो जाने दे
इक़ खूबसूरत सा सवाल हो तुम ...
मौन पड़े सारे शब्दों की कोलाहल हो तुम
फ़िज़ाओं में फैले रंगों की इक़ नई पहचान हो तुम
ओशो ...
[22:30, 5/30/2018] Kumar Mith: मैं देखूँ जिधर - जिधर तू आये मुझको नज़र उधर -उधर
कितनी गहराई है तेरी आँखों में ...
इक़ खूबसूरत सा सवाल हो तुम ...
मौन पड़े सारे शब्दों की कोलाहल हो तुम
फ़िज़ाओं में फैले रंगों की इक़ नई पहचान हो तुम
[17:31, 5/31/2018] Kumar Mith: कुछ भी ध्यान बन सकता है -
" कामवासना का उठना "
मूलबंध घटाने का बेहतर प्रयोग
जब भी तुम्हें लगे कि कामवासना तुम्हें पकड़ रही है, तब डरो मत। शांत होकर बैठ जाओ। जोर से श्वास को बाहर फेंको "उच्छवास"। भीतर मत लो श्वास को, क्योंकि जैसे ही तुम भीतर गहरी श्वास को लोगे, भीतर जाती श्वास काम-ऊर्जा को नीचे की ओर धकाती है।
जब तुम्हें कामवासना पकड़े, तब एक्सहेल करो, बाहर फेंको श्वास को। नाभि को भीतर खींचो, पेट को भीतर लो, और श्वास को बाहर फेंको, जितनी फेंक सको। धीरे-धीरे अभ्यास होने पर तुम संपूर्ण रूप से श्वास को बाहर फेंकने में सफल हो जाओगे।
जब सारी श्वास बाहर फिंक जाती है, तो तुम्हारे पेट और नाभि वैक्यूम हो जाते हैं, शून्य हो जाते हैं, और जहां कहीं शून्य हो जाता है, वहां आसपास की ऊर्जा शून्य की तरफ प्रवाहित होने लगती है। शून्य खींचता है, क्योंकि प्रकृति शून्य को बर्दाश्त नहीं करती, शून्य को भरती है।
तुम्हारी नाभि के पास शून्य हो जाए, तो मूलाधार से ऊर्जा तत्क्षण नाभि की तरफ उठ जाती है और तुम्हें बड़ा रस मिलेगा जब तुम पहली दफा अनुभव करोगे कि एक गहन ऊर्जा बाण की तरह आकर नाभि में उठ गई। तुम पाओगे, सारा तन एक गहन स्वास्थ्य से भर गया, एक ताजगी! यह ताजगी वैसी ही होगी, ठीक वैसा ही अनुभव होगा ताजगी का, जैसा संभोग के बाद उदासी का होता है, जैसे ऊर्जा के स्खलन के बाद एक शिथिलता पकड़ लेती है।
संभोग के बाद जैसे विषाद का अनुभव होगा, वैसे ही अगर ऊर्जा नाभि की तरफ उठ जाए , तो तुम्हें हर्ष का अनुभव होगा, एक प्रफुल्लता घेर लेगी। ऊर्जा का रूपांतरण शुरु हुआ, तुम ज्यादा शक्तिशाली, ज्यादा सौमनस्यपूर्ण, ज्यादा उत्फुल्ल, सक्रिय, अनथके, विश्रामपूर्ण मालूम पड़ोगे, जैसे गहरी नींद के बाद उठे हो, ताजगी आ गई।
यह मूलबंध की सहजतम प्रक्रिया है कि तुम श्वास को बाहर फेंक दो। नाभि शून्य हो जाएगी, ऊर्जा उठेगी नाभि की तरफ, मूलबंध का द्वार अपने आप बंद हो जाएगा। वह द्वार खुलता है ऊर्जा के धक्के से। जब ऊर्जा मूलाधार में नहीं रह जाती, धक्का नहीं पड़ता, द्वार बंद हो जाता है।
इसे अगर तुम निरंतर करते रहे, अगर इसे तुमने एक सतत साधना बना ली, और इसका कोई पता किसी को नहीं चलता। तुम इसे बाजार में खड़े हुए कर सकते हो, किसी को पता भी नहीं चलेगा, तुम दुकान पर बैठे हुए कर सकते हो, किसी को पता भी नहीं चलेगा। अगर एक व्यक्ति दिन में कम से कम तीन सौ बार, क्षण भर को भी मूलबंध लगा ले, कुछ ही महीनों के बाद पाएगा, कामवासना तिरोहित हो गई। काम-ऊर्जा रह गई...वासना तिरोहित हो गई....।
ओशो
ध्यान योग
[11:06, 6/2/2018] Kumar Mith: बड़ी मीठी कथा है, कि जनक ने एक बड़ी शास्त्रार्थ—सभा बुलाई थी।
बड़े—बड़े पंडितों को निमंत्रण दिया था। वे सब विवाद के लिए आ गए थे।
एक ब्राह्मण को निमंत्रण नहीं दिया गया था, क्योंकि वह सभा के योग्य न था।हमारे पास शब्द है, सभ्य या सभ्यता। वह सभा से ही बना है। सभ्य का मतलब होता है, सभा में बैठने योग्य। और सभ्यता का मतलब होता है, जो सभा में बैठने योग्य है, वह सभ्यता को उपलब्ध हो गया।
एक ब्राह्मण भर को राजधानी में छोड़ दिया था, निमंत्रण न दिया था। वह था अष्टावक्र। उसका शरीर आठ जगह से तिरछा था। अब आठ जगह से तिरछे आदमी को सभा में बुलाकर क्या और हंसी करवानी? वह चलता, तो लोग हंसने लगते। उसका सारा व्यक्तित्व एक व्यंग्य था। वह कार्टून ज्यादा रहा होगा, बजाय आदमी के। आठ जगह से तिरछा! एकाध जगह से तिरछा होना ही काफी उपद्रव कर देता है, आठ स्थानों से तिरछा था। कैसे चलता था, वह भी एक चमत्कार रहा होगा। उसकी चाल ऊंट जैसी रही होगी। उस पर अगर तुम सवारी करते, तो मुश्किल में पड़ जाते। जैसा ऊंट पर बैठना मुश्किल हो जाता है। बड़े अभ्यास की जरूरत हैं।
लेकिन उसे तो कुछ पता ही नहीं था कि यह सभा हो रही है और विवाद हो रहा है। उसे तो कुछ काम आ गया और पिता को कुछ बात कहनी थी। खोजा, तो पिता घर में न मिले। पूछा, तो पता चला, वे राज—दरबार गए हैं। तो वह पिता को मिलने राज—दरबार पहुंच गया। ऐन वक्त पर उसको छोड़ दिया था, वह ऐन वक्त पर हाजिर हो गया। संयोग की बात।
बड़ा विवाद चल रहा था, ब्रह्मज्ञान की चर्चा चल रही थी। सब रुक गई। लोग हंसने लगे। जैसे ही वह राज—दरबार में प्रविष्ट हुआ, जनक तक को हंसी आ गई। और लोग तो मुंह रोक लिए। उस अष्टावक्र ने चारों तरफ देखा और वह भी खिलखिलाकर हंसा। वह आदमी गजब का था। उस जैसे गजब के आदमी जमीन पर बहुत थोडे हुए हैं, अंगुलियों पर गिने जा सकें।
उसके हंसने से सन्नाटा छा गया दरबार में। क्योंकि किसी ने यह न सोचा था कि वह हंसेगा। जनक ने पूछा, हम क्यों हंसते हैं, वह तो साफ है। तुम क्यों हंस रहे हो? उसने कहा, मैं इसलिए हंसता हूं कि मैंने घर में सुना, मां ने कहा कि पंडितों की बड़ी सभा है, ब्राह्मणों की, ब्रह्मज्ञानियों की। यहां सब चमार इकट्ठे हैं। क्योंकि जिनको चमडी दिखाई पड़ती है, वे चमार हैं। इनमें से आत्मा किसी को दिखाई नहीं पडती। मेरा शरीर आठ जगह से झुका है, यह सच है। लेकिन इनमें एक भी ब्रह्मज्ञानी नहीं है। इन मूढ़ों के साथ क्यों समय खराब कर रहे हो! अगर इनमें एक भी ब्रह्मज्ञानी होता, तो वह मुझे देखता, मेरे शरीर को नहीं।
जनक चरणों पर गिर पड़े अष्टावक्र के। और बात सच थी। ज्ञानी कहीं शास्त्रार्थ के लिए सभाओं में इकट्ठे होते हैं? कि विवाद करने आते हैं? कि प्रतियोगिता जीतने आते हैं? ज्ञानी को अब जीतने को कुछ बचा? और ज्ञानी को कोई पुरस्कार शेष रहा जो जनक दे सकते हैं? जनक के पास क्या रखा है? जिनको दिखाई पड़ता है जनक के पास कुछ है, वे अज्ञानी हैं, तभी दिखाई पड़ता है।
अष्टावक्र तो चला गया, लेकिन जनक के मन में एक आग की लपट छोड़ गया। अष्टावक्र का पीछा किया जनक ने। और जनक की जिज्ञासाओं से इस पृथ्वी पर एक श्रेष्ठतम ग्रंथ का जन्म हुआ, वह है अष्टावक्र—गीता। कृष्ण की गीता भी फीकी है। उसको मैं महागीता कहता हूं।
ओशो ...गीता दर्शन
[10:23, 6/3/2018] Kumar Mith: एक नगर में एक मशहूर चित्रकार रहता था ।
चित्रकार ने एक बहुत सुन्दर तस्वीर बनाई
और उसे नगर के चौराहे मे लगा दिया
और नीचे लिख दिया कि जिस किसी को ,
जहाँ भी इस में कमी नजर आये वह वहाँ निशान लगा दे ।
जब उसने शाम को तस्वीर देखी उसकी पूरी तस्वीर पर निशानों से ख़राब हो चुकी थी ।
यह देख वह बहुत दुखी हुआ ।
उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि अब क्या करे वह दुःखी बैठा हुआ था ।
तभी उसका एक मित्र वहाँ से गुजरा उसने उस के दुःखी होने का कारण पूछा तो उसने उसे पूरी घटना बताई ।
उसने कहा एक काम करो कल दूसरी तस्वीर बनाना और उस मे लिखना कि जिस किसी को इस तस्वीर मे जहाँ कहीं भी कोई कमी नजर आये उसे सही कर दे ।
उसने अगले दिन यही किया । शाम को जब उसने अपनी तस्वीर देखी तो उसने देखा की तस्वीर पर किसी ने कुछ नहीं किया । वह संसार की रीति समझ गया ।
"कमी निकालना , निंदा करना , बुराई करना आसान लेकिन उन कमियों को दूर करना अत्यंत कठिन होता ह This is life........
जब दुनिया यह कहती है कि
‘हार मान लो’
तो आशा धीरे से कान में कहती है कि.,,,,
‘एक बार फिर प्रयास करो’
और यह ठीक भी है..,,,
"जिंदगी आईसक्रीम की तरह है, टेस्ट करो तो भी पिघलती है;.,,,
वेस्ट करो तो भी पिघलती है,,,,,,
इसलिए जिंदगी को टेस्ट करना सीखो,
वेस्ट तो हो ही रही है.,
[18:43, 6/4/2018] Kumar Mith: अक्सर आपने साधु-संतो या तपस्वियों, पंडितों के माथे पर चन्दन या भस्म से बनी तीन रेखाएं देखी होंगी. ये कोई साधारण रेखाएं नहीं हैं बल्कि इन्हें त्रिपुण्ड कहा जाता है. माथे पर चंदन या भस्म से बनी तीन रेखाएं त्रिपुण्ड कहलाती हैं. चन्दन या भस्म द्वारा तीन उंगुलियों की मदद से त्रिपुंड बनाया जाता है. त्रिपुण्ड की तीन रेखाओं में 27 देवताओं का वास होता है. प्रत्येक रेखा में 9 देवताओं का वास होता हैं. त्रिपुण्ड धारण करने वालों पर शिव की विशेष कृपा होती है.
ये विचार मन में ना रखें कि त्रिपुण्ड केवल माथे पर ही लगाया जाता है. त्रिपुण्ड शरीर के कुल 32 अंगों पर लगाया जाता है क्योंकि अलग- अलग अंग पर लगाए जाने वाले त्रिपुण्ड का प्रभाव और महत्व भी अलग है. इन अंगों में मस्तक, ललाट, दोनों कान, दोनों नेत्र, दोनों कोहनी, दोनों कलाई, ह्रदय, दोनों पाश्र्व भाग, नाभि, दोनों घुटने, दोनों पिंडली और दोनों पैर शामिल हैं.
शरीर के हर हिस्से में देवताओं का वास माना गया है. मस्तक में शिव, केश में चंद्रमा, दोनों कानों में रुद्र और ब्रह्मा मुख में गणेश, दोनों भुजाओं में विष्णु और लक्ष्मी, ह्रदय में शंभू, नाभि में प्रजापति, दोनों उरुओं में नाग और नागकन्याएं, दोनों घुटनों में ऋषि कन्याएं, दोनों पैरों में समुद्र और विशाल पुष्ठभाग में सभी तीर्थ देवता रूप में रहते हैं.
भस्म जली हुई वस्तुओं की राख होता है लेकिन सभी राख भस्म के रूप में प्रयोग करने योग्य नहीं होती हैं. भस्म के तौर पर उन्हीं राख का प्रयोग करना चाहिए, जो पवित्र कार्य के लिए किये गये हवन या यज्ञ से प्राप्त हो. शिव पुराण के अनुसार जो व्यक्ति नियमित अपने माथे पर भस्म से त्रिपुण्ड यानी तीन रेखाएं सिर के एक सिरे से दूसरे सिरे तक धारण करता है, उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और व्यक्ति शिव कृपा का पात्र बन जाता है.
त्रिपुण्ड चंदन या भस्म से लगाया जाता है. चंदन और भस्म माथे को शीतलता प्रदान करता है. अधिक मानसिक श्रम करने से विचारक केंद्र में पीड़ा होने लगती है. ऐसे में त्रिपुण्ड ज्ञान-तंतुओं को शीतलता प्रदान करता है. इससे मानसिक शांति मिलती है.! ✨👁✨
ॐ नमः शिवाया ~ जय भोलेनाथ ~ हरी ॐ तत् सत!
[18:49, 6/4/2018] Kumar Mith: अक्सर आपने साधु-संतो या तपस्वियों, पंडितों के माथे पर चन्दन या भस्म से बनी तीन रेखाएं देखी होंगी. ये कोई साधारण रेखाएं नहीं हैं बल्कि इन्हें त्रिपुण्ड कहा जाता है. माथे पर चंदन या भस्म से बनी तीन रेखाएं त्रिपुण्ड कहलाती हैं. चन्दन या भस्म द्वारा तीन उंगुलियों की मदद से त्रिपुंड बनाया जाता है. त्रिपुण्ड की तीन रेखाओं में 27 देवताओं का वास होता है. प्रत्येक रेखा में 9 देवताओं का वास होता हैं. त्रिपुण्ड धारण करने वालों पर शिव की विशेष कृपा होती है.
ये विचार मन में ना रखें कि त्रिपुण्ड केवल माथे पर ही लगाया जाता है. त्रिपुण्ड शरीर के कुल 32 अंगों पर लगाया जाता है क्योंकि अलग- अलग अंग पर लगाए जाने वाले त्रिपुण्ड का प्रभाव और महत्व भी अलग है. इन अंगों में मस्तक, ललाट, दोनों कान, दोनों नेत्र, दोनों कोहनी, दोनों कलाई, ह्रदय, दोनों पाश्र्व भाग, नाभि, दोनों घुटने, दोनों पिंडली और दोनों पैर शामिल हैं.
शरीर के हर हिस्से में देवताओं का वास माना गया है. मस्तक में शिव, केश में चंद्रमा, दोनों कानों में रुद्र और ब्रह्मा मुख में गणेश, दोनों भुजाओं में विष्णु और लक्ष्मी, ह्रदय में शंभू, नाभि में प्रजापति, दोनों उरुओं में न
[18:53, 6/4/2018] Kumar Mith: अक्सर आपने साधु-संतो या तपस्वियों, पंडितों के माथे पर चन्दन या भस्म से बनी तीन रेखाएं देखी होंगी. ये कोई साधारण रेखाएं नहीं हैं बल्कि इन्हें त्रिपुण्ड कहा जाता है. माथे पर चंदन या भस्म से बनी तीन रेखाएं त्रिपुण्ड कहलाती हैं. चन्दन या भस्म द्वारा तीन उंगुलियों की मदद से त्रिपुंड बनाया जाता है. त्रिपुण्ड की तीन रेखाओं में 27 देवताओं का वास होता है. प्रत्येक रेखा में 9 देवताओं का वास होता हैं. त्रिपुण्ड धारण करने वालों पर शिव की विशेष कृपा होती है.
ये विचार मन में ना रखें कि त्रिपुण्ड केवल माथे पर ही लगाया जाता है. त्रिपुण्ड शरीर के कुल 32 अंगों पर लगाया जाता है क्योंकि अलग- अलग अंग पर लगाए जाने वाले त्रिपुण्ड का प्रभाव और महत्व भी अलग है. इन अंगों में मस्तक, ललाट, दोनों कान, दोनों नेत्र, दोनों कोहनी, दोनों कलाई, ह्रदय, दोनों पाश्र्व भाग, नाभि, दोनों घुटने, दोनों पिंडली और दोनों पैर शामिल हैं.
शरीर के हर हिस्से में देवताओं का वास माना गया है. मस्तक में शिव, केश में चंद्रमा, दोनों कानों में रुद्र और ब्रह्मा मुख में गणेश, दोनों भुजाओं में विष्णु और लक्ष्मी, ह्रदय में शंभू, नाभि में प्रजापति, दोनों उरुओं में नाग और नागकन्याएं, दोनों घुटनों में ऋषि कन्याएं, दोनों पैरों में समुद्र और विशाल पुष्ठभाग में सभी तीर्थ देवता रूप में रहते हैं.
भस्म जली हुई वस्तुओं की राख होता है लेकिन सभी राख भस्म के रूप में प्रयोग करने योग्य नहीं होती हैं. भस्म के तौर पर उन्हीं राख का प्रयोग करना चाहिए, जो पवित्र कार्य के लिए किये गये हवन या यज्ञ से प्राप्त हो. शिव पुराण के अनुसार जो व्यक्ति नियमित अपने माथे पर भस्म से त्रिपुण्ड यानी तीन रेखाएं सिर के एक सिरे से दूसरे सिरे तक धारण करता है, उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और व्यक्ति शिव कृपा का पात्र बन जाता है.
त्रिपुण्ड चंदन या भस्म से लगाया जाता है. चंदन और भस्म माथे को शीतलता प्रदान करता है. अधिक मानसिक श्रम करने से विचारक केंद्र में पीड़ा होने लगती है. ऐसे में त्रिपुण्ड ज्ञान-तंतुओं को शीतलता प्रदान करता है. इससे मानसिक शांति मिलती है.! ✨👁✨
ॐ नमः शिवाया ~ जय भोलेनाथ ~ हरी ॐ तत् सत!
[18:54, 6/4/2018] Kumar Mith: दोनों उरुओं में नाग और नागकन्याएं, दोनों घुटनों में ऋषि कन्याएं, दोनों पैरों में समुद्र और विशाल पुष्ठभाग में सभी तीर्थ देवता रूप में रहते हैं.
भस्म जली हुई वस्तुओं की राख होता है लेकिन सभी राख भस्म के रूप में प्रयोग करने योग्य नहीं होती हैं. भस्म के तौर पर उन्हीं राख का प्रयोग करना चाहिए, जो पवित्र कार्य के लिए किये गये हवन या यज्ञ से प्राप्त हो. शिव पुराण के अनुसार जो व्यक्ति नियमित अपने माथे पर भस्म से त्रिपुण्ड यानी तीन रेखाएं सिर के एक सिरे से दूसरे सिरे तक धारण करता है, उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और व्यक्ति शिव कृपा का पात्र बन जाता है.
त्रिपुण्ड चंदन या भस्म से लगाया जाता है. चंदन और भस्म माथे को शीतलता प्रदान करता है. अधिक मानसिक श्रम करने से विचारक केंद्र में पीड़ा होने लगती है. ऐसे में त्रिपुण्ड ज्ञान-तंतुओं को शीतलता प्रदान करता है. इससे मानसिक शांति मिलती है.! ✨👁✨
ॐ नमः शिवाया ~ जय भोलेनाथ ~ हरी ॐ तत् सत!
[19:58, 6/7/2018] Kumar Mith: इस पजल के लिए पीछे से हल करना आसान होगा।
छोटी बहन के यहाँ वो ( 5000 + 2000 )/2 = 3500 रकम लेकर आया होगा
मंझली बहन के यहां वो ( 3500 + 2000 )/2 = 2750 रकम लेकर आया होगा
इसी तरह बढ़ी बहन के यहाँ वो ( 2750 + 2000 ) / 2 = 2375 की रकम लेकर आया होगा
[20:53, 6/7/2018] Kumar Mith: जानें कुण्डलिनी चक्र कैसे आपके स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं
[20:53, 6/7/2018] Kumar Mith: चक्र को सिर्फ आध्यात्मिकता के साथ ही जोड़ा जाता है, लेकिन इनका प्रभाव हमारे शरीरिक स्वास्थ्य पर भी देखने को मिलता है। इसमें किसी एक चक्र में समस्या होने पर भी यह हमारे शरीर को सीधे तौर पर प्रभावित करता है।
[20:53, 6/7/2018] Kumar Mith: 2.स्वाधिस्तना (सेक्रल): इस चक्र के बंद होने के कारण व्यक्ति को कमर के नीचे काफी ज्यादा दर्द, पेशाब और किडनी में इन्फेक्शन, अल्सर, बांझपन, असामान्य माहवारी, भावनात्मक बदलाव देखने को मिलता है। ऐसा होने का कारण होता है उससे सम्बंधित अंगों में हार्मोन्स का असंतुलित होना, इसमें प्रमुख रूप से प्रोजेस्टेरोन और एस्ट्रोजेन, टेस्ट्स हार्मोन्स शामिल होते हैं। [ये भी पढ़ें: अध्यात्मिक होने के लिये जरुरी है खुुद से रुबरु होना]
[20:53, 6/7/2018] Kumar Mith: इन सात चक्रों का स्वास्थ पर पड़ने वाला प्रभाव:
1.मूलाधार (रूट): इस चक्र के बंद हो जाने के कारण व्यक्ति को थकावट, भूख में परिवर्तन, वित्तीय तनाव, उत्सुकता, घबराहट आदि जैसे समस्याएं होने लगती है। इसके पीछे का कारण होता है, इस चक्र से संबंधित अंगों में एड्रिनल नामक हार्मोन्स में असंतुलन होने लगता है जिसके कारण यह समस्याएं देखने को मिलती है।
[20:53, 6/7/2018] Kumar Mith: 3.मनिपुरा (सोलर प्लेक्सस) : मनिपुरा चक्र में बंद हो जाने के कारण डायबिटीज, अग्नाशयशोथ, भाटा, वजन के संबंधित समस्याएं, अल्सर, क्रोध आदि जैसी स्वास्थ्य सम्बंधित दिक्कतें होने लगती हैं। इन समस्याओं के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार पैंक्रियास से निकलने वाले हार्मोन्स होते हैं।
[20:53, 6/7/2018] Kumar Mith: 4. अनाहत ( हार्ट): अनाहत चक्र व्यक्ति के दिल, फेफड़े, बाहें, स्तन, ऊपरी पीठ, कंधों, पसलियों से संबंध रखता है। इस चक्र में बंद होने पर व्यक्ति को फेफड़े की समस्याएं, पाचन समस्याओं, कम ऊर्जा, ईर्ष्या, क्षमा करने में असमर्थता जैसी समस्याएं देखने को मिलती है। यह चक्र हमारे शरीर में पाए जाने वाले थाइमस नामक हार्मोन ऑर्गन से संबधित होता है।
[20:53, 6/7/2018] Kumar Mith: 5.विशुद्धा (थ्रोट): इस चक्र के बंद होने पर यह सीधे तौर पर व्यक्ति के गले और उसके आस-पास के हिस्से में समस्या देखने को मिलता है। इसके बंद होने पर गले में लंबे समय में तक दर्द रहता है, दांतों से जुड़ी समस्याएं होने लगती है और गर्दन में दर्द रहने लगता है। इस चक्र का संबंध हमारे गले के निचले हिस्से में पाया जाने वाला हार्मोन थाइरॉइड से होता है।
[20:53, 6/7/2018] Kumar Mith: सात चक्र और उससे संबंधित शारीरिक अंग
सात चक्र अंग मूलाधार – घुटना, एड़ियां, पैर, कुल्हे।स्वाधिस्तना – पीठ का निचला हिस्सा, बड़ी आंत, जननांग, मूत्राशय।मनिपुरा – लिवर ,पित्ताशय की थैली, गुर्दे और छोटी आंत।अनाहत – दिल, फेफड़े, हथियार, बाहें, स्तन, ऊपरी पीठ, कंधों, पसलियों।विशुद्धा – गले, गर्दन, जबड़े, दांत, कंधों, कान, मुंह।अजन – आँखें, सिर, मस्तिष्क, नाक, साइनस, माथे।सहस्रार – सिर।
[20:53, 6/7/2018] Kumar Mith: 6.अजन (थर्ड ऑय): इस चक्र का सम्बन्ध व्यक्ति के सिर और उसके आस-पास के अंगों जैसे नाक, आंख, माथा से होता है। अजन चक्र के बंद हो जाने के कारण व्यक्ति को सिर में दर्द, मेमोरी का कमजोर हो जाना, मानसिक रूप से थकावट अादि समस्याएं होने लगती है। इसका कारण होता है हमारे शरीर में पाए जाने वाले पिट्यूटरी हार्मोन के कारण होता है। 7.सहस्रार (क्राउन): यह चक्र व्यक्ति के शरीर में सबसे ऊपर का चक्र माना जाता है, जिसके बंद होने पर व्यक्ति को मानसिक विकार, डिप्रेशन, एंग्जायटी, सिरदर्द जैसे समस्याएं होने लगती है। जो हमारे शरीर में पीनल नामक हार्मोन के कारण होता है। [ये भी पढ़ें: उपाय जो आपके जीवन में लाएंगे अध्यात्मिकता का प्रकाश]
[11:24, 6/8/2018] Kumar Mith: मैंने एक कहानी सुनी है। एक आदमी को शिव की पूजा करते—करते और रोज शिव का सिर खाते—खाते...क्योंकि पूजा और क्या है, सिवाय सिर खाने के। एक ही धुन, एक ही रट हे प्रभु, कुछ ऐसी चीजें दे दो कि जिंदगी में मजा आ जाए। एक ही बार मांगता हूं। मगर देना कुछ ऐसा कि फिर मांगने को ही न रह जाए। परेशानी में, हैरान होकर, क्योंकि सुबह देखे न सांझ यह आदमी, न देखे रात, जब उठे तभी, आधी रात शिव के पीछे पड़ जाए। आखिर इसे वरदान में एक शंख शिव ने उठाकर दे दिया जो उन्हीं के पूजा स्थल में इसने रख छोड़ा था। और इसको कहा इस शंख की आज से यह खूबी है कि तुम इससे जो मांगोगे, तुम्हें देगा। अब तुम्हें कुछ और परेशान होने की जरूरत नहीं और पूजा—प्रार्थना की जरूरत नहीं। अब मुझे छुट्टी दो। जो तुम्हें चाहिए,वह इससे ही मांग लेना। यह तत्क्षण देगा। तुमने मांगा और मौजूद हुआ। उसने मांगकर देखा, सोने के रुपए और सोने के रुपए बरस गए। धन्यभाग हो गया। शिव न भी कहते तो भूल जाता। भूल—भाल गया शिव कहां गए, क्या हुआ, उन बेचारों पर क्या गुजरी, इस सब की कोई फिकर भी न रही। फिर न कोई पूजा थी, न कोई पाठ। फिर तो यह शंख था और जो चाहिए।
लेकिन एक मुसीबत हो गई। एक महात्मा इसके महल में मेहमान हुए। महात्मा के पास भी एक शंख था। इसके पास जो शंख था बिलकुल वैसा, लेकिन दो गुना बड़ा। और महात्मा उसे बड़े संभाल कर रखते था। उनके पास कुछ और न था। उनकी झोली में बस एक बड़ा शंख था। इसने पूछा कि आप इस शंख को इतना सम्हाल कर क्यों रखते हैं? उन्होंने कहा, यह कोई साधारण शंख नहीं, महाशंख, है। मांगों एक, देता है दो। कहो, बना दो एक महल—दो महल बताता है। एक की तो बात ही नहीं। हमेशा।
उस आदमी को लालच उठा। उसने कहा यह तो बड़े गजब की बात है। उसने कहा एक शंख तो मेरे पास भी है मगर छोटा मोटा। आपने नाहक मुझे दीन—दुखी बना दिया। मैं गरीब आदमी हो गया। जरा देखूं चमत्कार।
उन्होंने कहा, इसका चमत्कार देखना बड़ा मुश्किल है। रात के सन्नाटे में जब सब सो जाते हैं, तब निश्चित महूर्त में, अर्धरात्रि के सन्नाटों में इससे कुछ मांगने का नियम है। तुम जागते रहना और सुन लेना।
महात्मा शंख से ठीक अर्धरात्रि में कहा, दे दे कोहिनूर। उसने कहा, एक नहीं दूंगा, दो दूंगा। महात्मा ने कहा, भला सही दो दे दे। उसने कहा, दो नहीं चार। किससे बात कर रहा है, कुछ होश से बात करो! महात्मा ने कहा, भई चार ही दे दे। वह महाशंख बोला, अब आठ दूंगा। उस आदमी ने सुना, उसने कहा, हद हो गई, हम भी कहां का गरीब शंख लिए बैठे हैं! महात्मा के पैर पकड़ लिए। कहा आप तो महात्मा हैं, त्यागी व्रती हैं। इस गरीब का शंख आप ले लो, यह महाशंख मुझे दे दो।
महात्मा ने कहा, जैसी तुम्हारी मर्जी। हम तो इससे छुटकारा पाना ही चाहते थे। क्योंकि इस बेईमान ने हमें परेशान कर रखा है। मांगो कुछ, बकवास इतनी होती है, रात—रात गुजर जाती है। फिर भी वह न समझा कि मामला क्या है कि वह सिर्फ महाशंख था, कि वह सिर्फ बातचीत करता था, देता—वेता कुछ भी नहीं था। हमेशा संख्या दोहरी कर देता था। तुम कहो चार तो वह कहे आठ, तुम कहो आठ तो वह कहे सोलह। तुम कहो सोलह सही, वह कहे बत्तीस। तुम बोले संख्या कि उसने दो का गुणा किया। बस उसको दो का गुणा करना ही आता था। और उसको कुछ नहीं आता था।
महात्मा तो सुबह चले गए। जब इसने उस शंख से दूसरी रात्रि ठीक मुहूर्त में कुछ मांगा तो उसने कहा,अरे नालायक! क्या मांगता है एक? दूंगा दो। उसने कहा, भई दो दे दो। उसने कहा, दूंगा चार। चार ही दे दो। उसने कहा, दूंगा आठ। सुबह होने लगी। संख्या लंबी होने लगी। मोहल्ले के लोग इकट्ठे हो गए कि यह हो क्या रहा है? सारा मोहल्ला जग गया कि मामला क्या है संख्या बढ़ती जाती है, लेना…
[12:53, 6/8/2018] Kumar Mith: Sanjeev 2nd Floor
[11:42, 6/9/2018] Kumar Mith: कुछ भी ध्यान बन सकता है।
"काम वासना का उठना"
योनमुद्रा ध्यान-
काम -उर्जा को ध्यान में नियोजित कर,
तुरंत परिणाम देने वाला चमत्कारिक ध्यान प्रयोग।
ओशो इस ध्यान प्रयोग को 'योनमुद्रा' कहते हैं। और इस प्रयोग को तब करना है, जब किसी सुंदर चेहरे को देखकर मन को कामवासना पकड़े, और शरीर उत्तेजित हो, गहरी श्वास लेते हुए उर्जा को कामकेंद्र पर भेजने लगे।
तब इस प्रयोग को करना है।यानि इसे कहीं भी और कभी भी, जब मन कामातुर हो और शरीर को कामवासना घेरने लगे, तब इस ध्यान प्रयोग को करना है।
मन में कामवासना का विचार आते ही हमारा शरीर उसका अनुगमन करने लगता है। वह गहरी श्वास लेकर उर्जा को कामकेंद्र पर पहुंचाते हुए, कामवासना में उतरने की तैयारी करने लगता है, अर्थात मन में उठे कामवासना के 'विचार' को 'क्रिया' में परिवर्तित करने लगता है।
उर्जा यदि कामकेन्द्र पर पहुंच चुकी है, तो उसे लौटाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन भी है! जो उर्जा उठ चुकी है, यदि हम उसका उपयोग नहीं करेंगे तो वह अपना काम करेगी!
'सृजन' नहीं, तो 'विध्वंस'!
उर्ध्वगामी नहीं तो अधोगामी!
तो इस बाहर जाती उर्जा का, क्यों न हम भीतर के लिए उपयोग करें? साक्षी के लिए, ध्यान के लिए उपयोग करें?
कामवासना के पकड़ने पर पहले तो श्वास को धीमा करें, क्योंकि कामवासना में उतरने के लिए ज्यादा आक्सीजन की जरूरत होती है, इसलिए शरीर तेज श्वास लेने लगता है। यदि हम श्वास की इस लयबद्धता को तोड़ दें, यानि श्वास को धीमा लेना शुरू कर दें, तो कामवासना को उठने के पहले ही हम रोक देंगे।क्योंकि कामवासना को उठने के लिए श्वास की जितनी चोट मूलाधार चक्र पर होनी चाहिए, उतनी हम नहीं होने दे रहे हैं। यानि हम मालिक हो गए! हमने वासना को उसके मूल में ही रोक दिया। यदि हम कामवासना को उसके मूल में पकड़ सकते हैं तो यही बात क्रोध के संबंध में भी लागू हो सकती है! अर्थात यह ध्यान प्रयोग हमें अपने मन में उठने वाले भावों और विचारों पर मालकियत प्रदान करता है! भाव और विचारों के मालिक, यानि मन के मालिक। यहाँ आकर हम विचारों को देखने में समर्थ होंगे। अतः यहां आकर हमारा साक्षी में प्रवेश हो जाता हैं।
तो पहले श्वास को गहरी और धीमी कर लें। उतनी धीमी और गहरी, जितनी रात सोते समय नींद में होती है।
फिर आंखें बंद करके मूत्रद्वार और गुदाद्वार दोनों को भीतर सिकोड़ लें।
ठीक उसी तरह, जिस तरह से हम मल-मूत्र को रोकते हैं।
और अब आंखें बंद करके सारा ध्यान सिर में केन्द्रित करें। आँखें बंद करके सारा ध्यान सिर में लगा दें, जहां अंतिम सहस्त्रार चक्र है। सिर में उस जगह ध्यान केन्द्रित करना है जहां चुटिया होती है। यानी चुटिया वाली जगह को आंख बंद करके भीतर से देखना है।
ठीक उसी तरह से देखना है, जिस तरह मानो हम अपने कमरे में बैठे उपर छत को देख रहे हैं।
उर्जा हमारे भावों और विचारों से संचालित होती है। यानि जैसा भाव हम करेंगे, या जैसा विचार हम करेंगे, उसी दिशा में उर्जा नियोजित हो जाती है। यानि जहां हमारा ध्यान होगा उस दिशा में नियोजित होगी! तो क्यों न हम कामवासना वाले पहले मूलाधार चक्र से हटाकर राम वासना वाले सहस्त्रार चक्र पर ध्यान को लगा दें, ताकि उर्जा उस दिशा में बढने लगे।
हम चकित होंगे! यदि हम मूत्रद्वार और गुदाद्वार को भीतर सिकोड़ लेते हैं, जिसे योग में मूलबंध लगाना कहते हैं।
और आँखें बंद कर सारा ध्यान सिर में केन्द्रित करते हैं... और देखते रहते हैं... देखते रहते हैं... देखते रहते हैं... तो कुछ ही क्षणों में कामकेन्द्र पर उठी उर्जा, रीढ़ के माध्यम से चक्रों पर गति करती हुई सहस्त्रार की ओर बढ़ने लगती है, और कामकेंद्र शिथिल होने लगता है।…
[12:59, 6/11/2018] Kumar Mith: एक फकीर था। एक युवा फकीर था जपान के एक गांव में। उसकी बड़ी कीर्ति थी, उसकी बड़ी महिमा थी। सारा गांव उसे पूजता और आदर करता। उसके सम्मान में सारे गांव में गीत गाए जाते। लेकिन एक दिन सब बात बदल गई। गांव की एक युवती को गर्भ रह गया और उसे बच्चा हो गया। और उस युवती को घर के लोगों ने पूछा कि किसका बच्चा है, तो उसने उस साधु का नाम ले दिया कि उस युवा फकीर का यह बच्चा है। फिर देर कितनी लगती है, प्रशंसक शत्रु बनने में कितनी देर लेते हैं? जरा सी भी देर नहीं लेते, क्योंकि प्रशंसक के मन में हमेशा भीतर तो निंदा छिपी रहती है। मौके की तलाश करती है, जिस दिन प्रशंसा खत्म हो जाए उस दिन निंदा शुरू हो जाती है। आदर देने वाले लोग, एक क्षण में अनादर देना शुरू कर देते हैं। पैर छूने वाले लोग, एक क्षण में सिर काटना शुरू कर देते हैं, इसमें कोई भेद नहीं है इन दोनों में। यह एक ही आदमी की दो शक्लें हैं।
वे सारे गांव के लोग फकीर के झोपड़े पर टूट पड़े। इतने दिनों का सप्रेस था भीतर, इतनी श्रद्धा दी थी तो दिल में तो क्रोध इकट्ठा हो ही गया था कि यह आदमी बड़ी श्रद्धा लिए जा रहा है! आज अश्रद्धा देने का मौका मिला था तो कोई भी पीछे नहीं रहना चाहता था। उन्होंने जाकर उस फकीर के झोपड़े पर आग लगा दी। और जाकर उस बच्चे को, एक दिन के बच्चे को उस फकीर के ऊपर पटक दिया।
उस फकीर ने पूछा कि बात क्या है? तो उन लोगों ने कहा यह भी हमसे पूछते हो कि बात क्या है? यह बच्चा तुम्हारा है, यह भी हमें बताना पड़ेगा कि बात क्या है? अपने जलते मकान को देखो, और अपने भीतर दिल को देखो, और इस बच्चे को देखो, और इस लड़की को देखो। हमसे पूछने की जरूरत नहीं, यह बच्चा तुम्हारा है।
वह फकीर बोला इज इट सो? ऐसी बात है, बच्चा मेरा है? वह बच्चा रोने लगा तो उस बच्चे को वह चुप कराने के लिए गीत गाने लगा। वे लोग उसका मकान जला कर वापस लौट गए। फिर वह अपने रोज के समय पर, दोपहर हुई और भीख मांगने निकला। लेकिन आज उस गांव में उसे कौन भीख देगा? आज जिस द्वार पर भी वह खड़ा हुआ, वह द्वार बंद हो गया। आज उसके पीछे बच्चों की टोली और लोगों की भीड़ चलने लगी, मजाक करती, पत्थर फेंकती। वह उस घर के सामने पहुंचा जिस घर की वह लड़की थी और जिस लड़की का वह बच्चा था। उसने वहां आवाज दी और उसने कहा कि मेरे लिए भीख मिले न मिले, लेकिन इस बच्चे के लिए तो दूध मिल जाए! मेरा कसूर भी हो सकता है, लेकिन इस बेचारे का क्या कसूर हो सकता है?
वह बच्चा रो रहा है, भीड़ वहां खड़ी है। उस लड़की के सहनशीलता के बाहर हो गई बात। वह अपने पिता के पैर पर गिर पड़ी और उसने कहा : मुझे माफ करें, मैंने साधु का नाम झूठा ही ले दिया। उस बच्चे के असली बाप को बचाने के लिए मैंने सोचा कि साधु का नाम ले दूं। साधु से मेरा कोई परिचय भी नहीं है।
बाप तो घबड़ा आया। यह तो बड़ी दुर्घटना हो गई। वह नीचे भागा हुआ आया, फकीर के पैर पर गिर पड़ा और उससे बच्चा छीनने लगा।
और उस फकीर ने पूछा : बात क्या है? उसके बाप ने कहा : माफ करें, भूल हो गई, यह बच्चा आपका नहीं है। उस फकीर ने पूछा : इज इट सो। ऐसी बात है कि यह बच्चा मेरा नहीं है? तो उस बाप ने, उस गांव के लोगों ने कहा. पागल हो तुम! तुमने सुबह ही क्यों नहीं इनकार किया? उस फकीर ने कहा. इससे क्या फर्क पड़ता था, बच्चा किसी न किसी का होगा ही। और एक झोपड़ा तुम जला ही चुके थे। अब तुम दूसरा जलाते। और एक आदमी को तुम बदनाम करने का मजा ले ही चुके थे, तुम एक आदमी को और बदनाम करने का मजा लेते। इससे क्या फर्क पड़ता था? बच्चा किसी न किसी का होगा, मेरा भी हो सकता है; इसमें क्या हर्जा! इसमें क्या फर्क क्या पड़ गया? तो लोगों ने कहा : तुम्हें इतनी भी समझ …
[13:54, 6/11/2018] Kumar Mith: बिना किसी समस्या के जीवन भर तंदरुस्त रहने का सबसे अच्छा, सुरक्षित, आसान और स्वस्थ तरीका योग है। इसके लिए केवल शरीर के क्रियाकलापों और श्वास लेने के सही तरीकों का नियमित अभ्यास करने की आवश्यकता है। यह शरीर के तीन मुख्य तत्वों; शरीर, मस्तिष्क और आत्मा के बीच संपर्क को नियमित करना है। यह शरीर के सभी अंगों के कार्यकलाप को नियमित करता है और कुछ बुरी परिस्थितियों और अस्वास्थ्यकर जीवन-शैली के कारण शरीर और मस्तिष्क को परेशानियों से बचाव करता है। यह स्वास्थ्य, ज्ञान और आन्तरिक शान्ति को बनाए रखने में मदद करता है। अच्छे स्वास्थ्य प्रदान करने के द्वारा यह हमारी भौतिक आवश्यकताओं को पूरा करता है, ज्ञान के माध्यम से यह मानसिक आवश्यकताओं को पूरा करता है और आन्तरिक शान्ति के माध्यम से यह आत्मिक आवश्यकता को पूरा करता है, इस प्रकार यह हम सभी के बीच सामंजस्य बनाए रखने में मदद करता है।
सुबह को योग का नियमित अभ्यास हमें अनगिनत शारीरिक और मानसिक तत्वों से होने वाली परेशानियों को दूर रखने के द्वारा बाहरी और आन्तरिक राहत प्रदान करता है। योग के विभिन्न आसन मानसिक और शारीरिक मजबूती के साथ ही अच्छाई की भावना का निर्माण करते हैं। यह मानव मस्तिष्क को तेज करता है, बौद्धिक स्तर को सुधारता है और भावनाओं को स्थिर रखकर उच्च स्तर की एकाग्रता में मदद करता है। अच्छाई की भावना मनुष्य में सहायता की प्रकृति के निर्माण करती है और इस प्रकार, सामाजिक भलाई को बढ़ावा देती है। एकाग्रता के स्तर में सुधार ध्यान में मदद करता है और मस्तिष्क को आन्तरिक शान्ति प्रदान करता है। योग प्रयोग किया गया दर्शन है, जो नियमित अभ्यास के माध्यम से स्व-अनुशासन और आत्म जागरुकता को विकसित करता है।
योग का अभ्यास किसी के भी द्वारा किया जा सकता है, क्योंकि आयु, धर्म या स्वस्थ परिस्थितियों परे है। यह अनुशासन और शक्ति की भावना में सुधार के साथ ही जीवन को बिना किसी शारीरिक और मानसिक समस्याओं के स्वस्थ जीवन का अवसर प्रदान करता है। पूरे संसार में इसके बारे में जागरुकता को बढ़ावा देने के लिए, भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने, संयुक्त संघ की सामान्य बैठक में 21 जून को अन्तरराष्ट्रीय योग दिवस के रुप में मनाने की घोषणा करने का सुझाव दिया था, ताकि सभी योग के बारे में जाने और इसके प्रयोग से लाभ लें। योग भारत की प्राचीन परम्परा है, जिसकी उत्पत्ति भारत में हुई थी और योगियों के द्वारा तंदरुस्त रहने और ध्यान करने के लिए इसका निरन्तर अभ्यास किया जाता है। निक जीवन में योग के प्रयोग के लाभों को देखते हुए संयुक्त संघ की सभा ने 21 जून को अन्तरराष्ट्रीय योग दिवस या विश्व योग दिवस के रुप में मनाने की घोषणा कर दी है।
हम योग से होने वाले लाभों की गणना नहीं कर सकते हैं, हम इसे केवल एक चमत्कार की तरह समझ सकते हैं, जिसे मानव प्रजाति को भगवान ने उपहार के रुप में प्रदान किया है। यह शारीरिक तंदरुस्ती को बनाए रखता है, तनाव को कम करता है, भावनाओं को नियंत्रित करता है, नकारात्मक विचारों को नियंत्रित करता है और भलाई की भावना, मानसिक शुद्धता, आत्म समझ को विकसित करता है साथ ही प्रकृति से जोड़ता है।
[13:57, 6/11/2018] Kumar Mith: दोस्तों , आज की तेज रफ्तार जिंदगी में अनेक ऐसे पल हैं जो हमारी स्पीड पर ब्रेक लगा देते हैं। हमारे आस-पास ऐसे अनेक कारण विद्यमान हैं जो तनाव, थकान तथा चिड़चिड़ाहट को जन्म देते हैं, जिससे हमारी जिंदगी अस्त-व्यस्त हो जाती है। ऐसे में जिंदगी को स्वस्थ तथा ऊर्जावान बनाये रखने के लिये योग एक ऐसी रामबाण दवा है जो, माइंड को कूल तथा बॉडी को फिट रखता है। योग से जीवन की गति को एक संगीतमय रफ्तार मिल जाती है।
[14:00, 6/11/2018] Kumar Mith: दोस्तों , आज की तेज रफ्तार जिंदगी में अनेक ऐसे पल हैं जो हमारी स्पीड पर ब्रेक लगा देते हैं। हमारे आस-पास ऐसे अनेक कारण विद्यमान हैं जो तनाव, थकान तथा चिड़चिड़ाहट को जन्म देते हैं, जिससे हमारी जिंदगी अस्त-व्यस्त हो जाती है। ऐसे में जिंदगी को स्वस्थ तथा ऊर्जावान बनाये रखने के लिये योग एक ऐसी रामबाण दवा है जो, माइंड को कूल तथा बॉडी को फिट रखता है। योग से जीवन की गति को एक संगीतमय रफ्तार मिल जाती है।
योग हमारी भारतीय संस्कृति की प्राचीनतम पहचान है। संसार की प्रथम पुस्तक ऋग्वेद में कई स्थानों पर यौगिक क्रियाओं के विषय में उल्लेख मिलता है। भगवान शंकर के बाद वैदिक ऋषि-मुनियों से ही योग का प्रारम्भ माना जाता है। बाद में कृष्ण, महावीर और बुद्ध ने इसे अपनी तरह से विस्तार दिया। इसके पश्चात पतंजली ने इसे सुव्यवस्थित रूप दिया।
पतंजली योग दर्शन के अनुसार – योगश्चित्तवृत्त निरोधः
अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है।
योग धर्म, आस्था और अंधविश्वास से परे एक सीधा विज्ञान है… जीवन जीने की एक कला है योग। योग शब्द के दो अर्थ हैं और दोनों ही महत्वपूर्ण हैं।
पहला है- जोड़ और दूसरा है समाधि।
जब तक हम स्वयं से नहीं जुड़ते, समाधि तक पहुँचना कठिन होगा अर्थात जीवन में सफलता की समाधि पर परचम लहराने के लिये तन, मन और आत्मा का स्वस्थ होना अति आवश्यक है और ये मार्ग और भी सुगम हो सकता है, यदि हम योग को अपने जीवन का हिस्सा बना लें। योग विश्वास करना नहीं सिखाता और न ही संदेह करना और विश्वास तथा संदेह के बीच की अवस्था संशय के तो योग बिलकुल ही खिलाफ है। योग कहता है कि आपमें जानने की क्षमता है, इसका उपयोग करो।
अनेक सकारात्मक ऊर्जा लिये योग का गीता में भी विशेष स्थान है। भगवद्गीता के अनुसार –
सिद्दध्यसिद्दध्यो समोभूत्वा समत्वंयोग उच्चते
अर्थात् दुःख-सुख, लाभ-अलाभ, शत्रु-मित्र, शीत और उष्ण आदि द्वन्दों में सर्वत्र समभाव रखना योग है।
महात्मा गांधी ने अनासक्ति योग का व्यवहार किया है। योगाभ्यास का प्रामाणिक चित्रण लगभग 3000 ई.पू. सिन्धु घाटी सभ्यता के समय की मोहरों और मूर्तियों में मिलता है। योग का प्रामाणिक ग्रंथ ‘योग सूत्र’ 200 ई.पू. योग पर लिखा गया पहला सुव्यवस्थित ग्रंथ है।
ओशो के अनुसार, ‘योग धर्म, आस्था और अंधविश्वास से परे एक सीधा प्रायोगिक विज्ञान है। योग जीवन जीने की कला है। योग एक पूर्ण चिकित्सा पद्धति है। एक पूर्ण मार्ग है-राजपथ। दरअसल धर्म लोगों को खूँटे से बाँधता है और योग सभी तरह के खूँटों से मुक्ति का मार्ग बताता है।’
प्राचीन जीवन पद्धति लिये योग, आज के परिवेश में हमारे जीवन को स्वस्थ और खुशहाल बना सकते हैं। आज के प्रदूषित वातावरण में योग एक ऐसी औषधि है जिसका कोई साइड इफेक्ट नहीं है, बल्कि योग के अनेक आसन जैसे कि, शवासन हाई ब्लड प्रेशर को सामान्य करता है, जीवन के लिये संजीवनी है कपालभाति प्राणायाम, भ्रामरी प्राणायाम मन को शांत करता है, वक्रासन हमें अनेक बीमारियों से बचाता है। आज कंप्यूटर की दुनिया में दिनभर उसके सामने बैठ-बैठे काम करने से अनेक लोगों को कमर दर्द एवं गर्दन दर्द की शिकायत एक आम बात हो गई है, ऐसे में शलभासन तथा तङासन हमें दर्द निवारक दवा से मुक्ति दिलाता है। पवनमुक्तासन अपने नाम के अनुरूप पेट से गैस की समस्या को दूर करता है। गठिया की समस्या को मेरूदंडासन दूर करता है। योग में ऐसे अनेक आसन हैं जिनको जीवन में अपनाने से कई बीमारियां समाप्त हो जाती हैं और खतरनाक बीमारियों का असर भी कम हो जाता है। 24 घंटे में से महज कुछ मिनट का ही प्रयोग यदि योग में उपयोग करते हैं तो अपनी सेहत को हम चुस्त-दुरुस्त रख सकते हैं। फिट रहने के साथ ही …
[18:56, 6/12/2018] Kumar Mith: लेकिन खोजना और मांगना दो अलग बातें हैं। असल में, जो खोजना नहीं चाहता वही मांगता है। खोजना और मांगना एक तो हैं ही नहीं, विपरीत बातें हैं। खोजने से जो बचना चाहता है वह मांगता है, खोजी कभी नहीं मांगता। और खोज और मांगने की प्रक्रिया बिलकुल अलग है। मांगने में दूसरे पर ध्यान रखना पड़ेगा—जिससे मिलेगा। और खोजने में अपने पर ध्यान रखना पड़ेगा—जिसको मिलेगा।
यह तो ठीक है कि साधक के मार्ग पर बाधाएं हैं। लेकिन साधक के मार्ग पर बाधाएं हैं, अगर हम ठीक से समझें तो इसका मतलब होता है कि साधक के भीतर बाधाएं हैं; मार्ग भी भीतर है। और अपनी बाधाओं को समझ लेना बहुत कठिन नहीं है। तो इस संबंध में थोड़ी सी विस्तीर्ण बात करनी पड़ेगी कि बाधाएं क्या हैं और साधक उन्हें कैसे दूर कर सकेगा।
जैसे मैंने कल सात शरीरों की बात कही, उस संबंध में कुछ और बात समझेंगे तो यह भी समझ में आ सकेगा।
मूलाधार चक्र की संभावनाएं:
जैसे सात शरीर हैं, ऐसे ही सात चक्र भी हैं। और प्रत्येक एक चक्र मनुष्य के एक शरीर से विशेष रूप से जुड़ा हुआ है। जैसे सात शरीर में जो हमने कहे— भौतिक शरीर, फिजिकल बॉडी, इस शरीर का जो चक्र है, वह मूलाधार है; वह पहला चक्र है। इस मूलाधार चक्र का भौतिक शरीर से केंद्रीय संबंध है; यह भौतिक शरीर का केंद्र है। इस मूलाधार चक्र की दो संभावनाएं हैं एक इसकी प्राकृतिक संभावना है, जो हमें जन्म से मिलती है; और एक साधना की संभावना है, जो साधना से उपलब्ध होती है।
मूलाधार चक्र की प्राथमिक प्राकृतिक संभावना कामवासना है, जो हमें प्रकृति से मिलती है; वह भौतिक शरीर की केंद्रीय वासना है। अब साधक के सामने पहला ही सवाल यह उठेगा कि यह जो केंद्रीय तत्व है उसके भौतिक शरीर का, इसके लिए क्या करे? और इस चक्र की एक दूसरी संभावना है, जो साधना से उपलब्ध होगी, वह ब्रह्मचर्य है। सेक्स इसकी प्राकृतिक संभावना है और ब्रह्मचर्य इसका ट्रांसफामेंशन है, इसका रूपांतरण है। जितनी मात्रा में चित्त कामवासना से केंद्रित और ग्रसित होगा, उतना ही मूलाधार अपनी अंतिम संभावनाओं को उपलब्ध नहीं कर सकेगा। उसकी अंतिम संभावना ब्रह्मचर्य है। उस चक्र की दो संभावनाएं हैं एक जो हमें प्रकृति से मिली, और एक जो हमें साधना से मिलेगी।
न भोग, न दमन—वरन जागरण:
अब इसका मतलब यह हुआ कि जो हमें प्रकृति से मिली है उसके साथ हम दो काम कर सकते हैं या तो जो प्रकृति से मिला है हम उसमें जीते रहें, तब जीवन में साधना शुरू नहीं हो पाएगी; दूसरा काम जो संभव है वह यह कि हम इसे रूपांतरित करें। रूपांतरण के पथ पर जो बड़ा खतरा है, वह खतरा यही है कि कहीं हम प्राकृतिक केंद्र से लड़ने न लगें। साधक के मार्ग में खतरा क्या है? या तो जो प्राकृतिक व्यवस्था है वह उसको भागे, तब वह उठ नहीं पाता उस तक जो चरम संभावना है—जहां तक उठा जा सकता था; भौतिक शरीर जहां तक उसे पहुंचा सकता था वहां तक वह नहीं पहुंच पाता; जहां से शुरू होता है वहीं अटक जाता है। तो एक तो भोग है। दूसरा दमन है, कि उससे लड़े। दमन बाधा है साधक के मार्ग पर— पहले केंद्र की जो बाधा है। क्योंकि दमन के द्वारा कभी ट्रांसफामेंशन, रूपांतरण नहीं होता।
दमन बाधा है तो फिर साधक क्या बनेगा? साधन क्या होगा?
समझ साधन बनेगी, अंडरस्टैंडिंग साधन बनेगी। कामवासना को जो जितना समझ पाएगा उतना ही उसके भीतर रूपांतरण होने लगेगा। उसका कारण है. प्रकृति के सभी तत्व हमारे भीतर अंधे और मूर्च्छित हैं। अगर हम उन तत्वों के प्रति होशपूर्ण हो जाएं तो उनमें रूपांतरण होना शुरू हो जाता है। जैसे ही हमारे भीतर कोई चीज जागनी शुरू होती है वैसे ही प्रकृति के तत्व बदलने शुरू हो जाते हैं। जागरण कीमिया है, अवेयरनेस केमिस्ट्री है उ…
[18:58, 6/12/2018] Kumar Mith: मणिपुर चक्र की संभावनाएं:
तीसरा शरीर मैंने कहा, एस्ट्रल बॉडी है, सूक्ष्म शरीर है। उस सूक्ष्म शरीर के भी दो हिस्से हैं। प्राथमिक रूप से सूक्ष्म शरीर संदेह, विचार, इनके आसपास रुका रहता है। और अगर ये रूपांतरित हो जाएं—संदेह अगर रूपांतरित हो तो श्रद्धा बन जाता है; और विचार अगर रूपांतरित हो तो विवेक बन जाता है।
संदेह को किसी ने दबाया तो वह कभी श्रद्धा को उपलब्ध नहीं होगा। हालांकि सभी तरफ ऐसा समझाया जाता है कि संदेह को दबा डालो, विश्वास कर लो। जिसने संदेह को दबाया और विश्वास किया, वह कभी श्रद्धा को उपलब्ध नहीं होगा; उसके भीतर संदेह मौजूद ही रहेगा— दबा हुआ; भीतर कीड़े की तरह सरकता रहेगा और काम करता रहेगा। उसका विश्वास संदेह के भय से ही थोपा हुआ होगा।
न, संदेह को समझना पड़ेगा, संदेह को जीना पड़ेगा, संदेह के साथ चलना पड़ेगा। और संदेह एक दिन उस जगह पहुंचा देता है, जहां संदेह पर भी संदेह हो जाता है। और जिस दिन संदेह पर संदेह होता है उसी दिन श्रद्धा की शुरुआत हो जाती है। विचार को छोड्कर भी कोई विवेक को उपलब्ध नहीं हो सकता। विचार को छोड़नेवाले लोग हैं, छुड़ानेवाले लोग हैं; वे कहते हैं—विचार मत करो, विचार छोड़ ही दो। अगर कोई विचार छोड़ेगा, तो विश्वास और अंधे विश्वास को उपलब्ध होगा। वह विवेक नहीं है। विचार की सूक्ष्मतम प्रक्रिया से गुजरकर ही कोई विवेक को उपलब्ध होता है।
विवेक का क्या मतलब है?
विचार में सदा ही संदेह मौजूद है। विचार सदा इनडिसीसिव है। इसलिए बहुत विचार करनेवाले लोग कभी कुछ तय नहीं कर पाते। और जब भी कोई कुछ तय करता है, वह तभी तय कर पाता है जब विचार के चक्कर के बाहर होता है। डिसीजन जो है वह हमेशा विचार के बाहर से आता है। अगर कोई विचार में पड़ा रहे तो वह कभी निश्चय नहीं कर पाता। विचार के साथ निश्चय का कोई संबंध नहीं है।
इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि विचारहीन बड़े निश्चयात्मक होते हैं, और विचारवान बड़े निश्चयहीन होते हैं। दोनों से खतरा होता है। क्योंकि विचारहीन बहुत डिसीसिव होते हैं। वे जो करते हैं, पूरी ताकत से करते हैं। क्योंकि उनमें विचार होता ही नहीं जो जरा भी संदेह पैदा कर दे। दुनिया भर के डाग्मेटिक, अंधे जितने लोग हैं, फेनेटिक जितने लोग हैं, ये बड़े कर्मठ होते हैं; क्योंकि इनमें शक का तो सवाल ही नहीं है, ये कभी विचार तो करते नहीं। अगर इनको ऐसा लगता है कि एक हजार आदमी मारने से स्वर्ग मिलेगा, तो एक हजार एक मारकर ही फिर रुकते हैं, उसके पहले वे नहीं रुकते। एक दफा उनको खयाल नहीं आता कि यह ऐसा— ऐसा होगा? उनमें कोई इनडिसीजन नहीं है। विचारवान तो सोचता ही चला जाता है, सोचता ही चला जाता है।
तो विचार के भय से अगर कोई विचार का द्वार ही बंद कर दे, तो सिर्फ अंधे विश्वास को उपलब्ध होगा। अंधा विश्वास खतरनाक है और साधक के मार्ग में बड़ी बाधा है। चाहिए आंखवाला विवेक, चाहिए ऐसा विचार जिसमें डिसीजन हो। विवेक का मतलब इतना ही होता है। विवेक का मतलब है कि विचार पूरा है, लेकिन विचार से हम इतने गुजरे हैं कि अब विचार की जो भी संदेह की, शक की बातें थीं, वे विदा हो गई हैं; अब धीरे— धीरे निष्कर्ष में शुद्ध निश्चय साथ रह गया है।
तो तीसरे शरीर का केंद्र है मणिपुर, चक्र है मणिपुर। उस मणिपुर चक्र के ये दो रूप हैं. संदेह और श्रद्धा। संदेह रूपांतरित होगा तो श्रद्धा बनेगी।
लेकिन ध्यान रखें श्रद्धा संदेह के विपरीत नहीं है, शत्रु नहीं है, श्रद्धा संदेह का ही शुद्धतम विकास है, चरम विकास है; वह आखिरी छोर है जहां संदेह का सब खो जाता है, क्योंकि संदेह स्वयं पर संदेह बन जाता है और स्युसाइडल हो जाता है, आत्मघात कर लेता है और श्रद्धा उपलब्ध होती है।
अनाहत चक्र की संभ…
[10:07, 6/16/2018] Kumar Mith: चिन्मय मुद्रा Chinmaya Mudra
इस मुद्रा में अंगूठा और तर्जनी चिन मुद्रा की तरह एक दूसरे को स्पर्श करते हैं, शेष उंगलियाँ मुड़कर हथेली को स्पर्श करती हैं|
हाथों को जाँघो पर हथेलियों को आकाश की ओर करके रखे और लंबी गहरी उज्जयी साँसे लें|
एक बार फिर साँस के प्रवाह और शरीर पर इसके प्रभाव को महसूस करें|
चिन्मय मुद्रा के लाभ |Benefits of Chinmaya Mudra
शरीर में ऊर्जा के प्रवाह को सुचारित करती है
पाचन शक्ति हो बढ़ती है
[10:09, 6/16/2018] Kumar Mith: चिन मुद्रा Chin Mudra |
अपनी तर्जनी व अंगूठे को हल्के से स्पर्श करे और शेष तीनो उंगलियों को सीधा रखे|
अंगूठे व तर्जनी एक दूसरे हो हल्के से ही बिना दबाव के स्पर्श करें|
तीनो फैली उंगलियों को जितना हो सके सीधा रखे|
हाथों को जंघा पर रख सकते हैं, हथेलियों को आकाश की ओर रखे|
अब सांसो के प्रवाह व इसके शरीर पर प्रभाव पर ध्यान दें|
चिन मुद्रा के लाभ |Benefits of Chin Mudra
बेहतर एकाग्रता और स्मरण शक्ति
नींद में सुधार
शरीर में ऊर्जा की वृद्धि
कमर के दर्द में आराम
[23:37, 6/19/2018] Kumar Mith: 😃😃😃😃
गाव की पत्नी अपने पति को पीट रही थी ।
पडोसन बोली : "क्यों मार रही हो बेचारे को...??"
पत्नी बोली : "बेचारे नहीं हे ये !"
इसे फोन किया था तो एक लड़की बोली..
"जिस व्यक्ति से आप संपर्क करना चाहते हे वह अभी व्यस्त है... !"
😃😃😜😍😝
[15:58, 6/21/2018] Kumar Mith: पता है तुम्हारी और हमारी
मुस्कान में फ़र्क क्या है?
तुम खुश हो कर मुस्कुराते हो,
हम तुम्हे खुश देख के मुस्कुराते हैं..
[16:00, 6/21/2018] Kumar Mith: किसी को चाहो तो इस अंदाज़ से चाहो,
कि वो तुम्हे मिले या ना मिले,
मगर उसे जब भी प्यार मिले,
तो तुम याद आओ.
[16:03, 6/21/2018] Kumar Mith: Tere jism pe apne jism ko rakhu
Tere honton ko apne honton se maslu
Tujhe pyar main itni shiddat se karu
Ki us mithe dard se teri aah nikal jaye,
Dard se teri aankho se aasu jhalak jaye
Or tu tan se or mann se sirf meri ho jaye
Badan se tere lipta rahon or subha ho jaye
Subha tujse jb main puchu teri raat ka aalam
Tu sharma kar mere seene se lipat jaye…!
[23:28, 6/22/2018] Kumar Mith: तुम्हारे नाम जैसी, छलकते जाम जैसी
मुहब्बत सी नशीली शरद की चाँदनी है।
ह्रदय को मोहती है, प्रणय संगीत जैसी
नयन को सोहती है, सपन के मीत जैसी,
तुम्हारे रूप जैसी, वसंती धूप जैसी
मधुस्मृति सी रसीली शरद की चाँदनी है।
चाँदनी खिल रही है तुम्हारे हास जैसी,
उमंगें भर रही है मिलन की आस जैसी,
प्रणय की बाँह जैसी, अलक की छाँह जैसी
प्रिये, तुम सी लजीली शरद की चाँदनी है।
हुई है क्या ना जाने अनोखी बात जैसी
भरे पुलकन बदन में प्रथम मधु रात जैसी,
हँसी दिल खोल पुनम, गया अब हार संयम
वचन से भी हठीली शरद की चाँदनी है।
तुम्हारे नाम जैसी, छलकते जाम जैसी
मुहब्बत सी नशीली, शरद की चाँदनी है।
[11:07, 6/23/2018] Kumar Mith: चौथा प्रश्न : भगवान ,
एक बात मेरी समझ में नहीं आती कि जैसे आप बैठते हैं
ठीक वैसे ही पूरे दो घंटा बैठे रहते हैं ।
आपके शरीर का कोई अंग हिलता ही नहीं ,
केवल एक हाथ हिलता है ।
और हम पांच मिनिट भी शांत नहीं बैठ पाते ।
● अमृत कृष्ण ,
वह एक हाथ भी तुम्हारी वजह से हिलाना पड़ता है ।
तुम्हारी अशांति के कारण । नहीं तो उसको भी हिलाने की
कोई जरूरत नहीं है । तुम अगर शांत बैठ जाओ तो वह
हाथ भी न हिले ।
तुम्हारा मन अशांत है तो उसकी प्रतिछाया शरीर पर पड़ती
है । तुम्हारा शरीर तो तुम्हारे मन के अनुकूल होता है ;
उसकी छाया है ।
आनंद ने बुद्ध से पूछा है कि आप जैसे सोते हैं ,
जिस करवट सोते हैं , रात भर उसी करवट सोए रहते हैं !
आनंद कई रात बैठ कर देखता रहा - यह कैसे होता होगा !
स्वाभाविक है उसकी जिज्ञासा । उसने कहा : ' मैंने हर
तरह से आपको जांचा । आप जैसे सोते हैं , पैर जिस पैर
पर रख लिया , रात भर रखे रहते हैं ।
आप सोते हैं कि रात में यह भी हिसाब लगाए रखते हैं कि
पांव उसी पर रहे , बदले नहीं । करवट नहीं बदलते !
बुद्ध ने कहा : ' आनंद , जब मन शांत हो जाए तो शरीर को
अशांत रहने का कोई कारण नहीं रह जाता । '
मुझे कोई चेष्टा नहीं करनी पड़ रही है यूं बैठने में ।
मगर कोई जरूरत नहीं है । लोग बैठे-बैठे करवटें बदलते
रहते हैं । लोग कुर्सी पर बैठे रहते हैं और पैर चलाते रहते
हैं , पैर हिलाते रहते हैं ; जैसे चल रहे हों !
जैसे साइकिल चला रहे हों ! बैठे कुर्सी पर हैं , मगर उनके
प्राण भीतर भागे जा रहे हैं ।
मन चंचल है , मन गतिमान है । उसकी छाया शरीर पर ही
पडे़गी । जब मन शांत हो जाएगा तो शरीर भी शांत हो
जाएगा । जरूरत होगी तो हिलाओगे , नहीं जरूरत होगी
तो क्या हिलाना है ? इसमें कुछ रहस्य नहीं है ,
सीधी-सादी बात है यह ।
तुम जरूर अशांत होते हो । वह मैं जानता हूं ।
पांच मिनिट भी शांत बैठना मुश्किल है ।
असल में पांच मिनिट भी अगर तुम शांत बैठना चाहो तो
हजार बाधाएं आती हैं । कहीं पैर में झुनझुनी चढे़गी ,
कहीं पैर मुर्दा होने लगेगा , कहीं पीठ में चींटियां चढ़ने
लगेंगी । और खोजोगे तो कोई चींटी वगैरह नहीं है !
बडा़ मजा यह है ! कई दफा देख चुके कि चींटी वगैरह
कुछ भी नहीं है , मगर कल्पित चींटियां चढ़ने लगती हैं ।
न मालूम कहां-कहां के खयाल आएंगे !
हजार-हजार तरह की बातें उठेंगी कि यह कर लूं
वह कर लूं , इधर देख लूं उधर देख लूं ।
मन कहेगा : 'क्या बुध्दू की तरह बैठे हो !
अरे उठो , कुछ कर गुजरो ! चार दिन की जिंदगी है ,
ऐसे ही चले जाओगे ? इतिहास के पृष्ठों पर स्वर्ण-अक्षरों में
नाम लिख जाए , ऐसा कुछ कर जाओ ।
ऐसे बैठे रहे तो चूक जाओगे । दूसरे हाथ मारे ले रहे हैं । '
तुम्हारा मन भागा-भागा है , इसलिए शरीर भागा-भागा है ।
और लोग क्या करते हैं ? लोग उल्टा करते हैं ।
लोग शरीर को थिर करने की कोशिश करते हैं ।
इसलिए लोग योगासन सीखते हैं कि शरीर को थिर कर लें ,
तो मन थिर हो जाएगा । वे उल्टी बात करने की कोशिश
कर रहे हैं । यह नहीं हो सकता ।
शरीर को थिर करने से मन थिर नहीं होता ।
मन थिर हो जाए तो शरीर अपने से थिर हो जाता है ।
मैंने कभी कोई योगासन नहीं सीखे ।
जरूरत ही नहीं है । ध्यान पर्याप्त है । और शरीर को अगर
बिठालने की कोशिश में लगे रहे तो सफल हो सकते हो ।
सरकस में लोग सफल हो जाते हैं , मगर उनको तुम योगी
समझते हो ? सरकस में लोग शरीर से क्या-क्या नहीं
कर गुजरते ! सब कुछ करके दिखला देते हैं ।
लेकिन उससे तुम यह मत समझ लेना कि वे योगी हो गए ।
उनकी जिंदगी वही है , जो तुम्हारी है ।
शायद उससे गयी-बीती हो ।
तुम अगर आसन भी सीख गए तो भी कुछ न होगा ।
लेकिन अगर भीतर मन ठहर गया तो सब…
[18:08, 6/23/2018] Kumar Mith: कुछ तो है तेरे - मेरे दरम्यां
वरना ज़िन्दगी इतनी ख़ुशगवार कैसे होती
बेपरवाह होके तुम्हें देखा किये
तुम न होते तो ज़िन्दगी भी क्या ज़िंदगी होती
ख़्वाहिशों में तुम मेरी मन्नतों में भी तुम
मेरी ज़ुस्तजू तुम हो ज़िंदगी की हसरतों की मंज़िल भी तुम
दामन मैं कैसे छोड़ दूं तेरा
मेरी ज़िन्दगी की तलाश मेरी वन्दगी भी तुम हो
ओशो वन्दन ...
[22:44, 6/23/2018] Kumar Mith: क्या करें, जब ध्यान लगाना मुशकिल हो?
जब कभी ऐसा लगे कि बाहर से कोई दबाव आ रहा है- और जीवन में अनेक बार ऐसा होगा - तब सीधा ध्यान में उतरना मुशकिल हो जाता है। इसलिए ध्यान के पहले, पंद्रह मिनट के लिए, इस दबाव को दूर करने के लिये तुम्हें कुछ करना होगा, सिर्फ तब ही तुम ध्यान में प्रवेश कर सकोगे, वर्ना नहीं।
पंद्रह मिनट के लिये बस शांत बैठ जाओ और महसूस करो कि सारा संसार स्वप्न है - और यह स्वप्न है ही! भाव करो कि सारा संसार स्वप्न है और यहां कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं है। एक बात।
दूसरी बात। देर - सबेर हर चीज विदा हो जायेगी - तुम भी ।तुम हमेशा यहां नहीं थे, तुम हमेशा यहां नहीं रहने वाले हो। तो कुछ भी स्थायी नहीं है। और तीसरी बात : तुम बस साक्षी हो। एक सपना, एक फिल्म सामने से गुजर रही है। ये तीन चीजें याद रखो - सारा संसार स्वप्न है। और हर चीज चली जाने वाली है, तुम भी चले जाओगे।मौत आने वाली है और साक्षी सत्य है, तो तुम बस साक्षी मात्र हो। शरीर को विश्रांत करें और तब पंद्रह मिनट के लिये साक्षी हो जाओ और तब ध्यान करो। तुम ध्यान में प्रवेश करने में सफल-सक्षम हो जाओगे, और तब कोई समस्या नहीं होगी।
पर जब तुम्हें लगे कि ध्यान सहज हो रहा है तब यह करने की जरूरत नहीं है वर्ना तुम्हारी आदत पड़ जायेगी। इसे तब करना है जब ध्यान करने में मुश्किल हो रही हो।यदि तुम रोज इसे करते हो तो अच्छा है लेकिन इसका प्रभाव कम पड़ जायेगा, और तब यह काम नहीं आयेगा।
तो इसका औषधि की तरह उपयोग करो। जब चीजें गलत और मुश्किल हो जायें, तब इसे करो ताकि यह राह साफ कर देगा और तुम विश्रांत होने में सक्षम हो जाओगे।
-ओशो
ए रोज इज ए रोज इज ए रोज
20:53, 6/7/2018] Kumar Mith: 3.मनिपुरा (सोलर प्लेक्सस) : मनिपुरा चक्र में बंद हो जाने के कारण डायबिटीज, अग्नाशयशोथ, भाटा, वजन के संबंधित समस्याएं, अल्सर, क्रोध आदि जैसी स्वास्थ्य सम्बंधित दिक्कतें होने लगती हैं। इन समस्याओं के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार पैंक्रियास से निकलने वाले हार्मोन्स होते हैं।
[20:53, 6/7/2018] Kumar Mith: 4. अनाहत ( हार्ट): अनाहत चक्र व्यक्ति के दिल, फेफड़े, बाहें, स्तन, ऊपरी पीठ, कंधों, पसलियों से संबंध रखता है। इस चक्र में बंद होने पर व्यक्ति को फेफड़े की समस्याएं, पाचन समस्याओं, कम ऊर्जा, ईर्ष्या, क्षमा करने में असमर्थता जैसी समस्याएं देखने को मिलती है। यह चक्र हमारे शरीर में पाए जाने वाले थाइमस नामक हार्मोन ऑर्गन से संबधित होता है।
[20:53, 6/7/2018] Kumar Mith: 5.विशुद्धा (थ्रोट): इस चक्र के बंद होने पर यह सीधे तौर पर व्यक्ति के गले और उसके आस-पास के हिस्से में समस्या देखने को मिलता है। इसके बंद होने पर गले में लंबे समय में तक दर्द रहता है, दांतों से जुड़ी समस्याएं होने लगती है और गर्दन में दर्द रहने लगता है। इस चक्र का संबंध हमारे गले के निचले हिस्से में पाया जाने वाला हार्मोन थाइरॉइड से होता है।
[20:53, 6/7/2018] Kumar Mith: सात चक्र और उससे संबंधित शारीरिक अंग
सात चक्र अंग मूलाधार – घुटना, एड़ियां, पैर, कुल्हे।स्वाधिस्तना – पीठ का निचला हिस्सा, बड़ी आंत, जननांग, मूत्राशय।मनिपुरा – लिवर ,पित्ताशय की थैली, गुर्दे और छोटी आंत।अनाहत – दिल, फेफड़े, हथियार, बाहें, स्तन, ऊपरी पीठ, कंधों, पसलियों।विशुद्धा – गले, गर्दन, जबड़े, दांत, कंधों, कान, मुंह।अजन – आँखें, सिर, मस्तिष्क, नाक, साइनस, माथे।सहस्रार – सिर।
[20:53, 6/7/2018] Kumar Mith: 6.अजन (थर्ड ऑय): इस चक्र का सम्बन्ध व्यक्ति के सिर और उसके आस-पास के अंगों जैसे नाक, आंख, माथा से होता है। अजन चक्र के बंद हो जाने के कारण व्यक्ति को सिर में दर्द, मेमोरी का कमजोर हो जाना, मानसिक रूप से थकावट अादि समस्याएं होने लगती है। इसका कारण होता है हमारे शरीर में पाए जाने वाले पिट्यूटरी हार्मोन के कारण होता है। 7.सहस्रार (क्राउन): यह चक्र व्यक्ति के शरीर में सबसे ऊपर का चक्र माना जाता है, जिसके बंद होने पर व्यक्ति को मानसिक विकार, डिप्रेशन, एंग्जायटी, सिरदर्द जैसे समस्याएं होने लगती है। जो हमारे शरीर में पीनल नामक हार्मोन के कारण होता है। [ये भी पढ़ें: उपाय जो आपके जीवन में लाएंगे अध्यात्मिकता का प्रकाश]
[11:24, 6/8/2018] Kumar Mith: मैंने एक कहानी सुनी है। एक आदमी को शिव की पूजा करते—करते और रोज शिव का सिर खाते—खाते...क्योंकि पूजा और क्या है, सिवाय सिर खाने के। एक ही धुन, एक ही रट हे प्रभु, कुछ ऐसी चीजें दे दो कि जिंदगी में मजा आ जाए। एक ही बार मांगता हूं। मगर देना कुछ ऐसा कि फिर मांगने को ही न रह जाए। परेशानी में, हैरान होकर, क्योंकि सुबह देखे न सांझ यह आदमी, न देखे रात, जब उठे तभी, आधी रात शिव के पीछे पड़ जाए। आखिर इसे वरदान में एक शंख शिव ने उठाकर दे दिया जो उन्हीं के पूजा स्थल में इसने रख छोड़ा था। और इसको कहा इस शंख की आज से यह खूबी है कि तुम इससे जो मांगोगे, तुम्हें देगा। अब तुम्हें कुछ और परेशान होने की जरूरत नहीं और पूजा—प्रार्थना की जरूरत नहीं। अब मुझे छुट्टी दो। जो तुम्हें चाहिए,वह इससे ही मांग लेना। यह तत्क्षण देगा। तुमने मांगा और मौजूद हुआ। उसने मांगकर देखा, सोने के रुपए और सोने के रुपए बरस गए। धन्यभाग हो गया। शिव न भी कहते तो भूल जाता। भूल—भाल गया शिव कहां गए, क्या हुआ, उन बेचारों पर क्या गुजरी, इस सब की कोई फिकर भी न रही। फिर न कोई पूजा थी, न कोई पाठ। फिर तो यह शंख था और जो चाहिए।
लेकिन एक मुसीबत हो गई। एक महात्मा इसके महल में मेहमान हुए। महात्मा के पास भी एक शंख था। इसके पास जो शंख था बिलकुल वैसा, लेकिन दो गुना बड़ा। और महात्मा उसे बड़े संभाल कर रखते था। उनके पास कुछ और न था। उनकी झोली में बस एक बड़ा शंख था। इसने पूछा कि आप इस शंख को इतना सम्हाल कर क्यों रखते हैं? उन्होंने कहा, यह कोई साधारण शंख नहीं, महाशंख, है। मांगों एक, देता है दो। कहो, बना दो एक महल—दो महल बताता है। एक की तो बात ही नहीं। हमेशा।
उस आदमी को लालच उठा। उसने कहा यह तो बड़े गजब की बात है। उसने कहा एक शंख तो मेरे पास भी है मगर छोटा मोटा। आपने नाहक मुझे दीन—दुखी बना दिया। मैं गरीब आदमी हो गया। जरा देखूं चमत्कार।
उन्होंने कहा, इसका चमत्कार देखना बड़ा मुश्किल है। रात के सन्नाटे में जब सब सो जाते हैं, तब निश्चित महूर्त में, अर्धरात्रि के सन्नाटों में इससे कुछ मांगने का नियम है। तुम जागते रहना और सुन लेना।
महात्मा शंख से ठीक अर्धरात्रि में कहा, दे दे कोहिनूर। उसने कहा, एक नहीं दूंगा, दो दूंगा। महात्मा ने कहा, भला सही दो दे दे। उसने कहा, दो नहीं चार। किससे बात कर रहा है, कुछ होश से बात करो! महात्मा ने कहा, भई चार ही दे दे। वह महाशंख बोला, अब आठ दूंगा। उस आदमी ने सुना, उसने कहा, हद हो गई, हम भी कहां का गरीब शंख लिए बैठे हैं! महात्मा के पैर पकड़ लिए। कहा आप तो महात्मा हैं, त्यागी व्रती हैं। इस गरीब का शंख आप ले लो, यह महाशंख मुझे दे दो।
महात्मा ने कहा, जैसी तुम्हारी मर्जी। हम तो इससे छुटकारा पाना ही चाहते थे। क्योंकि इस बेईमान ने हमें परेशान कर रखा है। मांगो कुछ, बकवास इतनी होती है, रात—रात गुजर जाती है। फिर भी वह न समझा कि मामला क्या है कि वह सिर्फ महाशंख था, कि वह सिर्फ बातचीत करता था, देता—वेता कुछ भी नहीं था। हमेशा संख्या दोहरी कर देता था। तुम कहो चार तो वह कहे आठ, तुम कहो आठ तो वह कहे सोलह। तुम कहो सोलह सही, वह कहे बत्तीस। तुम बोले संख्या कि उसने दो का गुणा किया। बस उसको दो का गुणा करना ही आता था। और उसको कुछ नहीं आता था।
महात्मा तो सुबह चले गए। जब इसने उस शंख से दूसरी रात्रि ठीक मुहूर्त में कुछ मांगा तो उसने कहा,अरे नालायक! क्या मांगता है एक? दूंगा दो। उसने कहा, भई दो दे दो। उसने कहा, दूंगा चार। चार ही दे दो। उसने कहा, दूंगा आठ। सुबह होने लगी। संख्या लंबी होने लगी। मोहल्ले के लोग इकट्ठे हो गए कि यह हो क्या रहा है? सारा मोहल्ला जग गया कि मामला क्या है संख्या बढ़ती जाती है, लेना…
[12:53, 6/8/2018] Kumar Mith: Sanjeev 2nd Floor
[11:42, 6/9/2018] Kumar Mith: कुछ भी ध्यान बन सकता है।
"काम वासना का उठना"
योनमुद्रा ध्यान-
काम -उर्जा को ध्यान में नियोजित कर,
तुरंत परिणाम देने वाला चमत्कारिक ध्यान प्रयोग।
ओशो इस ध्यान प्रयोग को 'योनमुद्रा' कहते हैं। और इस प्रयोग को तब करना है, जब किसी सुंदर चेहरे को देखकर मन को कामवासना पकड़े, और शरीर उत्तेजित हो, गहरी श्वास लेते हुए उर्जा को कामकेंद्र पर भेजने लगे।
तब इस प्रयोग को करना है।यानि इसे कहीं भी और कभी भी, जब मन कामातुर हो और शरीर को कामवासना घेरने लगे, तब इस ध्यान प्रयोग को करना है।
मन में कामवासना का विचार आते ही हमारा शरीर उसका अनुगमन करने लगता है। वह गहरी श्वास लेकर उर्जा को कामकेंद्र पर पहुंचाते हुए, कामवासना में उतरने की तैयारी करने लगता है, अर्थात मन में उठे कामवासना के 'विचार' को 'क्रिया' में परिवर्तित करने लगता है।
उर्जा यदि कामकेन्द्र पर पहुंच चुकी है, तो उसे लौटाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन भी है! जो उर्जा उठ चुकी है, यदि हम उसका उपयोग नहीं करेंगे तो वह अपना काम करेगी!
'सृजन' नहीं, तो 'विध्वंस'!
उर्ध्वगामी नहीं तो अधोगामी!
तो इस बाहर जाती उर्जा का, क्यों न हम भीतर के लिए उपयोग करें? साक्षी के लिए, ध्यान के लिए उपयोग करें?
कामवासना के पकड़ने पर पहले तो श्वास को धीमा करें, क्योंकि कामवासना में उतरने के लिए ज्यादा आक्सीजन की जरूरत होती है, इसलिए शरीर तेज श्वास लेने लगता है। यदि हम श्वास की इस लयबद्धता को तोड़ दें, यानि श्वास को धीमा लेना शुरू कर दें, तो कामवासना को उठने के पहले ही हम रोक देंगे।क्योंकि कामवासना को उठने के लिए श्वास की जितनी चोट मूलाधार चक्र पर होनी चाहिए, उतनी हम नहीं होने दे रहे हैं। यानि हम मालिक हो गए! हमने वासना को उसके मूल में ही रोक दिया। यदि हम कामवासना को उसके मूल में पकड़ सकते हैं तो यही बात क्रोध के संबंध में भी लागू हो सकती है! अर्थात यह ध्यान प्रयोग हमें अपने मन में उठने वाले भावों और विचारों पर मालकियत प्रदान करता है! भाव और विचारों के मालिक, यानि मन के मालिक। यहाँ आकर हम विचारों को देखने में समर्थ होंगे। अतः यहां आकर हमारा साक्षी में प्रवेश हो जाता हैं।
तो पहले श्वास को गहरी और धीमी कर लें। उतनी धीमी और गहरी, जितनी रात सोते समय नींद में होती है।
फिर आंखें बंद करके मूत्रद्वार और गुदाद्वार दोनों को भीतर सिकोड़ लें।
ठीक उसी तरह, जिस तरह से हम मल-मूत्र को रोकते हैं।
और अब आंखें बंद करके सारा ध्यान सिर में केन्द्रित करें। आँखें बंद करके सारा ध्यान सिर में लगा दें, जहां अंतिम सहस्त्रार चक्र है। सिर में उस जगह ध्यान केन्द्रित करना है जहां चुटिया होती है। यानी चुटिया वाली जगह को आंख बंद करके भीतर से देखना है।
ठीक उसी तरह से देखना है, जिस तरह मानो हम अपने कमरे में बैठे उपर छत को देख रहे हैं।
उर्जा हमारे भावों और विचारों से संचालित होती है। यानि जैसा भाव हम करेंगे, या जैसा विचार हम करेंगे, उसी दिशा में उर्जा नियोजित हो जाती है। यानि जहां हमारा ध्यान होगा उस दिशा में नियोजित होगी! तो क्यों न हम कामवासना वाले पहले मूलाधार चक्र से हटाकर राम वासना वाले सहस्त्रार चक्र पर ध्यान को लगा दें, ताकि उर्जा उस दिशा में बढने लगे।
हम चकित होंगे! यदि हम मूत्रद्वार और गुदाद्वार को भीतर सिकोड़ लेते हैं, जिसे योग में मूलबंध लगाना कहते हैं।
और आँखें बंद कर सारा ध्यान सिर में केन्द्रित करते हैं... और देखते रहते हैं... देखते रहते हैं... देखते रहते हैं... तो कुछ ही क्षणों में कामकेन्द्र पर उठी उर्जा, रीढ़ के माध्यम से चक्रों पर गति करती हुई सहस्त्रार की ओर बढ़ने लगती है, और कामकेंद्र शिथिल होने लगता है।…
[12:59, 6/11/2018] Kumar Mith: एक फकीर था। एक युवा फकीर था जपान के एक गांव में। उसकी बड़ी कीर्ति थी, उसकी बड़ी महिमा थी। सारा गांव उसे पूजता और आदर करता। उसके सम्मान में सारे गांव में गीत गाए जाते। लेकिन एक दिन सब बात बदल गई। गांव की एक युवती को गर्भ रह गया और उसे बच्चा हो गया। और उस युवती को घर के लोगों ने पूछा कि किसका बच्चा है, तो उसने उस साधु का नाम ले दिया कि उस युवा फकीर का यह बच्चा है। फिर देर कितनी लगती है, प्रशंसक शत्रु बनने में कितनी देर लेते हैं? जरा सी भी देर नहीं लेते, क्योंकि प्रशंसक के मन में हमेशा भीतर तो निंदा छिपी रहती है। मौके की तलाश करती है, जिस दिन प्रशंसा खत्म हो जाए उस दिन निंदा शुरू हो जाती है। आदर देने वाले लोग, एक क्षण में अनादर देना शुरू कर देते हैं। पैर छूने वाले लोग, एक क्षण में सिर काटना शुरू कर देते हैं, इसमें कोई भेद नहीं है इन दोनों में। यह एक ही आदमी की दो शक्लें हैं।
वे सारे गांव के लोग फकीर के झोपड़े पर टूट पड़े। इतने दिनों का सप्रेस था भीतर, इतनी श्रद्धा दी थी तो दिल में तो क्रोध इकट्ठा हो ही गया था कि यह आदमी बड़ी श्रद्धा लिए जा रहा है! आज अश्रद्धा देने का मौका मिला था तो कोई भी पीछे नहीं रहना चाहता था। उन्होंने जाकर उस फकीर के झोपड़े पर आग लगा दी। और जाकर उस बच्चे को, एक दिन के बच्चे को उस फकीर के ऊपर पटक दिया।
उस फकीर ने पूछा कि बात क्या है? तो उन लोगों ने कहा यह भी हमसे पूछते हो कि बात क्या है? यह बच्चा तुम्हारा है, यह भी हमें बताना पड़ेगा कि बात क्या है? अपने जलते मकान को देखो, और अपने भीतर दिल को देखो, और इस बच्चे को देखो, और इस लड़की को देखो। हमसे पूछने की जरूरत नहीं, यह बच्चा तुम्हारा है।
वह फकीर बोला इज इट सो? ऐसी बात है, बच्चा मेरा है? वह बच्चा रोने लगा तो उस बच्चे को वह चुप कराने के लिए गीत गाने लगा। वे लोग उसका मकान जला कर वापस लौट गए। फिर वह अपने रोज के समय पर, दोपहर हुई और भीख मांगने निकला। लेकिन आज उस गांव में उसे कौन भीख देगा? आज जिस द्वार पर भी वह खड़ा हुआ, वह द्वार बंद हो गया। आज उसके पीछे बच्चों की टोली और लोगों की भीड़ चलने लगी, मजाक करती, पत्थर फेंकती। वह उस घर के सामने पहुंचा जिस घर की वह लड़की थी और जिस लड़की का वह बच्चा था। उसने वहां आवाज दी और उसने कहा कि मेरे लिए भीख मिले न मिले, लेकिन इस बच्चे के लिए तो दूध मिल जाए! मेरा कसूर भी हो सकता है, लेकिन इस बेचारे का क्या कसूर हो सकता है?
वह बच्चा रो रहा है, भीड़ वहां खड़ी है। उस लड़की के सहनशीलता के बाहर हो गई बात। वह अपने पिता के पैर पर गिर पड़ी और उसने कहा : मुझे माफ करें, मैंने साधु का नाम झूठा ही ले दिया। उस बच्चे के असली बाप को बचाने के लिए मैंने सोचा कि साधु का नाम ले दूं। साधु से मेरा कोई परिचय भी नहीं है।
बाप तो घबड़ा आया। यह तो बड़ी दुर्घटना हो गई। वह नीचे भागा हुआ आया, फकीर के पैर पर गिर पड़ा और उससे बच्चा छीनने लगा।
और उस फकीर ने पूछा : बात क्या है? उसके बाप ने कहा : माफ करें, भूल हो गई, यह बच्चा आपका नहीं है। उस फकीर ने पूछा : इज इट सो। ऐसी बात है कि यह बच्चा मेरा नहीं है? तो उस बाप ने, उस गांव के लोगों ने कहा. पागल हो तुम! तुमने सुबह ही क्यों नहीं इनकार किया? उस फकीर ने कहा. इससे क्या फर्क पड़ता था, बच्चा किसी न किसी का होगा ही। और एक झोपड़ा तुम जला ही चुके थे। अब तुम दूसरा जलाते। और एक आदमी को तुम बदनाम करने का मजा ले ही चुके थे, तुम एक आदमी को और बदनाम करने का मजा लेते। इससे क्या फर्क पड़ता था? बच्चा किसी न किसी का होगा, मेरा भी हो सकता है; इसमें क्या हर्जा! इसमें क्या फर्क क्या पड़ गया? तो लोगों ने कहा : तुम्हें इतनी भी समझ …
[13:54, 6/11/2018] Kumar Mith: बिना किसी समस्या के जीवन भर तंदरुस्त रहने का सबसे अच्छा, सुरक्षित, आसान और स्वस्थ तरीका योग है। इसके लिए केवल शरीर के क्रियाकलापों और श्वास लेने के सही तरीकों का नियमित अभ्यास करने की आवश्यकता है। यह शरीर के तीन मुख्य तत्वों; शरीर, मस्तिष्क और आत्मा के बीच संपर्क को नियमित करना है। यह शरीर के सभी अंगों के कार्यकलाप को नियमित करता है और कुछ बुरी परिस्थितियों और अस्वास्थ्यकर जीवन-शैली के कारण शरीर और मस्तिष्क को परेशानियों से बचाव करता है। यह स्वास्थ्य, ज्ञान और आन्तरिक शान्ति को बनाए रखने में मदद करता है। अच्छे स्वास्थ्य प्रदान करने के द्वारा यह हमारी भौतिक आवश्यकताओं को पूरा करता है, ज्ञान के माध्यम से यह मानसिक आवश्यकताओं को पूरा करता है और आन्तरिक शान्ति के माध्यम से यह आत्मिक आवश्यकता को पूरा करता है, इस प्रकार यह हम सभी के बीच सामंजस्य बनाए रखने में मदद करता है।
सुबह को योग का नियमित अभ्यास हमें अनगिनत शारीरिक और मानसिक तत्वों से होने वाली परेशानियों को दूर रखने के द्वारा बाहरी और आन्तरिक राहत प्रदान करता है। योग के विभिन्न आसन मानसिक और शारीरिक मजबूती के साथ ही अच्छाई की भावना का निर्माण करते हैं। यह मानव मस्तिष्क को तेज करता है, बौद्धिक स्तर को सुधारता है और भावनाओं को स्थिर रखकर उच्च स्तर की एकाग्रता में मदद करता है। अच्छाई की भावना मनुष्य में सहायता की प्रकृति के निर्माण करती है और इस प्रकार, सामाजिक भलाई को बढ़ावा देती है। एकाग्रता के स्तर में सुधार ध्यान में मदद करता है और मस्तिष्क को आन्तरिक शान्ति प्रदान करता है। योग प्रयोग किया गया दर्शन है, जो नियमित अभ्यास के माध्यम से स्व-अनुशासन और आत्म जागरुकता को विकसित करता है।
योग का अभ्यास किसी के भी द्वारा किया जा सकता है, क्योंकि आयु, धर्म या स्वस्थ परिस्थितियों परे है। यह अनुशासन और शक्ति की भावना में सुधार के साथ ही जीवन को बिना किसी शारीरिक और मानसिक समस्याओं के स्वस्थ जीवन का अवसर प्रदान करता है। पूरे संसार में इसके बारे में जागरुकता को बढ़ावा देने के लिए, भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने, संयुक्त संघ की सामान्य बैठक में 21 जून को अन्तरराष्ट्रीय योग दिवस के रुप में मनाने की घोषणा करने का सुझाव दिया था, ताकि सभी योग के बारे में जाने और इसके प्रयोग से लाभ लें। योग भारत की प्राचीन परम्परा है, जिसकी उत्पत्ति भारत में हुई थी और योगियों के द्वारा तंदरुस्त रहने और ध्यान करने के लिए इसका निरन्तर अभ्यास किया जाता है। निक जीवन में योग के प्रयोग के लाभों को देखते हुए संयुक्त संघ की सभा ने 21 जून को अन्तरराष्ट्रीय योग दिवस या विश्व योग दिवस के रुप में मनाने की घोषणा कर दी है।
हम योग से होने वाले लाभों की गणना नहीं कर सकते हैं, हम इसे केवल एक चमत्कार की तरह समझ सकते हैं, जिसे मानव प्रजाति को भगवान ने उपहार के रुप में प्रदान किया है। यह शारीरिक तंदरुस्ती को बनाए रखता है, तनाव को कम करता है, भावनाओं को नियंत्रित करता है, नकारात्मक विचारों को नियंत्रित करता है और भलाई की भावना, मानसिक शुद्धता, आत्म समझ को विकसित करता है साथ ही प्रकृति से जोड़ता है।
[13:57, 6/11/2018] Kumar Mith: दोस्तों , आज की तेज रफ्तार जिंदगी में अनेक ऐसे पल हैं जो हमारी स्पीड पर ब्रेक लगा देते हैं। हमारे आस-पास ऐसे अनेक कारण विद्यमान हैं जो तनाव, थकान तथा चिड़चिड़ाहट को जन्म देते हैं, जिससे हमारी जिंदगी अस्त-व्यस्त हो जाती है। ऐसे में जिंदगी को स्वस्थ तथा ऊर्जावान बनाये रखने के लिये योग एक ऐसी रामबाण दवा है जो, माइंड को कूल तथा बॉडी को फिट रखता है। योग से जीवन की गति को एक संगीतमय रफ्तार मिल जाती है।
[14:00, 6/11/2018] Kumar Mith: दोस्तों , आज की तेज रफ्तार जिंदगी में अनेक ऐसे पल हैं जो हमारी स्पीड पर ब्रेक लगा देते हैं। हमारे आस-पास ऐसे अनेक कारण विद्यमान हैं जो तनाव, थकान तथा चिड़चिड़ाहट को जन्म देते हैं, जिससे हमारी जिंदगी अस्त-व्यस्त हो जाती है। ऐसे में जिंदगी को स्वस्थ तथा ऊर्जावान बनाये रखने के लिये योग एक ऐसी रामबाण दवा है जो, माइंड को कूल तथा बॉडी को फिट रखता है। योग से जीवन की गति को एक संगीतमय रफ्तार मिल जाती है।
योग हमारी भारतीय संस्कृति की प्राचीनतम पहचान है। संसार की प्रथम पुस्तक ऋग्वेद में कई स्थानों पर यौगिक क्रियाओं के विषय में उल्लेख मिलता है। भगवान शंकर के बाद वैदिक ऋषि-मुनियों से ही योग का प्रारम्भ माना जाता है। बाद में कृष्ण, महावीर और बुद्ध ने इसे अपनी तरह से विस्तार दिया। इसके पश्चात पतंजली ने इसे सुव्यवस्थित रूप दिया।
पतंजली योग दर्शन के अनुसार – योगश्चित्तवृत्त निरोधः
अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है।
योग धर्म, आस्था और अंधविश्वास से परे एक सीधा विज्ञान है… जीवन जीने की एक कला है योग। योग शब्द के दो अर्थ हैं और दोनों ही महत्वपूर्ण हैं।
पहला है- जोड़ और दूसरा है समाधि।
जब तक हम स्वयं से नहीं जुड़ते, समाधि तक पहुँचना कठिन होगा अर्थात जीवन में सफलता की समाधि पर परचम लहराने के लिये तन, मन और आत्मा का स्वस्थ होना अति आवश्यक है और ये मार्ग और भी सुगम हो सकता है, यदि हम योग को अपने जीवन का हिस्सा बना लें। योग विश्वास करना नहीं सिखाता और न ही संदेह करना और विश्वास तथा संदेह के बीच की अवस्था संशय के तो योग बिलकुल ही खिलाफ है। योग कहता है कि आपमें जानने की क्षमता है, इसका उपयोग करो।
अनेक सकारात्मक ऊर्जा लिये योग का गीता में भी विशेष स्थान है। भगवद्गीता के अनुसार –
सिद्दध्यसिद्दध्यो समोभूत्वा समत्वंयोग उच्चते
अर्थात् दुःख-सुख, लाभ-अलाभ, शत्रु-मित्र, शीत और उष्ण आदि द्वन्दों में सर्वत्र समभाव रखना योग है।
महात्मा गांधी ने अनासक्ति योग का व्यवहार किया है। योगाभ्यास का प्रामाणिक चित्रण लगभग 3000 ई.पू. सिन्धु घाटी सभ्यता के समय की मोहरों और मूर्तियों में मिलता है। योग का प्रामाणिक ग्रंथ ‘योग सूत्र’ 200 ई.पू. योग पर लिखा गया पहला सुव्यवस्थित ग्रंथ है।
ओशो के अनुसार, ‘योग धर्म, आस्था और अंधविश्वास से परे एक सीधा प्रायोगिक विज्ञान है। योग जीवन जीने की कला है। योग एक पूर्ण चिकित्सा पद्धति है। एक पूर्ण मार्ग है-राजपथ। दरअसल धर्म लोगों को खूँटे से बाँधता है और योग सभी तरह के खूँटों से मुक्ति का मार्ग बताता है।’
प्राचीन जीवन पद्धति लिये योग, आज के परिवेश में हमारे जीवन को स्वस्थ और खुशहाल बना सकते हैं। आज के प्रदूषित वातावरण में योग एक ऐसी औषधि है जिसका कोई साइड इफेक्ट नहीं है, बल्कि योग के अनेक आसन जैसे कि, शवासन हाई ब्लड प्रेशर को सामान्य करता है, जीवन के लिये संजीवनी है कपालभाति प्राणायाम, भ्रामरी प्राणायाम मन को शांत करता है, वक्रासन हमें अनेक बीमारियों से बचाता है। आज कंप्यूटर की दुनिया में दिनभर उसके सामने बैठ-बैठे काम करने से अनेक लोगों को कमर दर्द एवं गर्दन दर्द की शिकायत एक आम बात हो गई है, ऐसे में शलभासन तथा तङासन हमें दर्द निवारक दवा से मुक्ति दिलाता है। पवनमुक्तासन अपने नाम के अनुरूप पेट से गैस की समस्या को दूर करता है। गठिया की समस्या को मेरूदंडासन दूर करता है। योग में ऐसे अनेक आसन हैं जिनको जीवन में अपनाने से कई बीमारियां समाप्त हो जाती हैं और खतरनाक बीमारियों का असर भी कम हो जाता है। 24 घंटे में से महज कुछ मिनट का ही प्रयोग यदि योग में उपयोग करते हैं तो अपनी सेहत को हम चुस्त-दुरुस्त रख सकते हैं। फिट रहने के साथ ही …
[18:56, 6/12/2018] Kumar Mith: लेकिन खोजना और मांगना दो अलग बातें हैं। असल में, जो खोजना नहीं चाहता वही मांगता है। खोजना और मांगना एक तो हैं ही नहीं, विपरीत बातें हैं। खोजने से जो बचना चाहता है वह मांगता है, खोजी कभी नहीं मांगता। और खोज और मांगने की प्रक्रिया बिलकुल अलग है। मांगने में दूसरे पर ध्यान रखना पड़ेगा—जिससे मिलेगा। और खोजने में अपने पर ध्यान रखना पड़ेगा—जिसको मिलेगा।
यह तो ठीक है कि साधक के मार्ग पर बाधाएं हैं। लेकिन साधक के मार्ग पर बाधाएं हैं, अगर हम ठीक से समझें तो इसका मतलब होता है कि साधक के भीतर बाधाएं हैं; मार्ग भी भीतर है। और अपनी बाधाओं को समझ लेना बहुत कठिन नहीं है। तो इस संबंध में थोड़ी सी विस्तीर्ण बात करनी पड़ेगी कि बाधाएं क्या हैं और साधक उन्हें कैसे दूर कर सकेगा।
जैसे मैंने कल सात शरीरों की बात कही, उस संबंध में कुछ और बात समझेंगे तो यह भी समझ में आ सकेगा।
मूलाधार चक्र की संभावनाएं:
जैसे सात शरीर हैं, ऐसे ही सात चक्र भी हैं। और प्रत्येक एक चक्र मनुष्य के एक शरीर से विशेष रूप से जुड़ा हुआ है। जैसे सात शरीर में जो हमने कहे— भौतिक शरीर, फिजिकल बॉडी, इस शरीर का जो चक्र है, वह मूलाधार है; वह पहला चक्र है। इस मूलाधार चक्र का भौतिक शरीर से केंद्रीय संबंध है; यह भौतिक शरीर का केंद्र है। इस मूलाधार चक्र की दो संभावनाएं हैं एक इसकी प्राकृतिक संभावना है, जो हमें जन्म से मिलती है; और एक साधना की संभावना है, जो साधना से उपलब्ध होती है।
मूलाधार चक्र की प्राथमिक प्राकृतिक संभावना कामवासना है, जो हमें प्रकृति से मिलती है; वह भौतिक शरीर की केंद्रीय वासना है। अब साधक के सामने पहला ही सवाल यह उठेगा कि यह जो केंद्रीय तत्व है उसके भौतिक शरीर का, इसके लिए क्या करे? और इस चक्र की एक दूसरी संभावना है, जो साधना से उपलब्ध होगी, वह ब्रह्मचर्य है। सेक्स इसकी प्राकृतिक संभावना है और ब्रह्मचर्य इसका ट्रांसफामेंशन है, इसका रूपांतरण है। जितनी मात्रा में चित्त कामवासना से केंद्रित और ग्रसित होगा, उतना ही मूलाधार अपनी अंतिम संभावनाओं को उपलब्ध नहीं कर सकेगा। उसकी अंतिम संभावना ब्रह्मचर्य है। उस चक्र की दो संभावनाएं हैं एक जो हमें प्रकृति से मिली, और एक जो हमें साधना से मिलेगी।
न भोग, न दमन—वरन जागरण:
अब इसका मतलब यह हुआ कि जो हमें प्रकृति से मिली है उसके साथ हम दो काम कर सकते हैं या तो जो प्रकृति से मिला है हम उसमें जीते रहें, तब जीवन में साधना शुरू नहीं हो पाएगी; दूसरा काम जो संभव है वह यह कि हम इसे रूपांतरित करें। रूपांतरण के पथ पर जो बड़ा खतरा है, वह खतरा यही है कि कहीं हम प्राकृतिक केंद्र से लड़ने न लगें। साधक के मार्ग में खतरा क्या है? या तो जो प्राकृतिक व्यवस्था है वह उसको भागे, तब वह उठ नहीं पाता उस तक जो चरम संभावना है—जहां तक उठा जा सकता था; भौतिक शरीर जहां तक उसे पहुंचा सकता था वहां तक वह नहीं पहुंच पाता; जहां से शुरू होता है वहीं अटक जाता है। तो एक तो भोग है। दूसरा दमन है, कि उससे लड़े। दमन बाधा है साधक के मार्ग पर— पहले केंद्र की जो बाधा है। क्योंकि दमन के द्वारा कभी ट्रांसफामेंशन, रूपांतरण नहीं होता।
दमन बाधा है तो फिर साधक क्या बनेगा? साधन क्या होगा?
समझ साधन बनेगी, अंडरस्टैंडिंग साधन बनेगी। कामवासना को जो जितना समझ पाएगा उतना ही उसके भीतर रूपांतरण होने लगेगा। उसका कारण है. प्रकृति के सभी तत्व हमारे भीतर अंधे और मूर्च्छित हैं। अगर हम उन तत्वों के प्रति होशपूर्ण हो जाएं तो उनमें रूपांतरण होना शुरू हो जाता है। जैसे ही हमारे भीतर कोई चीज जागनी शुरू होती है वैसे ही प्रकृति के तत्व बदलने शुरू हो जाते हैं। जागरण कीमिया है, अवेयरनेस केमिस्ट्री है उ…
[18:58, 6/12/2018] Kumar Mith: मणिपुर चक्र की संभावनाएं:
तीसरा शरीर मैंने कहा, एस्ट्रल बॉडी है, सूक्ष्म शरीर है। उस सूक्ष्म शरीर के भी दो हिस्से हैं। प्राथमिक रूप से सूक्ष्म शरीर संदेह, विचार, इनके आसपास रुका रहता है। और अगर ये रूपांतरित हो जाएं—संदेह अगर रूपांतरित हो तो श्रद्धा बन जाता है; और विचार अगर रूपांतरित हो तो विवेक बन जाता है।
संदेह को किसी ने दबाया तो वह कभी श्रद्धा को उपलब्ध नहीं होगा। हालांकि सभी तरफ ऐसा समझाया जाता है कि संदेह को दबा डालो, विश्वास कर लो। जिसने संदेह को दबाया और विश्वास किया, वह कभी श्रद्धा को उपलब्ध नहीं होगा; उसके भीतर संदेह मौजूद ही रहेगा— दबा हुआ; भीतर कीड़े की तरह सरकता रहेगा और काम करता रहेगा। उसका विश्वास संदेह के भय से ही थोपा हुआ होगा।
न, संदेह को समझना पड़ेगा, संदेह को जीना पड़ेगा, संदेह के साथ चलना पड़ेगा। और संदेह एक दिन उस जगह पहुंचा देता है, जहां संदेह पर भी संदेह हो जाता है। और जिस दिन संदेह पर संदेह होता है उसी दिन श्रद्धा की शुरुआत हो जाती है। विचार को छोड्कर भी कोई विवेक को उपलब्ध नहीं हो सकता। विचार को छोड़नेवाले लोग हैं, छुड़ानेवाले लोग हैं; वे कहते हैं—विचार मत करो, विचार छोड़ ही दो। अगर कोई विचार छोड़ेगा, तो विश्वास और अंधे विश्वास को उपलब्ध होगा। वह विवेक नहीं है। विचार की सूक्ष्मतम प्रक्रिया से गुजरकर ही कोई विवेक को उपलब्ध होता है।
विवेक का क्या मतलब है?
विचार में सदा ही संदेह मौजूद है। विचार सदा इनडिसीसिव है। इसलिए बहुत विचार करनेवाले लोग कभी कुछ तय नहीं कर पाते। और जब भी कोई कुछ तय करता है, वह तभी तय कर पाता है जब विचार के चक्कर के बाहर होता है। डिसीजन जो है वह हमेशा विचार के बाहर से आता है। अगर कोई विचार में पड़ा रहे तो वह कभी निश्चय नहीं कर पाता। विचार के साथ निश्चय का कोई संबंध नहीं है।
इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि विचारहीन बड़े निश्चयात्मक होते हैं, और विचारवान बड़े निश्चयहीन होते हैं। दोनों से खतरा होता है। क्योंकि विचारहीन बहुत डिसीसिव होते हैं। वे जो करते हैं, पूरी ताकत से करते हैं। क्योंकि उनमें विचार होता ही नहीं जो जरा भी संदेह पैदा कर दे। दुनिया भर के डाग्मेटिक, अंधे जितने लोग हैं, फेनेटिक जितने लोग हैं, ये बड़े कर्मठ होते हैं; क्योंकि इनमें शक का तो सवाल ही नहीं है, ये कभी विचार तो करते नहीं। अगर इनको ऐसा लगता है कि एक हजार आदमी मारने से स्वर्ग मिलेगा, तो एक हजार एक मारकर ही फिर रुकते हैं, उसके पहले वे नहीं रुकते। एक दफा उनको खयाल नहीं आता कि यह ऐसा— ऐसा होगा? उनमें कोई इनडिसीजन नहीं है। विचारवान तो सोचता ही चला जाता है, सोचता ही चला जाता है।
तो विचार के भय से अगर कोई विचार का द्वार ही बंद कर दे, तो सिर्फ अंधे विश्वास को उपलब्ध होगा। अंधा विश्वास खतरनाक है और साधक के मार्ग में बड़ी बाधा है। चाहिए आंखवाला विवेक, चाहिए ऐसा विचार जिसमें डिसीजन हो। विवेक का मतलब इतना ही होता है। विवेक का मतलब है कि विचार पूरा है, लेकिन विचार से हम इतने गुजरे हैं कि अब विचार की जो भी संदेह की, शक की बातें थीं, वे विदा हो गई हैं; अब धीरे— धीरे निष्कर्ष में शुद्ध निश्चय साथ रह गया है।
तो तीसरे शरीर का केंद्र है मणिपुर, चक्र है मणिपुर। उस मणिपुर चक्र के ये दो रूप हैं. संदेह और श्रद्धा। संदेह रूपांतरित होगा तो श्रद्धा बनेगी।
लेकिन ध्यान रखें श्रद्धा संदेह के विपरीत नहीं है, शत्रु नहीं है, श्रद्धा संदेह का ही शुद्धतम विकास है, चरम विकास है; वह आखिरी छोर है जहां संदेह का सब खो जाता है, क्योंकि संदेह स्वयं पर संदेह बन जाता है और स्युसाइडल हो जाता है, आत्मघात कर लेता है और श्रद्धा उपलब्ध होती है।
अनाहत चक्र की संभ…
[10:07, 6/16/2018] Kumar Mith: चिन्मय मुद्रा Chinmaya Mudra
इस मुद्रा में अंगूठा और तर्जनी चिन मुद्रा की तरह एक दूसरे को स्पर्श करते हैं, शेष उंगलियाँ मुड़कर हथेली को स्पर्श करती हैं|
हाथों को जाँघो पर हथेलियों को आकाश की ओर करके रखे और लंबी गहरी उज्जयी साँसे लें|
एक बार फिर साँस के प्रवाह और शरीर पर इसके प्रभाव को महसूस करें|
चिन्मय मुद्रा के लाभ |Benefits of Chinmaya Mudra
शरीर में ऊर्जा के प्रवाह को सुचारित करती है
पाचन शक्ति हो बढ़ती है
[10:09, 6/16/2018] Kumar Mith: चिन मुद्रा Chin Mudra |
अपनी तर्जनी व अंगूठे को हल्के से स्पर्श करे और शेष तीनो उंगलियों को सीधा रखे|
अंगूठे व तर्जनी एक दूसरे हो हल्के से ही बिना दबाव के स्पर्श करें|
तीनो फैली उंगलियों को जितना हो सके सीधा रखे|
हाथों को जंघा पर रख सकते हैं, हथेलियों को आकाश की ओर रखे|
अब सांसो के प्रवाह व इसके शरीर पर प्रभाव पर ध्यान दें|
चिन मुद्रा के लाभ |Benefits of Chin Mudra
बेहतर एकाग्रता और स्मरण शक्ति
नींद में सुधार
शरीर में ऊर्जा की वृद्धि
कमर के दर्द में आराम
[23:37, 6/19/2018] Kumar Mith: 😃😃😃😃
गाव की पत्नी अपने पति को पीट रही थी ।
पडोसन बोली : "क्यों मार रही हो बेचारे को...??"
पत्नी बोली : "बेचारे नहीं हे ये !"
इसे फोन किया था तो एक लड़की बोली..
"जिस व्यक्ति से आप संपर्क करना चाहते हे वह अभी व्यस्त है... !"
😃😃😜😍😝
[15:58, 6/21/2018] Kumar Mith: पता है तुम्हारी और हमारी
मुस्कान में फ़र्क क्या है?
तुम खुश हो कर मुस्कुराते हो,
हम तुम्हे खुश देख के मुस्कुराते हैं..
[16:00, 6/21/2018] Kumar Mith: किसी को चाहो तो इस अंदाज़ से चाहो,
कि वो तुम्हे मिले या ना मिले,
मगर उसे जब भी प्यार मिले,
तो तुम याद आओ.
[16:03, 6/21/2018] Kumar Mith: Tere jism pe apne jism ko rakhu
Tere honton ko apne honton se maslu
Tujhe pyar main itni shiddat se karu
Ki us mithe dard se teri aah nikal jaye,
Dard se teri aankho se aasu jhalak jaye
Or tu tan se or mann se sirf meri ho jaye
Badan se tere lipta rahon or subha ho jaye
Subha tujse jb main puchu teri raat ka aalam
Tu sharma kar mere seene se lipat jaye…!
[23:28, 6/22/2018] Kumar Mith: तुम्हारे नाम जैसी, छलकते जाम जैसी
मुहब्बत सी नशीली शरद की चाँदनी है।
ह्रदय को मोहती है, प्रणय संगीत जैसी
नयन को सोहती है, सपन के मीत जैसी,
तुम्हारे रूप जैसी, वसंती धूप जैसी
मधुस्मृति सी रसीली शरद की चाँदनी है।
चाँदनी खिल रही है तुम्हारे हास जैसी,
उमंगें भर रही है मिलन की आस जैसी,
प्रणय की बाँह जैसी, अलक की छाँह जैसी
प्रिये, तुम सी लजीली शरद की चाँदनी है।
हुई है क्या ना जाने अनोखी बात जैसी
भरे पुलकन बदन में प्रथम मधु रात जैसी,
हँसी दिल खोल पुनम, गया अब हार संयम
वचन से भी हठीली शरद की चाँदनी है।
तुम्हारे नाम जैसी, छलकते जाम जैसी
मुहब्बत सी नशीली, शरद की चाँदनी है।
[11:07, 6/23/2018] Kumar Mith: चौथा प्रश्न : भगवान ,
एक बात मेरी समझ में नहीं आती कि जैसे आप बैठते हैं
ठीक वैसे ही पूरे दो घंटा बैठे रहते हैं ।
आपके शरीर का कोई अंग हिलता ही नहीं ,
केवल एक हाथ हिलता है ।
और हम पांच मिनिट भी शांत नहीं बैठ पाते ।
● अमृत कृष्ण ,
वह एक हाथ भी तुम्हारी वजह से हिलाना पड़ता है ।
तुम्हारी अशांति के कारण । नहीं तो उसको भी हिलाने की
कोई जरूरत नहीं है । तुम अगर शांत बैठ जाओ तो वह
हाथ भी न हिले ।
तुम्हारा मन अशांत है तो उसकी प्रतिछाया शरीर पर पड़ती
है । तुम्हारा शरीर तो तुम्हारे मन के अनुकूल होता है ;
उसकी छाया है ।
आनंद ने बुद्ध से पूछा है कि आप जैसे सोते हैं ,
जिस करवट सोते हैं , रात भर उसी करवट सोए रहते हैं !
आनंद कई रात बैठ कर देखता रहा - यह कैसे होता होगा !
स्वाभाविक है उसकी जिज्ञासा । उसने कहा : ' मैंने हर
तरह से आपको जांचा । आप जैसे सोते हैं , पैर जिस पैर
पर रख लिया , रात भर रखे रहते हैं ।
आप सोते हैं कि रात में यह भी हिसाब लगाए रखते हैं कि
पांव उसी पर रहे , बदले नहीं । करवट नहीं बदलते !
बुद्ध ने कहा : ' आनंद , जब मन शांत हो जाए तो शरीर को
अशांत रहने का कोई कारण नहीं रह जाता । '
मुझे कोई चेष्टा नहीं करनी पड़ रही है यूं बैठने में ।
मगर कोई जरूरत नहीं है । लोग बैठे-बैठे करवटें बदलते
रहते हैं । लोग कुर्सी पर बैठे रहते हैं और पैर चलाते रहते
हैं , पैर हिलाते रहते हैं ; जैसे चल रहे हों !
जैसे साइकिल चला रहे हों ! बैठे कुर्सी पर हैं , मगर उनके
प्राण भीतर भागे जा रहे हैं ।
मन चंचल है , मन गतिमान है । उसकी छाया शरीर पर ही
पडे़गी । जब मन शांत हो जाएगा तो शरीर भी शांत हो
जाएगा । जरूरत होगी तो हिलाओगे , नहीं जरूरत होगी
तो क्या हिलाना है ? इसमें कुछ रहस्य नहीं है ,
सीधी-सादी बात है यह ।
तुम जरूर अशांत होते हो । वह मैं जानता हूं ।
पांच मिनिट भी शांत बैठना मुश्किल है ।
असल में पांच मिनिट भी अगर तुम शांत बैठना चाहो तो
हजार बाधाएं आती हैं । कहीं पैर में झुनझुनी चढे़गी ,
कहीं पैर मुर्दा होने लगेगा , कहीं पीठ में चींटियां चढ़ने
लगेंगी । और खोजोगे तो कोई चींटी वगैरह नहीं है !
बडा़ मजा यह है ! कई दफा देख चुके कि चींटी वगैरह
कुछ भी नहीं है , मगर कल्पित चींटियां चढ़ने लगती हैं ।
न मालूम कहां-कहां के खयाल आएंगे !
हजार-हजार तरह की बातें उठेंगी कि यह कर लूं
वह कर लूं , इधर देख लूं उधर देख लूं ।
मन कहेगा : 'क्या बुध्दू की तरह बैठे हो !
अरे उठो , कुछ कर गुजरो ! चार दिन की जिंदगी है ,
ऐसे ही चले जाओगे ? इतिहास के पृष्ठों पर स्वर्ण-अक्षरों में
नाम लिख जाए , ऐसा कुछ कर जाओ ।
ऐसे बैठे रहे तो चूक जाओगे । दूसरे हाथ मारे ले रहे हैं । '
तुम्हारा मन भागा-भागा है , इसलिए शरीर भागा-भागा है ।
और लोग क्या करते हैं ? लोग उल्टा करते हैं ।
लोग शरीर को थिर करने की कोशिश करते हैं ।
इसलिए लोग योगासन सीखते हैं कि शरीर को थिर कर लें ,
तो मन थिर हो जाएगा । वे उल्टी बात करने की कोशिश
कर रहे हैं । यह नहीं हो सकता ।
शरीर को थिर करने से मन थिर नहीं होता ।
मन थिर हो जाए तो शरीर अपने से थिर हो जाता है ।
मैंने कभी कोई योगासन नहीं सीखे ।
जरूरत ही नहीं है । ध्यान पर्याप्त है । और शरीर को अगर
बिठालने की कोशिश में लगे रहे तो सफल हो सकते हो ।
सरकस में लोग सफल हो जाते हैं , मगर उनको तुम योगी
समझते हो ? सरकस में लोग शरीर से क्या-क्या नहीं
कर गुजरते ! सब कुछ करके दिखला देते हैं ।
लेकिन उससे तुम यह मत समझ लेना कि वे योगी हो गए ।
उनकी जिंदगी वही है , जो तुम्हारी है ।
शायद उससे गयी-बीती हो ।
तुम अगर आसन भी सीख गए तो भी कुछ न होगा ।
लेकिन अगर भीतर मन ठहर गया तो सब…
[18:08, 6/23/2018] Kumar Mith: कुछ तो है तेरे - मेरे दरम्यां
वरना ज़िन्दगी इतनी ख़ुशगवार कैसे होती
बेपरवाह होके तुम्हें देखा किये
तुम न होते तो ज़िन्दगी भी क्या ज़िंदगी होती
ख़्वाहिशों में तुम मेरी मन्नतों में भी तुम
मेरी ज़ुस्तजू तुम हो ज़िंदगी की हसरतों की मंज़िल भी तुम
दामन मैं कैसे छोड़ दूं तेरा
मेरी ज़िन्दगी की तलाश मेरी वन्दगी भी तुम हो
ओशो वन्दन ...
[22:44, 6/23/2018] Kumar Mith: क्या करें, जब ध्यान लगाना मुशकिल हो?
जब कभी ऐसा लगे कि बाहर से कोई दबाव आ रहा है- और जीवन में अनेक बार ऐसा होगा - तब सीधा ध्यान में उतरना मुशकिल हो जाता है। इसलिए ध्यान के पहले, पंद्रह मिनट के लिए, इस दबाव को दूर करने के लिये तुम्हें कुछ करना होगा, सिर्फ तब ही तुम ध्यान में प्रवेश कर सकोगे, वर्ना नहीं।
पंद्रह मिनट के लिये बस शांत बैठ जाओ और महसूस करो कि सारा संसार स्वप्न है - और यह स्वप्न है ही! भाव करो कि सारा संसार स्वप्न है और यहां कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं है। एक बात।
दूसरी बात। देर - सबेर हर चीज विदा हो जायेगी - तुम भी ।तुम हमेशा यहां नहीं थे, तुम हमेशा यहां नहीं रहने वाले हो। तो कुछ भी स्थायी नहीं है। और तीसरी बात : तुम बस साक्षी हो। एक सपना, एक फिल्म सामने से गुजर रही है। ये तीन चीजें याद रखो - सारा संसार स्वप्न है। और हर चीज चली जाने वाली है, तुम भी चले जाओगे।मौत आने वाली है और साक्षी सत्य है, तो तुम बस साक्षी मात्र हो। शरीर को विश्रांत करें और तब पंद्रह मिनट के लिये साक्षी हो जाओ और तब ध्यान करो। तुम ध्यान में प्रवेश करने में सफल-सक्षम हो जाओगे, और तब कोई समस्या नहीं होगी।
पर जब तुम्हें लगे कि ध्यान सहज हो रहा है तब यह करने की जरूरत नहीं है वर्ना तुम्हारी आदत पड़ जायेगी। इसे तब करना है जब ध्यान करने में मुश्किल हो रही हो।यदि तुम रोज इसे करते हो तो अच्छा है लेकिन इसका प्रभाव कम पड़ जायेगा, और तब यह काम नहीं आयेगा।
तो इसका औषधि की तरह उपयोग करो। जब चीजें गलत और मुश्किल हो जायें, तब इसे करो ताकि यह राह साफ कर देगा और तुम विश्रांत होने में सक्षम हो जाओगे।
-ओशो
ए रोज इज ए रोज इज ए रोज
[04:16, 6/24/2018] Kumar Mith: कामवासना का केंद्र सूर्य होता है : ओशो
'' हमारे भीतर सूर्य कहां है? हमारे अंतस के सौर-तंत्र का केंद्र कहा है? वह केंद्र ठीक प्रजनन-तंत्र की गहनता में छिपा हुआ है। इसीलिए कामवासना में एक प्रकार की ऊष्णता, एक प्रकार की गर्मी होती है।
कामवासना का केंद्र सूर्य होता है। इसीलिए तो कामवासना व्यक्ति को इतना ऊष्ण और उत्तेजित कर देती है। जब कोई व्यक्ति कामवासना में उतरता है तो वह उत्तप्त से उत्तप्त होता चला जाता है। व्यक्ति कामवासना के प्रवाह में एक तरह से ज्वर-ग्रस्त हो जाता है, पसीने से एकदम तर-बतर हो जाता है, उसकी श्वास भी अलग ढंग से चलने लगती है। और उसके बाद व्यक्ति थककर सो जाता है।
बाहर के सूर्य की भांति मनुष्य के भीतर भी सूर्य छिपा हुआ है, बाहर के चांद की ही भांति मनुष्य के भीतर भी चांद छिपा हुआ है। और पंतजलि का रस इसी में है कि वे अंतर्जगत के आंतरिक व्यक्तित्व का संपूर्ण भूगोल हमें दे देना चाहते हैं। इसलिए जब वे कहते हैं कि - 'भुवन ज्ञानम् सूर्ये संयमात।' - सूर्य पर संयम संपन्न करने से सौर ज्ञान की उपलब्धि होती है।' तो उनका संकेत उस सूर्य की ओर नहीं है जो बाहर है। उनका मतलब उस सूर्य से है जो हमारे भीतर है।जैसे सूर्य जीवन है, वैसे ही कामवासना भी जीवन है। इस पृथ्वी पर जीवन सूर्य से ही है, और ठीक इसी तरह से कामवासना से ही जीवन जन्म लेता है- सभी प्रकार के जीवन का जन्म काम से ही होता है।
अफ्रीका में वृक्ष अधिक से अधिक ऊंचे जाना चाहते हैं, ताकि वे सूर्य को उपलब्ध हो सकें और सूर्य उन्हें उपलब्ध हो सके। इन वृक्षों को ही देखो। जिस तरह से वृक्ष इस ओर हैं- यह पाइन के वृक्ष, ठीक वैसे ही वृक्ष दूसरी ओर भी हैं- और उस तरफ के वृक्ष छोटे ही रह गए हैं। इस तरह के वृक्ष ऊपर छोटे ही रह गए हैं। इस तरह के वृक्ष ऊपर ऊपर बढ़ते ही चले जा रहे हैं। क्योंकि इस ओर सूर्य की किरणें अधिक पहुँच रही हैं, दूसरी ओर सूर्य की किरणें अधिक नहीं पहुँच पा रही हैं।
काम भीतर का सूर्य है, और सूर्य सौर-मंडल का काम-केंद्र है। भीतर के सूर्य के प्रतिबिंब के माध्यम से व्यक्ति बाहर के सौर-तंत्र का ज्ञान भी प्राप्त कर सकता है, लेकिन बुनियादी बात तो आंतरिक सौर-तंत्र को समझने की है।
'सूर्य पर संयम संपन्न करने से, संपूर्ण सौर-ज्ञान की उपलब्धि होती है।'
इस पृथ्वी के लोगों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है, सूर्य-व्यक्ति और चंद्र-व्यक्ति, या हम उन्हें यांग और यिन भी कह सकते हैं। सूर्य पुरुष का गुण है; स्त्री चंद्र का गुण है। सूर्य आक्रामक होता है, सूर्य सकारात्मक है; चंद्र ग्रहणशील होता है, निष्क्रिय होता है।
सारे जगत के लोगों को सूर्य और चंद्र इन दो रूपों में विभक्त किया जा सकता है। और हम अपने शरीर को भी सूर्य और चंद्र में विभक्त कर सकते हैं; योग ने इसे इसी भांति विभक्त किया है।'' - OSHO
#OSHO
[19:36, 6/24/2018] Kumar Mith: 🌷श्री गुरुवे नमः। मस्त रहिये।🌷
💐 स्त्री अंतिम विजय का नाद है :👏
" सारी की सारी शिक्षा पुरुष के लिए ईजाद की गई है। और उसी पुरुष के लिए ईजाद की गई, स्त्री को भी उसी शिक्षा के ढांचे में ढाला जा रहा है। उसके परिणाम घातक हो रहे हैं। यूनिवर्सिटी से पढ़-लिख कर जो लड़की निकलती है, उसमें स्त्रैण तत्व अनिवार्यत: कम हो जाता है। क्योंकि शिक्षा पुरुष के लिए ईजाद की गई थी।
थोड़ा उलटा सोचें तो समझ में आ जाएगी बात। कोई नगर ऐसा हो, जहां की सारी शिक्षा स्त्रियों के लिए ईजाद की गई हो। संगीत की शिक्षा वहां दी जाती हो, नृत्य की शिक्षा दी जाती हो, काव्य की शिक्षा दी जाती हो, भोजन बनाने की, कपड़े सीने की, मकान सजाने की, बच्चों को पालने और बड़ा करने की--यह सारी शिक्षा दी जाती हो। किसी नगर में स्त्रियों के लिए शिक्षा दी जाती हो और उस नगर में पुरुष बहुत दिन तक अशिक्षित रखे गए हों। फिर पुरुषों में बगावत फैले और वे कहें कि हमें शिक्षा की जरूरत है, हम भी शिक्षा लेंगे। और स्त्रियां कहें कि ठीक है, हमारे कॅालेजेस में आकर तुम शिक्षा ले डालो। तो वे पुरुष भी नाचें, गाएं, गीत बनाएं, कविता करें, घर सजाएं, बच्चों को पालने की शिक्षा लें, तो क्या परिणाम होगा उस गांव में?
उस गांव के पुरुष किसी गहरे अर्थ में स्त्रैण हो जाएंगे। उस गांव के पुरुषों में, जो पुरुष होना है वह कम हो जाएगा। वह जो पुरुष की तीव्रता है, वह जो पुरुष की प्रखरता है, वह क्षीण हो जाएगी। वह जो पुरुष के कोने हैं व्यक्तित्व में, वह गोल हो जाएंगे, वह राउंड हो जाएंगे, उनको झाड़ दिया जाएगा।
जैसा दुर्भाग्य उस गांव में पुरुषों के साथ होगा, वैसा दुर्भाग्य पूरी पृथ्वी पर आज स्त्रियों के साथ हो रहा है। उनके व्यक्तित्व का बुनियादी भेद छोड़ा जा रहा है। उस बुनियादी भेद को समझ लेना बहुत ही उचित है, क्योंकि वह बुनियादी भेद ठीक से समझ कर अगर दोनों को अपनी दिशाओं में सम-शिक्षित किया जाए, सम-विकास दिया जाए और समकक्ष लाया जाए तो ही दांपत्य शांतिपूर्ण हो सकता है। और यह पृथ्वी पूरी शांत हो जाए, अगर दंपति शांत हो जाएं। क्योंकि हमारा सारा वैमनस्य, सारा दुख, सारी पीड़ा हमारे छोटे-छोटे घरों के उपद्रवों में पैदा होती है।
जैसे एक गांव में घर-घर से धुआं निकलता है, अपने-अपने चौके से और फिर गांव के पूरे आकाश पर धुआं छा जाता है। छोटा-छोटा, एक-एक चौके से निकला हुआ धुआं धीरे-धीरे पूरे गांव के आकाश को भर देता है। सारी पृथ्वी अशांति से भर जाती है, क्योंकि जो व्यक्तियों के मिलन का मूल-बिंदू है, मूल इकाई है स्त्री और पुरुष, वह मिलन दुखद है, वहां अशांति है। वह अशांति फैलते-फैलते सारे जगत को घेर लेती है। फिर बहुत रूपों में प्रकट होती है। यह रूप इतने भिन्ना हो जाते हैं कि कहना मुश्किल है।
नारी होने का ठीक अर्थ पुरुष से बहुत भिन्न है और दोनों के व्यक्तित्व के भेद को भी थोड़ा समझना उपयोगी है। पुरुष एक्टिव है, पुरुष का सारा व्यक्तित्व क्रियात्मक है, विधायक है। स्त्री का सारा व्यक्तित्व पैसिव है, निषेधात्मक है। इस फर्क को समझ लेना जरूरी है, तो हम उनकी दोनों की शिक्षाएं, उन दोनों के जीवन का ढंग अलग तरह से सोचेंगे।
एक स्त्री किसी पुरुष को कितना ही प्रेम करती हो तो भी कभी कोई स्त्री ने पुरुष के प्रति निवेदन नहीं किया है कि मैं तुम्हें प्रेम करती हूं। स्त्री कितना ही प्रेम करती हो तो भी वह प्रतीक्षा करती है कि पुरुष निवेदन करे। स्त्री पैसिव है, पैसिव का मतलब है, वह प्रतीक्षा कर सकती है--आक्रामक नहीं हो सकती है, आक्रमण नहीं करेगी, पहल नहीं करेगी। पुरुष को ही आक्रमण करना होगा, पुरुष को ही पहल करनी होगी। पुरुष को ही पहला कदम उठाना होगा स्त्…
[20:04, 6/24/2018] Kumar Mith: उलझने इश्क़ में बस इतनी रही...
ना उनसे हाँ हुई.. ना हमसे ना हुई...!
[09:20, 6/27/2018] Kumar Mith: ये जिनको तुम योगी समझते हो , ये सब सरकसों में भर्ती करने योग्य है । इनका कोई भी मूल्य नहीं । अच्छा है , शरीर के स्वास्थ के लिए ठीक है , पर इससे कुछ परमात्मा के मिलने का लेना-देना नहीं है । परमात्मा से कौन मिलता है । जो स्वस्थ है । जो स्वयं में स्थित है । जो वर्तमान में आरूढ़ है । क्योंकि परमात्मा का द्वार वर्तमान है । अतीत है नहीं अब , न हो चुका ; भविष्य अभी आया नहीं , वह भी नहीं है । है क्या ? यह क्षण ! इस क्षण से ही तुम प्रवेश करो तो परमात्मा में पहुंच सकते हो । क्योंकि यही क्षण वास्तविक है , अस्तित्ववान है । और परमात्मा है महाअस्तित्व । इसी क्षण के द्वार से सरको और परमात्मा में पहुंच जाओगे । ध्यान की सारी प्रक्रियाएं इसी क्षण में उतर जाने की प्रक्रियाएं हैं । जब चित्त में कोई विचार नहीं होता , तो स्वभावतः समय मिट जाता है । क्योंकि विचार या तो अतीत के होते हैं या भविष्य के होते हैं । वर्तमान का तो विचार कभी होता ही नहीं । तुम करना भी चाहो तो न कर सकोगे ; बैठ कर कोशिश करना । वर्तमान का कोई विचार संभव नहीं है ; वह असंभावना है । तुम जब भी विचार करोगे तो अतीत का होगा । यह भी हो सकता है कि सामने गुलाब का फूल खिला है और जैसे ही तुमने कहा , ' अहा ' कितना सुंदर फूल ! ' यह अतीत हो गया । यह तुम्हारी जो प्रतीति हुई थी सौंदर्य की , उसकी स्मृति है अब । यह अतीत हो गया , यह अब वर्तमान न रहा । तुम बोले कि अतीत में गये , या भविष्य में गये । विचार उठा , कि अतीत या भविष्य । तुम डोल गये दायें या बायें , मध्य खो गया । मध्य तो निर्विचार में होता है । ध्यान का अर्थ होता है : चुप , मौन , कोई विचार नहीं उठता , कोई विचार की तरंग नहीं उठती , झील शांत है ...... । यह शांत झील वर्तमान से जोड़ देती है । और जो वर्तमान से जुडा़ , वही योगी है । ध्यानी योगी है । और जो वर्तमान से जुड़ गया , वह परमात्मा से जुड़ गया ; क्योंकि वर्तमान परमात्मा का द्वार है । अगर तुम्हारा जीवन सहज हो जाये तो बस ठहर गए , आसन लग गया । यही असली आसन है । पालथी मारकर और सिद्धासन लगाना असली आसन नहीं है । वह तो कोई भी लगा ले । वह तो कवायद है । व्यायाम है , अच्छा है ; करो तो शरीर के लिए स्वास्थ्य कर है ; लेकिन उससे कोई आत्मा नहीं मिल जायेगी । सहजता में , निजता में जो आसन लग जाता है , तो आत्मा का अनुभव शुरू होता है ।
सतगुर मिलै त ऊबरै - प्रवचन 3 एवं प्रवचन 1
[19:18, 6/27/2018] Kumar Mith: ध्यान में बैठने से पूर्व रेचन अनिवार्य चरण - 4
रेचन क्या है, और रेचन क्यों अनिवार्य है?
रेचन क्या है?
रेचन योग का प्राथमिक और महत्वपूर्ण चरण है। रेचन शरीर शुद्धि का एक उपाय है। रेचन का अर्थ है ध्यान में बाधा पहुंचाने वाले तत्वों को शरीर से बाहर फेंकना।
हम जरूरत से ज्यादा भोजन कर लेते हैं, तो हमारे शरीर में अनावश्यक तत्व इकट्ठा हो जाते हैं, जो ध्यान में बैठने में बाधा देते हैं। हम काम में, बातचीत या विचारों में उलझे होते हैं तो हमें पता नहीं चल पाता है, लेकिन जब हम ध्यान में बैठते हैं और शरीर विश्राम में जाता है, तब ये तत्व सक्रिय हो जाते हैं। तो कहीं खुजली चलती है, कहीं चींटी काट रही है, कहीं एंठन होने लगती है और कहीं दर्द होने लगता है। जबकि ध्यान में प्रवेश करने के लिए हमें कम से कम पैंतालीस मिनट से एक घंटे तक शांत और शिथिल यानि पूरी तरह से विश्राम में रहना जरूरी है ।
इसके लिए हमें श्रम करके, व्यायाम करके पसीना निकालकर ध्यान में बाधा पहुंचाने वाले इन तत्वों को शरीर से बाहर निकलना होगा। ताकि ध्यान में प्रवेश हो सके। यह है चमड़ी द्वारा पसीने का रेचन।
हमारे फेफड़ों में धूल और धुंए के कण जमा हो जाते हैं, जो हमारी श्वास को गहरा नहीं होने देते, तथा ध्यान में बैठने पर खांसी उठाकर बाधा पहुंचाते हैं। भस्त्रिका या कपालभाति प्राणायाम करके जब हम इन्हें बाहर निकल देते हैं, तो यह रेचन कहलाता है। ध्यान में प्रवेश के लिए फेफड़ों का शुद्ध होना बहुत जरूरी है।
हमने अपने भावों का भी दमन किया है, उन्हें दबाया है। हमने रोना दबाया है।
बहन जब ससुराल जा रही थी, बचपन से साथ खेलते हुए बड़े हुए थे, खूब रोने को दिल हुआ, लेकिन "लोग क्या कहेंगे कि जवान आदमी होकर रोता है?" इस भय से हम रो नहीं पाये हैं, और जब अपने किसी परिजन की मृत्यु पर हमें रोना आया तो लोगों ने "जवान आदमी होकर रोता है?" ऐसा कहते हुए हमें चुप करवा दिया है।
वह रूलाई बाहर निकलना चाह रही है, तभी तो भावुक और संवेदनशील मोकों पर हमारी आंखें भर आती है। हमने आंसुओं को रोका है, वे रुके हुए आंसू ध्यान में बाधा डाल रहे हैं, हमें उन आंसुओं को बाहर निकालना है, ताकि ध्यान में प्रवेश हो सके। आंसुओं को बाहर निकालना, यह है रेचन करना।
हमने हंसना दबाया है। बड़ों के भय से हम कभी खुलकर नहीं हंसे हैं। हमेशा हंसने पर हमें टोक दिया गया है। कई बार तो हमें अपनी हंसी को बीच में ही रोक देना पड़ा है। वह दबी हुई, रूकी हुई हंसी ध्यान में बाधा डाल रही है। उसे बाहर निकालना होगा। हमें फिर से दिल खोलकर हंसना होगा, इतना हंसना होगा कि पेट दुखने लगे। यह हंसी को बाहर निकालना रेचन कहलाता है।
हमने नृत्य को दबाया है। मधुर संगीत सुनकर हमारे पैर थिरकने लगे थे, और हमने "मुझे नाचना नहीं आता" कहते हुए अपने को रोक लिया है। वह दबा हुआ नृत्य बाहर आना चाहता है। हमें नाच कर उसे बाहर निकालना है ताकि हमारा ध्यान में प्रवेश हो सके।
हमने क्रोध को दबाया है। जब भी हमें क्रोध आया तो हमारी मुठ्ठियां बंध गई थी, दांत भींच गए थे, हमारे पैर लात मारने को उतावले हो गए थे, यानि हमारे शरीर ने लड़ने की पूरी तैयारी कर ली थी, लेकिन हम कुछ भी नहीं कर पाए, क्योंकि जिस व्यक्ति पर हमें क्रोध आया वह हमसे बड़ा था, या कि हमसे शक्तिशाली था। अतः हमें क्रोध को वहीं रोकना पड़ा, दबाना पड़ा। वह दबा हुआ क्रोध ध्यान में बाधा डाल रहा है। क्रोध में मुठ्ठी भींचने पर जो उर्जा इकठ्ठी हुई थी, वह बाहर निकलना चाहती है। तभी तो हम उंगली में चाबी का छल्ला फंसाकर उसे घुमाने लगते हैं, रास्ते चलते छोटों पर धोल जमाने लगते हैं। और यह हमारे अंजाने ही होने लगता है। …
[00:30, 6/29/2018] Kumar Mith: 🔴
क्रोध की ऊर्जा का सार्थक उपयोग-
ओशो
क्रोध उठे तो तुम्हारे भीतर एक ऊर्जा उठी है, उसका कुछ उपयोग करो अन्यथा वह घातक हो जाएगी। अगर तुम दूसरे के ऊपर क्रोध को फेंकोगे तो दूसरे को नुकसान होगा; और क्रोध और क्रोध लाता है। वैर से वैर मिटता नहीं। उसका कोई अंत नहीं है। वहसिलसिला अंतहीन है। अगर तुम क्रोध को भीतर दबाओगे तो तुम्हारे भीतर घाव हो जाएगा, वह घाव भी खतरनाक है। वह तुम्हें रुग्ण कर देगा। तुम्हारे जीवन की खुशी खो जाएगी।
तो न तो दूसरे पर क्रोध फेंको, न अपने भीतर क्रोध को दबाओ, क्रोध को रूपांतरित करो। घृणा उठे, क्रोध उठे, ईर्ष्या उठे, इन शक्तियों का सदुपयोग करो। मार्ग के पत्थर भी, बुद्धिमान व्यक्ति मार्ग की सीढ़ियां बना लेते हैं। और तब तुम बड़े सुख को उपलब्ध होओगे। दो कारण से। एक तो क्रोध करके जो दुख उत्पन्न होता, वह नहीं होगा। क्योंकि तुमने किसी को गाली दे दी इससे कुछ सिलसिला अंत नहीं हो गया। वह दूसरा आदमीफिर गाली देने की प्रतीक्षा करेगा। अब उसके ऊपर क्रोध घिरा है, वह भी तो क्रोध करेगा। अगर तुमने क्रोध को दबा लिया तो तुम्हारे भीतर के स्रोत विषाक्त हो जाते हैं। क्रोध जहरहै। तुम्हारे जीवन का सुख धीरे-धीरे समाप्त हो जाता है। तुम फिर प्रसन्न नहीं हो सकते। प्रसन्नता खो ही जाती है। तुम हसोगे भी तो झूठ। ओंठों पर रहेगी हंसी; तुम्हारे प्राण तक उसका कंपन न पहुंचेगा। तुम्हारे हृदय से न उठेगी। तुम्हारी आंखें कुछ और कहेंगी, तुम्हारे ओंठ कुछ और कहेंगे। तुम धीरे-धीरे टुकड़े-टुकड़े में टूट जाओगे।
तो न तो दूसरे पर क्रोध करने से तुम सुखी हो सकते हो, क्योंकि कोई दूसरे को दुखी करकेकब सुखी हो पाया! और न तुम अपने भीतर क्रोध को दबाकर सुखी हो सकते हो, क्योंकि वह क्रोध उबलने के लिए तैयार होगा, इकट्ठा होगा। और रोज-रोज तुम क्रोध को इकट्ठा करते चले जाओगे, भीतर भयंकर उत्पात हो जाएगा। किसी भी दिन तुमसे पागलपन प्रगट हो सकता है। किसी भी दिन तुम विक्षिप्त हो सकते हो। एक सीमा तक तुम बैठे रहोगे अपने ज्वालामुखी पर, लेकिन विस्फोट किसी न किसी दिन होगा। दोनों ही खतरनाक हैं।
रूपातरण चाहिए। क्रोध कीऊर्जा को विधेय में लगा दो। कुछन करते बन सके, दौड़ आओ। क्रोध उठा है, नाच लो। तुम थोड़ा प्रयोगकरके देखो। जब क्रोध उठे तो नाचकर देखो। जब क्रोध उठे तो एकगीत गाकर देखो। जब क्रोध उठे तोघूमने निकल जाओ। जब क्रोध उठे तो किसी काम में लग जाओ, खाली मतबैठो। क्योंकि जो ऊर्जा है उसकाउपयोग कर लो। और तुम पाओगे कि जल्दी ही तुम्हें एक सूत्र मिल गया, एक कुंजी मिल गई-कि जीवन केसभी निषेधात्मक भाव उपयोग किए जा सकते हैं। राह के पत्थर सीढ़ियां बन सकते हैं।
[04:21, 7/2/2018] Kumar Mith: प्रकृति हर पल बदलती है। अलग-अलग जलवायु व तापमान के बीच रहने से शरीर मौसम संबंधी चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार होता है। इसलिए व्यस्तता के बीच ब्रेक लेने, प्रकृति के साथ कुछ पल बिताने से न सिर्फ एकरसता भंग होती है बल्कि दिन-प्रतिदिन के कार्यों में एकाग्रता भी बढ़ती है।
5. शोध बताते हैं कि जो लोग आउटडोर एक्सरसाइज को अपने फिटनेस रूटीन में शामिल करते हैं, वे बोरियत से दूर रहते हैं और उन्हें व्यायाम का अधिक लाभ होता है। इसकी वजह है- अलग-अलग दृश्यों, फूल-पत्तियों व पंछियों को देखने और उनकी आवाजों सुनने से जीवन के प्रति लगाव बढ़ता है।
6. प्रकृति मन की बेचैनी व तनाव को भी कम करती है, जिससे एक्सरसाइज करने की क्षमता बढ़ जाती है। ताजी हवा में व्यायाम करने से फेफड़ों को ऑक्सीजन मिलती है, जिससे मुश्किल वर्कआउट्स जैसे साइक्लिंग, रनिंग, हाइकिंग भी आसान लगने लगती है।
[04:24, 7/2/2018] Kumar Mith: जिम में नहीं बल्कि प्रकृति के बीच करें एक्सरसाइज़, बॉडी और माइंड दोनों रहेंगे फिट
[04:36, 7/3/2018] Kumar Mith: सदियों से पता रहा है। विज्ञान तो अब इसको वैज्ञानिक रूप दे रहा है। भाई-बहन का संबंध भी अवैज्ञानिक है। इसका कोई नैतिकता से संबंध नहीं है। सीधी सी बात इतनी है कि भाई और बहन दोनों के वीर्यकण इतने समान होते है कि उनमें तनाव नहीं होता। उनमें खिंचाव नहीं होता। इसलिए उनसे जो व्यक्ति पैदा होगा, वह फुफ्फुस होगा; उसमें खिंचाव नहीं होगा, तनाव नहीं होगा, उसमें ऊर्जा नहीं होगी। जितने दूर का नाता होगा, उतना ही बच्चा सुंदर होगा। स्वस्थ होगा, बलशाली होगा। मेधावी होगा। इसलिए फिक्र की जाती रही कि भाई-बहन का विवाह न हो। दूर संबंध खोजें जाते है। जिनसे गोत्र का भी नाता न हो, तीन-चार पाँच पीढ़ियों का भी नाता न हो। क्योंकि जितने दूर का नाता हो, उतना ही बच्चे के भीतर मां और पिता के जो वीर्याणु और अंडे का मिलन होगा, उसमें दूरी होगी। तो उस दूरी के कारण ही व्यक्तित्व में गरिमा होती है।
जैसे बिजली पैदा करनी हो तो ऋण और धन, इन दो ध्रुवों के बीच ही बिजली पैदा होती है। तुम एक ही तरह के ध्रुव - धन और धन, ऋण और ऋण - इनके साथ बिजली पैदा करना चाहो, बिजली पैदा नहीं होगी। बिजली पैदा करने के लिए ऋण और धन की दूरी चाहिए। व्यक्तित्व में उतनी ही बिजली होती है, उतनी ही विद्युत होती है, जितना वह दूर का हो।
इसलिए मैं इस पक्ष में हूं कि भारतीय को भारतीय से विवाह नहीं करना चाहिए; जापनी से करे, चीनी से करे, तिब्बती से करे, इरानी से करे, जर्मन से करे, भारतीय से न करे। क्योंकि जब दूर ही करनी है जितनी दूर हो उतना अच्छा।
और अब तो वैज्ञानिक रूप से सिद्ध हो चुकी है बात। पशु-पक्षियों के लिए हम प्रयोग भी कर रहे है। लेकिन आदमी हमेशा पिछड़ा हुआ होता है, क्योंकि उसकी जकड़ रूढ़िगत होती है। अगर हमको अच्छी गाय की नस्ल पैदा करनी है तो हम बाहर से वीर्य-अणु बुलाते है। अंग्रेज सांड का वीर्य अणु बुलाते है। भारतीय गाय के लिए। और कभी नहीं सोचते कि गऊमाता के साथ क्या कर रहे हो तुम यह! गऊमाता और अंग्रेज पिता, शर्म नहीं आती? लाज-संकोच नहीं?... मगर उतने ही स्वस्थ बच्चे पैदा होंगे। उतनी ही अच्छी नस्ल होगी।
इसलिए पशुओं की नसलें सुधरती जा रही है, खासकर पश्चिम में तो पशुओं की नसलें बहुत सुधर गई है। कल्पनातीत!साठ-साठ लीटर दूध देने वाली गायें कभी दूनिया में नहीं थी। और उसका कुल कारण यह है कि दूर-दूर के वीर्याणु को मिलाते जाते है। हर बार। आने वाले बच्चे और ज्यादा स्वास्थ और भी स्वस्थ होते जाते है। कुत्तों की नसलों में इतनी क्रांति हो गई है कि जैसे कुत्ते कभी नहीं थे दुनियां में। रूस में फलों में क्रांति हो गई हे। क्योंकि फलों के साथ भी यही प्रयोग कर रहे है। आज रूस के पास जैसे फल है, दुनिया में किसी के पास नहीं है। उनके फल बड़े है, ज्यादा रस भरे है, ज्यादा पौष्टिक हे। और सारी तरकीब एक है: जितनी ज्यादा दूरी हो। यह सीधा सा सत्य आदिम समाज को भी पता
भारत की दीन हीनता में यह भी एक कारण है। भारत के लोच-पोच आदमियों में यह भी एक कारण है। क्योंकि जैन सिर्फ जैनों के साथ ही विवाह करेंगे। अब जैनों की कुल संख्या तीस लाख है। महावीर को मरे पच्चीस सौ साल हो गए। अगर महावीर ने तीस जोड़ों को संन्यास दिया होता तो तीस लाख की संख्या हो जाती। तीस जोड़े काफ़ी थे।
ब्राह्मण सिर्फ ब्राह्मणों से शादी करेंगे। और वह भी सभी ब्राह्मणों से नहीं; कान्यकुब्ज ब्राह्मण कान्यकुब्ज से करेंगे। और देशस्थ -देशस्थ से, और कोंकणस्थ -कोंकणस्थ से। और स्वास्थ ब्राह्मण तो मिलते ही कहां हे। मुझे तो अभी तक नहीं मिला। कोई भी। और असल में, स्वस्थ हो उसी को ब्राह्मण कहना चाहिए। स्वयं में स्थित हो, वही ब्राह्मण है।
और यह जो भारत की दुर्गति है, उसमें एक बुनियादी कारण यह भी है कि यहां सब जातिय…
[10:16, 7/3/2018] Kumar Mith: शीर्षासन योग से जुडी कुछ सावधानियाँ:-
जिन लोगो को ब्लड प्रेशर की शिकायत है, उन्हें इस आसन को नहीं करना चाहिए|
यदि आंखों की कोई बीमारी है तो भी इस आसन को ना करें|
जिन लोगो को गर्दन में दर्द या फिर कोई अन्य समस्या है तो उन्हें भी यह आसन का अभ्यास नहीं करना चाहिए|
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