Thursday, October 20, 2022

योग वासिष्ठ के अनुसार ज्ञान की सात भूमिकाएं

 

योग वासिष्ठ के अनुसार ज्ञान की सात भूमिकाएं -भारत के जीवन-दर्शन में आत्म स्वरूप के अनुभव को ही ज्ञान कहा गया है. यह शाब्दिक और बौद्धिक......

योग वासिष्ठ के अनुसार ज्ञान की सात भूमिकाएं -दिनेश मालवीय भारत के जीवन-दर्शन में आत्म स्वरूप के अनुभव को ही ज्ञान कहा गया है. यह शाब्दिक और बौद्धिक विलास का विषय न होकर अनुभव का विषय है. दूसरे शब्दों में कहें तो आत्मज्ञान ही वास्तविक  ज्ञान है. इस सम्बन्ध में “योग वासिष्ठ: में महर्षि वशिष्ठ ने भगवान राम को जो बताया वह ज्ञान की जिज्ञासा रखने वालों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है. महर्षि वशिष्ठ कहते हैं कि है राम! ज्ञान-आत्मज्ञान ही मोक्ष प्राप्ति का एक मात्र उपाय है. वह ज्ञान केवल वाचिक नहीं है और न वह तर्क का विषय है. वह आत्मा का अनुभव है. लिहाजा, बिना अभ्यास के अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान होना संभव नहीं है. इसके अलावा, यह ज्ञान एक ही जन्म में नहीं होता. मनुष्य को जन्म-जन्म तक इसके लिए अभ्यास करना होता है. जिसमें अधिक लगन होती है और जो पूरी शक्ति से प्रयास करता है उसे ज्ञान लाभ शीघ्र हो जाता है. जो लोग ढीले-ढाले चलने वाले होते हैं, उन्हें इसका  अनुभव करने में बहुत समय लगता है. जिस समय बहुत तीव्र वैराग्य और मुक्ति की तीव्र इच्छा होती है, तो यह अनुभव होते देर नहीं लगती. वसिष्ठजी कहते हैं कि इस मार्ग पर क्रमिक अवस्थाएँ आती हैं, जिन्हें ज्ञान की भूमिकाएँ कहा जाता है. ये भूमिकाएं सात हैं. इन्हें समझकर व्यक्ति मोह के दलदल में नहीं फँसता. ये भूमिकाएँ हैं- 1. शुभेक्षा 2. विचारणा 3. तनुमानसा 4. सत्वापत्ति 5. असंसक्ति 6. पदार्थाभावनी 7. तुर्यगा. इन सात भूमिकाओं के अंत में मुक्ति है, जिसे प्राप्त करने पर शोक नहीं रहता. शुभेक्षा- इस भूमिका में मनुष्य में वैराग्य उत्पन्न होता है. वह सोचने लगता है कि मैं अज्ञानी क्यों रहूँ? सज्जनों और शास्त्रों की सहायता से मैं सत्य को क्यों ना जानूं? ऐसा विवेक अनेक जन्मों के बाद उत्पन्न होता है. मनुष्य को लगता है कि यह संसार व्यर्थ है. ऐसा विचार होने पर उसमें वैराग्य उत्पन्न होता है. उसे विषय-वासनाओं से विरक्ति होने लगती है. वह दूसरों के उपकार की तरफ भी बढ़ता है. वह किसी का दिल नहीं दुखाता, अच्छे काम करता है और कभी ऐसा कुछ नहीं करता या कहता जिससे किसीका मन उद्विग्न या व्याकुल हो. उसे पाप करने से डर लगने लगता है. वह सबसे अच्छा बोलता है. पूरी निष्ठा से सज्जनों की सेवा करता है. साथ ही सदग्रंथों का अध्ययन करता है. विचारणा- इस अवस्था में व्यक्ति ऐसे ज्ञानवान लोगों की शरण में जाता है,जिन्हें वेद ,स्मृति आदि ग्रंथों का अच्छा अध्ययन होता है और दो सदाचारी और ध्यान आदि आध्यात्मिक साधनाएँ करते हैं. वह उन लोगों से जिज्ञासा कर उनकी वाणी को पूरे मनोयोग से सुनता है. इसके फलस्वरूप वह मद, अभिमान, मोह, ईर्ष्या, लोभ आदि को धीरे-धीरे ऐसे छोड़ता है, जैसे सांप अपनी केंचुली को त्यागता है. तनुमानसा- इस भूमिका में व्यक्ति शास्त्रों के वाक्यों में अपनी बुद्धि को स्थापित करके तपोवन का आश्रय लेता है. वहाँ तपस्वियों के आश्रम पर आध्यात्मिक उपदेश सुनकर, साधना करते हुए संसार का संसार की असारता का भाव बढाने वाले विचारों के साथ समय बिताता है. सत्वापत्ति- उपरोक्त तीन भूमिकाओं के अभ्यास से अज्ञान क्षीण हो जाने पर और सद्ज्ञान उदय हो जाने पर व्यक्ति इस चौथी अवस्था में जाता है. इसमें वह सभी वस्तुओं को एक अनंत, अखंड और समरूप देखता है. द्वैत का भाव चला जाता है और अद्वैत का भाव दृढ़ हो जाता है. इस भूमिका में व्यक्ति संसार में हर जगह समानता के दर्शन करता है. असंसक्ति- इस भूमिका में पहुंचकर योगी का अनुभव सत्य मात्र का रह जाता है. उसके भीतर से सभी विशेष-भेद क्षीण हो जाते हैं. वह बाहरी जगत के काम करता हुआ भी अपनी अंतर्मुखी वृत्ति के कारण सुषुप्ति में मग्न रहता है. इन भूमिका का अभ्यासी वासनारहित होकर अपनी परम सत्ता के कारण नींद में खोया हुआ-सा दिखाई देता है. पदार्थभावनी-इस तरह अभ्यास करता हुआ योगी को न “सत” का अनुभव होता है और न “असत” का. उसमें न”अहं” रहता है और न” अनहंकार”है. इस अवस्था में पहुंचा हुआ व्यक्ति भावनारहित, द्वैत से मुक्त , क्षीण मन वाला होता है. उसके सभी संदेह शांत हो जाते हैं और उसके मन की सभी गांठें खुल जाती हैं. निर्वाण में प्रवेश न करके भी उसके लिए यह अवस्था निर्वाण जैसी ही होती है. उसके भीतर और बाहर शून्य के सिवा कुछ नहीं होता. तुर्यगा- इस अवस्था में योग की भूमिका विदेहमुक्ति कहलाती है. यह शांत अवस्था सब भूमिकाओं की अंतिम सीमा है. इसका वर्णन वाणी से नहीं किया जा सकता.   . इस सभी भूमिकाओं से गुजरकर व्यक्ति आत्मज्ञान और मोक्ष को प्राप्त होता है.

प्रकृ ति और पुरुष का वर्णन

 भारतीय दर्शन के छः प्रकारों मेंसेस ांख्य भी एक हैजो प्राचीनकाल मेंअत्यंत लोकप्रप्रय तथा प्रथथत हुआ था। यह अद्वैत वेदान्त सेसवशथा प्रवपरीत मान्यताएँरखनेवाला दर्शन है। इसकी स्थापना करनेवालेमूल व्यक्तत कप्रपल कहेजातेहैं। 'सांख्य' का र्ाक्ददक अथशहै- 'संख्या सम्बंधी' या प्रवश्लेषण। इसकी सबसेप्रमुख धारणा सक्ृटि के प्रकृतत-पुरुष सेबनी होनेकी है, यहाँप्रकृतत (यातन पचं महाभतू ों सेबनी) जड़ हैऔर पुरुष (यातन जीवात्मा) चेतन। योग र्ास्रों के ऊजाशस्रोत (ईडा-प्रप ंगला), र्ाततों के शर्व-र्क्तत के शसद्ांत इसके समानान्तर दीखतेहैं। भारतीय संस्कृतत मेंककसी समय सांख्य दर्शन का अत्यंत ऊँ चा स्थान था। देर् के उदात्त मक्स्तटक सांख्य की प्रवचार पद्तत सेसोचतेथे। महाभारतकार नेयहाँतक कहा हैकक ज्ञ नांच लोकेयदिह स्ति ककांचचि्स ांख्य गिांिच्च महन्मह त्मन्(र्ांतत पवश301.109)। वस्ततु : महाभारत मेंदार्शतनक प्रवचारों की जो पटृठभशूम है, उसमेंसांख्यर्ास्र का महत्वपूणशस्थान है। र्ाक्न्त पवशके कई स्थलों पर सांख्य दर्शन के प्रवचारों का बड़ेकाव्यमय और रोचक ढंग सेउल्लेख ककया गया है। सांख्य दर्शन का प्रभाव गीता मेंप्रततपाददत दार्शतनक पटृठभूशम पर पयाशप्त रूप सेप्रवद्यमान है। इसकी लोकप्रप्रयता का कारण एक यह अवश्य रहा हैकक इस दर्शन नेजीवन मेंददखाई पड़नेवालेवैषम्य का समाधान त्ररगुणात्मक प्रकृतत की सवशकारण रूप मेंप्रततटठा करके बड़ेसुंदर ढंग सेककया। सांख्याचायों के इस प्रकृतत-कारण-वाद का महान गुण यह हैकक पथृ क्-पथृ क्धमशवालेसत,्रजस्तथा तमस्तत्वों के आधार पर जगत्की प्रवषमता का ककया गया समाधान बड़ा बुप्रद्गम्य प्रतीत होता है। ककसी लौककक समस्या को ईश्वर का तनयम न मानकर इन प्रकृततयों के तालमेल त्रबगड़नेऔर जीवों के पुरुषाथशन करनेको कारण बताया गया है। यातन, सांख्य दर्शन की सबसेबड़ी महानता यह हैकक इसमेंसक्ृटि की उत्पक्त्त भगवान के द्वारा नहींमानी गयी हैबक्ल्क इसेएक प्रवकासात्मक प्रकिया के रूप में समझा गया हैऔर माना गया हैकक सक्ृटि अनेक अनेक अवस्थाओं(phases) सेहोकर गुजरनेके बाद अपनेवतशमान स्वरूप को प्राप्त हुई है। कप्रपलाचायशको कई अनीश्वरवादी मानतेहैंपर भग्वदगीता और सत्याथशप्रकार् जैसेग्रंथों मेंइस धारणा का तनषेध ककया गया है। स ांख्य के प्रमुख ससद् ांत:  सांख्य दृश्यमान प्रवश्व को प्रकृतत-पुरुष मूलक मानता है। उसकी दृक्टि सेके वल चेतन या के वल अचेतन पदाथशके आधार पर इस थचदप्रवदात्मक जगत्की संतोषप्रद व्याख्या नहींकी जा सकती। इसीशलए लौकायततक आदद जड़वादी दर्शनों की भाँतत सांख्य न के वल जड़ पदाथशही मानता हैऔर न अनेक वेदांत संप्रदायों की भाँतत वह के वल थचन्मार ब्रह्म या आत्मा को ही जगत्का मूल मानता है। अप्रपतुजीवन या जगत्मेंप्राप्त होनेवालेजड़ एवंचेतन, दोनों ही रूपों के मूल रूप सेजड़ प्रकृतत, एवंथचन्मार पुरुष इन दो तत्वों की सत्ता मानता है।  जड़ प्रकृतत सत्व, रजस एवंिमस्- इन तीनों गुणों की साम्यावस्था का नाम है। येगुण "बल च गुणवत्ृतम"् न्याय के अनुसार प्रतत क्षण पररगामी हैं। इस प्रकार सांख्य के अनुसार सारा प्रवश्व त्ररगुणात्मक प्रकृतत का वास्तप्रवक पररणाम है। र्ंकराचायशके वेदांत की भाँतत भगवन्माय: का प्रववतश, अथातश ्असत्कायशअथवा शमथ्या प्रवलास नहींहै। इस प्रकार प्रकृतत को पुरुष की ही भाँतत अज और तनत्य माननेतथा प्रवश्व को प्रकृतत का वास्तप्रवक पररणाम सत्कायशमाननेके कारण सांख्य सच्चेअथों मेंबाह्यथाथशवादी या वस्तुवादी दर्शन हैं। ककंतुजड़ बाह्यथाथशवाद भोग्य होनेके कारण ककसी चेतन भोतता के अभाव मेंअपाथशक या अथर्श ून्य अथवा तनटप्रयोजन है, अत: उसकी साथशकता के शलए सांख्य चेतन पुरुष या आत्मा को भी माननेके कारण अध्यात्मवादी दर्शन है।  मूलत: दो तत्व माननेपर भी सांख्य पररणाशमनी प्रकृतत के पररणामस्वरूप तेईस अवांतर तत्व भी मानता है। तत्व का अथशहै'सत्य ज्ञान'। इसके अनुसार प्रकृतत सेमहत्या बप्रुद्, उससेअहंकार, तामस, अहंकार सेपंच-तन्मार (र्दद, स्पर्श, रूप, रस तथा गंध) एवंसाक्त्वक अहंकार सेग्यारह इंदिय (पंच ज्ञानेंदिय, पंच कमेंदिय तथा उभयात्मक मन) और अंत मेंपंच तन्मारों सेिमर्: आकार्, वाय, ुतेजस, ्जल तथा पथ्ृवी नामक पंच महाभूत, इस प्रकार तेईस तत्व िमर्: उत्पन्न होतेहैं। इस प्रकार मुख्यामुख्य भेद सेसांख्य दर्शन 25 तत्व मानता है। जैसा पहलेसंके त कर चुके हैं, प्राचीनतम सांख्य ईश्वर को 26वाँतत्व मानता रहा होगा। इसके साक्ष्य महाभारत, भागवत इत्यादद प्राचीन सादहत्य मेंप्राप्त होतेहैं। यदद यह अनुमान यथाथशहो तो सांख्य को मूलत: ईश्वरवादी दर्शन मानना होगा। परंतुपरवती सांख्य ईश्वर को कोई स्थान नहींदेता। इसी सेपरवती सादहत्य मेंवह तनरीश्वरवादी दर्शन के रूप मेंही उक्ल्लखखत शमलता है।  स ांख्य िर्शन के २५ ित्व आत्म (पुरुष) अांिःकरण (3) : मन, बप्रुद्, अहंकार ज्ञ नेस्न्िय ाँ(5) : नाशसका, क्जह्वा, नेर, त्वचा, कणश कमेस्न्िय ाँ(5) : पाद, हस्त, उपस्थ, पाय, ुवाक् िन्म त्र यें(5) : गन्ध, रस, रूप, स्पर्श, र्दद मह भूि (5) : पथ्ृवी, जल, अक्ग्न, वाय, ुआकार

हदारण्यकोपनिषद

 

हदारण्यकोपनिषद

यह उपनिषद शुक्ल यजुर्वेद की काण्व-शाखा के अन्तर्गत आता है। 'बृहत' (बड़ा) और 'आरण्यक' (वन) दो शब्दों के मेल से इसका यह 'बृहदारण्यक' नाम पड़ा है। इसमें छह अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में अनेक 'ब्राह्मण' हैं।

प्रथम अध्याय

इसमें छह ब्राह्मण हैं।

  • प्रथम ब्राह्मण में, सृष्टि-रूप यज्ञ' को अश्वमेध यज्ञ के विराट अश्व के समान प्रस्तुत किया गया है। यह अत्यन्त प्रतीकात्मक और रहस्यात्मक है। इसमें प्रमुख रूप से विराट प्रकृति की उपासना द्वारा 'ब्रह्म' की उपासना की गयी है।
  • दूसरे ब्राह्मण में, प्रलय के बाद 'सृष्टि की उत्पत्ति' का वर्णन है।
  • तीसरे ब्राह्मण में, देवताओं और असुरों के 'प्राण की महिमा' और उसके भेद स्पष्ट किये गये हैं।
  • चौथे ब्राह्मण में, 'ब्रह्म को सर्वरूप' स्वीकार किया गया है और चारों वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) के विकास क्रम को प्रस्तुत किया गया है।
  • पांचवें ब्राह्मण में, सात प्रकार के अन्नों की उत्पत्ति का उल्लेख है और सम्पूर्ण सृष्टि को 'मन, वाणी और प्राण' के रूप में विभाजित किया गया है।
  • छठे ब्राह्मण में, 'नाम, रूप और कर्म' की चर्चा की गयी है।

प्रथम ब्राह्मण
इस ब्राह्मण में प्रकृति के विराट रूप की तुलना 'अश्वमेध यज्ञ' के घोड़े से की गयी है। उसके विविध अंगों में सृष्टि के विविध स्वरूपों की कल्पना की गयी है। 'अश्व' शब्द शक्ति और गति का परिचायक हैं। यह सम्पूर्ण ब्राह्मण भी निरन्तर सतत गतिशील है। इस प्रकार वैदिक ऋषि अश्वमेध के अश्व के माध्यम से सम्पूर्ण सृष्टि को उस अज्ञात शक्ति द्वारा सतत गतिशील सिद्ध करते हैं। 'अश्व' उस राजा की शक्ति का प्रतीक है, जो चक्रवर्ती कहलाना चाहता हैं इसी भांति यह सम्पूर्ण सृष्टि उस परब्रह्म की शक्ति का प्रतीक है। जिस प्रकार अश्वमेध यज्ञ में 'अश्व' की पूजा की जाती है और बाद में उसकी बलि चढ़ा दी जाती है, उसी प्रकार साधक इस सृष्टि की उपासना करता है, किन्तु अन्त में इस सृष्टि को नश्वर जानकर छोड़ देता है और इससे परे उस 'ब्रह्म' को ही अनुभव करता है, जो इस सृष्टि का नियन्ता है। जैसे लोकिक जगत में सभी 'अश्व' से परे उस 'राजा' को देखते हैं, जिसके यज्ञ का वह घोड़ा है तथा 'राजा' ही प्रमुख होता है, वैसे ही अध्यात्मिक जगत में वह 'ब्रह्म' है। उदाहरण के रूप में ऋषियों की इस कल्पना का अवलोकन करें- यह यज्ञीय अश्व या विश्वव्यापी शक्ति प्रवाह का सिर 'उषाकाल' है। आदित्य (सूर्य) नेत्र हैं, वायु प्राण है, खुला मुख 'आत्मा' है, अन्तरिक्ष उदर है, दिन और रात्रि दोनों पैर हैं, नक्षत्र समूह अस्थियां हैं और आकाश मांस है। मेघों का गर्जन उसकी अंगड़ाई है और जल-वर्षा उसका मूत्र है और शब्द घोष (हिनहिनाना) वाणी है। वास्तव में ये उपमाएं उस विराट सृष्टि का केवल बोध कराती हैं। दूसरे शब्दों में ऋषिगण मूर्त प्रतीकों के द्वारा अमूर्त ब्रह्म की विराट संचेतना का दिग्दर्शन कराते हैं। वही उपासना के योग्य है।
दूसरा ब्राह्मण
इसमें सृष्टि के जन्म की अद्भुत कल्पना की गयी है। कोई नहीं जानता कि सृष्टि का निर्माण और विकास कैसे हुआ, किन्तु वैदिक ऋषियों ने अत्यन्त वैज्ञानिक ढंग से सृष्टि के विकास-क्रम को प्रस्तुत किया है। उनका कहना है कि सृष्टि के प्रारम्भ में कुछ नहीं था। केवल एक 'सत्' ही था, जो प्रलय-रूपी मृत्यु से ढका हुआ था। तब उसने संकल्प किया कि उसे पुन: उदित होना है। उस संकल्प के द्वारा आप: (जल) का प्रादुर्भाव हुआ। इस जल के ऊपर स्थूल कण एकत्र हो जाने से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई। उसके उपरान्त सृष्टि के सृजनकर्ता के श्रम-स्वरूप उसका तेज अग्नि के रूप में प्रकट हुआ। तदुपरान्त परमेश्वर ने अपने अग्नि-रूप के तृतीयांश को सूर्य, वायु और अग्नि तीन भागों में विभक्त कर दिया। पूर्व दिशा उसका शीर्ष भाग (सिर), उत्तर-दक्षिण दिशाएं उसका पार्श्व भाग औ द्युलोक उसका पृष्ठ भाग, अन्तरिक्ष उदर, पृथ्वी वक्षस्थल और अग्नि तत्त्व उस विराट पुरुष की आत्मा बने। यही प्राणतत्त्व कहलाया। इसके बाद इस विराट पुरुष की इच्छा हुई कि अन्य शरीर उत्पन्न हों। तब मिथुनात्मक सृष्टि का निर्माण प्रारम्भ हुआ। नर-नारी, पशु और पक्षियों तथा जलचरों में नर-मादा के युग्म बने और उनके मिथुन-संयोग से जीवन का क्रमिक विकास हुआ। फिर इसके पालन के लिए अन्न से मन और मन से वाणी का सृजन हुआ। वाणी से ऋक्, यजु, साम का सृजन हुआ।
तीसरा ब्राह्मण
यहाँ प्रजापति-पुत्रों के दो वर्गों का उल्लेख है। एक देवगण, दूसरे असुर। देवगण संख्या में कम थे और असुरगण अधिक। दोनों में प्रतिस्पर्द्धा होने लगी। देवताओं ने निश्चय किया कि वे यज्ञ में 'उद्गीथ' (सामूहिक मन्त्रगान) द्वारा असुरों पर हावी होने का प्रयत्न करें। ऐसा विचार करके उन्होंने, पहले वाक् से, फिर प्राण, चक्षु, कान, मन, मुख प्राण आदि से उद्गीथ पाठ करने का निवेदन किया। सभी ने देवताओं के लिए 'उद्गीथ' किया, परन्तु हर बार असुरगणों ने उन्हें पाप से मुक्त कर दिया। इस कारण वाणी, प्राण-शक्ति, चक्षु, कान या मन दूषित हो गये, किन्तु मुख में निवास करने वाले प्राण को वे दूषित नहीं कर सके। वहां असुरगण पूरी तरह पराजित हो गये। इस मुख में समस्त अंगों का रस होने के कारण इसे 'आंगिरस' भी कहा जाता है। इस प्राण-रूप देवता ने इन्द्रियों के समस्त पापों को नष्ट करके उन्हें शरीर की सीमा से बाहर कर दिया। तब उस प्राणदेवता ने वाग्देवता (वाणी), चक्षु, घ्राण-शक्ति, श्रवण-शक्ति, मन-शक्ति आदि से मृत्यु-भय को दूर कर दिया और फिर प्राण-शक्ति को भी मृत्यु-भय से दूर कर दिया। समस्त देवगुण प्राण में प्रवेश कर गये और अभय हो गये। यह प्राण ही 'साम' है। वाक् ही 'सा' और प्राण ही 'अम' है। दोनों के सहयोग से 'साम' बनता है, अर्थात यदि प्राणतत्त्व से गायन किया जाये, तो वह जीवन-साधना को सफल बनाता है। वाणी और हृदयगत भावों का संयोग सामगान को अमर बना देता है। ऐसा गान करने वाला धन-धान्य व ऐश्वर्य से सम्पन्न होता है। उसे प्रतिष्ठा प्राप्त होती है।
चौथा ब्राह्मण
यहाँ 'ब्रह्म' की एकांगीता पर प्रकाश डाला गया है। ब्रह्म के सिवा सृष्टि में कोई दूसरा नहीं है। उसके लिए यही कहा जा सकता है- 'अहस्मि, 'अर्थात मैं हूं। इसीलिए ब्रह्म को अहम संज्ञक कहा जाता है। एकाकी होने के कारण वह रमा नहीं। तब उसने किसी अन्य की आकांक्षा की। तब उसने अपने को नारी के रूप में विभक्त कर दिया। 'अर्द्धनारीश्वर' की कल्पना इसीलिए की गयी है। पुरुष और स्त्री के मिलन से मानव-जीवन का विकास हुआ। प्रथम चरण में प्रकृति संकल्प करके सव्यं को जिस-जिस पशु-पक्षी आदि जीवों के रूप में ढालती गयी, उसका वैसा-वैसा रूप बनता गया और उसी के अनुसार उनके युग्म बने और मैथुनी सृष्टि से जीवन के विविध रूपों का जन्म हुआ। सबसे पहले ब्रह्म 'ब्राह्मण' वर्ण में था। पुन: उसने अपनी रक्षा के लिए क्षत्रिय वर्ण का सृजन किया। फिर उसने वैश्य वर्ण का सृजन किया और अन्त में शूद्र वर्ण का सृजन किया और उन्हीं की प्रवृत्तियों के अनुसार उनके कार्यों का विभाजन किया। कर्म का विस्तार होने के उपरान्त 'धर्म' की उत्पत्ति की। धर्म से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं हे। धर्म की सत्या है। इसी ने 'आत्मा' से परिचय करायां यह 'आत्मा' ही समस्त जीवों को आश्रय प्रदाता है। यज्ञ द्वारा इसी 'आत्माय को प्रसन्न करने से देवलोक की प्राप्ति होती है।
पांचवां ब्राह्मण
परमापिता ने सृष्टि का सृजन करके क्षुधा-तृप्ति के लिए चार प्रकार के अन्नों का सृजन किया। उनमें एक प्रकार का अन्न सभी के लिए, दूसरे प्रकार का अन्न देवताओं के लिए, तीसरे प्रकार का अन्न अपने लिए तथा चौथे प्रकार का पशुओं के लिए वितरित कर दिया। धरती से उत्पन्न अन्न सभी के लिए है। उसे सभी को समान रूप से उपभोग करने का अधिकार है। हवन द्वारा दया जाने अन्न देवताओं के लिए है। पशुओं को दिया जाने वाला खाद्यान्न दूध उत्पन्न करता है। यह दूध सभी के पीने योग्य हे। शीघ्र उत्पन्न हुए बचच् को स्तनपान से दूध ही दिया जाता है। कहा गया कि एक वर्ष तक दूध से निरन्तर अग्निहोत्र करने पर मृत्यु भी वश में हो जाती हे। उस पुरुष ने तीन अन्नों का चयन अपने लिए किया। ये तीन अन्न-'मन, 'वाणी' और 'प्राण' हैं वाणी द्वारा पृथ्वीलोक को, मन द्वारा अन्तरिक्षलोक को और प्राण द्वारा स्वर्गलोक को पाया जा सकता है। वाणी ॠग्वेद, मन यजुर्वेद और प्राण सामवेद है। जो कुछ भी जानने योग्य है, वह मन का स्वरूप है। वाणी ज्ञान-स्वरूप होकर जीवात्मा की रक्षा करती है और जो कुछ अनजाना है, वह प्राण-स्वरूप है। इस विश्व में जो कुछ भी स्वाध्याय या ज्ञान है, वह सब 'ब्रह्म' से ही एकीकृत है। वस्तुत: यह सूर्य निश्चित रूप से प्राण से ही उदित होता है और प्राण में ही समा जाता है।
छठा ब्राह्मण
इस संसार में जो कुछ भी है, वह नाम, रूप और कर्म, इन तीनों का ही समुदाय है। इन नामों का उपादान 'वाणी' हैं। समस्त नामों की उत्पत्ति इस वाणी द्वारा ही होती है। समस्त रूपों का उपादान 'चक्षु' है। समस्त सूर्य इस चक्षु से ही उत्पन्न होते हैं। समस्त रूपों को धारण करने से चक्षु ही इन रूपों का प्राण है, 'ब्रह्म' है। समस्त कर्मों का उपादान यह 'आत्मा' है। समस्त कर्म शरीर से ही होते हैं और उसकी प्रेरणा शरीर में स्थित यह आत्मा ही देती है। यह 'आत्मा' ही सब कर्मों का 'ब्रह्म' है। आत्मा द्वारा ही नाम, रूप और कर्म उत्पन्न हुए हैं। अत: ये तीनों अलग होते हुए भी एक आत्मा ही हैं। यह आत्मा सत्य से आच्छादित है। यही अमृत है। प्राण ही अमृत-स्वरूप है। नाम और रूप ही सत्य हैं। अमृत और सत्य से ही प्राण आच्छन्न है, ढका हुआ है, अज्ञात है।

दूसरा अध्याय

दूसरे अध्याय में भी छह ब्राह्मण हैं। प्रथम ब्राह्मण में डींग हांकने वाले, अर्थात बहुत बढ़-चढ़कर बोलने वाले गार्ग्य बालाकि ऋषि एवं विद्वान राजा अजातशत्रु के संवादों द्वारा 'ब्रह्म' व 'आत्मतत्त्व' को स्पष्ट किया गया है। दूसरे और तीसरे ब्राह्मण में 'प्राणोपासना' तथा ब्रह्म के दो मूर्त्त-अमूर्त्त रूपों का वर्णन किया गया है। इन्हें 'साकार' और 'निराकार' ब्रह्म भी कहा गया है। चौथे ब्राह्मण में याज्ञवल्क्य-मैत्रेयी संवाद हैं। पांचवें और छठे ब्राह्मण में 'मधुविद्या' औ उसकी परम्परा का वर्णन है।
प्रथम ब्राह्मण
इस ब्राह्मण में 'ब्रह्मज्ञान' का उपदेश देने एक बार गर्ग गोत्रीय बालाकि नामक ऋषि वेद प्रवक्ता काशी नरेश अजातशत्रु के दरबार में पहुंचते हैं। वहां वे अहंकारपूर्ण वाणी में 'ब्रह्मज्ञान' का उपदेश देने की बात करते हैं इस पर विद्वान् अजातशत्रु बदले में उन्हें एक सहस्त्र गौएं प्रदान करने की बात करते हैं, परन्तु बालाकि मुनि अजातशत्रु को सन्तुष्ट नहीं कर पाते।
दूसरा ब्राह्मण
यहाँ विराट 'ब्रह्माण्ड' और 'मानव' की समानता का बोध कराया गया है। जो ब्राह्मण में है, वही मानव-शरीर में विद्यमान है। कहा भी है- यद् पिण्डे तत्त्ब्रह्माण्डे, अर्थात जो कुछ भी स्थूल और सूक्ष्म रूप से इस शरीर में विद्यमान है, वही इस विराट ब्रह्माण्ड में स्थित है। वास्तव में इस विशाल सृष्टि का अतिसूक्ष्म रूप परमात्मा ने इस मानव-शरीर में स्थापित किया है और वह स्वयं भी इस शरीर में प्राण-शक्ति के रूप में विराजमान है। इस ब्राह्मण के प्रारम्भ में ही कहा गया है कि जिसने आधान (आधार), प्रत्याधान (शीर्ष), स्थूणा (खूंटा, अर्थात अन्न और जल से प्राप्त होने वाली जीवनी-शक्ति) और दाम (बांधने की रस्सी, अर्थात वह नाल जिससे शिशु माता के साथ जुड़ा रहता है) को समझ लिया, वह परमज्ञान को प्राप्त कर लेता है। यहाँ शिशु के रूपक द्वारा 'प्राण' को शिशु का रूप बताया गया है। यह शिशु अथवा 'प्राण' मानव-शरीर का आधार हैं 'शीर्ष', अर्थात पांचों ज्ञानेन्द्रियों- आंख, कान, नाक, जिह्वा और मन-प्रत्याधान हैं। श्वास की स्थूणा है और दाम 'अन्न' है। प्राणतत्त्व का इस शरीर से गहरा सम्बन्ध है। इसके बिना शरीर की सक्रियता अथवा गतिशीलता की कल्पना ही नहीं की जा सकतीं इसीलिए इसे शरीर का आधार माना गया है। 'शीर्ष' ही समस्त ज्ञानेन्द्रियों का नियन्त्रण करता है और 'श्वास' ही प्राण की स्थूणा शक्ति है। प्राण का आधार 'अन्न' है। शिशु की ऊपरी पलक 'द्युलोक' है और निचली पलक 'पृथ्वीलोक' है। पलकों का झपकना रात और दिन है। आंखों के लाल डोरे रुद्र अथवा अग्नितत्त्व है। नेत्रों का गीलापन जलतत्त्व है, सफेद भाग आकाश है, काली पुतली पृथ्वी-तत्त्व है और पुतली के मध्य स्थित तारा सूर्य है, आंखों के छिद्र वायुतत्त्व हैं। इस रहस्य को समझने वाला साधक जीवन में कभी अभावग्रस्त नहीं होता। हृदय-रूपी आकाश या प्राण-रूपी तट पर 'सप्त ऋषि' विद्यमान हैं दो कान, दो नेत्र, दो नासिका छिद्र और एक रसना, ये सात ऋषि हैं। इनके साथ संवाद करने वाली आठवीं 'वाणी' है। ये दोनों कान गौतम और भारद्वाज ऋषि हैं ये दोनों नेत्र ही विश्वामित्र और जमदग्नि ऋषि हैं, दोनों नासिका छिद्र वसिष्ठ और कश्यप हैं और वाक् ही सातवें अत्रि ऋषि हैं। जो ऐसा जानता है, वह समस्त अन्न भोगों का स्वामी होता है।
तीसरा ब्राह्मण
इस ब्राह्मण में 'ब्रह्म' कें दो रूपों-'मूर्तय और 'अमूर्त,' अर्थात 'व्यक्त' और 'अव्यक्त' स्वरूपों का वर्णन किया गया है। जो मूर्त या व्यक्त है, वह स्थिर, जड़ और नाशवान है, मारणधर्मा है, किन्तु जो अमूर्त या अव्यक्त है, वह सूक्ष्म, अविनाशी और सतत गतिशील है। आदित्य मण्डल में जो विशिष्ट तेजस्-स्वरूप पुरुष है, वह अमर्त्य और अव्यक्त भूतों का सार-रूप है। वायु और अन्तरिक्ष भी अव्यक्त और अमर्त्य हैं। वे निरन्तर गतिशील हैं। मानव-शरीर में आकाश और प्राणतत्त्व से भिन्न जो पृथ्वी, जल, अग्नि का अंश विद्यमान है, वह मूर्त और मरणधर्मा है। नेत्र इस सत् का सार-रूप है। 'ब्रह्म' के लिए सर्वोत्तम उपदेश 'नेति-नेति' है, अर्थात उस परब्रह्म के यथार्थ रूप को पूर्ण रूप से कोई भी आज तक नहीं जान सका। उसे 'सत्य' नाम से जाना जाता हैं यह प्राण ही निश्चय रूप से 'सत्य' है और वही 'ब्रह्म' का सूक्ष्म रूप हैं इसी में समस्त ब्रह्माण्ड समाया हुआ है।
चौथा ब्राह्मण
इस ब्राह्मण में, महर्षि याज्ञवल्क्य व उनकी धर्मपत्नी मैत्रेयी में 'आत्मतत्त्व' को लेकर संवाद है। एक बार महर्षि याज्ञवल्क्य ने गृहस्थ आश्रम छोड़कर वानप्रस्थ आश्रम में जाने की इच्छा व्यक्त करते हुए अपनी पत्नी से कहा कि वे अपना सब कुछ उसमें और अपनी दूसरी पत्नी कात्यायनी में बांट देना चाहते हैं। इस पर मैत्रेयी ने उनसे पूछा कि क्या इस धन-सम्पत्ति से अमृत्व की आशा की जा सकत है? क्या वे उसे अमृत्व-प्राप्ति का उपाय बतायेंगे?
इस पर महर्षि याज्ञवल्क्य ने कहा-'हे देवी! धन-सम्पत्ति से अमृत्व प्राप्त नहीं किया जा सकता। अमृत्व के लिए आत्मज्ञान होना अनिवार्य है; क्योंकि आत्मा द्वारा ही आत्मा को ग्रहण किया जा सकता है।'उन्होंने कहा-'हे मैत्रेयी! पति की आकांक्षा-पूर्ति के लिए, पति को पत्नी प्रिय होती है। इसी प्रकार पिता की आकांक्षा के लिए पुत्रों की, अपने स्वार्थ के लिए धन की, ज्ञान की, शक्ति की, देवताओं की, लोकों, की और परिजनों की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार, 'आत्म-दर्शन' के लिए श्रवण, मनन और ज्ञान की आवश्यकता होती है। कोई किसी को आत्म-दर्शन नहीं करा सकता। इसका अनुभव स्वयं ही अपनी आत्मा में करना होता है।'
उन्होंने अनेक दृष्टान्त देकर इसे समझाया-'हे देवी! जिस प्रकार 'जल' का आश्रय समुद्र है, 'स्पर्श' का आश्रय त्वचा है, 'गन्ध' का आश्रय नासिका है, 'रस' का आश्रय जिह्वा है, 'रूपों' का आश्रय चक्षु हैं, 'शब्द' का आश्रय श्रोत्र (कान) हैं, सभी 'संकल्पों' का आश्रय मन है, 'विद्याओं का आश्रय हृदय है, 'कर्मों' का आश्रय हाथ हैं, समस्त 'आनन्द' का आश्रय उपस्थ (इन्द्री) है, 'विसर्जन' का आश्रय पायु (गुदा) है, समस्त 'मार्गो' का आश्रय चरण हैं और समस्त 'वेदों' काक आश्रय वाणी है, उसी प्रकार सभी 'आत्माओं' का आश्रय 'परमात्मा' है।' उन्होंने आगे बताया-'हे मैत्रेयी! जिस प्रकार जल में घुले हुए नमक को नहीं निकाला जा सकता, उसी प्रकार उस महाभूत, अन्तहीन, विज्ञानघन परमात्मा में सभी आत्मांए समाकर विलुप्त हो जाती हैं। जब तक 'द्वैत' का भाव बना रहता है, तब तक वह परमात्मा दूरी बनाये रखता है, किन्तु 'अद्वैत' भाव के आते ही आत्मा, परमात्मा में लीन हो जाता है, अर्थात उसे अपनी आत्मा से ही जानने का प्रयत्न करो।'
पांचवां ब्राह्मण
इस ब्राह्मण में 'मधुविद्या, 'अर्थात' आत्मविद्या' का वर्णन है। इस मधुविद्या का उपदेश ऋषि आथर्वण दध्यंग ने सर्वप्रथम अश्विनीकुमारों को दिया था। मन्त्र दृष्ट ने कहा कि परब्रह्म ने सर्वप्रथम दो पैर वाले और चार पैर वाले शरीरों का निर्माण किया था। उसके पश्चात वह विराट पुरुष उन शरीरों में प्रविष्ट हो गया। उसने कहा कि शरीरधारी को उसके यथार्थ रूप में प्रकट करने के लिए वह पुरुष शरीरधारी के प्रतिरूप जल, वायु, आकाश आदि की भांति हो जाता है। वह परमात्मा एक होते हुए भी माया के कारण अनेक रूपों वाला प्रतिभासित होता है। वस्तुत: समस्त विषयों का अनुभव करने वाला 'आत्मा' ही 'ब्रह्मरूप' है। यह समस्त पृथ्वी, समस्त प्राणी, समस्त जल, समस्त अग्नि, समस्त वायु, आदित्य, दिशाएं, चन्द्रमा, विद्युत, मेघ, आकाश, धर्म, सत्य और मनुष्य मधु-रूप हैं, अर्थात आत्मरूप है। सभी में वह विनाशरहित, तेजस्वी 'आत्मा' विद्यमान है। वही सर्वव्यापी परमात्मा का सूक्ष्म अंश है। यह 'आत्मा' समस्त जीवों का मधु है और जीव इस आत्मा के मधु हैं। इसी में वह तेजस्वी वर अविनाशी पुरुष 'परब्रह्म' के रूप में स्थित है। वह 'ब्रह्म' कारणविहीन, कार्यविहीन, अन्तर और बाहर से विहीन, अमूर्त रूप है। इसी ब्रह्म स्वरूप 'आत्मा' को जानने अथवा इसके साथ साक्षात्कार करने का उपदेश सभी वेदान्त देते हैं अत: मधु'प उस आत्मा का चिन्तन करके ही, परमात्मा तक पहुंचना चाहिए।
छठा ब्राह्मण
इस ब्राह्मण में 'मधुकाण्ड' की गुरु-शिष्य परम्परा का वर्णन किया गया है। यहाँ केवल ज्ञान प्राप्त करने वाले ऋषियों की परम्परा का उल्लेख किया गया है। उस सर्वशक्तिमान परमात्मा की जिस-जिस ने अनुभूति की, उसे उसने उसी प्रकार अपने शिष्य को दे दिया। किसी ने भी उस पर एकाधिकार करने का प्रयत्न नहीं किया। इस परम्परा में कतिपय प्रसिद्ध ऋषि गौपवनकौशिकगौतमशाण्डिल्यपराशरभारद्वाजआंगिरसआथर्वणअश्विनीकुमार आदि का उल्लेख है।

तीसरा अध्याय

तीसरे अध्याय में नौ ब्राह्मण हैं। इनके अन्तर्गत राजा जनक के यज्ञ में याज्ञवल्क्य ऋषि से विभिन्न तत्त्ववेत्ताओं द्वारा प्रश्न पूछे गये हैं और उनके उत्तर प्राप्त किये गये हैं। गार्गी द्वारा बार-बार प्रश्न पूछ जाने पर याज्ञवल्क्य उसे अपमानित करके रोक देते हैं। पुन: सभा की अनुमति से उसके द्वारा प्रश्न पूछे जाते हैं। वह उनसे अपनी पराजय स्वीकार कर लेती है। इसी प्रकार शाकल्य ऋषि अतिप्रश्न करने के कारण अपमानित होते हैं। इसी का उल्लेख प्रश्नोत्तर रूप में यहाँ किया गया है। इनमें भारतीय 'तत्त्व-दर्शन' का निचोड़ प्राप्त होता है।
प्रथम ब्राह्मण
एक बार विदेहराज जनक ने एक महान यज्ञ किया। उस यज्ञ में कुरु औ पांचाल प्रदेशों के बहुत से विद्वान पधारे। राजा ने यह जानने के लिए कि इनमें सर्वोत्कृष्ट विद्वान कौन है, अपनी गौशाला से एक सहस्त्र स्वस्थ गौओं के सीगों में लगभग 100 ग्राम स्वर्ण बंधवा दिया और सभी को सम्बोधित करके कहा कि जो भी सर्वाधिक ब्रह्मनिष्ठ है, वह इन गौओं को ले जाये। उन ब्राह्मणों में से किसी का भी साहस नहीं हुआ, तो महर्षि याज्ञवल्क्य ने अपने एक शिष्य सामश्रवा से उन गौओं को हांक ले जाने के लिए कहा। इससे अन्य ब्राह्मण क्रोधित हो उठे और चीखने-चिल्लाने लगे कि यह हमसे सर्वश्रेष्ठ कैसे हे? तब उनके मध्य शास्त्रार्थ हुआ। सबसे पहले यज्ञ के होता अश्वल ने प्रश्न किया और याज्ञवल्क्य ने उसके प्रश्नों का उत्तर दिया-
अश्वल-'हे मुनिवर! जब यह सारा विश्व मृत्यु के अधीन है, तब केवल यजमान ही किस प्रकार मृत्यु के बन्धन का अतिक्रमण कर सकता है?'
याज्ञवल्क्य— होता नामक ऋत्विक वाक् (वाणी) और अग्नि है। वह इन दोनों शक्तियों के द्वारा मृत्यु को पार कर सकता है। वही मुक्ति और अतिमुक्ति है। इसका भाव यही है कि जो 'होता' वाणी द्वारा उद्भूत मन्त्रों और यज्ञ की अग्नि के द्वारा परम 'ब्रह्म' का ध्यान करते हुए 'नाद-ध्वनि' उत्पन्न करता है, वह उस 'नाद-ध्वनि' (नाद-ब्रह्म) द्वारा मृत्यु को भी जीत लता है। 'होता' यज्ञ का पुरोहित होता है, वह यज्ञ में वाणी द्वासरा अक्षर-ब्रह्म की ही साधना करता है। उसकी साधना करने वाला सिद्ध पुरोहित मृत्यु को भी अपने वश में करने वाला होता है। ऋषि का संकेत उसी ओर है। अश्वल—'हे मुनिवर! समस्त दृश्य जगत दिन और रात्रि के अधीन है। इसका अतिक्रमण कैसे किया जा सकता है, अर्थात इस पर विजय का उपाय क्या है?'
याज्ञवल्क्य—'ऋत्विक नेत्र और सूर्य के माध्यम से मुक्त हो सकता है, अर्थात रात और दिन पर विजय पा सकता है। अध्वर्यु ही यज्ञ का चक्षु है। अत: नेत्र ही आदित्य है और वही अध्वर्यु है। मुक्ति और अतिमुक्ति भी वही है।' इसका अर्थ यह है कि अध्वर्यु ऋत्विक का कार्य विधिवत मन्त्रोच्चार करते हुए यज्ञ में आहुति देना होता है। दूसरे, 'चक्षु' का तात्पर्य भौतिक चक्षुओं से न होकर मन की आंखों से है। एक योगी मन की इन्हीं आंखों से 'इड़ा' (चन्द्र) और पिंगला (सूर्य) नाड़ियों का भेदन करके सुषुम्ना में लीन होकर जीवन्मुक्त हो जाता है। उसे रात का अन्धकार और दिन का प्रकाश एक समान ही प्रतीत होता है। यह एक योगिक प्रक्रिया है।
अश्वल—'हे मुनिवर! सब कुछ 'कृष्ण पक्ष' और 'शुक्ल पक्ष' के अधीन है। फिर यजमान किस प्रकार इनसे मुक्त हो सकता है?'
याज्ञवल्क्य—'ऋत्विज्, उद्गाता, वायु और प्राण के माध्यम से मुक्त हो सकता है। उद्गाता को यज्ञ का प्राण कहा गया है तथा यह प्राण ही वायु और उद्गाता है। यही मुक्त और अतिमुक्ति का स्वरूप हैं।' यहाँ इन दोनों पक्षों का तात्पर्य स्वर-विज्ञान पर आधारित है। प्राणायाम में प्राणवायु की गति को सिद्ध करके मन को शान्त किया जाता है। उसके द्वारा मृत्यु की गति भी रोकी जा सकती है। जो योगी प्राणायाम के अभ्यास से श्वास को जीत लेता है, उसके समस्त भौतिक विकार नष्ट हो जाते है। इन विकारों का नष्ट होना ही मृत्यु पर विजय पाना है।
अश्वल—'हे ऋषिवर! यह जो अन्तरिक्ष है, निरालम्ब, अर्थात आधारहीन प्रतीत होता है। फिर यजमान कैसे स्वर्गरोहण करता है?'
याज्ञवल्क्य—'ऋत्विज, ब्रह्मा और चन्द्रमा के द्वारा स्वर्गारोहण करता है। मन ही चन्द्रमा है। मन ही यज्ञ का ब्रह्मा है। मृक्ति, अतिमुक्ति भी वही है।'यहाँ मन और मन में उठे विचारों की अत्यन्त तीव्र और अनन्त गति की ओर संकेत है। मन और मन के विचारों को घनीभूत करके कुछ भी प्राप्त किया जा सकता है। उसे किसी आधार की आवश्यकता नहीं होती। अश्वल—'होता ऋत्विक आज यज्ञ में कितनी ऋचाओं का उपयोग करेगा?'
याज्ञवल्क्य-'तीन ऋचाओं का।'
अश्वल-'उन ऋचाओं के नाम क्या है?'
याज्ञवल्क्य-'पहली पुरोनुवाक्या (यज्ञ से पहले), दूसरी याज्मा (यज्ञ के समय उच्चरित) और तीसरी शस्या (यज्ञ के बाद की स्तुतियां) है।'
अश्वल-'इनसे किसे जीता जाता है?'
याज्ञवल्क्य-'समस्त प्राणि समुदाय को।'
अश्वल-'आज यज्ञ में कितनी आहुतियां डाली जायेगी?'
याज्ञवल्क्य-'तीन।'
अश्वल-'तीन कौन-कौन सी?'
याज्ञवल्क्य-'पहली वह, जो होम करने पर प्रज्ज्वलित होती है। दूसरी वह, जो होम करने पर शब्द करती है और तीसरी वह, जो होम करने पर पृथ्वी में समा जाती है। इनसे यज्ञमान 'देवलोक', 'पितृलोक' और 'मृत्युलोक' को जीत लेता है।
अश्वल-'हे मुनिवर! आज उद्गाता इस यज्ञ में कितने स्तोत्रों का गायन करेगा?'
याज्ञवल्क्य-'तीन स्तोत्रों का। वे तीन स्तोत्र हैं- पुरोनुवाक्या, याज्या और शस्या।'
अश्वल-'इनमें से कौन मनुष्य के शरीर में रहने वाले हैं?'
याज्ञवल्क्य-'पुरोनुवाक्या से पृथ्वी लोक पर, याज्या से अन्तरिक्ष लोक पर और शस्या से द्युलोक पर विजय प्राप्त की जा सकती है।'
याज्ञवल्क्य के उत्तर सुनकर अश्वल चुप हो गये और ब्रह्मऋषि की श्रेष्ठता स्वीकार करके पीछे हट गये। तब ऋषि ने दूसरे ब्राह्मणों की ओर दृष्टिपात किया कि अब वे प्रश्न पूछ सकते हैं।
दूसरा ब्राह्मण
इस ब्राह्मण में जरत्कारू के पुत्र आर्तभाग और ऋषि याज्ञवल्क्य के मध्य हुए शास्त्रार्थ का वर्णन है।
आर्तभाग—'ऋषिवर! ग्रहों और अतिग्रहों की संख्या कितनी है? वे ग्रह और अतिग्रह कौन-कौन से हैं?'
याज्ञवल्क्य—'ग्रह आठ हैं और आठ ही अतिग्रह भी हैं। 'प्राण' ग्रह है और 'अपान' अतिग्रह है, 'वाक्शक्ति' ग्रह है और 'नाम' अतिग्रह है, 'रसना' ग्रह है और 'रस' अतिग्रह है, 'नेत्र' ग्रह है और 'कामना' अतिग्रह है, 'हाथ' ग्रह है और 'कर्म' अतिग्रह है, 'त्वचा' ग्रह है और 'स्पर्श' अतिग्रह है। ये आठों ग्रह और आठों अतिग्रह एक-दूसरे के पूरक हैं; क्योंकि 'अपान' से सूंघने का, 'नाम' से उच्चारण का, 'रस' से स्वाद का कार्य होता है और 'रूप' दोनों द्वारा ही देखा जाता है, 'शब्द' कान द्वारा सुना जाता है, 'कामनाएं' मन में ही उदित होती हैं, 'कर्म' हाथों से ही किये जाते हैं, 'स्पर्श' का अनुभव त्वचा ही करती है।'
आर्तभाग—'हे याज्ञवल्क्य! इस सृष्टि में जो कुछ भी है, सभी मृत्यु का ग्रास है। अत: वह कौन-सा देवता है, मृत्यु जिसका भोजन है?'
याज्ञवल्क्य—'अग्नि ही मृत्यु है और वह जल का भोजन है। इस तथ्य को जानने वाला मृत्यु पर विजय प्राप्त कर लेता है।'
आर्तभाग—'मृत्यु के समय क्या प्राण शरीर छोड़ जाते हैं?'
याज्ञवल्क्य—'प्राण शरीर नहीं छोड़ता। 'आत्मतत्त्व' शरीर छोड़ जाता है। शेष प्राण शरीर में रहकर वायु को शरीर में खींचता है। इसी से शरीर फूल जाता है।'
आर्तभाग—'मरने के बाद भी पुरुष को क्या नहीं छोड़ता?'
याज्ञवल्क्य—'नाम पुरुष को नहीं छोड़ता। उसका नाम उसके शुभ-अशुभ कर्मों से जुड़ा रहता है।'
आर्तभाग—'जिस समय इस पुरुष की वाणी अग्नि में विलीन हो जाती है और प्राण वायु में, चक्षु आदित्य में, मन चन्द्रमा में, श्रोत्र दिशाओं में, शरीर पृथ्वी में, आत्मा आकाश में, लोभ समूह औषधियों में, केश वनस्पतियों में तथा रक्त व रेतस (वीर्य) जल में विलीन हो जाता है, उस समय वह पुरुष कहां निवास करता है?'
याज्ञवल्क्य—'सौम्य आर्तभाग! तुम मुझे अपना हाथ पकड़ाओं। हम दोनों को ही इस प्रश्न का उत्तर समझना होगा, किन्तु इस जनसभा के मध्य नहीं।'
कुछ देर के लिए दोनों ने सभा से बाहर एकान्त में जाकर चिन्तन किया और लौटकर दोनों कर्म के विषय में प्रशंसा करने लगे। याज्ञवल्क्य ने कहा-'निश्चित ही पुण्यकृत्यों से पुण्य और पापकृत्यों से पाप कमाया जाता है। मृत्यु के उपरान्त मनुष्य अपने इन्हीं कर्मों में रहता है।'
तीसरा ब्राह्मण
इस ब्राह्मण में लाह्य के पुत्र भुज्यु ऋषि याज्ञवल्क्य से प्रश्न करते हैं। इन प्रश्नों में कोई विशेष चिन्तन योग्य प्रश्न नहीं है। इसमें परिक्षितों की चर्चा है।
चौथा ब्राह्मण
इस ब्राह्मण में चक्र-पुत्र उषस्त ऋषि याज्ञवल्क्य से प्रश्न करते है।
उषस्त—'हे ऋषिवर! जो प्रत्यक्ष और साक्षात् 'ब्रह्मा' है और समस्त जीवों में स्थित 'आत्मा' है, उसके विषय में बताइये?'
याज्ञवल्क्य—'तुम्हारी आत्मा ही सभी जीवों के अन्तर में विराजमान है। जो प्राण के द्वारा जीवन-प्रक्रिया है, वही प्रत्यक्ष ब्रह्म का स्वरूप' आत्मा' है।'
उषस्त—'आप हमें साक्षात प्रत्यक्ष 'ब्रह्म' को और सर्वान्तर 'आत्मा' को स्पष्ट करके बतायें।'
याज्ञवल्क्य—'तुम्हारी आत्मा ही सर्वान्तर में प्रतिष्ठित है। दृष्टि देने वाले दृष्टा को देख सकना, श्रुति के श्रोता को सुन सकना, मति के मन्ता को मनन करना, विज्ञाति के विज्ञाता को जान सकना तुम्हारे लिए असम्भव है। तुम्हारी 'आत्मा' ही सर्वान्तर ब्रह्म है और शेष सब कुछ नाशवान है।' यह सुनने के बाद उषस्त मौन हो गये।
पांचवां ब्राह्मण
इस ब्राह्मण में कहोल और याज्ञवल्क्य के मध्य शास्त्रार्थ का विवरण है। इसमें पुन: 'ब्रह्म' के अपरोक्ष रूप और 'आत्मा' के सर्वान्तर रूप के विषय में प्रश्न हैं। इसका उत्तर देते हुए याज्ञवल्क्य कहते हैं कि तुम्हारा आत्मा ही सर्वान्तर में प्रतिष्ठित है। आत्मा भूख, प्यास, जरा, मृत्यु, शोक और मोह से परे है। इसे जानने के उपरान्त कोई इच्छा शेष नहीं रहती।
छठा ब्राह्मण
इस ब्राह्मण में वचक्रुसुता गार्गी और ऋषि याज्ञवल्क्य के मध्य प्रश्नोत्तर है।
गार्गी—'जब सभी कुछ जल में ओत-प्रोत है, तब जल किसमें ओत-प्रोत है?' इसी क्रम में उसने एक में से एक प्रश्न निकालकर पूछे। याज्ञवल्क्य—'जल वायु में, वायु अन्तरिक्षलोक में, अन्तरिक्ष गन्धर्वलोक में, गन्धर्वलोक आदित्यलोकों में, आदित्यलोक चन्द्रलोकों में, चन्द्रलोक नक्षत्र लोकों में, नक्षत्रलोक देवलोकों में, देवलोक इन्द्रलोक में, इन्द्रलोक प्रजापतिलोक में तथा प्रजापतिलोक ब्रह्मलोक में ओत-प्रोत है।'
किन्तु जब गार्गी ने पूछा कि ब्रह्मलोक किस में ओत-प्रोत है, तो याज्ञवल्क्य ने उसे रोक दिया और कहा-'गार्गी! जिसे वाणी से व्यक्त नहीं किया जा सकता, उसके विषय में अहंकारपूर्ण तर्क करना उचित नहीं है। कहीं ऐसा न हो कि अनर्गल प्रश्नों के कारण तुम्हें अपना मस्तक गिराना पड़े, अर्थात अपमानित होना पड़े। याज्ञवल्क्य के द्वारा लताड़ने पर गार्गी चुप हो गयी।
सातवां ब्राह्मण
इस ब्राह्मण में आरूणि-पुत्र उद्दालक और महर्षि याज्ञवल्क्य के बीच शास्त्रार्थ है। इसमें उद्दालक काप्य पतंजल की पत्नी पर आये गन्धर्व से 'लोक-परलोक' के विषय में पूछ गये प्रश्नों के सन्दर्भ में पूछते हैं कि क्या वे उस सूत्र को जानते हैं, जो गन्धर्व ने काप्य पतंजल मुनि को बताया था? इस पर याज्ञवल्क्य कहते हैं कि वे उस सूत्र को जानते हैं वह सूत्र 'वायु सूत्र' है; क्योंकि इहलोक, परलोक और समस्त प्राणी इस वायु के द्वारा ही गुंथे हुए हैं। इसके अतिरिक्त, जो इस पृथ्वी में संव्याप्त है, पृथ्वी ही जिसका शरीर है, पर पृथ्वी उसे नहीं जानती, जो उसके भीतर बैठा हुआ सभी कुछ नियन्त्रण कर रहा है। वस्तुत: यह तुम्हारा 'आत्मा' है, जो अविनाशी है और अन्तर्यामी है। वह जल में, अग्नि में, अन्तरिक्ष में, वायु में, द्युलोक में, आदित्य में, समस्त दिशाओं में, चन्द्र में, तारों में, आकाश में, अन्धकार में, प्रकाश में, समस्त भूतों (जीवों) में, प्राण में, वाणी में, नेत्रों में, कानों में, मन में, त्वचा में, विज्ञान में और वीर्य के सूक्ष्म रूप में निवास करता है। वह अनश्वर है, 'नेति नेति' है। केवल 'आत्मा' द्वारा ही उस अन्तर्यामी और अविनाशी 'ब्रह्म' को जाना जा सकता है। ऐसा सुनकर उद्दालक मुनि मौन हो गये।
आठवां ब्राह्मण
सभा की अनुमति लेकर वाचक्रवी गार्गी ने दो प्रश्न याज्ञवल्क्य से पुन: पूछे। यहाँ उन्हीं का वर्णन है।
गार्गी—'हे ऋषिवर! जो द्युलोक से ऊपर है और पृथ्वी लोक से नीचे है तथा 'द्यु' और 'पृथ्वी' के मध्य भाग में स्थित है और जो स्वयं 'द्यु' और 'पृथ्वी' है तथा जो स्वयं भूत, भविष्य और वर्तमान है, वह किसमें ओत-प्रोत है?'
याज्ञवल्क्य—'हे गार्गी! द्युलोक से ऊपर, पृथ्वी से नीचे तथा 'द्यु' औ पृथ्वी के मध्य भाग में जो स्थित है और जो स्वयं भी 'द्यु' और 'पृथ्वी' है और जो भूत, भविष्य और वर्तमान कहलाता है, वह आकाश में ओत-प्रोत है।' गार्गी—'हे ऋषिवर! तो फिर यह आकाश किसमें ओतप्रोत है?'
याज्ञवल्क्य—'हे गार्गी! उस तत्त्व को ब्रह्मवेत्ता 'अक्षर' कहते हैं। वह न स्थूल है, न सूक्ष्म है, न छोटा है, न लम्बा है, न लाल है, न चिकना है, न छाया है, न अन्धकार है, न वायु है और न आकाश है। वह गन्ध और रस से हीन है। वह बिना नेत्रों के, बिना कानों के, बिना वाणी के, बिना मन के, बिना तेज के, बिना प्राण है और उसका न कोई मुख है, न उसका कोई माप है और उसका आदि-अन्त भी नहीं है। वह न भीतर है, न बाहर है, न कुछ खाता है और न कोई उसे भक्षण कर सकता है। हे गार्गी! इस 'अक्षरब्रह्म' के अनुशासन में सूर्य, चन्द्र, द्युलोक, पृथ्वी, निमेष, मुहूर्त, रात-दिन, अर्धमास, मास, ऋतु संवत्सर आदि स्थित हैं। इसी अक्षर के अनुशासन में विभिन्न नदियां पर्वतों से निकलकर पूर्व-पश्चिम दिशाओं में बहती हैं। इस अक्षरब्रह्म के अनुशासन में ही उस 'परब्रह्म' की- मानव ही नहीं- देवता भी प्रशंसा करते हैं।'
याज्ञवल्क्य ने पुन: कहा-'हे गार्गी! इस 'अक्षरब्रह्म' को न जानकर, जो इस लोक में यज्ञादि कर्मकाण्ड करता है, हज़ारों वर्षों तक तप करके पुण्य अर्जित करते हैं, वे सभी नाशवान हैं। इस 'अक्षरब्रह्म' (अविनाशी) को जाने बिना, जो इस लोक से जाते हैं, वे 'कृपण' हैं, किन्तु जो इसे जानकर इस लोक से प्रयाण करते हैं, वे 'ब्राह्मण' हैं। हे गार्गी! यह 'अक्षरब्रह्म' स्वयं दृष्टि का विषय नहीं है, किन्तु सभी को देखने वाला है। वह सबकी सुनता है, सबका ज्ञाता है। इसी 'अक्षरब्रह्म' में यह आकाश तत्त्व ओत-प्रोत है।'
तब गार्गी ने सभासदों से कहा कि आप में से किसी में इतनी सामर्थ्य नहीं है, जो इस ब्रह्मज्ञानी को जीत सके। ऐसा कहकर वह मौन हो गयी। गार्गी के कथन को सभी ने स्वीकार किया, किन्तु शाकल्य विदग्ध नहीं माने।
नौवां ब्राह्मण
शाकल्य विदग्ध अत्यन्त अभिमानी थे। उन्होंने अंहकार में भरकर याज्ञवल्क्य से प्रश्न पर प्रश्न करने प्रारम्भ कर दिये?'
शाकल्य—'देवगण कितने हैं?'
याज्ञ.—'तीन और तीन सौ, तीन और तीन सहस्त्र, अर्थात तीन हज़ार तीन सौ छह (3,306)।'
शाकल्य—'देवता कितने हैं?'
याज्ञ.—'तेंतीस (33)।'
शाकल्य ने इसी प्रश्न को बार-बार पांच बार और दोहराया। इस पर याज्ञवल्क्य ने हर बार संख्या घटाते हुए देवताओं की संख्या क्रमश: छह, तीन, दो, डेढ़ और अन्त में एक बतायी। शाकल्य—'फिर वे तीन हज़ार तीन सौ छह देवगण कौन हैं?'
याज्ञ.-'ये देवताओं की विभूतियां हैं। देवगण तो तेंतीस ही हैं।'
शाकल्य-'वे कौन से हैं?'
याज्ञ.-'आठ वसु, ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य, इन्द्र और प्रजापति।'
शाकल्य-'आठ वसु कौन से है?'
याज्ञ.-'अग्निपृथ्वीवायुअन्तरिक्षआदित्यद्युलोकचन्द्र और नक्षत्र। जगत के सम्पूर्ण पदार्थ इनमें समाये हुए हैं। अत: ये वसुगण हैं।' शाकल्य—'ग्यारह रुद्र कौन से हैं?'
याज्ञ.-'पुरुष में स्थित दस इन्द्रियां, एक आत्मा। मृत्यु के समय ये शरीर छोड़ जाते हैं और प्रियजन को रूलाते हैं। अत: ये रुद्र हैं।'
शाकल्य-'बारह आदित्य कौन से है?'
याज्ञ.-'वर्ष के बारह मास ही बारह आदित्य हैं।'
शाकल्य—'इन्द्र और प्रजापति कौन हैं?'
याज्ञ.-'गर्जन करने वाले मेघ 'इन्द्र' हैं और 'यज्ञ' ही 'प्रजापति' है। गर्जनशील मेघ 'विद्युत' है और 'पशु' ही यज्ञ है।'
शाकल्य—'छह देवगण कौन से हैं?'
याज्ञ.-'पृथ्वी, अग्नि, वायु, अन्तरिक्ष, द्यौ और आदित्य।'
शाकल्य—'तीन देव कौन से हैं?'
याज्ञ.-'तीन लोक- पृथ्वीलोक, स्वर्गलोक, पाताललोक। ये तीनों देवता हैं। इन्हीं में सब देवगण वास करते हैं।'
शाकल्य-'दो देवता कौन से हैं?'
याज्ञ.-'अन्न और प्राण ही वे दो देवता हैं।'
शाकल्य-'वह डेढ़ देवता कौन है?'
याज्ञ.-'वायु डेढ़ देवता है; क्योंकि यह बहता है और इसी में सब की वृद्धि है।'
शाकल्य-'एक देव कौन सा है?'
याज्ञ-'प्राण ही एकल देवता है। वही 'ब्रह्म' है, वही तत् (वह) है।'
शाकल्य-'पृथ्वी जिसका शरीर है, अग्नि जिसका लोक है, मन जिसकी ज्योति है और जो समस्त जीवों का आत्मा है, आश्रय-रूप है, ब्रह्मज्ञ है, उस पुरुष को जानते हो?'
याज्ञ.-'जानता हूं। वही इस शरीर में व्याप्त है।'
शाकल्य-'उसका देवता कौन है?'
याज्ञ.-'उसका देवता 'अमृत' है।'
शाकल्य-'काम जिसका शरीर है, हृदय जिसका लोक है, मन ही जिसकी ज्योति है, जो समस्त जीवों का आत्मा है, उसे जानने वाला ब्रह्मज्ञानी कहलाता है। उसे जानते हो?'
याज्ञ-'जानता हूं। वह 'काममय' पुरुष है और उसका देवता 'स्त्रियां' हैं।'
शाकल्य-'रूप ही जिसका शरीर है, नेत्र ही लोक हैं, मन ही ज्योति है, जो सभी का आश्रय-रूप है, उसे जानने वाला सर्वज्ञाता होता है। क्या तुम उसे जानते हो? याज्ञ.-'जानता हूं। वह पुरुष 'आदित्य' है और 'सत्य' ही उसका देवता है।'
शाकल्य-'आकाश जिसका शरीर है, श्रोत्र जिसका लोक, है, मन जिसकी ज्योति है, उस सर्वभूतात्मा को जानने वाला ब्रह्मज्ञानी होता है। उसे जानते हो?'
याज्ञ.-'जानता हूं। वह 'प्रातिश्रुत्क' पुरुष है और 'दिशाएं' उसकी देवता है।'
शाकल्य-'अन्धकार जिसका शरीर है, हृदय जिसका लोक है, मन जिसकी ज्योति है, उस सर्वभूतात्मा को जानने वाला ब्रह्मज्ञानी होता है। उसे जानते हो?'
याज्ञ.-'जानता हूं। वह 'छायामय' पुरुष है और 'मृत्यु' उसका देवता है।'
शाकल्य-'रूप जिसका शरीर है, चक्षु देखने की शक्ति है, मन ज्योति है, सर्वभूतों में स्थित आत्मा है, उसे जानने पर 'सर्वज्ञ' की संज्ञा प्राप्त होती है। उसे जानते हो?'
याज्ञ.-'जानता हूं। वह वही पुरुष है, जो दर्पण में दिखाई देता है। उसका देवता 'प्राण' है।'
शाकल्य-'वीर्य जिसका शरीर है, हृदय लोक है और मन ज्योति है। उस सर्वभूताश्रय पुरुष को जानने वाला सर्वज्ञाता होता है। उसे जानते हो?'
याज्ञ.-'जानता हूं। वह 'पुत्र' रूप में पुरुष है। 'प्रजापति' उसका देवता है।'
शाकल्य-'आप कुरु और पांचालप्रदेश के ब्राह्मणों का तिरस्कार करके स्वयं को ब्रह्मवेत्ता कहते हैं। क्या यह उचित है?'
याज्ञ.-'मुझे देवताओं की प्रतिष्ठा के अनुसार दिशाओं का ज्ञान है।'
शाकल्य-'फिर बताइये कि पूर्व में आप किस देवता से युक्त हैं और वह किसमें स्थित है?'
याज्ञ.-'वहां मैं आदित्य देवता के साथ युक्त हूं और वह आदित्य 'चक्षु' में तथा चक्षु 'रूप' में स्थित है। वह रूप 'हृदय' में स्थित है; क्योंकि हृदय के द्वारा ही पुरुष को रूपों का ज्ञान होता है।'
शाकल्य-'हे याज्ञवल्क्य! आप सत्य कहते हैं। दक्षिण दिशा में आप किस देवता से युक्त हैं और वह देवता किसमें स्थित है?'
याज्ञ.-'यम देवता से और यम 'श्रद्धा' में स्थित है और श्रद्धा 'हृदय' में स्थित है; क्योंकि हृदय के द्वारा ही पुरुष श्रद्धा को जानता है।'
शाकल्य-'सत्य है। पश्चिम दिशा में आप किस देवता से युक्त हैं और वह देवता किसमें स्थित है?'
याज्ञ.-'वरुण देवता से युक्त हूं और वरुण देवता 'जल' में तथा जल 'वीर्य' में स्थित है। यह वीर्य 'हृदय' में स्थित है; क्योंकि पिता की इच्छानुसार ही पुत्र का जन्म होता है।'
शाकल्य-'ठीक है। उत्तर दिशा में आप किस देवता से संयुक्त हैं और वह देवता किसमें स्थित है?'
याज्ञ.-'सोम देवता से और सोम 'दीक्षा' में, दीक्षा 'सत्य' में और सत्य 'हृदय' में स्थित है; क्योंकि व्यक्ति हृदय से ही सत्य को जान पाता है।'
शाकल्य-'आप ध्रुव दिशा में किस देवता से युक्त हैं और वह किसमें स्थित है?'
याज्ञ.-'अग्निदेव से और अग्निदेव 'वाक्' (वाणी) में, वाक् 'हृदय' में स्थित है; क्योंकि हृदय से ही वाणी उत्पन्न होती है।'
शाकल्य-'यह हृदय किसमें स्थित है?'
याज्ञ.-'अरे प्रेत! तू हृदय को हमसे पृथक् मानता है? मूर्ख! हृदयहीन शरीर को तो कुत्ते और पक्षी नोंच-नोंचकर खा जाते हैं।'
शाकल्य-'आप क्रोधित न हों। यह बतायें कि यह शरीर और हृदय (आत्मा) किसमें प्रतिष्ठित हैं?'
याज्ञ.-'ये प्राण में स्थित हैं। प्राण 'अपान' में, अपान 'व्यान' में, व्यान 'उदान' में, उदान 'समान' में स्थित है। यह 'आत्मा' नेति-नेति कहा जाता है। इसे न तो ग्रहण किया जा सकता है, न विनष्ट किया जा सकता हैं यह संग-रहित, अव्यवव्थित और अहिंसित है। इसके आठ शरीर, आठ देवता और आठ पुरुष हैं। यह व्यष्टि-रूप होकर, इन पुरुषों को अपने हृदय में रखकर सभी उपाधि-रूप धर्मों का अतिक्रमण किये रहता है। उपनिषद द्वारा ज्ञात उस पुरुष के बारे में आप मुझे बतायें, अन्यथा आपका मस्तक गिर जायेगा।'
शाकल्य उस पुरुष के विषय में कुछ नहीं बता सकां इसलिए उसका मस्तक गिर गया, अर्थात वह भरी सभा में अपमानित हो गया। फिर किसी का भी साहस याज्ञवल्क्य से प्रश्न करने का नहीं हुआ।

चौथा अध्याय

इस अध्याय में महर्षि याज्ञवल्क्य और राजा जनक के मध्य हुए संवादों का उल्लेख किया गया है। साथ ही याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी के संवाद भी इसमें हैं। अन्त में इस काण्ड की परम्परा को दोहराया गया है। इस अध्याय में छह ब्राह्मण हैं।
प्रथम ब्राह्मण
इस ब्राह्मण में 'ब्रह्म' के विशिष्ट स्वरूपों की व्याख्या विदेहराज जनक याज्ञवल्क्य को सुनाते हैं। उन्होंने बताया कि शिलिक ऋषि के पुत्र जित्वा ब्रह्म को 'वाक्' (वाणी) रूप में मानते हैं। इसी प्रकार शुल्व ऋषि के पुत्र उदंक ने 'प्राण' को ब्रह्म माना है। इसी प्रकार वृष्णा के पुत्र वर्कु ने 'चक्षु' को ब्रह्म स्वीकार किया है। याज्ञवल्क्य ने ब्रह्म के तीनों रूपों का समर्थन करते हुए उसे सत्य माना।
दूसरा ब्राह्मण
इस ब्राह्मण में विदेहराज जनक याज्ञवल्क्य के पास जाकर उपदेश की कामना करते हैं। याज्ञवल्क्य पहले राजा से उसका गन्तव्य पूछते हैं, पर जब राजा अपने गन्तव्य के विषय में न जानने की बात कहता है, तो वे गूढ अर्थ में योगिक क्रियाओं द्वारा उसे 'ब्रह्मरन्ध्र' में पहुंचने के लिए कहते हैं। उनका भाव यही है कि दोनों आंखों के बीच में 'आज्ञाचक्र' का स्थान है। उसका ध्यान करने से रोम-रोम में व्याप्त 'प्राण' की वास्तविक अनुभूति होने लगती है, तो उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। 'ब्रह्मरन्ध्र' में काशी का वास बताया गया है। इसी मार्ग से आत्मा शरीर में प्रवेश करती है और इस मार्ग से प्राण छोड़ने पर सीधे मोक्ष प्राप्त होता है।
तीसरा ब्राह्मण
यहाँ राजा जनक और याज्ञवल्क्य ऋषि के मध्य 'आत्मा' के स्वरूप को लेकर चर्चा की गयी है। राजा जनक ऋषि याज्ञवल्क्य से पूछते हैं कि यह पुरुष सभी कुछ प्रकाश के माध्यम से इस दृश्य जगत को देखता है और सोचता है कि यह ज्योति किसकी है? यह कहां से आती है और कहां चली जाती है?' इस पर याज्ञवल्क्य राजा जनक को बताते हैं कि यह ज्योति 'आदित्य', अर्थात सूर्य से ही आती है। उसी से यह मनुष्य इस दृश्य जगत को देख पाता है। उसके अस्त होने पर 'चन्द्रमा' के प्रकाश से देखता है। जब चन्द्रमा अस्त हो जाता है (कृष्ण पक्ष में), तो यह 'अग्नि' का सहारा लेता है। जब अग्नि भी शान्त पड़ जाती है, तब यह वाणी का सहारा लेता है। लेकिन जब सूर्य, चन्द्र, अग्नि तथा वाणी, ये चारों भी न हों, तो वह 'योग-साधना' के द्वारा सबको देखता है और चैतन्य रहता हैं उस समय उसके पास आत्म-ज्योति होती है, जिससे वह देखता-सुनता है। याज्ञवल्क्य उसे 'आत्मा' के विषय में बताते हुए कहते हैं कि मन और बुद्धि की वृत्तियों के अनुरूप शरीर के भीतर स्थित विज्ञानमय, आनन्दस्वरूप ज्योति, प्राणों के द्वारा घनीभूत होकर सूक्ष्म रूप में हृदय में स्थित हो जाती है। यही 'आत्मा' है। यही शरीर की जीवनी-शक्ति है। यह शरीर में रहते हुए भी उससे निर्लिप्त रहता है। यह विचारों की सृजन करता है, इन्द्रियों की शक्ति बनता है। गहन निद्रा के काल में यह शरीर में रहकर भी लोक-लोकान्तरों की यात्रा करता है। उस समय 'आत्मा' स्वयं अपने मन से अपने लिए सूक्ष्म शरीर धारण् कर लेता है और भौतिक शरीर को स्वप्नों के संसार की सैर कराता है। यह 'आत्मा' दुष्कर्मों की मार से शरीर छोड़ने में किंचित भी विलम्ब नहीं करता। वह देह से पूर्णत: निर्लिप्त रहता है।
चौथा ब्राह्मण
इस ब्राह्मण में शरीर त्यागने से पूर्व 'आत्मा' और 'शरीर' की जो स्थिति होती है, उसका विवेचन किया गया है। याज्ञवल्क्य ऋषि बताते हैं कि जब आत्मा शरीर छोड़ने लगता है, तब वह इन्द्रियों में व्याप्त अपनी समस्त शक्ति को समेट लेता है और हृदय क्षेत्र में समाहित होकर एक 'लिंग शरीर' का सृजन कर लेता है। यह लिंग शरीर ही आत्मा को अपने साथ लेकर शरीर छोड़ता है। यह जिस मार्ग से निकलता है, वह अंग तीव्र आवेग से खुला रह जाता है। उस समय आत्मा पूरी तरह चेतनामय होता है। उसमें जीव की प्रबलतम वासनाओं और संस्कारों का आवेग रहता है। उन्हीं कामनाओं के आधार पर वह नया शरीर धारण करता है। जैसे स्वर्णकार स्वर्ण को पिघलाकर एक रूप की रचना करता है, उसी प्रकार 'आत्मा' पंचभूतों के मिश्रण से एक नये शरीर की रचना कर लेता है। जो पुरुष निष्काम भाव से शरीर छोड़ते हैं, वे जीवन-मरण के चक्र से छूटकर मुक्त हो जाते हैं और सदैव के लिए ब्रह्म की दिव्य ज्योति में विलीन हो जाते हैं।
पांचवां ब्राह्मण
यहाँ याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी संवाद में 'आत्मतत्त्व' की चर्चा की गयी है।
छठा ब्राह्मण
इसमें याज्ञवल्कीय काण्ड की गुरु-शिष्य परम्परा का वर्णन है। उसमें कौशिकशाण्डिल्यगौतमउद्दालकजाबालि , पराशरआत्रेयगालवअश्विनीकुमार और दधीचि आदि का विशेष वर्णन है।

पांचवां अध्याय

इस अध्याय में 'ब्रह्म' की विविध रूपों में उपासना की गयी है। साथ ही मनोमय 'पुरुष' और 'वाणी' की उपासना भी की गयी है। मृत्यु के उपरान्त ऊर्ध्वगति तथा 'अन्न' और 'प्राण' के विविध रूपों की उपासना-विधि समझाई गयी है। इसके अतिरिक्त 'गायत्री उपासना' में जप करने योग्य तीन चरणों के साथ चौथे 'दर्शन' पद का भी उल्लेख किया गया है। इसमें पन्द्रह ब्राह्मणों की चर्चा है।
प्रथम ब्राह्मण
इस ब्राह्मण में 'ब्रह्म' के सम्पूर्ण रूप का विवेचन किया गया है। कहा है-'ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूणात्पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥ ॐ3 खं ब्रह्म खं पुराणं वायुरं खमिति ह स्माह कौर व्यायणीपुत्रों वेदो यें ब्राह्मण विदुर्वेदैनेन यद्वेदितव्यम्॥1॥' अर्थात वह ब्रह्मण पूर्ण है, यह जगती पूर्ण है। उस पूर्व ब्रह्म से ही यह पूर्ण विश्व प्रादुर्भूत हुआ है। उस पूर्ण ब्रह्म में से इस पूर्ण जगत को निकाल लेने पर पूर्ण ब्रह्म ही शेष रहता है। ॐ अक्षर से सम्बोधित अनन्त आकाश या परम व्योम ब्रह्म ही है। यह आकाश सनातन परमात्म-रूप है। जिस आकाश में वायु विचरण करता है, वह आकाश ही ब्रह्म है। ऐसा कौरव्यायणी पुत्र का कथन है। यह ओंकार-स्वरूप ब्रह्म ही वेद है। इस प्रकार सभी ज्ञानी ब्राह्मण जानते हैं; क्योंकि जो जानने योग्य है, वह सब इस ओंकार-रूप वेद से ही जाना जा सकता है।
दूसरा ब्राह्मण
इस बाह्मण में प्रजापति के पुत्र देवगण, असुर और मनुष्य ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने के उपरान्त प्रजापति से उपदेश लेने जाते हैं। वहां वे उनके सम्मुख 'द' अक्षर का उपदेश देते हैं और उनसे पूछते हैं कि वे इससे क्या समझे। देवताओं ने कहा कि उन्होंने इसका अर् 'दमन' समझा है। वे अपनी चित्तवृत्तियों और इन्द्रियों का दमन करके सात्विक भावनाओं को जन्म दें। असुरों ने कहा कि उन्होंने इसका अर्थ 'दया' समझा है। वे अपनी हिंसात्मक वृत्तियों को छोड़कर जीवों पर दया करना सीखें और अपनी तामसिक वृत्तियों पर अंकुश लगायें। मनुष्यों ने कहा कि उन्होंने इसका अर्थ 'दान' समझा है। वे अपनी संग्रह करने की प्रवृत्ति से ऋषियों और ब्राह्मणों को दान दें और अपनी राजसिक प्रवृत्तियों के साथ न्याय करें। प्रजापति तीनों का उत्तर सुनकर सन्तुष्ट हुए और उन्हें आशीर्वाद दिया।
तीसरा और चौथा ब्राह्मण
इन दोनों ब्राह्मणों में 'हृदय' और 'सत्य' का विश्लेषण संक्षिप्त रूप से किया है। यह हृदय प्रजापति है। इसके तीन अक्षरों का अर्थ- 'हृ' से हरणशील है, अर्थात यह कहीं से भी अभीष्ट पदार्थ का हरण करता है। 'द' अक्षर का अर्थ दान से है और 'यम्' अक्षर का अर्थ गाति से हैं यह जानने वाला स्वर्ग को प्राप्त करता है। यह हृदय ही सत्य-स्वरूप 'ब्रह्म' है। जो इस प्रकार जानता है, वह समस्त लोकों को जीत लेता है।
पांचवे से बारहवें ब्राह्मण तक
पांचवें से आठवें ब्राह्मण तक 'सत्य' को आदित्य-रूप ब्रह्म के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। तदुपरान्त उसे मनोमय पुरुष, विद्युत वाक्, गाय, अग्नि, मरणोत्तर ऊर्ध्व गति, अन्न व प्राण-रूप में 'ब्रह्म' को स्वीकार कर उसकी उपासना की बात कही गयी है।
तेरहवां ब्राह्मण
यहाँ 'उक्थ,' अर्थात 'स्तोत्र' की प्राण-रूप में उपासना करने की बात कही गयी है; क्योंकि प्राण ही सभी प्राणियों को ऊपर उठाता है। प्राण की उपासना योग (यजु:) के रूप में करें। प्राण ही 'यजु':' है, प्राण ही 'साम' है, प्राण ही बल है।
चौदहवां ब्राह्मण
इस ब्राह्मण में 'गायत्री' के तत्त्वज्ञान एवं माहात्म्य का वर्णन किया गया है। उपनिषद गायत्री के तीन चरणों की ही उपासना की बात कहते हैं चौथा चरण 'दर्शन' चरण है, अर्थात देखा जाने वाला। उसे अनुभूतिगम्य कहा गया है। यह पद सत्य में स्थित है। गायत्री प्राण में स्थित है। इस गायत्री ने गयों, अर्थात प्राणों का त्राण किया है। इसीलिए इसे 'गायत्री' कहते हैं। गायत्री महाशक्ति का मुख 'अग्नि' है। गायत्री विद्या में निष्णात व्यक्ति के समस्त पाप भस्म हो जाते हैं। वह शुद्ध, पवित्र व अजर-अमर हो जाता है।
पन्द्रहवां ब्राह्मण
इस ब्राह्मण में बताया गया है कि सत्य-रूपी 'ब्रह्म' का मुख ज्योतिर्मय स्वर्णपात्र से आच्छादित है। हे विश्वदेव! हे विश्व के पोषक सूर्यदेव! सत्य-धर्म के दर्शन के लिए मैं उसे देख सकूं, इसलिए आप उस पर पड़े आवरण को हटा दीजिये। यहाँ इसी भाव की उपासना की गयी है। हे अग्निदेव! आप हमें कर्मफल की प्राप्ति हेतु सुन्दर पथ पर ले चलें। हे देव! हमारे कुटिल पापों को नष्ट करें। हम बार-बार आपका नमन करते हैं।

छठा अध्याय

इस अध्याय में 'प्राण' की श्रेष्ठता, 'पंचाग्नि विद्या' का विवरण, 'मन्थ-विद्या' का उपदेश तथा 'सन्तानोत्पत्ति-विज्ञान' का सुन्दर वर्णन किया गया है। सबसे अन्त में समस्त प्रकरण की आचार्य-परम्परा का उल्लेख किया गया है। इस अध्याय में पांच ब्राह्मण हैं।
पहला ब्राह्मण
यहाँ 'प्राण' की सर्वश्रेष्ठता का प्रतिपादन किया गया है। छान्दोग्य उपनिषद में भी इसी भांति 'प्राणतत्त्व' की श्रेष्ठता दर्शायी गयी है। अन्य सभी इन्द्रियों से 'प्राण' ही सर्वश्रेष्ठ ह॥ छान्दोग्य उपनिषद के पांचवे अध्याय में भी इसका वर्नन है।
दूसरा ब्राह्मण
इस ब्राह्मण में 'पंचाग्नि विद्या' को जानने और उसके प्रतिफल पर प्रकाश डाला गया है। इसमें श्वेतकेतु और प्रवाहण के संवादों से 'पंचाग्नि विद्या' की गति बतायी गयी है। छान्दोग्य उपनिषद के चौथे अध्याय में दसवें से सत्रहवें खण्ड तक इस पर विस्तार से प्रकाश डाला गया हैं।
तीसरा ब्राह्मण
इस ब्राह्मण में मन्थ विद्या का वर्णन हैं। इसका ज्ञान होने पर मनोकामना अवश्य पूरी होती है। पुत्र-लाभ, रोग-लाभ, जीवन में श्रीवृद्धि, मृत्यु-भय-निवारण आदि में इस विद्या से लाभ होता है। छान्दोग्य उपनिषद में पांचवें अध्याय के दूसरे खण्ड में इसका विवेचन किया गया है। इस विधि का उपयोग किसी ज्ञानी व्यक्ति द्वारा ही कराना चाहिए, अन्यथा अर्थ का अनर्थ भी हो सकता है। मन्त्रों का पाठ शुद्ध होना अनिवार्य है।
चौथा ब्राह्मण
इस ब्राह्मण में मनोवांछित सन्तान की प्राप्ति के लिए किये गये मन्त्रों का विवेचन है। मन्त्र द्वारा गर्भाधान करना, गर्भनिरोध करना तथा स्त्री प्रसंग को भी यज्ञ-प्रक्रिया के रूप में वर्णित किया गया है। इसमें कहीं भी अश्लीलता-जैसी कोई बात नहीं है। सृष्टि का सृजन और उसके विकास की प्रक्रियायों को शुद्ध और पवित्र तथा नैसर्गिक माना गया है। पंचभूतों का रस पृथ्वी है, पृथ्वी का रस जल है, जल का रस औषधियां हैं, औषधियों का रस पुष्प हैं, पुष्पों का रस फल हैं, फलों का रस पुरुष है और पुरुष का सारतत्त्व वीर्य है। नारी की योनि यज्ञ वेदी है। जो व्यक्ति प्रजनन की इच्छा से, उसकी समस्त मर्यादाओं को भली प्रकार समझते हुए रति-क्रिया में प्रवृत्त होता है, उसे प्रजनन यज्ञ का पुण्य अवश्य प्राप्त होता है। भारतीय संस्कृति में इस प्रजनन यज्ञ को सर्वाधिक श्रेष्ठ यज्ञ का स्थान प्राप्त है। यहाँ 'काम' का अमर्यादित आवेग नहीं है। ऐसी अमर्यादित रति-क्रिया करने से पुण्यों को क्षय होना माना गया है। ऐसे लोग सुकृतहीन होकर परलोक से पतित हो जाते हैं। यशस्वी पुत्र-पुत्री के लिए प्रजनन यज्ञ-ऋतु धर्म के उपरान्त यशस्वी पुत्र की प्राप्ति के लिए रति-कर्म करने से पूर्व यह मन्त्र पढ़ें-
'इन्द्रियेण ते यशसा यश आदधामि।'इस मन्त्र का आस्थापूर्वक मनन करने से निश्चय ही यशस्वी पुत्र की प्राप्ति होगी। यदि पुरुष गौरवर्ण पुत्र की इच्छा रखता हो, तो उसे ऋतु धर्म के उपरान्त सम्भोग तक अपनी पत्नी को घी मिलाकर दूध-चावल की खीर खिलानी चाहिए और स्वयं भी खानी चाहिए। इससे पुत्र गौरवर्ण, विद्वान और दीर्घायु होगा। इसके अलावा दही में चावल पकाकर खाने से व जल में चावल पकाकर व घी में मिलाकर खाने से भी पुत्र-रत्न की ही प्राप्ति होगी। यदि पति-पत्नी विदुषी कन्या की कामना करते हों, तो तिल के चावल की खिचड़ी बनाकर खानी चाहिए।
गर्भ निरोध का उपाय
यदि पति-पत्नी दोनों सन्तान नहीं चाहते या कुछ काल तक 'गर्भनिरोध' चाहते हैं, तो रति-क्रिया में परस्पर मुख से मुख लगाकर इस मन्त्र का उच्चारण करें-
'इन्द्रियेण ते रेतसा रेत आददे।' इससे कभी गर्भ स्थापित नहीं होगा। रजस्वला स्त्री को तीन दिन तक कांसे के पात्र में खाने का भी निषेध है। अधिक शीत और उष्णता से भी बचना चाहिए। माता को अपनी सन्तान को स्तनपान कराने से भी नहीं बचना चाहिए। यह धर्म-विरुद्ध है और स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक है।
पांचवां ब्राह्मण इस ब्राह्मण में गुरु-शिष्य परम्परा का वर्णन मात्र है।

छांदोग्य उपनिषद

 

मुख्य मान्यताएँ[संपादित करें]

संक्षेप में छांदोग्य उपनिषद् की मुख्य मान्यताएँ इस प्रकार हैं:

  • सृष्टि के मूलारंभ में एक और अद्वितीय सत् था जिससे असत् की उत्पत्ति हुई। तैत्तरीय उपनिषद् में असत् से सत् की उत्पत्ति बतलाई गई है, किंतु शब्द वैभिन्नय रहने पर भी दोनों के तात्पर्य समान हैं। इस सत् को ही "ब्रह्म" कहते हैं जिसने एक से बहुत होने की इच्छा से सृष्टिरचना करके उसमें जीवरूप से प्रवेश किया। इस उपनिषद् में पंचतन्मात्रों अथवा पंचमहाभूतों का वर्णन नहीं आता बल्कि तेज, जल, और पृथ्वी इन मूल तत्वों के मिश्रण से विविध सृष्टि का निर्माण माना गया है।
  • समस्त सृष्टि नामरूपात्मक है; यहाँ तक कि अ. 7 में नारद को दिए गए सनत्कुमार के उपदेशानुसार चतुर्वेद, शास्त्र एवं विद्याएँ नाम रूपात्मक हैं, और इनके मूल में जो नित्य तत्व है वह ब्रह्म है जो वाणी, आज्ञा, संकल्प, मन, बुद्धि और प्राण तथा अव्यक्त प्रकृति से भी परे अपनी महिमा में प्रतिष्ठित है।
  • जिस प्रकार नदियाँ समुद्र में विलीन होकर समुद्र हो जातीं और अपनी सत्ता को नहीं जानतीं, इस तथा अन्य दृष्टांतों से उद्दालक ने श्वेतकेतु को समझा दिया है कि सृष्टि के समस्त जीव आत्म-स्वरूप को भूले हुए हैं, वस्तुत: उनमें जो आत्मा है वह ब्रह्म ही है, और इस सिद्धांत को इस उपनिषद् के महावाक्य "तत्वमसि" में वाग्बद्ध किया है (6-8-16)।
  • 3-16-17 के अनुसार मनुष्य का जीवन एक प्रकार का यज्ञ है जिसकी महत्ता का वर्णन करते हुए कहा गया है कि इस यज्ञविद्या का उपदेश घोर आंगिरस ने "देवकीपुत्र कृष्ण" को किया। कुछ विद्वानों की धारणा है कि यह कृष्ण अवतारी भगवान् कृष्ण हैं।
  • 3-14-1 में पुरुष को क्रतुमय कहकर निश्चित किया गया है कि जिसका जैसा क्रतु (श्रद्धा) होता है मृत्यु के पश्चात् उसे वैसा ही फल मिलता है। जिन्हें ब्रह्मज्ञान नहीं हुआ, ऐसे पुण्यकर्म करनेवाले देवयान और पितृयाण मार्गो से पुण्यलोकों को प्राप्त करते हैं किंतु आजीवन पापाचार करनेवाले तिर्यक् योनि में उत्पन्न होते हैं।
  • "सवं खल्विदं ब्रह्म", "आत्मैवेदं सर्वं", "तत्वमसि" इत्यादि वाक्य अद्वैत का प्रतिपादन करते हैं।
  • ब्रह्मज्ञान के लिए नितांत आवश्यक ब्रह्मचिंतन के निमित्त चित्त की एकाग्रता अनिवार्य है जिसके लिए ब्रह्म निर्देशक ओंकार की और ब्रह्म के सगुण प्रतीक जैसे मन, प्राण, आकाश, वायु, वाक्, चक्षु, श्रोत्र, सूर्य, अग्नि, रुद्र, आदित्य या मरुत और गायत्री इत्यादि की उपासना निर्दिष्ट की गई है।


प्रथम प्रपाठक[संपादित करें]

प्रथम खण्ड

‘ॐ’ यह अक्षर ही उद्गीथ है, इसकी ही उपासना करनी चाहिए । ‘ॐ’ ऐसा ही उदगान करता है । उस की ही व्याख्या की जाती है ।1।

इन भूतों का रस पृथ्वी है । पृथ्वी का रस जल है । जल का रस ओषधियाँ हैं, ओषधियों का रस पुरुष है, पुरुष का रस वाक् है, वाक् का रस ऋक् है । ऋक् का रस साम है और साम का रस उद्गीथ है ।2।

यह जो उद्गीथ है, वह सम्पूर्ण रसों में रसतम, उत्कृष्ट, पर का प्रतीक होने योग्य और पृथ्वी आदि रसों में आठवाँ है ।3।

अब यह विचार किया जाता है कि कौन-कौन सा ऋक् है, कौन-कौन सा साम है और कौन-कौन सा उद्गीथ है ।4।

वाक् ही ऋक् है, प्राण साम है और ‘ॐ’ यह अक्षर उद्गीथ है । ये जो ऋक् और समरूप वाक् और प्राण हैं, परस्पर मिथुन हैं ।5।

वह यह मिथुन ‘ॐ’ इस अक्षर में संसृष्ट होता है । जिस समय मिथुन परस्पर मिलते हैं उस समय वे एक-दूसरे की कामनाओं को प्राप्त कराने वाले होते हैं ।6।

जो विद्वान इस प्रकार इस उद्गीथरूप अक्षर की उपासना करता है, वह सम्पूर्ण कामनाओं की प्राप्ति कराने वाला होता है ।7।

वह यह ओंकार ही अनुज्ञा अक्षर है । मनुष्य किसी को कुछ अनुमति देता है तो ‘ॐ’ ऐसा ही कहता है । यह अनुज्ञा ही समृद्धि है । जो इस प्रकार जानने वाला पुरुष इस उद्गीथ अक्षर की उपासना करता है, वह निश्चय ही सम्पूर्ण कामनाओं को समृद्ध करने वाला होता है ।8।

उस अक्षर से ही यह त्रयीविद्या प्रवृत्त होती है । ‘ॐ’ ऐसा कहकर ही अध्वर्यु आश्रावण कर्म करता है, ‘ॐ’ ऐसा कहकर ही होता शंसन करता है तथा ‘ॐ’ ऐसा कहकर ही उद्गाता उद्गान करता है । इस अक्षर की पूजा के लिए ही सम्पूर्ण वैदिक कर्म हैं तथा इसी की महिमा और रस के द्वारा सब कर्म प्रवृत्त होते हैं ।9।

जो इस अक्षर को इस प्रकार जानता है और जो नहीं जानता, वे दोनों ही उसके द्वारा कर्म करते हैं । किन्तु विद्या और अविद्या दोनों भिन्न-भिन्न हैं । जो कर्म विद्या, श्रद्धा और योग से युक्त होकर किया जाता है वही प्रबलतर होता है, इस प्रकार निश्चय ही यह सब इस अक्षर की ही व्याख्या है ।10।

द्वितीय खण्ड

प्रसिद्ध है, प्रजापति के पुत्र देवता और असुर किसी कारणवश युद्ध करने लगे । उनमें से देवताओं ने यह सोचकर कि इसके द्वारा इनका पराभव करेंगे, उद्गीथ का अनुष्ठान किया ।1।

उन्होंने नासिका में रहने वाले प्राण के रूप में उद्गीथ की उपासना की । किन्तु असुरों ने उसे पाप से संयुक्त कर दिया । इसी से वह सुगन्ध और दुर्गन्ध दोनों को सूँघता है, क्योंकि वह पाप से युक्त है ।2।

फिर उन्होंने वाणी के रूप में उद्गीथ की उपासना की । किन्तु असुरों ने उसे पाप से संयुक्त कर दिया । इसी से लोक उसके द्वारा सत्य और मिथ्या दोनों बोलता है, क्योंकि वह पाप से संयुक्त है ।3।

फिर उन्होंने चक्षु के रूप में उद्गीथ की उपासना की । असुरों ने उसे भी पाप से संयुक्त कर दिया । इसी से लोक उससे देखने योग्य और न देखने योग्य दोनों प्रकार के पदार्थों को देखता है, क्योंकि वह पाप से संयुक्त है ।4।

फिर उन्होंने श्रोत्र के रूप में उद्गीथ की उपासना की । असुरों ने उसे भी पाप से संयुक्त कर दिया । इसी से लोक उससे सुनने योग्य और न सुनने योग्य दोनों प्रकार की बातों को सुनता है, क्योंकि वह पाप से संयुक्त है ।5।

फिर उन्होंने मन के रूप में उद्गीथ की उपासना की । असुरों ने उसे भी पाप से संयुक्त कर दिया । इसी कारण लोक उसके द्वारा संकल्प करने योग्य और संकल्प न करने योग्य दोनों ही का संकल्प करता है, क्योंकि वह पाप से संयुक्त है ।6।

फिर यह जो प्रसिद्ध मुख्य प्राण है उसी के रूप में उद्गीथ की उपासना की । उस के समीप पहुँचकर असुरगण इस प्रकार विध्वस्त हो गए जिस प्रकार दुर्भेद्य पाषाण से टकराकर मिट्टी का ढेला नष्ट हो जाता है ।7।

जिस प्रकार मिट्टी का ढेला दुर्भेद्य पाषाण को प्राप्त होकर विनष्ट हो जाता है, उसी प्रकार वह व्यक्ति नाश को प्राप्त हो जाता है, जो इस प्रकार जानने वाले पुरुष के प्रति पापाचरण की कामना करता है, क्योंकि यह प्राणोपासक अभेद्य पाषाण ही है ।8।

लोक इसके द्वारा न सुगन्ध को जानता है और न दुर्गन्ध को ही जानता है, क्योंकि यह पाप से पराभूत नहीं है । अतः यह जो कुछ खाता या पीता है उससे अन्य प्राणों का पोषण करता है । अन्त में इस मुख्य प्राण को प्राप्त न होने के कारण ही अन्य प्राणसमूह उत्क्रमण करता है और इसी कारण अन्त में पुरुष मुख फाड़ देता है ।9।

अंगिरा ऋषि ने इस के ही रूप में उद्गीथ की उपासना की थी । अतः इस प्राण को ही आंगिरस मानते हैं, क्योंकि यह सम्पूर्ण अंगों का रस है ।10।

इसी कारण बृहस्पति ने उस प्राण के रूप में उद्गीथ की उपासना की थी । अतः इस प्राण को ही बृहस्पति मानते हैं, क्योंकि वाक् ही बृहती है और यह उसका पति है ।11।

इसी कारण आयास्य ने उस प्राण के रूप में उद्गीथ की उपासना की थी ।अतः इस प्राण को ही आयास्य मानते हैं, क्योंकि यह आस्य (मुख) से निकलता है ।12।

अतः दल्भ के पुत्र बक ने उसे जाना । वह नैमिषारण्य में यज्ञ करने वालों का उद्गाता हुआ और उसने उनकी कामनापूर्ति के लिए उदगान किया ।13।

इसे इस प्रकार जानने वाला जो विद्वान इस उद्गीथसंज्ञक अक्षर की इस प्रकार उपासना करता है, वह कामनाओं का आगान करने वाला होता है ।14।

तृतीय खण्ड

इसके अनन्तर अधिदैवत उपासना का वर्णन किया जाता है, जो कि वह आदित्य तपता है, उसके रूप में उद्गीथ की उपासना करनी चाहिए । यह उदित होकर प्रजाओं के लिए उदगान करता है, उदित होकर अन्धकार और भय का नाश करता है । जो इस प्रकार इसको जानता है वह निश्चय ही अन्धकार और भय का नाश करने वाला होता है ।1।

यह प्राण और सूर्य परस्पर समान ही हैं । यह प्राण उष्ण है और वह सूर्य भी उष्ण है । इस प्राण को ‘स्वर’- ऐसा कहते है और उस सूर्य को ‘स्वर’ एवं ‘प्रत्यास्वर’- ऐसा कहते हैं । अतः इस प्राण और उस सूर्य रूप से उद्गीथ की उपासना करे ।2।

तदनन्तर दूसरे प्रकार से- व्यानदृष्टि से ही उद्गीथ की उपासना करे । पुरुष जो प्राणन करता है वह प्राण है और जो अपश्वास लेता है वह अपान है । तथा प्राण और अपान की जो सन्धि है वही व्यान है । जो व्यान है वही वाक् है । इसी से पुरुष प्राण और अपान क्रिया न करते हुए ही वाणी बोलता है ।3।

जो वाक् है वही ऋक् है । उसी से पुरुष प्राण और अपान की क्रिया न करता हुआ ऋक् का उच्चारण करता है । जो ऋक् है वही साम है । इसी से प्राण और अपान की क्रिया न करता हुआ सामगान करता है । जो साम है वही उद्गीथ है । इसी से प्राण और अपान की क्रिया न करता हुआ उदगान करता है ।4।

इसके सिवा जो और भी वीर्ययुक्त कर्म हैं, जैसे अग्नि का मन्थन, किसी सीमा तक दौड़ना तथा सुदृढ़ धनुष को खींचना- इन सब कर्मों को भी पुरुष प्राण और अपान की क्रिया न करता हुआ ही करता है । इस कारण व्यानदृष्टि से ही उद्गीथ की उपासना करनी चाहिए ।5।

इसके पश्चात् उद्गीथाक्षरों की- ‘उद्गीथ’ उस नाम के अक्षरों की उपासना करनी चाहिए- ‘उद्गीथ’ इस शब्द में प्राण ही ‘उत्’ है, क्योंकि प्राण से ही उठता है, वाणी ही ‘गी’ है, क्योंकि वाणी को ‘गिरा’ कहते हैं तथा अन्न ही ‘थ’ है, क्योंकि अन्न में ही यह सब स्थित है ।6।

द्यौ ही ‘उत्’ है, अन्तरिक्ष ‘गी’ है और पृथ्वी ‘थ’ है । आदित्य ही ‘उत्’ है, वायु ‘गी’ है और अग्नि ‘थ’ है । सामवेद ही ‘उत्’ है, यजुर्वेद ‘गी’ है और ऋग्वेद ‘थ’ है । इन अक्षरों को इस प्रकार जानने वाला जो विद्वान ‘उद्गीथ’ इस प्रकार इन उद्गीथाक्षरों की उपासना करता है उसके लिए वाणी, जो वाक् का दोह है, उसका दोहन करती है तथा वह अन्नवान और अन्न का भोक्ता होता है ।7।

अब निश्चय ही कामनाओं की समृद्धि के साधन का वर्णन किया जाता है- अपने उपगन्तव्यों की इस प्रकार उपासना करे- जिस साम के द्वारा उद्गाता को स्तुति करना हो उस साम का चिन्तन करे ।8।

वह साम जिस ऋचा में प्रतिष्ठित हो उस ऋचा का, जिस ऋषि वाला हो उस ऋषि का तथा जिस जिस देवता की स्तुति करने वाला हो उस देवता का चिन्तन करे ।9।

वह जिस छन्द के द्वारा स्तुति करने वाला हो उस छन्द का उपधावन करे तथा जिस स्तोम से स्तुति करने वाला हो उस स्तोम का चिन्तन करे ।10।

जिस दिशा की स्तुति करने वाला हो उस दिशा का चिन्तन करे ।11।

अन्त में अपने स्वरूप का चिन्तन कर अपनी कामना का चिन्तन करते हुए अप्रमत्त होकर स्तुति करे । जिस फल की इच्छा से युक्त होकर वह स्तुति करता है वही फल तत्काल समृद्धि को प्राप्त होता है ।12।

चतुर्थ खण्ड

‘ॐ’ यह अक्षर ही उद्गीथ है, इस प्रकार इसकी उपासना करे । ‘ॐ’ ऐसा ही उदगान करता है । उस की ही व्याख्या की जाती है ।1।

मृत्यु से भय मानते हुए देवताओं ने त्रयीविद्या में प्रवेश किया । उन्होंने अपने को छन्दों से आच्छादित कर लिया । देवताओं का उनके द्वारा अपने को आच्छादित करना ही छन्दों का छन्दपन है ।2।

जिस प्रकार मछेरा जल में मछलियों को देख लेता है, उसी प्रकार ऋक्, साम और यजुः सम्बन्धी कर्मों में लगे हुए उन देवताओं को मृत्यु ने देख लिया । इस बात को जान लेने पर देवताओं ने ऋक्, साम और यजुः सम्बन्धी कर्मों से निवृत्त होकर स्वर में ही प्रवेश किया ।3।

जिस समय ऋक् को प्राप्त करता है उस समय वह ‘ॐ’ ऐसा कहकर ही बड़े आदर से उच्चारण करता है । इसी प्रकार वह साम और यजुः को भी प्राप्त करता है । यह जो अक्षर है, वह अन्य स्वरों के समान स्वर है । यह अमृत और अभयरूप है, इसमें प्रविष्ट होकर देवगण अमृत और अभय हो गए थे ।4।

वह, जो इसे इस प्रकार जानने वाला होकर इस अक्षर की स्तुति करता है, इस अमृत और अभयरूप अक्षर में ही प्रवेश कर जाता है तथा इसमें प्रविष्ट होकर जिस प्रकार देवगण अमर हो गए थे, उसी प्रकार अमर हो जाता है ।5।

पञ्चम खण्ड

निश्चय ही जो उद्गीथ है वही प्रणव है और जो प्रणव है वही उद्गीथ है । इस प्रकार यह आदित्य ही उद्गीथ है, यही प्रणव है, क्योंकि यह ‘ॐ’ ऐसा उच्चारण करता हुआ ही गमन करता है ।1।

‘मैंने प्रमुखता से इसी का गान किया था, इसी से मेरे तू एक ही पुत्र है’- ऐसा कौषीतकि ने अपने पुत्र से कहा । अतः तू रश्मियों का भेदरूप से चिन्तन कर । इससे निश्चय ही तेरे बहुत से पुत्र होंगे । यह अधिदैवत उपासना है ।2।

इसके आगे अध्यात्म उपासना है- यह जो मुख्य प्राण है उसी के रूप में उद्गीथ की उपासना करें, क्योंकि यह ‘ॐ’ इस प्रकार अनुज्ञा करता हुआ गमन करता है ।3।

‘मैंने प्रमुखता से केवल इसीका गान किया था, इसीलिए मेरे तू अकेला ही पुत्र हुआ’- ऐसा कौषीतकि ने अपने पुत्र से कहा । ‘अतः तू- ‘मेरे बहुत से पुत्र होंगे’- इस अभिप्राय से भेदगुणविशिष्ट प्राणों का प्रमुखता से गान कर’ ।4।

निश्चय ही जो उद्गीथ है वही प्रणव है, तथा जो प्रणव है वही उद्गीथ है- इस प्रकार उद्गाता होता के कर्म में किये हुए उद्गानसम्बन्धी दोष का अनुसन्धान करता है, अनुसन्धान करता है ।5।

षष्ठ खण्ड

पृथ्वी ही ऋक् है और अग्नि साम है । वह यह अग्निसंज्ञक साम ऋक् में ही अधिष्ठित है । अतः ऋक् में अधिष्ठित साम का ही गान किया जाता है । यह पृथ्वी ही ‘सा’ है और अग्नि ‘अम’ है, इस प्रकार ये साम हैं ।1।

अन्तरिक्ष ही ऋक् है और वायु साम है । वह यह साम ऋक् में ही अधिष्ठित है । अतः ऋक् में अधिष्ठित साम का ही गान किया जाता है । अन्तरिक्ष ही ‘सा’ है और वायु ‘अम’ है, इस प्रकार ये साम हैं ।2।

द्यौ ही ऋक् है और आदित्य साम है । वह यह साम ऋक् में ही अधिष्ठित है । अतः ऋक् में अधिष्ठित साम का ही गान किया जाता है । द्यौ ही ‘सा’ है और आदित्य ‘अम’ है, इस प्रकार ये साम हैं ।3।

नक्षत्र ही ऋक् हैं और चन्द्रमा साम है । वह यह साम ऋक् में ही अधिष्ठित है । अतः ऋक् में अधिष्ठित साम का ही गान किया जाता है । नक्षत्र ही ‘सा’ है और चन्द्रमा ‘अम’ है, इस प्रकार ये साम हैं ।4।

तथा यह जो आदित्य की शुक्लज्योति है वही ऋक् है और उसमें जो नीलवर्ण अत्यन्त श्यामता दिखाई देती है वह साम है । वह यह अग्निसंज्ञक साम ऋक् में ही अधिष्ठित है । अतः ऋक् में अधिष्ठित साम का ही गान किया जाता है ।5।

तथा यह जो आदित्य का शुक्ल प्रकाश है वही ‘सा’ है और जो नीलवर्ण अत्यन्त श्यामता है वही ‘अम’ है, इस प्रकार ये साम हैं । तथा यह जो आदित्यमण्डल के अन्तर्गत सुवर्णमय-सा पुरुष दिखाई देता है, जो सुवर्ण के समान श्मश्रुओंवाला और स्वर्णसदृश केशोंवाला है तथा जो नखपर्यन्त सारा-का-सारा सुवर्ण-सा ही है ।6।

उसके दोनों नेत्र बन्दर के बैठने के स्थान के सदृश अरुण वर्ण वाले पुण्डरीक के समान हैं । उसका ‘उत्’ ऐसा नाम है, क्योंकि वह सम्पूर्ण पापों से ऊपर गया हुआ है । जो इस प्रकार जानता है वह निश्चय ही सम्पूर्ण पापों से ऊपर उठ जाता है ।7।

उस देव के ऋक् और साम- ये दोनों पक्ष हैं । इसी से वह देव उद्गीथरूप है, और इसी से इसका गान करने वाला उद्गाता कहलाता है, क्योंकि वह इस ‘उत्’ का ही गान करने वाला होता है । वह यह उत् नामक देव, जो इस अदित्यलोक से ऊपर के लोक हैं और जो देवताओं की कामनाएँ हैं, उनका शासन करता है । यह अधिदैवत उद्गीथोपासना है ।8।

सप्तम खण्ड

इससे आगे अध्यात्म उपासना है- वाणी ही ऋक् है और प्राण साम है । इस प्रकार इस ऋक् में साम अधिष्ठित है । अतः ऋक् में अधिष्ठित साम का ही गान किया जाता है । वाक् ही ‘सा’ है और प्राण ‘अम’ है, इस प्रकार ये साम हैं ।1।

चक्षु ही ऋक् है और आत्मा साम है । इस प्रकार इस ऋक् में साम अधिष्ठित है । अतः ऋक् में अधिष्ठित साम का ही गान किया जाता है । चक्षु ही ‘सा’ है और आत्मा ‘अम’ है, इस प्रकार ये साम हैं ।2।

श्रोत्र ही ऋक् है और मन साम है । इस प्रकार इस ऋक् में साम अधिष्ठित है । अतः ऋक् में अधिष्ठित साम का ही गान किया जाता है । श्रोत्र ही ‘सा’ है और मन ‘अम’ है, इस प्रकार ये साम हैं ।3।

तथा यह जो आँखों का शुक्ल प्रकाश है वह ऋक् है और जो नीलवर्ण अत्यन्त श्यामता है वह साम है । इस प्रकार इस ऋक् में साम अधिष्ठित है । अतः ऋक् में अधिष्ठित साम का ही गान किया जाता है । तथा यह जो नेत्र का शुक्ल प्रकाश है वही ‘सा’ है और जो नीलवर्ण परम श्यामता है वही ‘अम’ है, इस प्रकार ये साम हैं ।4।

तथा यह जो नेत्रों के मध्य में पुरुष दिखलायी देता है वही ऋक् है, वही साम है, वही उक्थ है, वही यजुः है और वही ब्रह्म है । उस इस पुरुष का वही रुप है जो उस आदित्य-पुरुष का रूप है । जो उसके पक्ष हैं वही इसके पक्ष हैं, जो उसका नाम है वही इसका नाम है ।5।

वह चाक्षुष पुरुष, जो इस अध्यात्म आत्मा से नीचे के लोक हैं उनका तथा मानवीय कामनाओं का शासन करता है । अतः जो ये लोक वीणा में गान करते हैं वे उसी का गान करते हैं, इसी से वे धनवान होते हैं ।6।

तथा जो इस प्रकार दोनों को जानने वाला पुरुष सामगान करता है वह दोनों का ही गान करता है । तथा वह इसके ही द्वारा, जो इस आदित्य लोक से ऊपर के लोक हैं और जो देवताओं के भोग हैं, उन्हें प्राप्त करता है ।7।

तथा इसी के द्वारा, जो इससे नीचे के लोक हैं उन्हें और मनुष्य सम्बन्धी कामनाओं को प्राप्त करता है । अतः इस प्रकार जानने वाला उद्गाता कहे- ।8।

‘मैं तेरे लिए किन इष्ट कामनाओं का आगान करूँ’ क्योंकि यह उद्गाता कामनाओं के आगान में समर्थ होता है, जो कि इस प्रकार जानने वाला होकर सामगान करता है, सामगान करता है ।9।

अष्टम खण्ड

कहते हैं, शालावान का पुत्र शिलक, चिकितायन का पुत्र दालभ्य और जीवल का पुत्र प्रवाहण- ये तीनों उद्गीथ विद्या में कुशल थे । उन्होंने परस्पर कहा- ‘हम लोग उद्गीथ विद्या में निपुण हैं, अतः यदि आप लोगों की अनुमति हो तो उद्गीथ के विषय में परस्पर वार्तालाप करें’ ।1।

तब वे ‘बहुत अच्छा’ ऐसा कहकर बैठ गए । फिर जीवल के पुत्र प्रवाहण ने कहा- ‘पहले आप दोनों पूज्यवर प्रतिपादन करें । मैं आप ब्राह्मणों की कही हुई वाणी को श्रवण करूँगा’ ।2।

तब उस शालावान के पुत्र शिलक ने चिकितायनकुमार दालभ्य से कहा- ‘यदि तुम्हारी अनुमति हो तो मैं तुमसे पूछूँ?’ उसने कहा- ‘पूछो’ ।3।

‘साम की गति (आश्रय) क्या है?’ इस पर दूसरे ने ‘स्वर’ ऐसा कहा । ‘स्वर की गति क्या है?’ ऐसा प्रश्न होने पर दूसरे ने ‘प्राण’ ऐसा कहा । ‘प्राण की गति क्या है?’ इस पर दूसरे ने ‘अन्न’ ऐसा कहा । तथा ‘अन्न की गति क्या है?’ ऐसा पूछे जाने पर दालभ्य ने ‘जल’ ऐसा कहा ।4।

‘जल की गति क्या है?’ ऐसा प्रश्न होने पर उसने ‘वह लोक’ ऐसा कहा । ‘उस लोक की गति क्या है?’ इस पर दालभ्य ने कहा कि ‘स्वर्गलोक का अतिक्रमण करके साम को कोई किसी दूसरे आश्रय में नहीं ले जा सकता । हम साम को स्वर्गलोक में ही स्थित करते हैं, क्योंकि साम की स्वर्गरूप से ही स्तुति की गई है’ ।5।

उस चिकितानपुत्र दालभ्य से शालावान के पुत्र शिलक ने कहा- ‘हे दालभ्य! तेरा साम निश्चय ही अप्रतिष्ठित है । जो इस समय कोई सामवेत्ता यह कह दे कि ‘तेरा मस्तक गिर जाए’ तो निश्चय ही तेरा मस्तक गिर जाएगा ।6।

मैं यह बात श्रीमान् से जानना चाहूँगा, इस पर शिलक ने कहा- ‘जान लो’ । तब ‘उस लोक की गति क्या है?’ ऐसा पूछे जाने पर उसने ‘यह लोक’ ऐसा कहा । फिर ‘इस लोक की गति क्या है?’ ऐसा प्रश्न होने पर ‘इस प्रतिष्ठाभूत लोक का अतिक्रमण करके साम को अन्यत्र नहीं ले जाना चाहिए’ ऐसा कहा । हम प्रतिष्ठाभूत इस लोक में साम को स्थित करते हैं, क्योंकि साम का प्रतिष्ठारूप से ही स्तवन किया गया है ।7।

तब उससे जीवल के पुत्र प्रवाहण ने कहा- ‘हे शालावत्य! निश्चय ही तुम्हारा साम अन्तवान है । यदि कोई ऐसा कह दे कि तुम्हारा मस्तक गिर जाए तो तुम्हारा मस्तक गिर जाएगा’ । तब शालावत्य ने कहा- ‘मैं इसे श्रीमान् से जानना चाहता हूँ’ । इस पर प्रवाहण ने ‘जान लो’ ऐसा कहा ।8।

नवम खण्ड

‘इस लोक की गति क्या है?’ इस पर प्रवाहण ने कहा- ‘आकाश, क्योंकि ये समस्त भूत आकाश से ही उत्पन्न होते हैं, आकाश में ही लय को प्राप्त होते हैं और आकाश ही इनसे बड़ा है, अतः आकाश ही इनका आश्रय है’ ।1।

वह यह उद्गीथ परम उत्कृष्ट है, यह अनन्त है । जो इसे इस प्रकार जानने वाला विद्वान इस परमोत्कृष्ट उद्गीथ की उपासना करता है उसका जीवन परमोत्कृष्ट हो जाता है और वह उत्तरोत्तर उत्कृष्ट लोकों को अपने अधीन कर लेता है ।2।

शुनक के पुत्र अतिधन्वा ने उस इस उद्गीथ का उदरशाण्डिल्य के प्रति निरूपण कर उससे कहा- जब तक तेरी संतति में से इस उद्गीथ को जानेंगे तब तक इस लोक में उनका जीवन उत्तरोत्तर उत्कृष्टतर होता जाएगा ।3।

तथा परलोक में भी उसे उत्कृष्ट-से-उत्कृष्ट लोक की प्राप्ति होती है । जो इसे इस प्रकार जानने वाला पुरुष इसकी उपासना करता है, उसका जीवन निश्चय ही इस लोक में उत्कृष्टतर होता है तथा परलोक में भी उसे उत्तरोत्तर उत्कृष्टतर लोक प्राप्त होता है-परलोक में भी उसे उत्तरोत्तर उत्कृष्टतर लोक प्राप्त होता है ।4।

दशम खण्ड

ओले और पत्थर पड़ने से कुरुदेश की खेती चौपट हो जाने पर वहाँ इभ्य ग्राम के भीतर आटिकी पत्नी के साथ चक्र का पुत्र उषस्ति दुर्गति की अवस्था में रहता था ।1।

उसने घुने हुए उड़द खाने वाले महावत से याचना की । तब उसने उससे कहा- इन जूठे उड़दों के सिवा मेरे पास और नहीं है । जो कुछ एकत्र थे वे सब-के-सब तो मैंने भोजनपात्र में रख लिए हैं ।2।

तू मुझे इन्हें ही दे दे- ऐसा उषस्ति ने कहा । तब महावत ने वे उड़द उसे दे दिए और कहा- ‘यह अनुपान भी लो’ । इस पर वह बोला- ‘इसे लेने से मेरे द्वारा निश्चय ही उच्छिष्ट जल पीया जाएगा’ ।3।

‘क्या ये उड़द भी उच्छिष्ट नहीं हैं?’ उसने कहा- ‘इन्हें खाये बिना तो मैं जीवित नहीं रह सकता था, जलपान तो मुझे यथेच्छ मात्रा में मिलता है’ ।4।

उन्हें खाकर वह बचे हुए उड़दों को अपनी पत्नी के लिए ले आया । वह पहले ही खूब भिक्षा प्राप्त कर चुकी थी । अतः उसने उन्हें लेकर रख दिया ।5।

उसने प्रातःकाल शय्यात्याग करने के अनन्तर पत्नी से कहा- यदि हमें कुछ अन्न मिल जाता तो हम कुछ धन प्राप्त कर लेते, क्योंकि वह राजा यज्ञ करने वाला है, वह समस्त ऋत्विक्कर्मों के लिए मेरा वरण कर लेगा ।6।

उससे उसकी पत्नी ने कहा- ‘स्वामिन्! वे उड़द ही ये मौजूद हैं’ । उषस्ति उन्हें खाकर ऋत्विजों द्वारा विस्तारपूर्वक किये जाने वाले उस यज्ञ में गया ।7।

वहाँ जाकर स्तुति के स्थान में स्तुति करते हुए उद्गताओं के समीप बैठ गया और उसने प्रस्तोता से कहा- ।8।

हे प्रस्तोतः! जो देवता प्रस्ताव-भक्ति में अनुगत है, यदि तू उसे बिना जाने प्रस्तवन करेगा तो तेरा मस्तक गिर जाएगा ।9।

इसी प्रकार उसने उद्गाता से भी कहा- ‘हे उद्गातः! जो देवता उद्गीथ में अनुगत है, यदि तू उसे जाने बिना उद्गान करेगा तो तेरा मस्तक गिर जाएगा ।10।

इसी प्रकार प्रतिहर्ता से भी कहा- ‘हे प्रतिहर्तः! जो देवता प्रतिहार में अनुगत है, यदि तू उसे जाने बिना प्रतिहरण करेगा तो तेरा मस्तक गिर जाएगा’ । तब वे प्रस्तोता आदि अपने-अपने कर्मों से उपरत हो मौन होकर बैठ गए ।11।

एकादश खण्ड

तब उससे यजमान ने कहा- ‘मैं आप पूज्य-चरण को जानना चाहता हूँ’ । इस पर उसने कहा- ‘मैं चक्र का पुत्र उषस्ति हूँ’ ।1।

मैंने इन समस्त ऋत्विक्कर्मों के लिए श्रीमान् को खोजा था । श्रीमान् के न मिलने से ही मैंने दूसरे ऋत्विजों का वरण किया था ।2।

मेरे समस्त ऋत्विक्कर्मों के लिए श्रीमान् ही रहें- ऐसा सुनकर उषस्ति ने ‘ठीक है’ ऐसा कहा और बोला- ‘अच्छा तो मेरे द्वारा प्रसन्नता से आज्ञा दिए हुए ये ही लोग स्तुति करें, और तुम जितना धन इन्हें दो उतना ही मुझे देना’ । तब यजमान ने कहा- ‘ऐसा ही होगा’ ।3।

तदनन्तर उषस्ति के पास प्रस्तोता आया और बोला- ‘भगवन्! आपने जो मुझसे कहा था कि हे प्रस्तोतः! जो देवता प्रस्ताव में अनुगत है, यदि तू उसे बिना जाने प्रस्तवन करेगा तो तेरा मस्तक गिर जाएगा- सो वह देवता कौन है?’ ।4।

उसने कहा- ‘वह देवता प्राण है, क्योंकि ये समस्त भूत प्राण में ही प्रवेश कर जाते हैं और प्राण से ही उत्पन्न होते हैं । वह यह प्राणदेवता ही प्रस्ताव में अनुगत है, यदि तू उसे जाने बिना ही प्रस्तवन करता तो मेरे द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर तेरा मस्तक गिर जाता’ ।5।

तदनन्तर उषस्ति के पास उद्गाता आया और बोला- ‘भगवन्! आपने जो मुझसे कहा था कि हे उद्गातः! जो देवता उद्गीथ में अनुगत है, यदि तू उसे बिना जाने उद्गान करेगा तो तेरा मस्तक गिर जाएगा- सो वह देवता कौन है?’ ।6।

उसने कहा- ‘वह देवता आदित्य है, क्योंकि ये समस्त भूत ऊँचे उठे आदित्य का ही गान करते हैं । वह यह आदित्यदेवता ही उद्गीथ में अनुगत है, यदि तू उसे जाने बिना ही उद्गान करता तो मेरे द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर तेरा मस्तक गिर जाता’ ।7।

तदनन्तर उषस्ति के पास प्रतिहर्ता आया और बोला- ‘भगवन्! आपने जो मुझसे कहा था कि हे प्रतिहर्तः! जो देवता प्रतिहार में अनुगत है, यदि तू उसे बिना जाने प्रतिहरण करेगा तो तेरा मस्तक गिर जाएगा- सो वह देवता कौन है?’ ।8।

उसने कहा- ‘वह देवता अन्न है, क्योंकि ये समस्त भूत अपने प्रति अन्न का ही हरण करते हुए जीवित रहते हैं । वह यह अन्नदेवता ही प्रतिहार में अनुगत है, यदि तू उसे जाने बिना ही प्रतिहरण करता तो मेरे द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर तेरा मस्तक गिर जाता’ ।9।

द्वादश खण्ड

तदनन्तर अब शौव उद्गीथ का आरम्भ किया जाता है । वहाँ प्रसिद्ध है कि दल्भ का पुत्र बक अथवा मित्रा का पुत्र ग्लाव स्वाध्याय के लिए जलाशय के समीप गया ।1।

उसके समीप एक श्वेत कुत्ता प्रकट हुआ । उसके पास दूसरे कुत्तों ने आकर कहा- ‘भगवन्! आप हमारे लिए अन्न का आगान कीजिये, हम निश्चय ही भूखे हैं ।2।

उनसे श्वेत कुत्ते ने कहा- ‘तुम प्रातःकाल यहीं मेरे पास आना’ । तब दालभ्य बक अथवा मैत्रेय ग्लाव उनकी प्रतीक्षा करता रहा ।3।

उन कुत्तों ने, जिस प्रकार कर्म में बहिष्पवमान स्तोत्र से स्तवन करने वाले उद्गाता परस्पर मिलकर भ्रमण करते हैं, उसी प्रकार भ्रमण किया और फिर वहाँ बैठकर हिंकार करने लगे ।4।

ॐ हम खाते हैं, ॐ हम पीते हैं, ॐ देवता, वरुण, प्रजापति, सूर्यदेव यहाँ अन्न लावें । हे अन्नपते! यहाँ अन्न लाओ, अन्न लाओ, ॐ ।5।

त्रयोदश खण्ड

यह लोक ही हाउकार है, वायु हाईकार है, चन्द्रमा अथकार है, आत्मा इहकार है और अग्नि ईकार है ।1।

आदित्य ऊकार है, निहव एकार है, विश्वेदेव औहोयिकार हैं, प्रजापति हिंकार है तथा प्राण स्वर है, अन्न या है एवं विराट वाक् है ।2।

जिसका निरूपण नहीं किया जा सकता और जो संचार करने वाला है वह तेरहवाँ स्तोभ हुँकार है ।3।

जो इस प्रकार इस साम सम्बन्धी उपनिषद् को जानता है उसे वाणी, जो वाणी का फल है, उस फल को देती है तथा वह अन्नवान और अन्न भक्षण करने वाला होता है ।4।

द्वितीय प्रपाठक[संपादित करें]

प्रथम खण्ड

ॐ समस्त साम की उपासना साधु है । जो साधु होता है उसको साम कहते हैं और जो असाधु होता है वह असाम कहलाता है ।1।

इसी विषय में कहते हैं- इस के पास सामद्वारा गया तो लोग यही कहते हैं कि वह इसके पास साधुभाव से गया और वह इसके पास असामद्वारा गया तो लोग यही कहते हैं कि वह इसके यहाँ असाधुभाव से प्राप्त हुआ ।2।

इसके अनन्तर ऐसा भी कहते हैं कि हमारा साम अर्थात जब शुभ होता है तो ‘अहा ! बड़ा अच्छा हुआ ।’ ऐसा कहते हैं, और ऐसा भी कहते हैं कि हमारा असाम हुआ अर्थात जब अशुभ होता है तो ‘ओह ! बुरा हुआ ।’ ऐसा कहते हैं ।3।

इसे ऐसे जानने वाला पुरुष ‘साम साधु है’ इस प्रकार उपासना करता है । उसके पास, जो साधु धर्म है वे शीघ्र ही आ जाते हैं और उसके प्रति विनम्र हो जाते हैं ।4।

द्वितीय खण्ड

ऊपर के लोकों में निम्नांकितरूप से पाँच प्रकार के साम की उपासना करनी चाहिए । पृथ्वी हिंकार हैं, अग्नि प्रस्ताव है, अन्तरिक्ष उद्गीथ है, आदित्य प्रतिहार है और द्युलोक निधन है ।1।

अब अधोमुख लोकों में सामोपासना का निरूपण किया जाता है- द्युलोक हिंकार है, आदित्य प्रस्ताव है, अन्तरिक्ष उद्गीथ है, अग्नि प्रतिहार है और पृथ्वी निधन है ।2।

जो इसे इस प्रकार जानने वाला पुरुष लोकों में पञ्चविध साम की उपासना करता है, उसके प्रति उर्ध्व और अधोमुख लोक भोग्यरूप से उपस्थित होते हैं ।3।

तृतीय खण्ड

वृष्टि में पाँच प्रकार के साम की उपासना करे । पूर्वीय वायु हिंकार है, मेघ जो उत्पन्न होता है वह प्रस्ताव है, जो बरसता है वह उद्गीथ है, जो चमकता और गर्जना करता है वह प्रतिहार है ।1।

मेघ जो जल ग्रहण करता है वह निधन है । जो इसे इस प्रकार जानने वाला पुरुष वृष्टि में पाँच प्रकार के साम की उपासना करता है उसके लिए वर्षा होती है और वह वर्षा करा लेता है ।2।

चतुर्थ खण्ड

सब प्रकार के जलों में पाँच प्रकार के साम की उपासना करे । मेघ जो घनीभाव को प्राप्त होता है वह हिंकार है, जो बरसता है वह प्रस्ताव है, नदियाँ जो पूर्व की ओर बहती हैं वह उद्गीथ है तथा जो पश्चिम की ओर बहती हैं वह प्रतिहार है और समुद्र निधन है ।1।

जो इसे इस प्रकार जानने वाला पुरुष सब जलों में पञ्चविध साम की उपासना करता है, वह जल में नहीं मरता और जल से सम्पन्न होता है ।2।

पञ्चम खण्ड

ऋतुओं में पाँच प्रकार के साम की उपासना करे । वसन्त हिंकार है, ग्रीष्म प्रस्ताव है, वर्षा उद्गीथ है, शरद प्रतिहार है और हेमन्त निधन है ।1।

जो इसे इस प्रकार जानने वाला पुरुष ऋतुओं में पाँच प्रकार के साम की उपासना करता है, उसे ऋतुएँ अपने अनुरूप भोग देती हैं और वह ऋतुमान होता है ।2।

षष्ठ खण्ड

पशुओं में पाँच प्रकार के साम की उपासना करे । बकरे हिंकार हैं, भेड़ें प्रस्ताव हैं, गौएँ उद्गीथ हैं, अश्व प्रतिहार हैं और पुरुष निधन है ।1।

जो इसे इस प्रकार जानने वाला पुरुष पशुओं में पञ्चविध साम की उपासना करता है, उसे पशु प्राप्त होते हैं और वह पशुधन से सम्पन्न होता है ।2।

सप्तम खण्ड

प्राणों में पाँच प्रकार के परोवरीय साम की उपासना करे । प्राण हिंकार है, वाक् प्रस्ताव है, चक्षु उद्गीथ है, श्रोत्र प्रतिहार है और मन निधन है । ये उपासनाएँ निश्चय ही परोवरीय हैं ।1।

जो इसे इस प्रकार जानने वाला पुरुष प्राणों में उत्तरोत्तर उत्कृष्टतर साम की उपासना करता है, उसका जीवन उत्तरोत्तर उत्कृष्टतर होता जाता है और वह उत्तरोत्तर उत्कृष्टतर लोकों को जीत लेता है । यह पाँच प्रकार की सामोपासना का निरूपण किया गया ।2।

अष्टम खण्ड

अब सप्तविध साम की उपासना का प्रकरण है- वाणी में सप्तविध साम की उपासना करनी चाहिए । वाणी में जो कुछ ‘हैं’ ऐसा स्वरूप है वह हिंकार है, जो कुछ ‘प्र’ ऐसा स्वरूप है वह प्रस्ताव है, और जो कुछ ‘आ’ ऐसा स्वरूप है वह आदि है ।1।

जो कुछ ‘उत्’ ऐसा शब्दरूप है वह उद्गीथ है, जो कुछ ‘प्रति’ ऐसा स्वरूप है वह प्रतिहार है, जो कुछ ‘उप’ ऐसा शब्द है वह उपद्रव है और जो कुछ ‘नि’ ऐसा शब्दरूप है वह निधन है ।2।

जो इसे इस प्रकार जानने वाला पुरुष वाणी में सप्तविध साम की उपासना करता है, उसे वाणी, जो कुछ वाणी का दोह है, उसे देती है तथा वह प्रचुर अन्न से सम्पन्न और उसका भोक्ता होता है ।3।

नवम खण्ड

अब उस आदित्य के रूप में सप्तविध साम की उपासना करनी चाहिए । आदित्य सर्वदा सम है, इसलिए वह साम है । मेरे प्रति वह ऐसा अनुभूत होने के कारण वह सबके प्रति सम है, इसलिए साम है ।1।

उस आदित्य में ये सम्पूर्ण भूत अनुगत हैं- ऐसा जाने । जो उस आदित्य के उदय से पूर्व है वह हिंकार है । उस सूर्य का जो हिंकाररूप है उसके पशु अनुगत हैं, इससे वे हिंकार करते हैं । अतः वे ही इस अदित्यरूप साम के हिंकारभाजन हैं ।2।

तथा सूर्य के पहले-पहल उदित होने पर जो रूप होता है वह प्रस्ताव है । उसके उस रूप के मनुष्य अनुगामी हैं, अतः वे प्रस्तुति और प्रशंसा की इच्छा वाले हैं, क्योंकि वे इस साम की प्रस्तावभक्ति का सेवन करने वाले हैं ।2।

तत्पश्चात आदित्य का जो रूप संगववेला में रहता है वह आदि है । उसके उस रूप के अनुगत पक्षिगण हैं, क्योंकि वे इस साम के आदि का भजन करने वाले हैं, इसलिए वे अन्तरिक्ष में अपने को निराधाररूप से सब ओर ले जाते हैं ।4।

तथा अब जो मध्य दिवस में आदित्य का रूप होता है वह उद्गीथ है । इसके उस रूप के देवतागण अनुगत हैं । इसीसे वे प्रजापति से उत्पन्न हुए प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ हैं, क्योंकि वे इस साम की उद्गीथभक्ति के भागी हैं ।5।

तथा आदित्य का जो रुप मध्याह्न के पश्चात् और अपराह्न के पूर्व होता है वह प्रतिहार है । उसके उस रूप के अनुगामी गर्भ हैं । इसीसे वे प्रतिहृत किये जाने पर नीचे नहीं गिरते, क्योंकि वे इस साम की प्रतिहारभक्ति के पात्र हैं ।6।

तथा आदित्य का जो रूप अपराह्न के पश्चात् और सूर्यास्त के पूर्व होता है वह उपद्रव है । उसके उस रूप के अनुगामी वन्य पशु हैं । इसीसे वे पुरुष को देखकर भयवश अरण्य अथवा गुहा में भाग जाते हैं, क्योंकि वे इस साम की उपद्रवभक्ति के भागी हैं ।7।

तथा आदित्य का जो रुप सूर्यास्त से पूर्व होता है वह निधन है । उसके उस रुप के अनुगत पितृगण हैं, इसीसे उन्हें स्थापित करते हैं, क्योंकि वे पितृगण निश्चय ही इस साम की निधनभक्ति के पात्र हैं ।8।

दशम खण्ड

अब समान अक्षरों वाले मृत्यु से अतीत सप्तविध साम की उपासना करे । ‘हिंकार’ यह तीन अक्षरों वाला है तथा ‘प्रस्ताव’ यह भी तीन अक्षरों वाला है, अतः उसके समान है ।1।

‘आदि’ यह दो अक्षरों वाला नाम है और ‘प्रतिहार’ यह चार अक्षरों वाला नाम है । इसमें से एक अक्षर निकालकर आदि में मिलाने से वे समान हो जाते हैं ।2।

‘उद्गीथ’ यह तीन अक्षरों का और ‘उपद्रव’ यह चार अक्षरों का नाम है । ये दोनों तीन-तीन अक्षरों में तो समान हैं, किन्तु एक अक्षर बच रहता है । अतः तीन अक्षरों वाला होने से तो वह भी उसके समान ही है ।3।

‘निधन’ यह नाम तीन अक्षरों का है, अतः यह उनके समान ही है । वे ही ये बाइस अक्षर हैं ।4।

इक्कीस अक्षरों द्वारा साधक अदित्यलोक को प्राप्त करता है, क्योंकि इस लोक से वह आदित्य निश्चय ही इक्कीसवाँ है । बाइसवें अक्षर द्वारा वह आदित्य से परे उस दुःखहीन एवं शोकरहित लोक को जीत लेता है ।5।

अदित्यलोक की जय प्राप्त करता है तथा उसे आदित्यविजय से भी उत्कृष्ट जय प्राप्त होती है, जो इस उपासना को इस प्रकार जानने वाला होकर आत्मसम्मित और मृत्यु से अतीत सप्तविध साम की उपासना करता है – साम की उपासना करता है ।6।

एकादश खण्ड

मन हिंकार है, वाक् प्रस्ताव है, चक्षु उद्गीथ है, श्रोत्र प्रतिहार है और प्राण निधन है । यह गायत्रसंज्ञक साम प्राणों में प्रतिष्ठित है ।1।

वह जो इस प्रकार गायत्रसंज्ञक साम को प्राणों में प्रतिष्ठित जानता है, प्राणवान होता है, पूर्ण आयु का उपभोग करता है, प्रशस्त जीवनलाभ करता है, प्रजा और पशुओं द्वारा महान् होता है तथा कीर्ति के द्वारा भी महान् होता है । वह महामना होवे- यही उसका व्रत है ।2।

द्वादश खण्ड

अभिमन्थन करता है- यह हिंकार है, धूम उत्पन्न होता है- यह प्रस्ताव है, प्रज्वलित होता है- यह उद्गीथ है, अंगार होते हैं- यह प्रतिहार है तथा शान्त होने लगता है- यह निधन है और सर्वथा शान्त हो जाता है- यह भी निधन है । रथन्तरसाम अग्नि में प्रतिष्ठित है ।1।

वह, जो पुरुष इस प्रकार इस रथन्तरसाम को अग्नि में अनुस्यूत जानता है वह ब्रह्मतेज से सम्पन्न और अन्न का भोक्ता होता है, पूर्ण जीवन का उपभोग करता है, उज्ज्वल जीवन व्यतीत करता है, प्रजा और पशुओं के कारण महान् होता है तथा कीर्ति के कारण भी महान् होता है । अग्नि की ओर मुख करके भक्षण न करे और न थूके ही- यह व्रत है ।2।

त्रयोदश खण्ड

पुरुष जो संकेत करता है वह हिंकार है, जो तोष देता है वह प्रस्ताव है, स्त्री के साथ जो सोता है वह वह उद्गीथ है, अपनी अनेक पत्नियों में से प्रत्येक के साथ जो शयन करता है वह प्रतिहार है, मिथुन द्वारा जो समय बिताता है वह निधन है, मैथुन आदि क्रिया की जो समाप्ति करता है वह भी निधन ही है, यह वामदेव्यसाम मिथुन में ओतप्रोत है ।1।

जो पुरुष इस प्रकार इस वामदेव्यसाम को मिथुन में ओतप्रोत जानता है, वह मिथुनवान होता है, प्रत्येक मैथुन से सन्तान को जन्म देता है । सारी आयु का उपभोग करता है, उज्ज्वल जीवन बिताता है । प्रजा और पशुओं के के कारण महान् होता है तथा कीर्ति के कारण भी महान् होता है । जिस उपासक के अनेक पत्नियाँ हों वह उनमें से किसी का भी परित्याग न करे, यह व्रत है ।2।

चतुर्दश खण्ड

उदित होता हुआ सूर्य हिंकार है, उदित हुआ प्रस्ताव है, मध्याह्नकालिक सूर्य उद्गीथ है, मध्याह्नोत्तरकालिक प्रतिहार है और जो अस्तमित होने वाला सूर्य है, वह निधन है । यह बृहत्साम सूर्य में स्थित है ।1।

वह पुरुष, जो इस प्रकार इस ब्रहत्साम को सूर्य में स्थित जानता है, तेजस्वी और अन्न का भोग करने वाला होता है । पूर्ण जीवन का उपभोग करता है, उज्ज्वल जीवन व्यतीत करता है, प्रजा और पशुओं के कारण महान् होता है तथा कीर्ति के कारण भी महान् होता है । तपते हुए सूर्य की निन्दा न करे- यह नियम है ।2।

पञ्चदश खण्ड

बादल एकत्रित होते हैं- यह हिंकार है । मेघ उत्पन्न होता है- यह प्रस्ताव है । जल बरसता है- यह उद्गीथ है । बिजली चमकती और कड़कती है- यह प्रतिहार है तथा वृष्टि का उपसंहार होता है- यह निधन है । यह वैरूपसाम मेघ में ओतप्रोत है ।1।

वह पुरुष, जो इस प्रकार इस वैरूप साम को पर्जन्य में अनुस्यूत जानता है वह विरूप और सुरूप पशुओं का अवरोध करता है, पूर्ण आयु का उपभोग करता है, उज्ज्वल जीवन व्यतीत करता है, प्रजा और पशुओं के कारण महान् होता है तथा कीर्ति के कारण भी महान् होता है । बरसते हुए मेघ की निन्दा न करे- यह व्रत है ।2।

षोडश खण्ड

वसन्त हिंकार है, ग्रीष्म प्रस्ताव है, वर्षा उद्गीथ है, शरद ऋतु प्रतिहार है, हेमन्त निधन है- यह वैराज साम ऋतुओं में अनुस्यूत है ।1।

वह पुरुष, जो इस प्रकार वैराज साम को ऋतुओं में अनुस्यूत जानता है, प्रजा, पशु और ब्रह्मतेज के कारण शोभित होता है, पूर्ण आयु का उपभोग करता है, उज्ज्वल जीवन व्यतीत करता है, प्रजा और पशुओं के कारण महान् होता है तथा कीर्ति के कारण भी महान् होता है । ऋतुओं की निन्दा न करे यह व्रत है ।2।

सप्तदश खण्ड

पृथ्वी हिंकार है, अन्तरिक्ष प्रस्ताव है, द्युलोक उद्गीथ है, दिशाएँ प्रतिहार हैं और समुद्र निधन है- यह शव्करीसाम लोकों में अनुस्यूत है ।1।

वह पुरुष, जो इस प्रकार इस शव्करीसाम को लोकों में अनुस्यूत जानता है, लोकवान होता है, पूर्ण आयु का उपभोग करता है, उज्ज्वल जीवन व्यतीत करता है, प्रजा और पशुओं के कारण महान् होता है तथा कीर्ति के कारण भी महान् होता है । लोकों की निंदा न करे- यह व्रत है ।2।

अष्टादश खण्ड

बकरी हिंकार है, भेड़ें प्रस्ताव हैं, गौएँ उद्गीथ हैं, घोड़े प्रतिहार हैं और पुरुष निधन है- यह रेवती साम पशुओं में अनुस्यूत है ।1।

वह पुरुष जो इस प्रकार इस रेवती साम को पशुओं में अनुस्यूत जानता है, पशुमान होता है, पूर्ण आयु का उपभोग करता है, उज्ज्वल जीवन व्यतीत करता है, प्रजा और पशुओं के कारण महान् होता है तथा कीर्ति के कारण भी महान् होता है । पशुओं की निंदा न करे- यह व्रत है ।2।

एकोनविंश खण्ड

लोम हिंकार है, त्वचा प्रस्ताव हैं, मांस उद्गीथ हैं, अस्थि प्रतिहार हैं और मज्जा निधन है- यह यज्ञायज्ञीय साम अंगों में अनुस्यूत है ।1।

वह पुरुष जो इस प्रकार इस यज्ञायज्ञीय साम को अंगों में अनुस्यूत जानता है, अंगवान होता है, वह अंग के कारण कुटिल नहीं होता, पूर्ण आयु का उपभोग करता है, उज्ज्वल जीवन व्यतीत करता है, प्रजा और पशुओं के कारण महान् होता है तथा कीर्ति के कारण भी महान् होता है । एक वर्ष तक मांस भक्षण न करे- यह व्रत है अथवा मांस भक्षण न करे- ऐसा नियम है ।2।

विंश खण्ड

अग्नि हिंकार है, वायु प्रस्ताव है, आदित्य उद्गीथ है, नक्षत्र प्रतिहार है और चन्द्रमा निधन है- यह राजन साम देवताओं में अनुस्यूत है ।1।

वह पुरुष जो इस प्रकार इस राजन साम को देवताओं में अनुस्यूत जानता है, उन्हीं देवताओं के सालोक्य, सार्ष्टित्व और सायुज्य को प्राप्त होता है, पूर्ण आयु का उपभोग करता है, उज्ज्वल जीवन व्यतीत करता है, प्रजा और पशुओं के कारण महान् होता है तथा कीर्ति के कारण भी महान् होता है । ब्राह्मणों की निन्दा न करे- यह व्रत है ।2।

एकविंश खण्ड

त्रयीविद्या हिंकार है । ये तीन लोक प्रस्ताव हैं । अग्नि, वायु और आदित्य उद्गीथ हैं । नक्षत्र, पक्षी और किरणें प्रतिहार हैं । सर्प, गंधर्व और पितृगण निधन हैं । यह सामोपासना सब में अनुस्यूत है ।1।

वह जो इस प्रकार सब में अनुस्यूत इस साम को जानता है सर्वरूप हो जाता है ।2।

इसी विषय में यह मन्त्र भी है- जो पाँच प्रकार के तीन-तीन बतलाये गए हैं, उनसे श्रेष्ठ तथा उनके अतिरिक्त और कोई नहीं है ।3।

जो उसे जानता है वह सब कुछ जानता है । उसे सभी दिशाएँ बलि समर्पित करती हैं । ‘मैं सब कुछ हूँ’ इस प्रकार उपासना कर- यह नियम है, यह नियम है ।4।

द्वाविंश खण्ड

साम के ‘विनर्दि’ नामक गान का वरण करता हूँ, वह पशुओं के लिए हितकर है और अग्नि देवता सम्बन्धी उद्गीथ है । प्रजापति का उद्गीथ अनिरुक्त है, सोम का निरुक्त है, वायु का मृदुल और श्लक्ष्ण है, इन्द्र का श्लक्ष्ण और बलवान है, बृहस्पति का क्रौंच है और वरुण का अपध्वान्त है । इन सभी उद्गीथों का सेवन करे, केवल वरुण सम्बन्धी उद्गीथ का ही परित्याग कर दे ।1।

मैं देवताओं के लिए अमृतत्व का आगान करूँ- इस प्रकार चिन्तन करते हुए आगान करे । पितृगण के लिए स्वधा, मनुष्यों के लिए आशा, पशुओं के लिए तृण और जल, यजमान के लिए स्वर्गलोक और अपने लिए अन्न का आगान करूँ- इस प्रकार इनका मन से ध्यान करते हुए प्रमादरहित होकर स्तुति करे ।2।

सम्पूर्ण स्वर इन्द्र के आत्मा हैं, समस्त उष्मवर्ण प्रजापति के आत्मा हैं, समस्त स्पर्शवर्ण मृत्यु के आत्मा हैं । उस उद्गाता को यदि कोई पुरुष स्वरों के उच्चारण में दोष प्रदर्शित करे तो वह उससे कहे कि मैं इन्द्र के शरणागत हूँ, वही तुझे इसका उत्तर देगा ।3।

और यदि कोई इसे उष्मवर्णों के उच्चारण में दोष प्रदर्शित करे तो उससे कहे कि मैं प्रजापति के शरणागत था, वही तेरा मर्दन करेगा । और यदि कोई इसे स्पर्शों के उच्चारण में उलाहना दे तो उससे कहे कि मैं मृत्यु की शरण को प्राप्त था, वही तुझे दग्ध करेगा ।4।

सम्पूर्ण स्वर घोषयुक्त और बलयुक्त उच्चारण किये जाने चाहिए, अतः ‘मैं इन्द्र में बल का आधान करूँ’ ऐसा चिन्तन करना चाहिए । सारे उष्मवर्ण अग्रस्त, अनिरस्त एवं विवृतरूप से उच्चारण किये जाते हैं, अतः ‘मैं प्रजापति को आत्मदान करूँ’ ऐसा चिन्तन करना चाहिए । समस्त स्पर्शवर्णों को एक-दूसरे से तनिक भी मिलाये बिना ही बोलना चाहिए और उस समय ‘मैं मृत्यु से अपना परिहार करूँ’ ऐसा चिन्तन करना चाहिए ।5।

त्रयोविंश खण्ड

धर्म के तीन स्कन्ध हैं- यज्ञ अध्ययन और दान- यह पहला स्कन्ध है । तप ही दूसरा स्कन्ध है । आचार्यकुल में रहने वाला ब्रह्मचारी जो आचार्यकुल में अपने शरीर को अत्यन्त क्षीण कर देता है, तीसरा स्कन्ध है । ये सभी पुण्यलोक के भागी होते हैं । ब्रह्म में सम्यक् प्रकार से स्थित संन्यासी अमृतत्व को प्राप्त होता है ।1।

प्रजापति ने लोकों के उद्देश्य से ध्यानरूप तप किया । उन अभितप्त लोकों से त्रयीविद्या की उत्पत्ति हुई तथा उस अभितप्त त्रयी विद्या से ‘भूः भुवः और स्वः’ ये अक्षर उत्पन्न हुए ।2।

उन अक्षरों का आलोचन किया । उन आलोचित अक्षरों से ओंकार उत्पन्न हुआ । जिस प्रकार शंकुओं से सम्पूर्ण पत्ते व्याप्त रहते हैं, उसी प्रकार ओंकार से सम्पूर्ण वाक् व्याप्त है । ओंकार ही यह सब कुछ है- ओंकार ही यह सब कुछ है ।3।

चतुर्विंश खण्ड

ब्रह्मवादी कहते हैं कि प्रातःसवन वसुओं का है, मध्याह्नसवन रुद्रों का है तथा तृतीय सवन आदित्य और विश्वेदेवों का है ।1।

तो फिर यजमान का लोक कहाँ है? जो यजमान उस लोक को नहीं जानता वह किस प्रकार यज्ञानुष्ठान करेगा? अतः उसे जानने वाला ही यज्ञ करेगा ।2।

प्रातः अनुवाक का आरम्भ करने से पूर्व वह गार्हपत्य अग्नि के पीछे की ओर उत्तराभिमुख बैठकर वसुदेवता सम्बन्धी साम का गान करता है ।3।

तुम इस लोक का द्वार खोल दो, जिससे कि हम राज्य प्राप्ति के लिए तुम्हारा दर्शन कर लें ।4।

तदनन्तर हवन करता है- पृथ्वी में रहने वाले इहलोक निवासी अग्निदेव को नमस्कार है । मुझ यजमान को तुम लोक की प्राप्ति कराओ । यह निश्चय ही यजमान का लोक है, मैं इसे प्राप्त करने वाला हूँ ।5।

इस लोक में यजमान ‘मैं आयु समाप्त होने के अनन्तर पुण्यलोक को प्राप्त होऊँगा ‘स्वाहा’- ऐसा कहकर हवन करता है, और ‘परिघ को नष्ट करो’ ऐसा कहकर उत्थान करता है । वसुगण उसे प्रातःसवन प्रदान करते हैं ।6।

मध्याह्न सवन का आरम्भ करने से पूर्व यजमान दक्षिणाग्नि के पीछे उत्तराभिमुख बैठकर रुद्रदेवता सम्बन्धी साम का गान करता है ।7।

तुम इस लोक का द्वार खोल दो, जिससे कि हम वैराज्य पद की प्राप्ति के लिए तुम्हारा दर्शन कर सकें ।8।

तदनन्तर हवन करता है- अन्तरिक्ष में रहने वाले अन्तरिक्षलोक निवासी वायुदेव को नमस्कार है । मुझ यजमान को तुम लोक की प्राप्ति कराओ । यह निश्चय ही यजमान का लोक है, मैं इसे प्राप्त करने वाला हूँ ।9।

यहाँ यजमान ‘मैं आयु समाप्त होने के अनन्तर अन्तरिक्षलोक को प्राप्त होऊँगा ‘स्वाहा’- ऐसा कहकर हवन करता है, और ‘परिघ को नष्ट करो’ ऐसा कहकर उत्थान करता है । रुद्रगण उसे मध्याह्नसवन प्रदान करते हैं ।10।

तृतीय सवन का आरम्भ करने से पूर्व यजमान आहवनीयाग्नि के पीछे उत्तराभिमुख बैठकर आदित्य और विश्वेदेव सम्बन्धी साम का गान करता है ।11।

लोक का द्वार खोल दो, जिससे कि हम स्वाराज्य पद की प्राप्ति के लिए तुम्हारा दर्शन कर सकें ।12।

यह आदित्य सम्बन्धी साम है अब विश्वेदेव सम्बन्धी साम कहते हैं- लोक का द्वार खोल दो, जिससे कि हम साम्राज्य प्राप्ति के लिए तुम्हारा दर्शन कर सकें ।13।

तदनन्तर हवन करता है- स्वर्ग में रहने वाले द्युलोक निवासी आदित्यों को और विश्वेदेवों को नमस्कार है । मुझ यजमान को तुम लोक की प्राप्ति कराओ ।14।

यह निश्चय ही यजमान का लोक है, मैं इसे प्राप्त करने वाला हूँ । यहाँ यजमान ‘मैं आयु समाप्त होने के अनन्तर इसे प्राप्त होऊँगा ‘स्वाहा’- ऐसा कहकर हवन करता है, और ‘परिघ को नष्ट करो’ ऐसा कहकर उत्थान करता है ।15।

उसको आदित्य और विश्वेदेव तृतीय सवन प्रदान करते हैं । जो इस प्रकार जनता है, जो इस प्रकार जनता है वह निश्चय ही यज्ञ की मात्रा को जनता है ।16।

तृतीय प्रपाठक[संपादित करें]

प्रथम खण्ड

ॐ यह आदित्य निश्चय ही देवताओं का मधु है । द्युलोक ही उसका तिरछा बाँस है, अन्तरिक्ष छत्ता है और किरणें मक्खियों के बच्चे हैं ।1।

उस आदित्य की जो पूर्व दिशा की किरणें हैं, वे ही इसके पूर्वदिशावर्ती छिद्र हैं । ऋक् ही मधुकर हैं, ऋग्वेद ही पुष्प हैं, वे सोम आदि अमृत ही जल हैं ।2।

उन इन ऋक् ने ही इस ऋग्वेद का अभितप किया । उस अभितप्त ऋग्वेद से यश, तेज, इन्द्रिय, वीर्य और अन्नाद्यरूप रस उत्पन्न हुआ ।3।

वह यश आदि रस विशेषरूप से गया । उसने जाकर आदित्य के पूर्व भाग में आश्रय लिया । यह जो आदित्य का रोहित (लाल) रूप है वही यह रस है ।4।

द्वितीय खण्ड

तथा इसकी जो दक्षिण दिशा की किरणें हैं वे ही इसकी दक्षिणदिशावर्तिनी मधुनाड़ियाँ हैं, यजुःश्रुतियाँ ही मधुकर हैं, यजुर्वेद ही पुष्प हैं तथा वह सोमादिरूप अमृत ही आप है ।1।

उन इन यजुःश्रुतियों ने इस यजुर्वेद का अभिताप किया । उस अभितप्त यजुर्वेद से यश, तेज, इन्द्रिय, वीर्य और अन्नाद्यरूप रस उत्पन्न हुआ ।2।

वह रस विशेषरूप से गया । उसने जाकर आदित्य के दक्षिण भाग में आश्रय लिया । यह जो आदित्य का शुक्ल रूप है वही यह है ।3।

तृतीय खण्ड

तथा ये जो इसकी पश्चिम ओर की रश्मियाँ हैं वे ही इसकी पश्चिमीय मधुनाड़ियाँ हैं । सामश्रुतियाँ ही मधुकर हैं, सामवेद ही पुष्प है तथा वह अमृत ही आप है ।1।

उन इन सामश्रुतियों ने इस सामवेद का अभिताप किया । उस अभितप्त साम से यश, तेज, इन्द्रिय, वीर्य और अन्नाद्यरूप रस उत्पन्न हुआ ।2।

उस रस ने विशेषरूप से गमन किया । उसने जाकर आदित्य के पश्चिम भाग में आश्रय लिया । यह जो आदित्य का कृष्ण तेज है यह वही है ।3।

चतुर्थ खण्ड

तथा ये जो इसकी उत्तर दिशा की रश्मियाँ हैं वे ही इसकी उत्तर दिशा की मधुनाड़ियाँ हैं । अथर्वांगिरस श्रुतियाँ ही मधुकर हैं, इतिहास-पुराण ही पुष्प है तथा वह अमृत ही आप है ।1।

उन इन अथर्वांगिरस श्रुतियों ने इस इतिहास-पुराण का अभिताप किया । उस अभितप्त इतिहास-पुराण ही से यश, तेज, इन्द्रिय, वीर्य और अन्नाद्यरूप रस उत्पन्न हुआ ।2।

उस रस ने विशेषरूप से गमन किया । उसने जाकर आदित्य के उत्तर भाग में आश्रय लिया । यह जो आदित्य का अत्यन्त कृष्णरूप है यह वही है ।3।

पञ्चम खण्ड

तथा ये जो इसकी उर्ध्व रश्मियाँ हैं वे ही इसकी उर्ध्व मधुनाड़ियाँ हैं । गुह्य आदेश ही मधुकर हैं, ब्रह्म ही पुष्प है तथा वह अमृत ही आप है ।1।

उन इन गुह्य आदेशों ने ही इस ब्रह्म का अभिताप किया । उस अभितप्त ब्रह्म से ही यश, तेज, इन्द्रिय, वीर्य और अन्नाद्यरूप रस उत्पन्न हुआ ।2।

उस रस ने विशेषरूप से गमन किया । उसने जाकर आदित्य के उर्ध्व भाग में आश्रय लिया । यह जो आदित्य के मध्य में क्षुब्ध-सा होता है यह वही है ।3।

वे ये ही रसों के रस हैं, वेद ही रस हैं और ये उनके भी रस हैं । वे ही ये अमृतों के अमृत हैं- वेद ही अमृत हैं और ये उनके भी अमृत हैं ।4।

षष्ठ खण्ड

इनमें जो पहला अमृत है उससे वसुगण अग्निप्रधान होकर जीवन धारण करते हैं । देवगण न तो खाते हैं और न पीते ही हैं, वे इस अमृत को देखकर ही तृप्त हो जाते हैं ।1।

वे देवगण इस रूप को लक्षित करके ही उदासीन हो जाते हैं और फिर इसी से उत्साहित होते हैं ।2।

वह, जो इस प्रकार इस अमृत को जानता है वह वसुओं में ही कोई एक होकर अग्नि की ही प्रधानता से इसे देखकर तृप्त हो जाता है । वह इस रूप को लक्ष्य करके ही उदासीन हो जाता है और इस रूप से ही उत्साहित होता है ।3।

जब तक आदित्य पूर्व दिशा से उदित होता है और पश्चिम दिशा में अस्त होता है तब तक वह वसुओं के आधिपत्य और स्वाराज्य को प्राप्त होता है ।4।

सप्तम खण्ड

अब, जो दूसरा अमृत है, रुद्रगण इन्द्रप्रधान होकर उसके आश्रित जीवन धारण करते हैं । देवगण न तो खाते हैं और न पीते ही हैं, वे इस अमृत को देखकर ही तृप्त हो जाते हैं ।1।

वे इस रूप को लक्षित करके ही उदासीन हो जाते हैं और फिर इसी से उद्यमशील होते हैं ।2।

वह, जो इस प्रकार इस अमृत को जानता है वह रुद्रों में ही कोई एक होकर इन्द्र की ही प्रधानता से इसे देखकर तृप्त हो जाता है । वह इस रूप को लक्ष्य करके ही उदासीन हो जाता है और इस रूप से ही उद्यमशील होता है ।3।

जब तक आदित्य पूर्व दिशा से उदित होता है और पश्चिम दिशा में अस्त होता है, उससे दोगुने समय तक वह दक्षिण से उदित होता है और उत्तर में अस्त होता है । इतने समयपर्यन्त वह रुद्रों के ही आधिपत्य और स्वाराज्य को प्राप्त होता है ।4।

अष्टम खण्ड

तदनन्तर, जो तीसरा अमृत है, अदित्यगण वरुणप्रधान होकर उसके आश्रित जीवन धारण करते हैं । देवगण न तो खाते हैं और न पीते ही हैं, वे इस अमृत को देखकर ही तृप्त हो जाते हैं ।1।

वे इस रूप को लक्षित करके ही उदासीन हो जाते हैं और फिर इसी से उद्यमशील हो जाते हैं ।2।

वह, जो इस प्रकार इस अमृत को जानता है आदित्यों में ही कोई एक होकर वरुण की ही प्रधानता से इस अमृत देखकर तृप्त हो जाता है । वह इस रूप से ही उदासीन हो जाता है और इस रूप से ही उद्यमशील हो जाता है ।3।

वह आदित्य जितने समय तक दक्षिण से उदित होता है और उत्तर में अस्त होता है, उससे दोगुने समय तक पश्चिम से उदित होता है और पूर्व में अस्त होता रहता है । इतने समय तक वह आदित्यों के ही आधिपत्य और स्वाराज्य को प्राप्त होता है ।4।

नवम खण्ड

तथा जो चौथा अमृत है, मरुद्गण सोमप्रधान होकर उसके आश्रित जीवन धारण करते हैं । देवगण न तो खाते हैं और न पीते ही हैं, वे इस अमृत को देखकर ही तृप्त हो जाते हैं ।1।

वे इस रूप को लक्षित करके ही उदासीन हो जाते हैं और फिर इसी से उद्यमशील हो जाते हैं ।2।

वह, जो इस प्रकार इस अमृत को जानता है, मरुतों में ही कोई एक होकर सोम की ही प्रधानता से इस अमृत देखकर तृप्त हो जाता है । वह इस रूप से ही उदासीन हो जाता है और इस रूप से ही उद्यमशील हो जाता है ।3।

वह आदित्य जितने समय तक पश्चिम से उदित होता है और पूर्व में अस्त होता है, उससे दोगुने समय तक उत्तर से उदित होता है और दक्षिण में अस्त होता रहता है । इतने समय तक वह मरुद्गण के ही आधिपत्य और स्वाराज्य को प्राप्त होता है ।4।

दशम खण्ड

तथा जो पाँचवाँ अमृत है, साध्यगण ब्रह्मा की प्रधानता से उसके आश्रित जीवन धारण करते हैं । देवगण न तो खाते हैं और न पीते ही हैं, वे इस अमृत को देखकर ही तृप्त हो जाते हैं ।1।

वे इस रूप को लक्षित करके ही उदासीन हो जाते हैं और फिर इसी से उद्यमशील हो जाते हैं ।2।

वह, जो इस प्रकार इस अमृत को जानता है साध्यगण में ही कोई एक होकर ब्रह्मा की ही प्रधानता से इस अमृत देखकर तृप्त हो जाता है । वह इस रूप को लक्ष्य करके ही उदासीन होता है और इस रूप से ही उद्यमशील हो जाता है ।3।

वह आदित्य जितने समय तक उत्तर से उदित होता है और दक्षिण में अस्त होता है, उससे दोगुने समय तक ऊपर की ओर उदित होता है और नीचे की ओर अस्त होता है । इतने समय तक वह साध्यों के ही आधिपत्य और स्वाराज्य को प्राप्त होता है ।4।

एकादश खण्ड

फिर उसके पश्चात् वह उर्ध्वगत होकर उदित होने पर फिर न तो उदित होगा और न अस्त ही होगा, बल्कि अकेला ही मध्य में स्थित रहेगा । उसके विषय मे यह श्लोक है ।1।

वहाँ निश्चय ही ऐसा नहीं होता । वहाँ न कभी अस्त होता है और न उदय होता है । हे देवगण ! इस सत्य के द्वारा में ब्रह्म से विरुद्ध न होऊँ ।2।

जो इस प्रकार इस ब्रह्मोपनिषद को जनता है उसके लिए न तो उदित होता है और न अस्त होता है । उसके लिए सर्वदा दिन ही रहता है ।3।

वह यह मधुज्ञान ब्रह्मा ने विराट् प्रजापति से कहा था, प्रजापति ने मनु से कहा और मनु ने प्रजावर्ग के प्रति कहा । तथा अपने ज्येष्ठ पुत्र अरुणनन्दन उद्दालक को उसके पिता ने इस ब्रह्मविज्ञान का उपदेश दिया था ।4।

अतः इस ब्रह्मविज्ञान का पिता अपने ज्येष्ठ पुत्र को अथवा सुयोग्य शिष्य को उपदेश करे ।5।

किसी दूसरे को नहीं बतलावे, यद्यपि इस आचार्य को यह समुद्रपरिवेष्टित और धन से परिपूर्ण सारी पृथ्वी दे । उससे यही बढ़कर है, यही बढ़कर है ।6।

द्वादश खण्ड

गायत्री ही ये समस्त भूत हैं । जो कुछ भी ये स्थावर-जङ्गम प्राणी हैं वे गायत्री ही हैं । वाक् ही गायत्री है और वाक् ही ये सब प्राणी हैं, क्योंकि यही गायत्री उनका गान करती है और उनकी रक्षा करती है ।1।

जो वह गायत्री है वह यही है, जो कि यह पृथ्वी है, क्योंकि इसी में ये सब भूत स्थित हैं और इसी का वे कभी अतिक्रमण नहीं करते ।2।

जो भी यह पृथ्वी है वह यही है, जो कि इस पुरुष में शरीर है, क्योंकि इसी में ये प्राण स्थित हैं और इसी को वे कभी नहीं छोड़ते ।3।

जो भी इस पुरुष में शरीर है वह यही है, जो कि इस अन्तःपुरुष में हृदय है, क्योंकि इसी में ये प्राण प्रतिष्ठित हैं और इसी का अतिक्रमण नहीं करते ।4।

वह यह गायत्री चार चरणों वाली और छः प्रकार की है । यह मन्त्रों द्वारा भी प्रकाशित किया गया है ।5।

इतनी ही इसकी महिमा है, तथा पुरुष इससे भी उत्कृष्ट है । सम्पूर्ण भूत इसका एक पाद हैं और इसका त्रिपाद अमृत प्रकाशमय स्वात्मा में स्थित है ।6।

जो भी वह ब्रह्म है वह यही है, जो कि यह पुरुष से बाहर आकाश है, और जो भी यह पुरुष से बाहर आकाश है ।7।

वह यही है, जो कि यह पुरुष के भीतर आकाश है, और जो भी यह पुरुष के भीतर आकाश है ।8।

वह यही है जो हृदय के अन्तर्गत आकाश है । वह यह हृदयाकाश पूर्ण और कहीं भी प्रवृत्त न होने वाला है । जो पुरुष ऐसा जानता है वह पूर्ण और कहीं प्रवृत्त न होने वाली सम्पत्ति प्राप्त करता है ।9।

त्रयोदश खण्ड

उस इस प्रसिद्ध हृदय के पाँच देवसुषि हैं । इसका जो पूर्वदिशावर्ती सुषि है वह प्राण है, वह चक्षु है, वह आदित्य है, वही यह तेज और अन्नाद्य है-इस प्रकार उपासना करे । जो इस प्रकार जानता है वह तेजस्वी और अन्न का भोक्ता होता है ।1।

तथा इसका जो दक्षिण छिद्र है वह व्यान है, वह श्रोत्र है, वह चन्द्रमा है और वही यह श्री एवं यश है- इस प्रकार उसकी उपासना करे । जो ऐसा जानता है वह श्रीमान् और यशस्वी होता है ।2।

तथा इसका जो पश्चिम छिद्र है वह अपान है, वह वाक् है, वह अग्नि है और वही वह ब्रह्मतेज एवं अन्नाद्य है- इस प्रकार उसकी उपासना करे । जो ऐसा जानता है वह ब्रह्मतेजस्वी और अन्न का भोक्ता होता है ।3।

तथा इसका जो उत्तरीय छिद्र है वह समान है, वह मन है, वह मेघ है और वही यह कीर्ति एवं व्युष्टि है- इस प्रकार उसकी उपासना करे । जो ऐसा जानता है वह कीर्तिमान और व्युष्टिमान होता है ।4।

तथा इसका जो उर्ध्व छिद्र है वह उदान है, वह वायु है, वह आकाश है और वही यह ओज एवं महः है- इस प्रकार उसकी उपासना करे । जो ऐसा जानता है वह ओजस्वी और महास्वान् होता है ।5।

वे पाँच ब्रह्म पुरुष स्वर्गलोक के द्वारपाल हैं । वह जो कोई भी स्वर्गलोक के द्वारपाल इन पाँच ब्रह्मपुरुषों को जानता है उसके कुल में वीर उत्पन्न होता है । जो इस प्रकार स्वर्गलोक के द्वारपाल इन पाँच पुरुषों को जानता है वह स्वर्गलोक को प्राप्त होता है ।6।

तथा इस द्युलोक से परे जो परमज्योति विश्व के पृष्ठ पर यानी सबके ऊपर, जिनसे उत्तम कोई दूसरा लोक नहीं है ऐसे उत्तम लोक में प्रकाशित हो रही है वह निश्चय यही है जो कि पुरुष के भीतर ज्योति है ।7।

उसका यही दर्शनोपाय है जबकि मनुष्य इस शरीर में स्पर्श द्वारा उष्णता को जानता है तथा यही उसका श्रवणोपाय है जबकि यह कानों को मूँदकर रथ के घोष, बैल के डकारने और जलते हुए अग्नि के शब्द के समान श्रवण करता है, वह यह ज्योति दृष्ट और श्रुत है- इस प्रकार इसकी उपासना करे । जो उपासक ऐसा जानता है वह दर्शनीय और विश्रुत होता है ।8।

चतुर्दश खण्ड

यह सारा जगत निश्चय ब्रह्म ही है, यह उसी से उत्पन्न होने वाला, उसी में लीन होने वाला और उसी में चेष्टा करने वाला है- इस प्रकार शान्त होकर उपासना करे, क्योंकि पुरुष निश्चय ही क्रतुमय- निश्चयात्मक है, इस लोक में पुरुष जैसे निश्चय वाला होता है वैसा ही यहाँ से मरकर जाने पर होता है । अतः उस पुरुष को निश्चय करना चाहिए ।1।

वह ब्रह्म मनोमय, प्राणशरीर, प्रकाशस्वरूप, सत्यसंकल्प, आकाशशरीर, सर्वकर्मा, सर्वकाम, सर्वगन्ध, सर्वरस, इस सम्पूर्ण जगत को सब ओर से व्याप्त करने वाला, वाग्-रहित और सम्भ्रमशून्य है ।2।

हृदयकमल के भीतर यह मेरा आत्मा धान से, यव से, सरसों से, श्यामाक से अथवा श्यामाकतण्डुल से भी सूक्ष्म है तथा हृदयकमल के भीतर यह मेरा आत्मा पृथ्वी, अन्तरिक्ष, द्युलोक अथवा इन सब लोकों की अपेक्षा भी बड़ा है ।3।

जो सर्वकर्मा, सर्वकाम, सर्वगन्ध, सर्वरस, इस सबको सब ओर से व्याप्त करने वाला, वाक्-रहित और सम्भ्रमशून्य है वह मेरा आत्मा हृदयकमल के मध्य में स्थित है । यही ब्रह्म है, इस शरीर से मरकर जाने पर मैं उसी को प्राप्त होऊँगा । ऐसा जिसका निश्चय है और जिसे इस विषय मे कोई संदेह भी नहीं है- ऐसा शाण्डिल्य ने कहा है, शाण्डिल्य ने कहा है ।4।

पञ्चदश खण्ड

अन्तरिक्ष जिसका उदर है वह कोश प्रथ्वीरूप मूलवाला है । वह जीर्ण नहीं होता । दिशाएँ इसके कोण हैं, आकाश ऊपर का छिद्र है, वह यह कोश वसुधान है । उसी में यह सारा विश्व स्थित है ।1।

उस कोश की पूर्व दिशा ‘जुहू’ नाम वाली है, दक्षिण दिशा ‘सहमाना’ नाम की है, पश्चिम दिशा ‘राज्ञी’ नाम वाली है तथा उत्तर दिशा ‘सुभूता’ नाम की है । उन दिशाओं का वायु वत्स है । वह, जो इस प्रकार इस वायु को दिशाओं के वत्सरूप से जानता है, पुत्र के निमत्त से रोदन नहीं करता । वह मैं इस प्रकार इस वायु को दिशाओं के वत्सरूप से जनता हूँ, अतः मैं पुत्र के कारण न रोऊँ ।2।

मैं अमुक-अमुक-अमुक के सहित अविनाशी कोश की शरण हूँ, अमुक-अमुक-अमुक के सहित प्राण की शरण हूँ, अमुक-अमुक-अमुक के सहित भूः की शरण हूँ, अमुक-अमुक-अमुक के सहित भुवः की शरण हूँ, अमुक-अमुक-अमुक के सहित स्वः की शरण हूँ ।3।

उस, मैंने जो कहा कि ‘मैं प्राण की शरण हूँ’ सो यह जो कुछ सम्पूर्ण भूत समुदाय है प्राण ही है, उसी की मैं शरण हूँ ।4।

तथा मैंने जो कहा कि ‘मैं भूः की शरण हूँ’ इससे मैंने यही कहा कि ‘मैं पृथ्वी की शरण हूँ, अन्तरिक्ष की शरण हूँ और द्युलोक की शरण हूँ’ ।5।

फिर मैंने जो कहा कि ‘मैं भुवः की शरण हूँ’ इससे मैंने यही कहा कि ‘मैं अग्नि की शरण हूँ, वायु की शरण हूँ और आदित्य की शरण हूँ’ ।6।

तथा मैंने जो कहा कि ‘मैं स्वः की शरण हूँ’ इससे मैंने यही कहा कि ‘मैं ऋग्वेद की शरण हूँ, यजुर्वेद की शरण हूँ और सामवेद की शरण हूँ’ यही मैंने कहा है, यही मैंने कहा है ।7।

षोडश खण्ड

निश्चय पुरुष ही यज्ञ है । उसके जो चौबीस वर्ष हैं वे प्रातःसवन हैं । गायत्री चौबीस अक्षरों वाली है, और प्रातःसवन गायत्री छन्द से सम्बद्ध है । उस इस प्रातःसवन के वसुगण अनुगत हैं । प्राण ही वसु हैं, क्योंकि ये ही इस सबको बसाए हुए हैं ।1।

यदि इस प्रातःसवनसम्पन्न आयु में उसे कोई रोग आदि कष्ट पहुँचाये तो उसे इस प्रकार कहना चाहिए, ‘हे प्राणरूप वसुगण ! मेरे इस प्रातःसवन को माध्यन्दिनसवन के साथ एकरूप कर दो, यज्ञस्वरूप मैं आप प्राणरूप वसुओं के मध्य में विलुप्त न होऊँ’ तब उस कष्ट से मुक्त होकर वह नीरोग हो जाता है ।2।

इसके पश्चात् जो चवालीस वर्ष है, माध्यन्दिनसवन हैं । त्रिष्टुप छन्द से सम्बद्ध है । उस माध्यन्दिनसवन के रुद्रगण अनुगत हैं । प्राण ही रुद्रगण हैं, क्योंकि ये ही इस सम्पूर्ण प्राणीसमुदाय को रुलाते हैं ।3।

यदि उस आयु में कोई संतप्त करे तो उसे इस प्रकार कहना चाहिए, ‘हे प्राणरूप रुद्रगण ! मेरे इस मध्याह्नकालिक सवन को तृतीय सवन के साथ एकीभूत कर दो । यज्ञस्वरूप मैं प्राणरूप रुद्रों के मध्य में कभी विच्छिन्न न होऊँ’ । ऐसा कहने से वह उस कष्ट से छूट जाता है और नीरोग हो जाता है ।4।

इसके पश्चात् जो अड़तालीस वर्ष हैं, वे तृतीय सवन हैं । जगती छन्द अड़तालीस अक्षरों वाला है तथा तृतीय सवन जगती छन्द से सम्बन्ध रखता है । इस सवन के अदित्यगण अनुगत हैं । प्राण ही आदित्य हैं, क्योंकि वे ही सम्पूर्ण शब्दादि विषयसमूह को ग्रहण करते हैं ।5।

उसको यदि इस आयु में कोई सन्तप्त करे तो उसे इस प्रकार कहना चाहिए, ‘हे प्राणरूप अदित्यगण ! मेरे इस तृतीय सवन को आयु के साथ एकीभूत कर दो । यज्ञस्वरूप मैं प्राणरूप आदित्यों के मध्य में विनष्ट न होऊँ’ । ऐसा कहने से वह उस कष्ट से मुक्त होकर नीरोग हो जाता है ।6।

इस प्रसिद्ध विद्या को जानने वाले ऐतरेय महिदास ने कहा था- ‘तो मुझे क्यों कष्ट देता है, जो मैं कि इस रोग द्वारा मृत्यु को प्राप्त नहीं हो सकता’ । वह एक सौ सोलह वर्ष जीवित रहा था, जो इस प्रकार जानता है वह एक सौ सोलह वर्ष जीवित रहता है ।7।

सप्तदश खण्ड

वह जो भोजन करने की इच्छा करता है, जो पीने की इच्छा करता है और जो रममाण नहीं होता- वही इसकी दीक्षा है ।1।

फिर वह जो खाता है, जो पीता है और जो रति का अनुभव करता है- वह उपसदों की सदृशता को प्राप्त होता है ।2।

तथा वह जो हँसता है, जो भक्षण करता है और जो मैथुन करता है- वे सब स्तुतशस्त्र की ही समानता को प्राप्त होते हैं ।3।

तथा जो तप, दान, आर्जव, अहिंसा और सत्यवचन हैं, वे ही इसकी दक्षिणा हैं ।4।

इसीसे कहते हैं कि ‘प्रसूता होगी’ अथवा ‘प्रसूता हुई’ वह इसका पुनर्जन्म ही है तथा मरण ही अवभृथस्नान है ।5।

घोर अंगिरस ऋषि ने देवकीपुत्र कृष्ण को यह यज्ञदर्शन सुनाकर, जिससे कि वह अन्य विद्याओं के विषय में तृष्णाहीन हो गया था, कहा-’उसे अन्तकाल में इन तीन मन्त्रों का जाप करना चाहिए- तू अक्षित है,- अच्युत है,- और अति सूक्ष्म प्राण है’ । तथा इस विषय में दो ऋचाएँ हैं ।6।

‘पुरातन कारण का प्रकाश देखते हैं, यह सर्वत्र व्याप्त प्रकाश, जो परब्रह्म में स्थित परमतेज देदीप्यमान है, उसका है’ । ‘अज्ञानरूप अन्धकार से अतीत उत्कृष्ट ज्योति को देखते हुए तथा आत्मीय उत्कृष्ट तेज को देखते हुए हम सम्पूर्ण देवों में प्रकाशमान सर्वोत्तम ज्योतिःस्वरूप सूर्य को प्राप्त हुए’ ।7।

अष्टादश खण्ड

‘मन ब्रह्म है’ इस प्रकार उपासना करे । यह अध्यात्मदृष्टि है तथा ‘आकाश ब्रह्म है’ यह अधिदैवतदृष्टि है । इस प्रकार अध्यात्म और अधिदैवत दोनों का उपदेश किया गया ।1।

वह यह ब्रह्म चार पादों वाला है । वाक् पाद है, प्राण पाद है, चक्षु पाद है और श्रोत्र पाद है । यह अध्यात्म है । अब अधिदैवत कहते हैं- अग्नि पाद है, वायु पाद है, आदित्य पाद है और दिशाएँ पाद हैं । इस प्रकार अध्यात्म और अधिदैवत दोनों का उपदेश किया गया ।2।

वाक् ही ब्रह्म का चौथा पाद है, वह अग्निरूप ज्योति से दीप्त होता है और तपता है । जो ऐसा जानता है वह कीर्ति, यश और ब्रह्मतेज के कारण देदीप्यमान होता और तपता है ।3।

प्राण ही ब्रह्म का चौथा पाद है, वह वायुरूप ज्योति से दीप्त होता है और तपता है । जो इस प्रकार जानता है वह कीर्ति, यश और ब्रह्मतेज के कारण देदीप्यमान होता और तपता है ।4।

चक्षु ही ब्रह्म का चौथा पाद है, वह अदित्यरूप ज्योति से दीप्त होता है और तपता है । जो इस प्रकार जानता है वह कीर्ति, यश और ब्रह्मतेज के कारण देदीप्यमान होता और तपता है ।5।

श्रोत्र ही ब्रह्म का चौथा पाद है, वह दिशारूप ज्योति से दीप्त होता है और तपता है । जो इस प्रकार जानता है वह कीर्ति, यश और ब्रह्मतेज के कारण देदीप्यमान होता और तपता है ।6।

एकोनविंश खण्ड

आदित्य ब्रह्म है- ऐसा उपदेश है, उसी की व्याख्या की जाती है । पहले यह असत् ही था । वह सत् हुआ । वह अंकुरित हुआ । वह एक अण्डे में परिणत हो गया । वह एक वर्ष पर्यन्त उसी प्रकार पड़ा रहा । फिर वह फूटा, वे दोनों अण्डे के खण्ड रजत और सुवर्णरूप हो गए ।1।

उनमें जो खण्ड रजत हुआ वह पृथ्वी है और जो सुवर्ण हुआ वह द्युलोक है । उस अण्डे का जो जरायु था वे पर्वत हैं, जो उल्ब था वह मेघों के सहित कुहरा है, जो धमनियाँ थीं वे नदियाँ हैं तथा जो वस्तिगत जल था वह समुद्र है ।2।

फिर उससे जो उत्पन्न हुआ वह आदित्य है । उसके उत्पन्न होते ही बड़े ज़ोरों का शब्द हुआ तथा उसी से सम्पूर्ण प्राणी और सारे भोग भी उत्पन्न हुए हैं । इसीसे उसका उदय और अस्त होने पर दीर्घ शब्दयुक्त घोष उत्पन्न होते है तथा सम्पूर्ण प्राणी और सारे भोग भी उत्पन्न होते हैं ।3।

वह जो इस प्रकार जानने वाला होकर आदित्य की ‘यह ब्रह्म है’ इस प्रकार उपासना करता है, उसके समीप शीघ्र ही सुन्दर घोष आते हैं और उसे सुख देते हैं, सुख देते हैं ।4।

चतुर्थ प्रपाठक[संपादित करें]

प्रथम खण्ड

जानश्रुत की संतान-परम्परा में उत्पन्न एवं उसके पुत्र का पौत्र श्रद्धापूर्वक देनेवाला एवं बहुत दान करनेवाला था और उसके यहाँ बहुत सा अन्न पकाया जाता था । उसने इस आशय से कि लोग सब जगह मेरा ही अन्न खाएँगे, सर्वत्र निवासस्थान बनवा दिए थे ।1।

उसी समय रात्रि में उधर से हंस उड़कर गए । उनमें से एक हंस ने दूसरे हंस से कहा- ‘अरे ओ भल्लाक्ष ! ओ भल्लाक्ष ! देख, जानश्रुति पौत्रायण का तेज द्युलोक के समान फैला हुआ है, तू उसका स्पर्श न कर, वह तुझे भस्म न कर डाले’ ।2।

उससे दूसरे हंस ने कहा- ‘अरे ! तू किस महत्व से रहने वाले इस राजा के प्रति सम्मानित वचन कह रहा है ? क्या तू इसे गाड़ी वाले रैक्व के समान बतलाता है ?’ इस पर उसने पूछा- ‘यह जो गाड़ीवाला रैक्व है, कैसा है ?’ ।3।

जिस प्रकार कृतनामक पासे के द्वारा जीतने वाले पुरुष के अधीन उससे निम्न श्रेणी के सारे पासे हो जाते हैं, उसी प्रकार प्रजा जो कुछ सत्कर्म करती है वह सब उस रैक्व को प्राप्त हो जाता है । जो बात वह रैक्व जानता है उसे जो कोई भी जानता है उसके विषय में मैंने भी यह कह दिया ।4।

इस बात को जानश्रुति पौत्रायण ने सुन लिया । सुबह उठते ही उसने सेवक से कहा- ‘अरे भाई ! तू गाड़ीवाले रैक्व के समान मेरी स्तुति क्या करता है’ । इस पर सेवक ने पूछा- ‘यह जो गाड़ीवाला रैक्व है, कैसा है ?’ ।5।

राजा ने कहा- ‘जिस प्रकार कृतनामक पासे के द्वारा जीतने वाले पुरुष के अधीन उससे निम्न श्रेणी के सारे पासे हो जाते हैं, उसी प्रकार प्रजा जो कुछ सत्कर्म करती है वह सब उस रैक्व को प्राप्त हो जाता है आठ जो बात वह रैक्व जानता है उसे जो कोई भी जानता है उसके विषय में मैंने भी यह कह दिया ।6।

वह सेवक उसकी खोज करने के अनन्तर ‘मैं उसे नहीं पा सका’ ऐसा कहता हुआ लौट आया । तब उससे राजा ने कहा- ‘अरे ! जहाँ ब्राह्मण की खोज की जाती है वहाँ उसके पास जा’ ।7।

उसने एक छकड़े के नीचे खाज खुजलाते हुए रैक्व को देखा । वह उसके पास बैठ गया और बोला- ‘भगवन् ! क्या आप ही गाड़ी वाले रैक्व हैं ?’ तब रैक्व ने स्वीकार किया- ‘अरे ! हाँ, मैं ही हूँ’ । तब वह सेवक यह समझकर की मैंने उसे पहचान लिया है, लौट आया ।8।

द्वितीय खण्ड

तब वह जानश्रुति पौत्रायण छः सौ गौएँ, एक हार और एक खच्चरियों से जुता हुआ रथ लेकर उसके पास आया और बोला ।1।

‘हे रैक्व ! ये छः सौ गौएँ, यह हार और यह खच्चरियों से जुता हुआ रथ में आपके लिए लाया हूँ । हे भगवन् ! आप मुझे उस देवता का उपदेश दीजिए, जिसकी आप उपासना करते हैं ।2।

उस राजा से दूसरे रैक्व ने कहा- ‘ऐ शूद्र ! गौओं सहित यह हारयुक्त रथ तेरे पास ही रहे’ । तब वह जानश्रुति पौत्रायण एक सहस्त्र गौएँ, एक हार और खच्चरियों से जुता हुआ रथ और अपनी कन्या- इतना धन लेकर फिर उसके पास आया ।3।

और उस रैक्व से कहा- ‘हे रैक्व ! ये एक सहस्त्र गौएँ, यह हार, यह खच्चरियों से जुता हुआ रथ, यह पत्नी और यह ग्राम जिसमें की आप हैं लीजिये और हे भगवन् ! मुझे अवश्य अनुशासित कीजिये’ ।4।

तब उस राजकन्या के मुख को ही विद्याग्रहण का द्वार समझते हुए रैक्व ने कहा- ‘अरे शूद्र ! तू ये गौएँ आदि लाया है सो ठीक है, तू इस विद्याग्रहण के द्वार से ही मुझसे भाषण कराता है ‘। इस प्रकार जहाँ वह रैक्व रहता था वे रैक्वपर्ण नामक ग्राम महावृषदेश में प्रसिद्ध हैं । तब उसने उससे कहा ।5।

तृतीय खण्ड

वायु ही संवर्ग है । जब अग्नि बुझता है तो वायु में ही लीन होता है, जब सूर्य अस्त होता है तो वायु में ही लीन होता है और जब चन्द्रमा अस्त होता है तो वायु में ही लीन हो जाता है ।1।

जिस समय जल सूखता है वह वायु में ही लीन हो जाता है । वायु ही इन सब जलों को अपने में लीन कर लेता है । यह अधिदैवत दृष्टि है ।2।

अब अध्यात्मदर्शन कहा जाता है- प्राण ही संवर्ग है । जिस समय वह पुरुष सोता है, प्राण को ही वाक् इन्द्रिय प्राप्त हो जाती है, प्राण को ही चक्षु, प्राण को ही श्रोत्र और प्राण को ही मन प्राप्त हो जाता है, प्राण ही इन सबको अपने में लीन कर लेता है ।3।

वे ये दो ही संवर्ग हैं- देवताओं में वायु और इन्द्रियों में प्राण ।4।

एक बार कपिगोत्रज शौनक और कक्षसेन के पुत्र अभिप्रतारी से, जब कि उन्हें भोजन परोसा जा रहा था, एक ब्रह्मचारी ने भिक्षा माँगी, किन्तु उन्होंने उसे भिक्षा न दी ।5।

उसने कहा- भुवनों के रक्षक उस एक देव प्रजापति ने चार महात्माओं को ग्रस लिया है । हे कापेय ! हे अभिप्रतारिन् ! मनुष्य अनेक प्रकार से निवास करते हुए उस एक देव को नहीं देखते, तथा जिसके लिए यह अन्न है उसे ही नहीं दिया गया ।6।

उस वाक्य का कपिगोत्रोत्पन्न शौनक ने मनन किया और फिर उस ब्रह्मचारी के पास आकर कहा- ‘जो देवताओं का आत्मा, प्रजाओं का उत्पत्तिकर्ता, हिरण्यदंष्ट्र, भक्षणशील और मेधावी है, जिसकी बड़ी महिमा कही गयी है, जो स्वयं दूसरों से न खाया जानेवाला और जो वस्तुतः अन्न नहीं है उनको भी भक्षण कर जाता है, हे ब्रह्मचारिन् ! उसी की हम उपासना करते हैं । इस कहकर उसने सेवकों को आज्ञा दी कि इस ब्रह्मचारी को भिक्षा दो ।7।

तब उन्होंने उसे भिक्षा दे दी । वे ये (अग्न्यादि और वायु) पाँच (वागादि) से अन्य हैं तथा इनसे (वागादि और प्राण) ये पाँच अन्य हैं, इस प्रकार ये सब दस होते हैं । ये दस कृत हैं । अतः सम्पूर्ण दिशाओं में ये अन्न ही दस कृत हैं । यह विराट् ही अन्नादि है । उसके द्वारा यह सब देखा जाता है । जो ऐसा जानता है उसके द्वारा यह सब देख लिया जाता है और वह अन्न भक्षण करने वाला होता है ।8।

चतुर्थ खण्ड

जबाला के पुत्र सत्यकाम ने अपनी माता जबाला को सम्बोधित करके निवेदन किया- ‘हे पूज्ये ! मैं ब्रह्मचर्य पूर्वक निवास करना चाहता हूँ, मैं किस गोत्र वाला हूँ ?’ ।1।

उसने उससे कहा- ‘हे तात ! तू जिस गोत्र वाला है उसे मैं नहीं जानती । पहले मैं पति के घर आये हुए बहुत से अतिथियों की सेवा टहल करने वाली परिचारिका थी । उन्हीं दिनों जब मैंने तुझे प्राप्त किया । अतः मैं यह नहीं जानती कि तू किस गोत्र वाला है ? मैं तो जबाला नाम वाली हूँ और तू सत्यकाम नाम वाला है । अतः तू अपने को ‘सत्यकाम जाबाल’ बतला देना’ ।2।

उसने हारिद्रुमत गौतम के पास जाकर कहा- ‘मैं पूज्य श्रीमान् के यहाँ ब्रह्मचर्यपूर्वक वास करूँगा, इसी से आपकी सन्निधि में आया हूँ’ ।3।

उससे गौतम ने कहा- ‘हे सौम्य ! तू किस गोत्र वाला है?’ उसने कहा- ‘भगवन् ! मैं जिस गोत्र वाला हूँ उसे नहीं जानता । मैंने माता से पूछा था । उसने मुझे यह उत्तर दिया कि ‘पहले मैं पति के घर आये हुए बहुत से अतिथियों की सेवा टहल करने वाली परिचारिका थी । उन्हीं दिनों जब मैंने तुझे प्राप्त किया । अतः मैं यह नहीं जानती कि तू किस गोत्र वाला है ? मैं तो जबाला नाम वाली हूँ और तू सत्यकाम नाम वाला है ।’ अतः हे गुरो ! मैं सत्यकाम जाबाल हूँ’ ।4।

उससे गौतम ने कहा- ‘इतना स्पष्ट भाषण कोई ब्राह्मणेतर नहीं कर सकता । अतः हे सौम्य ! तू समिधा ले आ, मैं तेरा उपनयन कर दूँगा, क्योंकि तूने सत्य का त्याग नहीं किया है ।’ तब उसका उपनयन कर चार सौ कृश और दुर्बल गौएँ निकालकर उससे कहा- ‘हे सौम्य ! तू इन गौओं के पीछे जा ।’ उन्हें ले जाते समय उसने कहा- ‘इनकी एक सहस्त्र गायें हुए बिना मैं नहीं लौटूँगा’ । जब तक कि वे एक सहस्त्र हुईं वह बहुत वर्षों तक वन में ही रहा ।5।

पञ्चम खण्ड

तब उससे साँड ने ‘सत्यकाम !’ ऐसा कहा । उसने ‘भगवन् !’ ऐसा उत्तर दिया । ‘हे सौम्य ! हम एक सहस्त्र हो गए हैं, अब तू हमें आचार्यकुल में पहुँचा दे’ ।1।

‘मैं तुझे ब्रह्म का एक पाद बतलाऊँ ?’ तब सत्यकाम ने कहा- ‘भगवन् मुझे बतलावें’ । साँड उससे बोला- ‘पूर्व दिक्-कला, पश्चिम दिक्-कला, दक्षिण दिक्-कला और उत्तर दिक्-कला, हे सौम्य ! यह ब्रह्म का ‘प्रकाशवान’ नामक चार कलाओं वाला पाद है’ ।2।

वह, जो इस प्रकार जानने वाला पुरुष ब्रह्म के इस चतुष्कल पाद की ‘प्रकाशवान’ इस गुण से युक्त उपासना करता है, इस लोक में प्रकाशवान होता है और प्रकाशवान लोकों को जीत लेता है, जो कि इसे इस प्रकार जानने वाला पुरुष ब्रह्म के इस चतुष्कल पाद की ‘प्रकाशवान’ इस गुण से युक्त उपासना करता है ।3।

षष्ठ खण्ड

‘अग्नि तुझे दूसरा पाद बतलावेगा’ । दूसरे दिन उसने गौओं को हाँक दिया । वे सायंकाल में जहाँ एकत्रित हुईं, वहीं अग्नि प्रज्वलित कर गौओं को रोक समिधाधान कर अग्नि के पश्चिम पूर्वाभिमुख होकर बैठ गया ।1।

उससे अग्नि ने ‘सत्यकाम !’ ऐसा कहा । तब उसने ‘भगवन् !’ ऐसा प्रत्युत्तर दिया ।2।

‘मैं तुझे ब्रह्म का एक पाद बतलाऊँ ?’ तब सत्यकाम ने कहा- ‘भगवन् मुझे बतलावें’ । अग्नि उससे बोला- ‘पृथ्वी कला है, अन्तरिक्ष कला है, द्युलोक कला है और समुद्र कला है । हे सौम्य ! यह ब्रह्म का ‘अनन्तवान’ नामक चार कलाओं वाला पाद है’ ।3।

वह, जो इस प्रकार जानने वाला पुरुष ब्रह्म के इस चतुष्कल पाद की ‘अनन्तवान’ इस गुण से युक्त उपासना करता है, इस लोक में अनन्तवान होता है और अनन्तवान लोकों को जीत लेता है, जो कि इसे इस प्रकार जानने वाला पुरुष ब्रह्म के इस चतुष्कल पाद की ‘अनन्तवान’ इस गुण से युक्त उपासना करता है ।4।

सप्तम खण्ड

‘हंस तुझे तीसरा पाद बतलावेगा’ । दूसरे दिन उसने गौओं को हाँक दिया । वे सायंकाल में जहाँ एकत्रित हुईं, वहीं अग्नि प्रज्वलित कर गौओं को रोक समिधाधान कर अग्नि के पश्चिम पूर्वाभिमुख होकर बैठ गया ।1।

तब हंस ने उसके समीप उतरकर कहा- ‘सत्यकाम !’ तब उसने ‘भगवन् !’ ऐसा प्रत्युत्तर दिया ।2।

‘मैं तुझे ब्रह्म का एक पाद बतलाऊँ ?’ तब सत्यकाम ने कहा- ‘भगवन् मुझे बतलावें’ । हंस उससे बोला- ‘अग्नि कला है, सूर्य कला है, चन्द्रमा कला है और विद्युत कला है । हे सौम्य ! यह ब्रह्म का ‘ज्योतिष्मान’ नामक चार कलाओं वाला पाद है’ ।3।

जो इस प्रकार जानने वाला पुरुष ब्रह्म के इस चतुष्कल पाद की ‘ज्योतिष्मान’ इस गुण से युक्त उपासना करता है, इस लोक में ज्योतिष्मान होता है और ज्योतिष्मान लोकों को जीत लेता है, जो कि इसे इस प्रकार जानने वाला पुरुष ब्रह्म के इस चतुष्कल पाद की ‘ज्योतिष्मान’ इस गुण से युक्त उपासना करता है ।4।

अष्टम खण्ड

‘मदगु तुझे चौथा पाद बतलावेगा’ । दूसरे दिन उसने गौओं को हाँक दिया । वे सायंकाल में जहाँ एकत्रित हुईं, वहीं अग्नि प्रज्वलित कर गौओं को रोक समिधाधान कर अग्नि के पीछे पूर्वाभिमुख होकर बैठ गया ।1।

मदगु ने उसके समीप उतरकर कहा- ‘सत्यकाम !’ तब उसने ‘भगवन् !’ ऐसा प्रत्युत्तर दिया ।2।

‘हे सौम्य ! मैं तुझे ब्रह्म का पाद बतलाऊँ ?’ तब सत्यकाम ने कहा- ‘भगवन् मुझे बतलावें’ । मदगु उससे बोला- ‘प्राण कला है, चक्षु कला है, श्रोत्र कला है और मन कला है । हे सौम्य ! यह ब्रह्म का ‘आयतनवान’ नामक चार कलाओं वाला पाद है’ ।3।

वह, जो इस प्रकार जानने वाला पुरुष ब्रह्म के इस चतुष्कल पाद की ‘आयतनवान’ इस गुण से युक्त उपासना करता है, इस लोक में आयतनवान होता है और आयतनवान लोकों को जीत लेता है, जो कि इसे इस प्रकार जानने वाला पुरुष ब्रह्म के इस चतुष्कल पाद की ‘आयतनवान’ इस गुण से युक्त उपासना करता है ।4।

नवम खण्ड

आचार्यकुल में पहुँचा । उससे आचार्य ने कहा-’सत्यकाम !’ तब उसने उत्तर दिया- ‘भगवन् !’ ।1।

‘हे सौम्य ! तू ब्रह्मवेत्ता-सा भासित हो रहा है, तुझे किसने उपदेश दिया है ?’ सत्यकाम ने उत्तर दिया ‘ मनुष्यों से भिन्न ने मुझे उपदेश दिया है, अब मेरी इच्छा के अनुसार आप पूज्यपाद ही मुझे विद्या का उपदेश करें’ ।2।

‘मैंने श्रीमान् – जैसे ऋषियों से सुना है कि आचार्य से जानी गयी विद्या ही अतिशय साधुता को प्राप्त होती है’ । तब आचार्य ने उसे उसी विद्या का उपदेश दिया । उसमें कुछ भी न्यून नहीं हुआ, न्यून नहीं हुआ ।3।

दशम खण्ड

उपकोसल नाम से प्रसिद्ध कमल का पुत्र सत्यकाम जाबाल के यहाँ ब्रह्मचर्य ग्रहण करके रहता था । उसने बारह वर्ष तक उस आचार्य के अग्नियों की सेवा की, किन्तु आचार्य ने अन्य ब्रह्मचारियों का तो समावर्तन संस्कार कर दिया, केवल इसी का नहीं किया ।1।

आचार्य से उनकी भार्या ने कहा- ‘यह ब्रह्मचारी खूब तपस्या कर रहा है, इसने अच्छी तरह अग्नियों की सेवा की है । अग्नियाँ आपकी निन्दा न करें, अतः इसे विद्या का उपदेश कर दीजिए ।’ किन्तु वह उसे उपदेश किये बिना ही बाहर चला गया ।2।

उस उपकोसल ने मानसिक खेद से अनशन करने का निश्चय किया । उससे आचार्य पत्नी ने कहा- ‘अरे ब्रह्मचारिन् ! तू भोजन कर, क्यों नहीं भोजन करता ?’ वह बोला- ‘इस मनुष्य में बहुत सी कामनाएँ रहती हैं जो वस्तु के स्वरूप का उल्लंघन करके अनेक विषयों की ओर जाने वाली हैं । मैं उन्हीं नानात्यय मानसिक चिन्ताओं से परिपूर्ण हूँ, इसलिए भोजन नहीं करूँगा’ ।3।

फिर अग्नियों ने एकत्र होकर कहा- ‘यह ब्रह्मचारी तपस्या कर चुका है, इसने हमारी अच्छी तरह सेवा की है । अच्छा, हम इसे उपदेश करें’ ऐसा निश्चय कर वे उससे बोले- ‘प्राण ब्रह्म है, ‘क’ ब्रह्म है ‘ख’ ब्रह्म है’ ।4।

वह बोला- ‘यह तो मैं जानता हूँ कि प्राण ब्रह्म है, किन्तु ‘क’ और ‘ख’ को नहीं जानता ।’ तब वे बोले- ‘निश्चय जो ‘क’ है वही ‘ख’ है और जो ‘ख’ है वही ‘क’ है ।’ इस प्रकार उन्होंने उसे प्राण और उसके आश्रयभूत आकाश का उपदेश किया ।5।

एकादश खण्ड

फिर उसे गार्हपत्याग्नि ने शिक्षा दी- ‘पृथ्वी, अग्नि, अन्न और आदित्य । आदित्य के अन्तर्गत जो यह पुरुष दिखायी देता है वह मैं हूँ, वही मैं हूँ’ ।1।

वह पुरुष, जो इसे इस प्रकार जानकर इसकी उपासना करता है, पापकर्मों को नष्ट कर देता है, अग्निलोकवान होता है, पूर्ण आयु को प्राप्त होता है, उज्ज्वल जीवन व्यतीत करता है तथा उसके उत्तरवर्ती पुरुष क्षीण नहीं होते । तथा उसका हम इस लोक और परलोक में भी पालन करते हैं जो कि इस प्रकार जानकर इसकी उपासना करता है ।2।

द्वादश खण्ड

फिर उसे अन्वाहार्यपचन ने शिक्षा दी- ‘जल, दिशा, नक्षत्र और चन्द्रमा । चन्द्रमा के अन्तर्गत जो यह पुरुष दिखायी देता है वह मैं हूँ, वही मैं हूँ’ ।1।

वह पुरुष, जो इसे इस प्रकार जानकर इसकी उपासना करता है, पापकर्मों को नष्ट कर देता है, लोकवान होता है, पूर्ण आयु को प्राप्त होता है, उज्ज्वल जीवन व्यतीत करता है तथा उसके उत्तरवर्ती पुरुष क्षीण नहीं होते । तथा उसका हम इस लोक और परलोक में भी पालन करते हैं जो कि इस प्रकार जानकर इसकी उपासना करता है ।2।

त्रयोदश खण्ड

फिर उसे आहवनीयाग्नि ने शिक्षा दी- ‘प्राण, आकाश, द्युलोक और विद्युत । विद्युत के अन्तर्गत जो यह पुरुष दिखायी देता है वह मैं हूँ, वही मैं हूँ’ ।1।

वह पुरुष, जो इसे इस प्रकार जानकर इसकी उपासना करता है, पापकर्मों को नष्ट कर देता है, लोकवान होता है, पूर्ण आयु को प्राप्त होता है, उज्ज्वल जीवन व्यतीत करता है तथा उसके उत्तरवर्ती पुरुष क्षीण नहीं होते । तथा उसका हम इस लोक और परलोक में भी पालन करते हैं जो कि इस प्रकार जानकर इसकी उपासना करता है ।2।

चतुर्दश खण्ड

उन्होंने कहा- ‘उपकोसल ! हे सौम्य ! यह अपनी विद्या और आत्मविद्या तेरे प्रति कही । आचार्य तुझे मार्ग बतलावेंगे ।’ तदनन्तर उसके आचार्य आये । आचार्य ने कहा- ‘उपकोसल !’ ।1।

उसने ‘भगवन् !’ ऐसा उत्तर दिया । ‘हे सौम्य ! तेरा मुख ब्रह्मवेत्ता के समान जान पड़ता है, तुझे किसने उपदेश किया है ?’ ‘अजी ! मुझे कौन उपदेश करता’ ऐसा कहकर मानो वह उसे छिपाने लगा । ‘निश्चय इन्हींने जो अन्य प्रकार के थे और अब ऐसे हैं’- ऐसा कहकर उसने अग्नियों को बतलाया । तब आचार्य ने पूछा- ‘हे सौम्य ! इन्होंने तुझे क्या बतलाया है ?’ ।2।

तब उसने ‘यह बतलाया है’ ऐसा कहकर उत्तर दिया । ‘हे सौम्य ! उन्होंने तो तुझे लोकों का ही उपदेश किया है, अब मैं तुझे वह बतलाता हूँ जिसे जानने वाले से पापकर्म का सम्बन्ध उसी प्रकार नहीं होता जिस प्रकार कमलपत्र का सम्बन्ध जल से नहीं होता ।’ वह बोला- ‘भगवन् ! मुझे बतलावें ।’ तब आचार्य उससे बोले ।3।

पञ्चदश खण्ड

‘यह जो नेत्र में पुरुष दिखायी देता है यह आत्मा है’- ऐसा उसने कहा ‘यह अमृत है, अभय है और ब्रह्म है ।’ उसमें यदि घृत या जल डालें तो वह पलकों में ही चला जाता है ।1।

इसे ‘संयद्वाम’ कहते हैं, क्योंकि सम्पूर्ण सेवनीय वस्तुएँ सब ओर से इसे ही प्राप्त होती हैं, जो इस प्रकार जानता है उसे सम्पूर्ण सेवनीय वस्तुएँ सब ओर से प्राप्त होती हैं ।2।

यही वामनी है, क्योंकि यही सम्पूर्ण वामों का वहन करता है । जो ऐसा जानता है वह सम्पूर्ण वामों को वहन करता है ।3।

यही भामनी है, क्योंकि यही सम्पूर्ण लोकों में भासमान होता है । जो ऐसा जानता है वह सम्पूर्ण लोकों में भासमान होता है ।4।

अब इसके लिए शवकर्म करें अथवा न करें, वह अर्चिरभिमानी देवता को ही प्राप्त होता है । फिर अर्चिरभिमानी देवता से दिवसाभिमानी देवता को, दिवसाभिमानी देवता से शुक्लाभिमानी देवता को और शुक्लाभिमानी देवता से उत्तरायण के छः मासों को प्राप्त होता है । मासों से संवत्सर को, संवत्सर से आदित्य को, आदित्य से चन्द्रमा को और चन्द्रमा से विद्युत को प्राप्त होता है । वहाँ से अमानव पुरुष इन्हें ब्रह्म को प्राप्त करा देता है । यह देवमार्ग-ब्रह्ममार्ग है । इससे जाने वाले पुरुष इस मानवमण्डल से नहीं लौटते, नहीं लौटते ।5।

षोडश खण्ड

यह जो चलता है निश्चय यज्ञ ही है । यह चलता हुआ निश्चय इस सम्पूर्ण जगत को पवित्र करता है, क्योंकि यह गमन करता हुआ इस समस्त संसार को पवित्र कर देता है, इसलिए यही यज्ञ है । मन और वाक्- ये दोनों इसके मार्ग हैं ।1।

उनमें से एक मार्ग का ब्रह्मा मन के द्वारा संस्कार करता है तथा होता, अध्वर्यु और उद्गाता ये वाणी द्वारा दूसरे मार्ग का संस्कार करते हैं । यदि प्रातरनुवाक के आरम्भ हो जाने पर परिधानीया ऋचा के उच्चारण से पूर्व ब्रह्मा बोल उठता है तो वह केवल एक मार्ग का ही संस्कार करता है, दूसरा मार्ग नष्ट हो जाता है ।2।

जिस प्रकार एक पाँव से चलने वाला पुरुष अथवा एक पहिये से चलने वाला रथ नष्ट हो जाता है उसी प्रकार इसका यज्ञ भी नाश को प्राप्त हो जाता है । यज्ञ के नष्ट होने के पश्चात् यजमान का नाश होता है, इस प्रकार का यज्ञ करने पर वह और भी अधिक पापी हो जाता है ।3।

और यदि प्रातरनुवाक का आरम्भ होने के अनन्तर परिधानीया ऋचा से पूर्व ब्रह्मा नहीं बोलता है तो दोनों ही मार्ग का संस्कार कर देते हैं । तब कोई भी मार्ग नष्ट नहीं होता ।4।

जिस प्रकार दोनों पैरों से चलने वाला पुरुष अथवा दोनों दोनों पहियों से चलने वाला रथ स्थित रहता है इसी प्रकार इसका यज्ञ स्थित रहता है, यज्ञ के स्थित रहने पर यजमान भी स्थित रहता है । वह यज्ञ करके श्रेष्ठ होता है ।5।

सप्तदश खण्ड

प्रजापति ने लोकों को लक्ष्य बनाकर ध्यानरूप तप किया । उन तप किये जाते हुए लोकों से उसने रस निकाले । पृथ्वी से अग्नि, अन्तरिक्ष से वायु और द्युलोक से आदित्य को उद्धृत किया ।1।

फिर उसने इन तीन देवताओं को लक्ष्य करके तप किया । उन तप किये जाते हुए देवताओं से उसने रस निकाले । अग्नि से ऋक्, वायु से यजुः और आदित्य से साम ग्रहण किये ।2।

फिर उसने इस त्रयीविद्या को लक्ष्य करके तप किया । उस तप की जाती हुई विद्या से उसने रस निकाले । ऋक् से भूः, यजुः से भुवः और साम से स्वः इन रसों को ग्रहण किया ।3।

उस यज्ञ में यदि ऋक् के सम्बन्ध से क्षत हो तो ‘भूः स्वाहा’ । ऐसा कहकर गार्हपत्याग्नि में हवन करे । इस प्रकार वह ऋचाओं के रस से ऋचाओं के वीर्य द्वारा ऋक् सम्बन्धी यज्ञ के क्षत की पूर्ति करता है ।4।

और यदि यजुः के सम्बन्ध से क्षत हो तो ‘भुवः स्वाहा’ । ऐसा कहकर दक्षिणाग्नि में हवन करे । इस प्रकार वह यजुओं के रस से यजुओं के वीर्य द्वारा यज्ञ के यजुः सम्बन्धी क्षत की पूर्ति करता है ।5।

और यदि साम के सम्बन्ध से क्षत हो तो ‘स्वः स्वाहा’ । ऐसा कहकर आहवनीयाग्नि में हवन करे । इस प्रकार वह साम के रस से साम के वीर्य द्वारा यज्ञ के साम सम्बन्धी क्षत की पूर्ति करता है ।6।

इस विषय में, जिस प्रकार लवण से सुवर्ण को, सुवर्ण से चाँदी को, चाँदी से त्रपु को, त्रपु से सीसे को, सीसे से लोहे को और लोहे से काष्ठ को अथवा चमड़े से काष्ठ को जोड़ा जाता है ।7।

उसी प्रकार इन लोक, देवता और त्रयीविद्या के वीर्य से यज्ञ के क्षत का प्रतिसंधान किया जाता है । जिसमें इस प्रकार जाननेवाला ब्रह्मा होता है वह यज्ञ निश्चय ही मानो ओषधियों द्वारा संस्कृत होता है ।8।

जहाँ इस प्रकार जाननेवाला ब्रह्मा होता है वह यज्ञ उदक्प्रवण होता है । इस प्रकार जाननेवाले ब्रह्मा के उद्देश्य से ही यह गाथा प्रसिद्ध है कि “जहाँ-जहाँ कर्म आवृत्त होता है वहीं वह पहुँच जाता है” ।9।

एक मानव ब्रह्मा ही ऋत्विक् है । जिस प्रकार युद्ध में घोड़ी योद्धाओं की रक्षा करती है उसी प्रकार ऐसा जाननेवाला ब्रह्मा यज्ञ, यजमान और अन्य समस्त ऋत्विजों की भी सब ओर से रक्षा करता है । अतः इस प्रकार जानने वाले को ही ब्रह्मा बनावे, ऐसा न जाननेवाले को नहीं, ऐसा न जाननेवाले को नहीं ।10।

पञ्चम प्रपाठक[संपादित करें]

प्रथम खण्ड

जो ज्येष्ठ और श्रेष्ठ को जानता है वह ज्येष्ठ और श्रेष्ठ हो जाता है । निश्चय ही प्राण ज्येष्ठ और श्रेष्ठ है ।1।

जो कोई वसिष्ठ को जानता है वह स्वजातियों में वसिष्ठ होता है, निश्चय ही वाक् वसिष्ठ है ।2।

जो कोई प्रतिष्ठा को जानता है वह इस लोक और परलोक में प्रतिष्ठित होता है, चक्षु ही प्रतिष्ठा है ।3।

जो कोई सम्पद् को जानता है उसे दैव और मानुष काम सम्यक् प्रकार से प्राप्त होते हैं । श्रोत्र ही सम्पद् है ।4।

जो आयतन को जानता है वह स्वजातियों का आयतन होता है । निश्चय ही मन आयतन है ।5।

एक बार ये सब प्राण ‘मैं श्रेष्ठ हूँ, मैं श्रेष्ठ हूँ’ इस प्रकार अपनी श्रेष्ठता के लिए विवाद करने लगे ।6।

उन प्राणों ने अपने पिता प्रजापति के पास जाकर कहा- ‘भगवन् ! हममें कौन श्रेष्ठ है ?’ प्रजापति ने उनसे कहा- ‘तुममें से जिसके निकल जाने पर शरीर अत्यन्त पापिष्ठ सा दिखायी देने लगे वही श्रेष्ठ है’ ।7।

तब उस वाक् ने उत्क्रमण किया । उसने एक वर्ष प्रवास करने के अनन्तर फिर लौटकर पूछा ‘मेरे बिना तुम कैसे जीवित रह सके ?’ – ‘जिस प्रकार गूँगे लोग बिना बोले प्राण से प्राणन-क्रिया करते, नेत्र से देखते, कान से सुनते और मन से चिन्तन करते हुए जीवित रहते हैं, उसी प्रकार ।’ ऐसा सुनकर वाक् ने शरीर में प्रवेश किया ।8।

तब उस चक्षु ने उत्क्रमण किया । उसने एक वर्ष प्रवास करने के अनन्तर फिर लौटकर पूछा ‘मेरे बिना तुम कैसे जीवित रह सके ?’ – ‘जिस प्रकार अन्धे लोग बिना देखे प्राण से प्राणन-क्रिया करते, वाणी से बोलते, कान से सुनते और मन से चिन्तन करते हुए जीवित रहते हैं, उसी प्रकार ।’ ऐसा सुनकर चक्षु ने शरीर में प्रवेश किया ।9।

तब उस श्रोत्र ने उत्क्रमण किया । उसने एक वर्ष प्रवास करने के अनन्तर फिर लौटकर पूछा ‘मेरे बिना तुम कैसे जीवित रह सके ?’ – ‘जिस प्रकार बहरे लोग बिना सुने प्राण से प्राणन-क्रिया करते, नेत्र से देखते, वाणी से बोलते और मन से चिन्तन करते हुए जीवित रहते हैं, उसी प्रकार ।’ ऐसा सुनकर श्रोत्र ने शरीर में प्रवेश किया ।10।

तब मन ने उत्क्रमण किया । उसने एक वर्ष प्रवास करने के अनन्तर फिर लौटकर पूछा ‘मेरे बिना तुम कैसे जीवित रह सके ?’ – ‘जिस प्रकार बच्चे, जिनका कि मन विकसित नहीं होता, प्राण से प्राणन-क्रिया करते, नेत्र से देखते, कान से सुनते और वाणी से बोलते हुए जीवित रहते हैं, उसी प्रकार ।’ ऐसा सुनकर मन ने भी प्रवेश किया ।11।

फिर प्राण ने उत्क्रमण करने की इच्छा की । उसने, जिस प्रकार अच्छा घोड़ा अपने पैर बाँधने वाली कीलों को उखाड़ डालता है, उसी प्रकार अन्य प्राणों को उखाड़ दिया । तब उन सबने उसके सामने जाकर कहा ‘भगवन् ! आप रहें, आप ही हम सबमें श्रेष्ठ हैं, आप उत्क्रमण न करें’ ।12।

फिर उससे वाक् ने कहा- ‘मैं जो वसिष्ठ हूँ सो तुम्हीं वसिष्ठ हो ।’ फिर उससे चक्षु ने कहा- ‘मैं जो प्रतिष्ठा हूँ सो तुम्हीं प्रतिष्ठा हो’ ।13।

फिर उससे श्रोत्र ने कहा- ‘मैं जो सम्पद् हूँ सो तुम्हीं सम्पद् हो ।’ फिर उससे मन ने कहा- ‘मैं जो आयतन हूँ सो तुम्हीं आयतन हो’ ।14।

लोक में समस्त इन्द्रियों को न वाक्, न चक्षु, न श्रोत्र और न मन ही कहते हैं, परन्तु ‘प्राण’ ऐसा कहते हैं, क्योंकि ये सब प्राण ही हैं ।15।

द्वितीय खण्ड

उसने कहा- ‘मेरा अन्न क्या होगा ?’ तब वागादि ने कहा- ‘कुत्तों और पक्षियों से लेकर सब जीवों का यह जो अन्न है’, सो यह सब ‘अन’ (प्राण) का अन्न है । ‘अन’- यह प्राण का प्रत्यक्ष नाम है । इस प्रकार जाननेवाले के लिए कुछ भी अनन्न नहीं होता है ।1।

उसने कहा- ‘मेरा वस्त्र क्या होगा ?’ तब वागादि बोले- ‘जल’ । इसी से भोजन करने वाले पुरुष भोजन के पूर्व और पश्चात् इसका जल से आच्छादन करते हैं । ऐसा करने से वह वस्त्र प्राप्त करने वाला और अनग्न होता है ।2।

उस इस प्राण-दर्शन को सत्यकाम जाबाल ने वैयाघ्रपद्य गोश्रुति के प्रति निरूपित करके कहा- ‘यदि इसे शुष्क स्थाणु के प्रति कहे तो उसमें शाखा उत्पन्न हो जाएगी और पत्ते फूट आवेंगे’ ।3।

अब यदि वह महत्त्व को प्राप्त होना चाहे तो उसे अमावस्या को दीक्षित होकर पूर्णिमा की रात्रि को सर्वऔषध के दधि और मधुसम्बन्धी मन्थ का मन्थन कर ‘ज्येष्ठाय श्रेष्ठाय स्वाहा’ ऐसा कहते हुए अग्नि में घृत का हवन कर मन्थ पर उसका अवशेष डालना चाहिए ।4।

‘वासिष्ठाय स्वाहा’ इस मन्त्र से अग्नि में घृत-आहुति देकर मन्थ में घृत का स्राव डाले, ‘प्रतिष्ठाय स्वाहा’ इस मन्त्र से अग्नि में घृत-आहुति देकर मन्थ में घृत का स्राव डाले, ‘संपदे स्वाहा’ इस मन्त्र से अग्नि में घृत-आहुति देकर मन्थ में घृत का स्राव डाले, तथा ‘आयतनाय स्वाहा’ इस मन्त्र से अग्नि में घृत-आहुति देकर मन्थ में घृत का स्राव डाले ।5।

तदनन्तर अग्नि से कुछ दूर हटकर मन्थ को अञ्जलि में ले वह ‘अमो नामासि’ इत्यादि मन्त्र का जप करे । हे मन्थ ! तू ‘अम’ नामवाला है, क्योंकि यह सारा जगत तेरे साथ अवस्थित है । वह तू ज्येष्ठ, श्रेष्ठ, राजा और सबका अधिपति है । वह तू मुझे ज्येष्ठत्व, श्रेष्ठत्व, राज्य और आधिपत्य को प्राप्त करा । मैं ही यह सर्वरूप हो जाऊँ ।6।

फिर वह इस ऋचा से पादशः उस मन्थ का भक्षण करता है । ‘तत्सवितुर्वृणीमहे’ ऐसा कहकर भक्षण करता है, ‘वयं देवस्य भोजनम्’ ऐसा कहकर भक्षण करता है, ‘श्रेष्ठम् सर्वधातमम्’ ऐसा कहकर भोजन करता है, तथा ‘तुरं भगस्य धीमहि’ ऐसा कहकर कटोरे या चम्मच को धोकर सारा मन्थलेप पी जाता है । तत्पश्चात वह अग्नि के पीछे चर्म अथवा स्थण्डिल पर वाणी का संयम कर अभिभूत न होता हुआ शयन करता है । उस समय यदि वह स्वप्न में स्त्री को देखे तो समझे कि कर्म समृद्ध हो गया ।7।

इस विषय में यह श्लोक है- जिस समय काम्यकर्मों में स्वप्न में स्त्री को देखे तो उस स्वप्नदर्शन के होने पर उस कर्म में समृद्धि जाने ।8।

तृतीय खण्ड

आरुणि का पुत्र श्वेतकेतु पंचालदेशीय लोगों की सभा में आया । उससे जीवल के पुत्र प्रवाहण ने कहा- ‘हे कुमार ! क्या पिता ने तुझे शिक्षा दी है !’ इस पर उसने कहा- ‘हाँ’ भगवन् !’ ।1।

‘क्या तुझे मालूम है कि इस लोक से प्रजा कहाँ जाती है ?’ [श्वेतकेतु-] ‘नहीं भगवन् !’ [प्रवाहण-] ‘क्या तू जानता है कि वह फिर इस लोक में कैसे आती है ?’ [श्वेतकेतु-] ‘नहीं भगवन् !’ [प्रवाहण-] ‘देवयान और पितृयान- इन दोनों मार्गों का एक-दूसरे से अलग होने का स्थान तुझे मालूम है ?’ [श्वेतकेतु-] ‘नहीं भगवन् !’ ।2।

[प्रवाहण-] ‘तुझे मालूम है, ये पितृलोक भरता क्यों नहीं ?’ [श्वेतकेतु-] ‘भगवन् ! नहीं !’ [प्रवाहण-] ‘क्या तू जानता है कि पाँचवी आहुति के हवन कर दिए जाने पर आप (सोमघृतादि रस) ‘पुरुष’ संज्ञा को कैसे प्राप्त होते हैं ?’ [श्वेतकेतु-] ‘नहीं, भगवन् ! नहीं’ ।3।

‘तो फिर तू स्वयं को- ‘मुझे शिक्षा दी गयी है’ ऐसा क्यों बोलता था ?’ तब वह त्रस्त होकर अपने पिता के स्थान पर आया और उससे बोला- ‘श्रीमान् ने मुझे शिक्षा दिए बिना ही कह दिया था कि मैंने तुझे शिक्षा दे दी है’ ।4।

‘उस क्षत्रियबन्धु ने मुझसे पाँच प्रश्न पूछे थे, किन्तु मैं उनमें से एक का भी विवेचन न कर सका’ । उसने कहा- ‘तुमने जैसे ये प्रश्न मुझे सुनाये हैं उनमें से एक को भी मैं नहीं जानता । यदि मैं इन्हें जानता होता तो तुम्हें क्यों न बतलाता ?’ ।5।

तब वह गौतम, राजा के स्थान पर आया । राजा ने अपने यहाँ आये हुए उसकी पूजा की । दूसरे दिन प्रातःकाल होते ही राजा की सभा में पहुँचने पर वह गौतम उसके पास गया । उसने उससे कहा- ‘हे भगवान् गौतम ! आप मनुष्य सम्बन्धी धन का वर माँग लीजिये ।’ उसने कहा- ‘राजन् ! ये मनुष्य सम्बन्धी धन आप ही के पास रहें, आपने मेरे पुत्र के प्रति जो बात प्रश्नरूप से कही थी वही मुझे बतलाइए ।’ तब वह संकट में पड़ गया ।6।

‘यहाँ चिरकाल तक रहो’ ऐसी आज्ञा दी और कहा- हे गौतम ! जिस प्रकार तुमने मुझसे कहा है, उससे तुम यह समझो कि पूर्वकाल में तुमसे पहले यह विद्या ब्राह्मणों के पास नहीं गयी । इसी से सभी लोकों में क्षत्रियों का ही प्रशासन होता रहा है’ । ऐसा कहकर वह गौतम से बोला- ।7।

चतुर्थ खण्ड

हे गौतम ! यह प्रसिद्ध लोक ही अग्नि है । उसका आदित्य ही समिध् है, किरणें ही धूम हैं, दिन ज्वाला है, चन्द्रमा अंगार है और नक्षत्र विस्फुलिंग हैं ।1।

उस इस अग्नि में देवगण श्रद्धा का हवन करते हैं । उस आहुति से सोम राजा की उत्पत्ति होती है ।2।

पञ्चम खण्ड

हे गौतम ! पर्जन्य ही अग्नि है । उसका वायु ही समिध् है, बादल ही धूम हैं, विद्युत ज्वाला है, वज्र अंगार है और गर्जन विस्फुलिंग हैं ।1।

उस इस अग्नि में देवगण राजा सोम का हवन करते हैं । उस आहुति से वर्षा होती है ।2।

षष्ठ खण्ड

हे गौतम ! पृथ्वी ही अग्नि है । उसका संवत्सर ही समिध् है, आकाश ही धूम है, रात्रि ज्वाला है, दिशाएँ अंगार हैं और अवान्तर दिशाएँ विस्फुलिंग हैं ।1।

उस इस अग्नि में देवगण वर्षा का हवन करते हैं । उस आहुति से अन्न होता है ।2।

सप्तम खण्ड

हे गौतम ! पुरुष ही अग्नि है । उसका वाक् ही समिध् है, प्राण ही धूम हैं, जिह्वा ज्वाला है, चक्षु अंगार हैं और श्रोत्र विस्फुलिंग हैं ।1।

उस इस अग्नि में देवगण अन्न का होम करते हैं । उस आहुति से वीर्य उत्पन्न होता है ।2।

अष्टम खण्ड

हे गौतम ! स्त्री ही अग्नि है । उसका उपस्थ ही समिध् है, पुरुष जो उपमंत्रण करता है वह धूम हैं, योनि ज्वाला है, जो भीतर की ओर करता है वह अंगार हैं और उससे जो आनन्द होता है वह विस्फुलिंग हैं ।1।

उस इस अग्नि में देवगण वीर्य का हवन करते हैं । उस आहुति से गर्भ उत्पन्न होता है ।2।

नवम खण्ड

इस प्रकार पाँचवी आहुति के दिये जाने पर आप ‘पुरुष’ शब्दवाची हो जाता है । वह जरायु से आवृत हुआ गर्भ दस या नौ महीने अथवा जबतक पूर्णांग नहीं होता, भीतर ही शयन करने के अनन्तर फिर उत्पन्न होता है ।1।

इस प्रकार उत्पन्न होने पर वह आयु पर्यन्त जीवित रहता है । फिर मरने पर कर्मवश परलोक को प्रस्थित हुए उस जीव को अग्नि के प्रति ही ले जाते हैं, जहाँ से की वह आया था और जिससे उत्पन्न हुआ था ।2।

दशम खण्ड

वे जो कि इस प्रकार जानते हैं तथा वे जो कि वन में श्रद्धा और तप इनकी उपासना करते हैं, अर्चि के अभिमानी देवताओं को प्राप्त होते हैं, अर्चि के अभिमानी देवताओं से दिवसाभिमानी देवताओं को, दिवसाभिमानियों से शुक्लपक्षाभिमानी देवताओं को, शुक्लपक्षाभिमानियों से जिन छः महीनों में सूर्य उत्तर की ओर जाता है, उन छः महीनों को ।1।

उन महीनों से संवत्सर को, संवत्सर से आदित्य को, आदित्य से चन्द्रमा को और चन्द्रमा से विद्युत को प्राप्त होते हैं । वहाँ एक अमानव पुरुष है, वह उन्हें ब्रह्म को प्राप्त करा देता है । यह देवयान मार्ग है ।2।

तथा जो ये गृहस्थ लोग ग्राम में इष्ट, पूर्त और दत्त- ऐसी उपासना करते हैं, वे धूम को प्राप्त होते हैं, धूम से रात्रि को, रात्रि से कृष्णपक्ष को तथा कृष्णपक्ष से जिन छः महीनों में सूर्य दक्षिणमार्ग से जाता है उनको प्राप्त होते हैं । ये लोग संवत्सर को प्राप्त नहीं होते ।3।

दक्षिणायन के महीनों से पितृलोक को, पितृलोक से आकाश को और आकाश से चन्द्रमा को प्राप्त होते हैं । यह चन्द्रमा राजा सोम है । वह देवताओं का अन्न है, देवता लोग उसका भक्षण करते हैं ।4।

वहाँ कर्मों का क्षय होने तक रहकर वे फिर इसी मार्ग से जिस प्रकार गए थे उसी प्रकार लौटते हैं । वे पहले आकाश को प्राप्त होते हैं और आकाश से वायु को, वायु होकर वे धूम हो जाते हैं और धूम्र होकर अभ्र हो जाते हैं ।5।

वह अभ्र होकर मेघ होता है, मेघ होकर बरसता है । तब वे जीव इस लोक में धान, जौ, ओषधि, वनस्पति, तिल और उड़द आदि होकर उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार यह निष्क्रमण निश्चय ही अत्यन्त कष्टप्रद है । उस अन्न को जो-जो भक्षण करता है और जो-जो वीर्यसेचन करता है, तद्रूप ही वह जीव हो जाता है ।6।

उनमें जो अच्छे आचरण वाले होते हैं वे शीघ्र ही उत्तम योनि को प्राप्त होते हैं । वे ब्राह्मणयोनि, क्षत्रिययोनि अथवा वैश्य योनि प्राप्त करते हैं तथा जो अशुभ आचरण वाले होते हैं वे तत्काल अशुभ योनि को प्राप्त होते हैं । वे कुत्ते की योनि, शूकरयोनि अथवा चाण्डालयोनि को प्राप्त करते हैं ।7।

इनमें से किसी मार्ग द्वारा नहीं जाते, वे ये क्षुद्र और बारम्बार आने-जाने वाले प्राणी होते हैं । ‘उत्पन्न होओ और मरो’ यही उनका तृतीय स्थान होता है । इसी कारण यह परलोक नहीं भरता । अतः इस संसार गति से घृणा करनी चाहिए । इस विषय में यह मन्त्र है- ।8।

सुवर्ण का चोर, मद्य पीने वाला, गुरुस्त्रीगामी, ब्रह्महत्यारा- ये चारों पतित होते हैं और पाँचवाँ उनके साथ संसर्ग करने वाला भी ।9।

किन्तु जो इस प्रकार इन पंचाग्नियों को जानता है वह उनके साथ संसर्ग करता हुआ भी पाप से लिप्त नहीं होता । वह शुद्ध, पवित्र और पुण्यलोक का भागी होता है, जो इस प्रकार जानता है, जो इस प्रकार जानता है ।10।

एकादश खण्ड

उपमन्यु का पुत्र प्राचीनशाल, पुलुष का पुत्र सत्ययज्ञ, भल्लवि के पुत्र का पुत्र इन्द्रद्युम्न, शर्कराक्ष का पुत्र जन और अश्वतराश्व का पुत्र बुडिल- ये महागृहस्थ और परम श्रोत्रिय एकत्रित होकर परस्पर विचार करने लगे कि हमारा आत्मा कौन है और ब्रह्म क्या है ? ।1।

उन पूजनीयों ने स्थिर किया कि यह अरुण का पुत्र उद्दालक इस समय इस वैश्वानर आत्मा को जानता है, अतः हम उसके पास चलें । ऐसा निश्चय कर वे उसके पास आये ।2।

उसने निश्चय किया, ये परम श्रोत्रिय महागृहस्थ मुझसे प्रश्न करेंगे, किन्तु में इन्हें पूरी तरह से न बतला सकूँगा, अतः मैं उन्हें दूसरा उपदेष्टा बतला दूँ ।3।

उसने उनसे कहा- ‘हे पूजनीयगण ! इस समय केकयकुमार अश्वपति इस वैश्वानरसंज्ञक आत्मा को अच्छी तरह जानता है । आइये, हम उसी के पास चलें ।’ ऐसा कहकर वे उसके पास चले गए ।4।

अपने पास आये हुए उन ऋषियों का राजा ने अलग-अलग सत्कार कराया । सबेरे उठते ही उसने कहा- ‘मेरे राज्य में कोई चोर नहीं है तथा न अदाता, न मद्यप, न अनाहिताग्नि, न अविद्वान और न परस्त्रीगामी ही है, फिर कुलटा स्त्री तो आयी ही कहाँ से ? हे पूज्यगण ! मैं भी यज्ञ करने वाला हूँ । मैं एक-एक ऋत्विक् को जितना धन दूँगा उतना ही आपको भी दूँगा, अतः आप लोग यहीं ठहरिए’ ।5।

वे बोले- ‘जिस प्रयोजन से कोई पुरुष कहीं जाता है, उसे चाहिए कि अपने उसी प्रयोजन को कहे । इस समय आप वैश्वानर आत्मा को जानते हैं, उसी का आप हमारे प्रति वर्णन कीजिये’ ।6।

वह उनसे बोला- ‘अच्छा, मैं प्रातःकाल आप लोगों को इसका उत्तर दूँगा ।’ तब दूसरे दिन वे पूर्वाह्न में हाथ में समिधाएँ लेकर राजा के पास गए । उनका उपनयन न करके ही राजा ने उस विद्या का उपदेश किया ।7।

द्वादश खण्ड

राजा ने कहा- ‘हे उपमन्युकुमार ! तुम किस आत्मा की उपासना करते हो ?’ ‘हे राजन् ! मैं द्युलोक की ही उपासना करता हूँ’ ऐसा उसने उत्तर दिया । ‘तुम जिस आत्मा की उपासना करते हो यह निश्चय ही ‘सुतेजा’ नाम से प्रसिद्ध वैश्वानर आत्मा है, इसी से तुम्हारे कुल में सुत, प्रसुत और आसुत दिखाई देते हैं’ ।1।

‘तुम अन्न भक्षण करते हो और प्रिय का दर्शन करते हो । जो इस वैश्वानर आत्मा की इस प्रकार उपासना करता है वह अन्न भक्षण करता है, प्रिय का दर्शन करता है और उसके कुल में ब्रह्मतेज होता है । यह वैश्वानर आत्मा का मस्तक है ।’ ऐसा राजा ने कहा, और यह भी कहा कि ‘यदि तुम मेरे पास न आते तो तुम्हारा मस्तक गिर जाता’ ।2।

त्रयोदश खण्ड

फिर उसने पुलुष के पुत्र सत्ययज्ञ से कहा- ‘हे प्राचीनयोग्य ! तुम किस आत्मा की उपासना करते हो ?’ वह बोला- ‘हे पूज्य राजन् ! मैं आदित्य की ही उपासना करता हूँ ।’ राजा ने कहा- ‘यह निश्चय ही विश्वरूप वैश्वानर आत्मा है, जिस आत्मा की तुम उपासना करते हो, इसी से तुम्हारे कुल में बहुत-सा विश्वरूप साधन दिखाई देता है’ ।1।

‘खच्चरियों से जुता हुआ रथ और दासियों के सहित हार प्रवृत्त है । तुम अन्न भक्षण करते हो और प्रिय का दर्शन करते हो । जो इस वैश्वानर आत्मा की इस प्रकार उपासना करता है वह अन्न भक्षण करता है, प्रिय का दर्शन करता है और उसके कुल में ब्रह्मतेज होता है । किन्तु यह वैश्वानर आत्मा का नेत्र ही है ।’ ऐसा राजा ने कहा, और यह भी कहा कि ‘यदि तुम मेरे पास न आते तो अन्धे हो जाते’ ।2।

चतुर्दश खण्ड

फिर उसने भल्लवेय इन्द्रद्युम्न से कहा- ‘हे वैयाघ्रपद्य ! तुम किस आत्मा की उपासना करते हो ?’ वह बोला- ‘हे पूज्य राजन् ! मैं वायु की ही उपासना करता हूँ ।’ राजा ने कहा- ‘यह निश्चय ही प्रथग्वर्त्मा वैश्वानर आत्मा है, जिस आत्मा की तुम उपासना करते हो, इसी से तुम्हारे प्रति प्रथक-प्रथक उपहार आते है और तुम्हारे पीछे प्रथक-प्रथक रथ की पंक्तियाँ चलती हैं’ ।1।

‘तुम अन्न भक्षण करते हो और प्रिय का दर्शन करते हो । जो इस वैश्वानर आत्मा की इस प्रकार उपासना करता है वह अन्न भक्षण करता है, प्रिय का दर्शन करता है और उसके कुल में ब्रह्मतेज होता है । किन्तु यह वैश्वानर आत्मा का प्राण ही है ।’ ऐसा राजा ने कहा, और यह भी कहा कि ‘यदि तुम मेरे पास न आते तो तुम्हारा प्राण उत्क्रमण कर जाता’ ।2।

पञ्चदश खण्ड

फिर राजा ने जन से कहा- ‘हे शार्कराक्ष्य ! तुम किस आत्मा की उपासना करते हो ?’ वह बोला- ‘हे पूज्य राजन् ! मैं आकाश की ही उपासना करता हूँ ।’ राजा ने कहा- ‘यह निश्चय ही बहुलसंज्ञक वैश्वानर आत्मा है, जिस आत्मा की तुम उपासना करते हो, इसी से तुम प्रजा और धन के कारण बहुल हो’ ।1।

‘तुम अन्न भक्षण करते हो और प्रिय का दर्शन करते हो । जो इस वैश्वानर आत्मा की इस प्रकार उपासना करता है वह अन्न भक्षण करता है, प्रिय का दर्शन करता है और उसके कुल में ब्रह्मतेज होता है । किन्तु यह वैश्वानर आत्मा के संदेह(शरीर का मध्यभाग) ही है ।’ ऐसा राजा ने कहा, और यह भी कहा कि ‘यदि तुम मेरे पास न आते तो तुम्हारा संदेह(शरीर का मध्यभाग) नष्ट हो जाता’ ।2।

षोडश खण्ड

फिर उसने अश्वतराश्व के पुत्र बुडिल से कहा- ‘हे वैयाघ्रपद्य ! तुम किस आत्मा की उपासना करते हो ?’ वह बोला- ‘हे पूज्य राजन् ! मैं तो जल की ही उपासना करता हूँ ।’ राजा ने कहा- ‘यह निश्चय ही रयिसंज्ञक वैश्वानर आत्मा है, जिस आत्मा की तुम उपासना करते हो, इसी से तुम रयिमान और पुष्टिमान हो’ ।1।

‘तुम अन्न भक्षण करते हो और प्रिय का दर्शन करते हो । जो इस वैश्वानर आत्मा की इस प्रकार उपासना करता है वह अन्न भक्षण करता है, प्रिय का दर्शन करता है और उसके कुल में ब्रह्मतेज होता है । किन्तु यह वैश्वानर आत्मा का बस्ति ही है ।’ ऐसा राजा ने कहा, और यह भी कहा कि ‘यदि तुम मेरे पास न आते तो तुम्हारा बस्तिस्थान फट जाता’ ।2।

सप्तदश खण्ड

फिर उसने अरुण के पुत्र उद्दालक से कहा- ‘हे गौतम ! तुम किस आत्मा की उपासना करते हो ?’ वह बोला- ‘हे पूज्य राजन् ! मैं तो पृथ्वी की ही उपासना करता हूँ ।’ राजा ने कहा- ‘यह निश्चय ही प्रतिष्ठासंज्ञक वैश्वानर आत्मा है, जिस आत्मा की तुम उपासना करते हो, इसी से तुम प्रजा और पशुओं के कारण प्रतिष्ठित हो’ ।1।

‘तुम अन्न भक्षण करते हो और प्रिय का दर्शन करते हो । जो इस वैश्वानर आत्मा की इस प्रकार उपासना करता है वह अन्न भक्षण करता है, प्रिय का दर्शन करता है और उसके कुल में ब्रह्मतेज होता है । किन्तु यह वैश्वानर आत्मा के चरण ही हैं ।’ ऐसा राजा ने कहा, और यह भी कहा कि ‘यदि तुम मेरे पास न आते तो तुम्हारे चरण शिथिल हो जाते’ ।2।

अष्टादश खण्ड

राजा ने उनसे कहा- ‘तुम ये सब लोग इस वैश्वानर आत्मा को अलग-सा जानकर अन्न भक्षण करते हो । जो कोई ‘यही मैं हूँ’ इस प्रकार अभिमान का विषय होने वाले इस प्रादेशमात्र वैश्वानर आत्मा की उपासना करता है वह समस्त लोकों में, समस्त प्राणियों में और समस्त आत्माओं में अन्न भक्षण करता है’ ।1।

उस इस वैश्वानर आत्मा का मस्तक ही सुतेजा (द्युलोक) है, चक्षु ही विश्वरूप (सूर्य) है, प्राण प्रथग्वर्त्मा (वायु) है, देह का मध्यभाग बहुल (आकाश) है, बस्ति ही रयि (जल) है, पृथ्वी ही दोनों चरण हैं, वक्षःस्थल वेदी है, लोम दर्भ है, हृदय गार्हपत्याग्नि है, मन अन्वाहार्यपचन है, और मुख आहवनीय है ।2।

एकोनविंश खण्ड

अतः जो अन्न पहले आवे, उसका हवन करना चाहिए, उस समय वह भोक्ता जो पहली आहुति दे उसे ‘प्राणाय स्वाहा’ ऐसा कहकर दे । इस कारण प्राण तृप्त होता है ।1।

प्राण के तृप्त होने पर नेत्रेन्द्रिय तृप्त होती है, नेत्रेन्द्रिय के तृप्त होने पर सूर्य तृप्त होता है, सूर्य के तृप्त होने पर द्युलोक तृप्त होता है तथा द्युलोक के तृप्त होने पर जिस किसी पर द्युलोक और आदित्य अधिष्ठति हैं वह तृप्त होता है और उसकी तृप्ति होने पर स्वयं भोक्ता प्रजा, पशु, अन्नाद्य, तेज और ब्रह्मतेज के द्वारा तृप्त होता है ।2।

विंश खण्ड

तत्पश्चात जो दूसरी आहुति दे उसे ‘व्यानाय स्वाहा’ ऐसा कहकर दे । इससे व्यान तृप्त होता है ।1।

व्यान के तृप्त होने पर श्रोत्रेन्द्रिय तृप्त होती है, श्रोत्रेन्द्रिय के तृप्त होने पर चन्द्रमा तृप्त होता है, चन्द्रमा के तृप्त होने पर दिशाएँ तृप्त होती हैं तथा दिशाओं के तृप्त होने पर जिस किसी पर चन्द्रमा और दिशाएँ अधिष्ठति हैं वह तृप्त होता है और उसकी तृप्ति होने पर स्वयं भोक्ता प्रजा, पशु, अन्नाद्य, तेज और ब्रह्मतेज के द्वारा तृप्त होता है ।2।

एकविंश खण्ड

तत्पश्चात जो तीसरी आहुति दे उसे ‘अपानाय स्वाहा’ ऐसा कहकर दे । इससे अपान तृप्त होता है ।1।

अपान के तृप्त होने पर वागिन्द्रिय तृप्त होती है, वाक् के तृप्त होने पर अग्नि तृप्त होता है, अग्नि के तृप्त होने पर पृथ्वी तृप्त होती है तथा पृथ्वी के तृप्त होने पर जिस किसी पर पृथ्वी और अग्नि अधिष्ठति हैं वह तृप्त होता है और उसकी तृप्ति होने पर स्वयं भोक्ता प्रजा, पशु, अन्नाद्य, तेज और ब्रह्मतेज के द्वारा तृप्त होता है ।2।

द्वाविंश खण्ड

तत्पश्चात जो चौथी आहुति दे उसे ‘समानाय स्वाहा’ ऐसा कहकर दे । इससे समान तृप्त होता है ।1।

समान के तृप्त होने पर मन तृप्त होता है, मन के तृप्त होने पर पर्जन्य तृप्त होता है, पर्जन्य के तृप्त होने पर विद्युत तृप्त होती है तथा विद्युत के तृप्त होने पर जिस किसी पर विद्युत और पर्जन्य अधिष्ठति हैं वह तृप्त होता है और उसकी तृप्ति होने पर स्वयं भोक्ता प्रजा, पशु, अन्नाद्य, तेज और ब्रह्मतेज के द्वारा तृप्त होता है ।2।

त्रयोविंश खण्ड

तत्पश्चात जो पांचवीं आहुति दे उसे ‘उदानाय स्वाहा’ ऐसा कहकर दे । इससे उदान तृप्त होता है ।1।

उदान के तृप्त होने पर त्वचा तृप्त होती है, त्वचा के तृप्त होने पर वायु तृप्त होता है, वायु के तृप्त होने पर आकाश तृप्त होता है तथा आकाश के तृप्त होने पर जिस किसी पर वायु और आकाश अधिष्ठति हैं वह तृप्त होता है और उसकी तृप्ति होने पर स्वयं भोक्ता प्रजा, पशु, अन्नाद्य, तेज और ब्रह्मतेज के द्वारा तृप्त होता है ।2।

चतुर्विंश खण्ड

वह जो कि इस वैश्वानर विद्या को न जानकर हवन करता है उसका वह यज्ञ ऐसा है, जैसे अंगारों को हटाकर भस्म में हवन करे ।1।

क्योंकि जो इस वैश्वानर को इस प्रकार जानने वाला पुरुष अग्निहोत्र करता है उसका समस्त लोक, सारे भूत और सम्पूर्ण आत्माओं में हवन हो जाता है ।2।

इस विषय में यह दृष्टांत भी है- जिस प्रकार सींक का अग्रभाग अग्नि में घुसा देने तत्काल जल जाता है उसी प्रकार जो इस प्रकार जानने वाला होकर अग्निहोत्र करता है उसके समस्त पाप भस्म हो जाते हैं ।3।

अतः वह इस प्रकार जानने वाला यदि चाण्डाल को उच्छिष्ट भी दे तो भी उसका वह अन्न वैश्वानर आत्मा में ही हुत होगा । इस विषय में यह मन्त्र है ।4।

जिस प्रकार इस लोक में भूखे बालक सब प्रकार माता की उपासना करते हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण प्राणी इस ज्ञानी के भोजनरूप अग्निहोत्र की उपासना करते हैं, अग्निहोत्र की उपासना करते हैं ।5।

षष्ठ प्रपाठक[संपादित करें]

प्रथम खण्ड

अरुण का सुप्रसिद्ध पौत्र श्वेतकेतु था, उससे पिता ने कहा- ‘है श्वेतकेतो ! तू ब्रह्मचर्यवास कर, क्योंकि, हे सोम्य ! हमारे कुल में उत्पन्न हुआ कोई पुरुष अध्ययन न करके ब्रह्मबन्धु सा नहीं होता’ ।1।

वह श्वेतकेतु बारह वर्ष की अवस्था में उपनयन कराकर चौबीस वर्ष का होने पर सम्पूर्ण वेदों का अध्ययन कर अपने को बड़ा बुद्धिमान और व्याख्या करने वाला मानते हुए उद्दण्डभाव से घर लौटा । उससे पिता ने कहा- ‘हे सोम्य ! तू जो ऐसा महामना, पण्डितम्मन्य और अविनीत है सो क्या तूने वह आदेश पूछा है ?’ ।2।

‘जिसके द्वारा अश्रुत श्रुत हो जाता है, अमत मत हो जाता है और अविज्ञात विशेषरूप से ज्ञात हो जाता है ।’ यह सुनकर श्वेतकेतु ने पूछा- ‘भगवन् ! वह आदेश कैसा है ?’ ।3।

हे सोम्य ! जिस प्रकार एक मृत्तिका के पिण्ड के द्वारा सम्पूर्ण मृन्मय पदार्थों का ज्ञान हो जाता है, क्योंकि विकार केवल वाणी के आश्रयभूत नाममात्र हैं, सत्य तो केवल मृत्तिका ही है ।4।

हे सोम्य ! जिस प्रकार एक लोहमणि का ज्ञान होने पर सम्पूर्ण लोहमय पदार्थों का ज्ञान हो जाता है, क्योंकि विकार केवल वाणी के आश्रयभूत नाममात्र हैं, सत्य तो केवल सुवर्ण ही है ।5।

हे सोम्य ! जिस प्रकार एक नखकृन्तन का ज्ञान होने पर सम्पूर्ण लोहे के पदार्थों का ज्ञान हो जाता है, क्योंकि विकार केवल वाणी के आश्रयभूत नाममात्र हैं, सत्य तो केवल लोहा ही है । हे सोम्य ! ऐसा ही वह आदेश भी है ।6।

‘निश्चय ही वे मेरे पूज्य गुरुदेव इसे नहीं जानते थे । यदि वे जानते तो मुझसे क्यों न कहते । अब आप ही मुझे बतलाइए ।’ तब पिता ने कहा- ‘अच्छा सोम्य ! बतलाता हूँ’ ।7।

द्वितीय खण्ड

हे सोम्य ! आरम्भ में यह एकमात्र अद्वितीय सत् ही था । उसी के विषय में किन्हीं ने ऐसा भी कहा कि आरम्भ में यह एकमात्र अद्वितीय असत् ही था । उस असत् से सत् की उत्पत्ति होती है ।1।

‘किन्तु हे सोम्य ! ऐसा कैसे हो सकता है, भला असत् से सत् की उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? अतः हे सोम्य ! आरम्भ में यह एकमात्र अद्वितीय सत् ही था’ ऐसा आरुणि ने कहा ।2।

उसने इच्छा की ‘मैं बहुत हो जाऊँ- अनेक प्रकार से उत्पन्न होऊँ’ । इस प्रकार उसने तेज की रचना की । उस तेज ने इच्छा की ‘मैं बहुत हो जाऊँ- अनेक प्रकार से उत्पन्न होऊँ’ । इस प्रकार उसने जल की रचना की । इसी से जहाँ कहीं पुरुष शोक करता है उसे पसीने आ जाते हैं । उस समय वह तेज से ही जल की उत्पत्ति होती है ।3।

उस जल ने इच्छा की ‘मैं बहुत हो जाऊँ- अनेक प्रकार से उत्पन्न होऊँ’ । इस प्रकार उसने अन्न की रचना की । इसी से जहाँ कहीं वर्षा होती है वहीं बहुत-सा अन्न होता है । वह अन्नाद्य जल से ही उत्पन्न होता है ।4।

तृतीय खण्ड

उन इन प्रसिद्ध प्राणियों के तीन ही बीज होते हैं- ‘आण्डज, जीवज और उद्भिज्ज’ ।1।

उस सत् नामक देवता ने ईक्षण किया, ‘मैं इस जीवात्मरूप से इन तीनों देवताओं में अनुप्रवेश कर नाम और रूप की अभिव्यक्ति करूँ’ ।2।

‘और उनमें से एक-एक देवता को त्रिवृत्-त्रिवृत् करूँ’ ऐसा विचार कर उस इस देवता ने इस जीवात्मरूप से ही उन तीन देवताओं में प्रवेश कर नामरूप का व्याकरण किया ।3।

उस देवता ने उनमें से प्रत्येक को त्रिवृत्-त्रिवृत् किया । हे सोम्य ! जिस प्रकार ये तीनों देवता एक-एक करके प्रत्येक त्रिवृत्-त्रिवृत् हैं वह मेरे द्वारा जान ।4।

चतुर्थ खण्ड

अग्नि का जो रोहित रूप है वह तेज का ही रूप है, जो शुक्ल रूप है वह जल का है और जो कृष्ण है वह अन्न का है । इस प्रकार अग्नि से अग्नित्व निवृत्त हो गया, क्योंकि विकार वाणी से कहने के लिए नाममात्र हैं, केवल तीन रूप हैं- इतना ही सत्य है ।1।

आदित्य का जो रोहित रूप है वह तेज का ही रूप है, जो शुक्ल रूप है वह जल का है और जो कृष्ण है वह अन्न का है । इस प्रकार आदित्य से आदित्यत्व निवृत्त हो गया, क्योंकि विकार वाणी पर अवलम्बित नाममात्र हैं, केवल तीन रूप हैं- इतना ही सत्य है ।2।

चन्द्रमा का जो रोहित रूप है वह तेज का ही रूप है, जो शुक्ल रूप है वह जल का है और जो कृष्ण है वह अन्न का है । इस प्रकार चन्द्रमा से चंद्रत्व निवृत्त हो गया, क्योंकि विकार वाणी पर अवलम्बित नाममात्र हैं, केवल तीन रूप हैं- इतना ही सत्य है ।3।

विद्युत का जो रोहित रूप है वह तेज का ही रूप है, जो शुक्ल रूप है वह जल का है और जो कृष्ण है वह अन्न का है । इस प्रकार विद्युत से विद्युत्त्व निवृत्त हो गया, क्योंकि विकार वाणी पर अवलम्बित नाममात्र हैं, केवल तीन रूप हैं- इतना ही सत्य है ।4।

इसको जानने वाले पूर्ववर्ती महागृहस्थ और महाश्रोत्रियों ने यह कहा था कि इस समय हमारे कुल में कोई बात अश्रुत, अमत अथवा अविज्ञात है- ऐसा कोई नहीं कह सकेगा, क्योंकि इन अग्नि आदि के दृष्टांत द्वारा वे सब कुछ जानते थे ।5।

जो कुछ रोहित सा है वह तेज का रूप है- ऐसा उन्होंने जाना है, जो कुछ शुक्ल सा है वह जल का रूप है- ऐसा उन्होंने जाना है तथा जो कुछ कृष्ण सा है वह अन्न का रूप है- ऐसा उन्होंने जाना है ।6।

तथा जो कुछ विज्ञात सा है वह इन देवताओं का ही समुदाय है- ऐसा उन्होंने जाना है । हे सोम्य ! अब तू मेरे द्वारा यह जान कि किस प्रकार ये तीनों देवता पुरुष को प्राप्त होकर उनमें से प्रत्येक त्रिवृत्-त्रिवृत् हो जाता है ।7।

पञ्चम खण्ड

खाया हुआ अन्न तीन प्रकार का हो जाता है । उसका जो अत्यन्त स्थूल भाग होता है, वह मल हो जाता है, जो मध्यम भाग होता है, वह मांस हो जाता है और जो अत्यन्त सूक्ष्म भाग होता है वह मन हो जाता है ।1।

पीया हुआ जल तीन प्रकार का हो जाता है । उसका जो अत्यन्त स्थूल भाग होता है, वह मूत्र हो जाता है, जो मध्यम भाग होता है, वह रक्त हो जाता है और जो अत्यन्त सूक्ष्म भाग होता है वह प्राण हो जाता है ।2।

खाया हुआ तेज तीन प्रकार का हो जाता है । उसका जो अत्यन्त स्थूल भाग होता है, वह हड्डी हो जाता है, जो मध्यम भाग होता है, वह मज्जा हो जाता है और जो अत्यन्त सूक्ष्म भाग होता है वह वाक् हो जाता है ।3।

हे सोम्य ! मन अन्नमय है, प्राण जलमय है और वाक् तेजोमयी है । ऐसा कहे जाने पर श्वेतकेतु बोला- ‘भगवन् ! आप मुझे फिर समझाइए’ । तब आरुणि ने ‘अच्छा सोम्य !’ ऐसा कहा ।4।

षष्ठ खण्ड

हे सोम्य ! मथे हुए दही का जो सूक्ष्म भाग होता है वह ऊपर इक्कट्ठा हो जाता है, वह घृत होता है ।1।

उसी प्रकार हे सोम्य ! खाये हुए अन्न का जो सूक्ष्म अंश होता है वह सम्यक् प्रकार से ऊपर आ जाता है, वह मन होता है ।2।

हे सोम्य ! पीये हुए जल का जो सूक्ष्म अंश होता है वह सम्यक् प्रकार से इकट्ठा होकर ऊपर आ जाता है, वह प्राण होता है ।3।

हे सोम्य ! भक्षण किये हुए तेज का जो सूक्ष्म अंश होता है वह सम्यक् प्रकार से इकट्ठा होकर ऊपर आ जाता है, वह वाणी होता है ।4।

हे सोम्य ! मन अन्नमय है, प्राण जलमय है और वाक् तेजोमयी है । ऐसा कहे जाने पर श्वेतकेतु बोला- ‘भगवन् ! आप मुझे फिर समझाइए’ । तब आरुणि ने ‘अच्छा सोम्य !’ ऐसा कहा ।5।

सप्तम खण्ड

हे सोम्य ! पुरुष सोलह कलाओं वाला है । तू पन्द्रह दिन भोजन मत कर, केवल यथेच्छ जलपान कर । प्राण जलमय है, इसलिए जल पीते रहने से उसका नाश नहीं होगा ।1।

उसने पन्द्रह दिन भोजन नहीं किया । तत्पश्चात वह आरुणि के पास आया और कहा- ‘भगवन् ! क्या बोलूँ ?’ पिता ने कहा- ‘हे सोम्य ! ऋक्, यजुः और साम का पाठ करो’ । तब उसने कहा- ‘भगवन् ! मुझे उनका प्रतिभान नहीं होता’ ।2।

वह उससे बोला- ‘हे सोम्य ! जिस प्रकार बहुत से ईंधन से प्रज्वलित हुए अग्नि का एक जुगनू के बराबर अंगारा रह जाये तो वह उससे अधिक दाह नहीं कर सकता, उसी प्रकार हे सोम्य ! तेरी सोलह कलाओं में से एक ही कला रह गयी है । उसके द्वारा इस समय तू वेद का अनुभव नहीं कर सकता । अच्छा, अब भोजन कर, तब तू मेरी बात समझ जाएगा’ ।3।

उसने भोजन किया और पिता के पास आया । तब उसने जो कुछ पूछा वह सब उसे उपस्थित हो गया ।4।

उससे पिता ने कहा- ‘हे सोम्य ! जिस प्रकार बहुत से ईंधन से बढ़े हुए अग्नि का एक खद्योतमात्र अंगारा रह जाये और उसे तृण से सम्पन्न कर प्रज्वलित कर दिया जाए तो वह उसकी अपेक्षा भी अधिक दाह कर सकता है’ ।5।

‘इसी प्रकार हे सोम्य ! तेरी सोलह कलाओं में से एक कला अवशिष्ट रह गयी थी । वह अन्न द्वारा प्रज्वलित कर दी गयी । अब उसी से तू वेदों का अनुभव कर रहा है । अतः हे सोम्य ! मन अन्नमय है, प्राण जलमय है और वाक् तेजोमय है’ । इस प्रकार वह उसके इस कथन को विशेषरूप से समझ गया, समझ गया ।6।

अष्टम खण्ड

उद्दालक के नाम से प्रसिद्ध अरुण के पुत्र ने श्वेतकेतु से कहा- ‘हे सोम्य ! तू मेरे द्वारा स्वप्नान्त को विशेषरूप से समझ ले, जिस अवस्था मे यह पुरुष ‘सोता है’ ऐसा कहा जाता है, उस समय हे सोम्य ! यह सत् से सम्पन्न हो जाता है- यह अपने स्वरूप को प्राप्त हो जाता है । इसी से इसे ‘स्वपिति’ ऐसा कहते हैं, क्योंकि उस समय यह स्व- अपने को ही अपीत- प्राप्त हो जाता है ।1।

जिस प्रकार डोरी में बँधा हुआ पक्षी दिशा-विदिशाओं में उड़कर अन्यत्र स्थान न मिलने पर अपने बन्धनस्थान का ही आश्रय लेता है इसी प्रकार निश्चय ही हे सोम्य ! यह मन दिशा-विदिशाओं में उड़कर अन्यत्र स्थान न मिलने से प्राण का ही आश्रय लेता है, क्योंकि हे सोम्य ! मन प्राणरूप बन्धन वाला ही है ।2।

‘हे सोम्य ! तू मेरे द्वारा अशना (भूख) और पिपासा (प्यास) को जान । जिस समय यह पुरुष ‘खाना चाहता है’ ऐसे नाम वाला होता है, उस समय जल ही इसके भक्षण किये हुए अन्न को ले जाता है । जिस प्रकार लोक में गौनाय, अश्वनाय और पुरुषनाय कहते हैं । उसी प्रकार जल को ‘अशनाय’ ऐसा कहकर पुकारते हैं । हे सोम्य ! उस जल से ही तू इस शरीर रूपी अंकुर को उत्पन्न हुआ समझ, क्योंकि यह निर्मूल नहीं हो सकता ।3।

अन्न को छोड़कर इसका मूल और कहाँ हो सकता है ? इसी प्रकार हे सोम्य ! तू अन्नरूप अंकुर के द्वारा जलरूप मूल को खोज और हे सोम्य ! जलरूप अंकुर के द्वारा तेजोरूप मूल को खोज तथा तेजोरूप अंकुर के द्वारा सद्रूप मूल का अनुसंधान कर । हे सोम्य ! इस प्रकार यह सारी प्रजा सन्मूलक है तथा सत् ही इसका आश्रय है और सत् ही प्रतिष्ठा है ।4।

अब जिस समय यह पुरुष ‘पीना चाहता है’ ऐसे नाम वाला होता है, उस समय तेज ही इसके पीये हुए जल को ले जाता है । अतः जिस प्रकार लोक में गौनाय, अश्वनाय और पुरुषनाय कहते हैं । उसी प्रकार तेज को ‘उदन्या’ ऐसा कहकर पुकारते हैं । हे सोम्य ! उस जलरूप मूल से यह शरीररूप अंकुर उत्पन्न हुआ है- ऐसा जान, क्योंकि यह निर्मूल नहीं हो सकता ।5।

हे सोम्य ! शरीर का जल के सिवा और कहाँ मूल हो सकता है ? हे प्रियदर्शन ! जलरूप अंकुर के द्वारा तू तेजोरूप मूल की खोज कर और हे सोम्य ! तेजोरूप अंकुर के द्वारा सद्रूप । मूल की शोध कर । हे सोम्य ! यह सम्पूर्ण प्रजा सन्मूल के तथा सद्रूप आयतन और सद्रूप प्रतिष्ठा वाली है । हे सोम्य ! जिस प्रकार ये तीनों देवता पुरुष को प्राप्त होकर उनमें से प्रत्येक त्रिवृत्-त्रिवृत् हो जाता है वह मैंने पहले ही कह दिया । हे सोम्य ! मरण को प्राप्त होते हुए इस पुरुष की वाक् मन में लीन हो जाती है तथा मन में प्राण, प्राण तेज में और तेज परदेवता में लीन हो जाता है ।6।

वह जो यह अणिमा है एतद्रूप ही यह सब है । वह सत्य है, वह आत्मा है और हे श्वेतकेतो ! वही तू है । ऐसा कहे जाने पर श्वेतकेतु बोला- ‘भगवन् ! आप मुझे फिर समझाइए’ । तब आरुणि ने ‘अच्छा सोम्य !’ ऐसा कहा ।7।

नवम खण्ड

हे सोम्य ! जिस प्रकार मधुमक्खियाँ मधु निष्पन्न करती हैं तो नाना वृक्षों का रस लाकर एकता को प्राप्त करा देती हैं ।1।

जिस प्रकार वे रस उस मधु में यह विवेक प्राप्त नहीं कर सकते कि ‘मैं इस वृक्ष का रस हूँ और मैं इस वृक्ष का रस हूँ’ हे सोम्य ! ठीक इसी प्रकार यह प्रजा सत् को प्राप्त होकर यह नहीं जानती कि हम सत् को प्राप्त हो गए ।2।

वे इस लोक में व्याघ्र, सिंह, भेड़िया, शूकर, कीट, पतंग, डाँस, अथवा मच्छर जो-जो भी होते हैं, वे ही पुनः हो जाते हैं ।3।

वह जो यह अणिमा है एतद्रूप ही यह सब है । वह सत्य है, वह आत्मा है और हे श्वेतकेतो ! वही तू है । ऐसा कहे जाने पर श्वेतकेतु बोला- ‘भगवन् ! आप मुझे फिर समझाइए’ । तब आरुणि ने ‘अच्छा सोम्य !’ ऐसा कहा ।4।

दशम खण्ड

हे सोम्य ! ये नदियाँ पूर्ववाहिनी होकर पूर्व की ओर बहती हैं तथा पश्चिमवाहिनी होकर पश्चिम की ओर । वे समुद्र से निकलकर फिर समुद्र में ही मिल जाती हैं और वह समुद्र ही हो जाता है । वे सब जिस प्रकार वहाँ यह नहीं जानतीं की ‘यह मैं हूँ, यह मैं हूँ’ ।1।

ठीक इसी प्रकार यह समस्त प्रजा सत् से आने पर यह नहीं जानती कि हम सत् से आये हैं । वे इस लोक में व्याघ्र, सिंह, भेड़िया, शूकर, कीट, पतंग, डाँस, अथवा मच्छर जो-जो भी होते हैं, वे ही पुनः हो जाते हैं ।2।

वह जो यह अणिमा है एतद्रूप ही यह सब है । वह सत्य है, वह आत्मा है और हे श्वेतकेतो ! वही तू है । ऐसा कहे जाने पर श्वेतकेतु बोला- ‘भगवन् ! आप मुझे फिर समझाइए’ । तब आरुणि ने ‘अच्छा सोम्य !’ ऐसा कहा ।3।

एकादश खण्ड

हे सोम्य ! यदि कोई इस महान् वृक्ष के मूल में आघात करे तो यह जीवित रहते हुए ही केवल रक्तस्राव करेगा, यदि मध्य में आघात करे तो भी यह जीवित रहते हुए केवल रक्तस्राव करेगा और यदि इसके अग्रभाग में आघात करे तो भी यह जीवित रहते हुए ही रक्तस्राव करेगा । यह वृक्ष जीव-आत्मा से ओतप्रोत है और जलपान करता हुआ आनन्द से स्थित है ।1।

यदि इस वृक्ष की एक शाखा को जीव छोड़ देता है तो वह सूख जाती है, यदि दूसरी को छोड़ देता है तो वह सूख जाती है, और यदि तीसरी को छोड़ देता है तो वह भी सूख जाती है, इसी प्रकार यदि सारे वृक्ष को छोड़ देता है तो सारा वृक्ष सूख जाता है ।2।

‘हे सोम्य ! ठीक इसी प्रकार तू जान कि जीव से रहित होने पर यह शरीर मर जाता है, जीव नहीं मरता’- ‘वह जो यह अणिमा है एतद्रूप ही यह सब है । वह सत्य है, वह आत्मा है और हे श्वेतकेतो ! वही तू है’ । ऐसा कहे जाने पर श्वेतकेतु बोला- ‘भगवन् ! आप मुझे फिर समझाइए’ । तब आरुणि ने ‘अच्छा सोम्य !’ ऐसा कहा ।3।

द्वादश खण्ड

‘इस वृक्ष से एक बड़ का फल ले आ ।’-’भगवन् ! यह ले आया ।’-’इसे फोड़ ।’ भगवन् ! फोड़ दिया’-’इसमें क्या देखता है ?’-’भगवन् ! इसमें ये अणु के समान दाने हैं ।’-’अच्छा वत्स ! इनमें से एक को फोड़ ।’-’फोड़ दिया भगवन् !’-’इसमें क्या देखता है’-’कुछ नहीं भगवन् !’ ।1।

तब उससे कहा- ‘हे सोम्य ! इस वटबीज की जिस अणिमा को तू नहीं देखता, हे सोम्य ! उस अणिमा का ही यह इतना बड़ा वटवृक्ष खड़ा हुआ है । हे सोम्य ! तू श्रद्धा कर’ ।2।

वह जो यह अणिमा है एतद्रूप ही यह सब है । वह सत्य है, वह आत्मा है और हे श्वेतकेतो ! वही तू है । ऐसा कहे जाने पर श्वेतकेतु बोला- ‘भगवन् ! आप मुझे फिर समझाइए’ । तब आरुणि ने ‘अच्छा सोम्य !’ ऐसा कहा ।3।

त्रयोदश खण्ड

इस नमक को जल में डालकर कल प्रातःकाल मेरे पास आना । आरुणि के इस प्रकार कहने पर श्वेतकेतु ने वैसा ही किया । तब आरुणि ने उससे कहा- ‘वत्स ! रात तुमने जो नमक जल में डाला था उसे ले आओ ।’ किन्तु उसने ढूँढने पर वह नमक उसमें न पाया ।1।

‘इस जल को ऊपर से आचमन कर’ ‘कैसा है ?’ -’नमकीन है’ -’बीच में से आचमन कर’ ‘अब कैसा है’ -’नमकीन है’ -’नीचे से आचमन कर’ ‘अब कैसा है’ -’नमकीन है’ -’अच्छा अब इस जल को फेंककर मेरे पास आ ।’ उसने वैसा ही किया और बोला- ‘उसमें नमक सदा ही विद्यमान था ।’ तब पिता ने उससे कहा- ‘हे सोम्य ! जिस प्रकार वह नमक इसमें विलीन हो गया है, इसी प्रकार वह सत् भी निश्चय यहीं विद्यमान है, तू उसे देखता नहीं है, परन्तु वह निश्चय यहीं विद्यमान है’ ।2।

वह जो यह अणिमा है एतद्रूप ही यह सब है । वह सत्य है, वह आत्मा है और हे श्वेतकेतो ! वही तू है । ऐसा कहे जाने पर श्वेतकेतु बोला- ‘भगवन् ! आप मुझे फिर समझाइए’ । तब आरुणि ने ‘अच्छा सोम्य !’ ऐसा कहा ।3।

चतुर्दश खण्ड

हे सोम्य ! जिस प्रकार कोई पुरुष जिसकी आँखें बँधी हुई हों, ऐसे पुरुष को गान्धारदेश से ले जाकर किसी जनशून्य स्थान में छोड़ दे । उस जगह जिस प्रकार वह पूर्व, उत्तर, दक्षिण अथवा पश्चिम की ओर मुख करके चिल्लावे कि ‘मुझे आँखें बाँधकर यहाँ लाया गया है और आँखे बँधे ही छोड़ दिया है’ ।1।

उस पुरुष के बन्धन को खोलकर जैसे कोई कहे कि ‘गान्धारदेश इस दिशा में है, अतः इसी दिशा को जा,’ तो वह बुद्धिमान और समझदार पुरुष एक ग्राम से दूसरा ग्राम पूछते हुए गान्धार में ही पहुँच जाता है, इसी प्रकार इस लोक में आचार्यवान पुरुष ही सत् को जानता है, उसके लिए उतना ही विलम्ब है जब तक कि वह देहबन्धन से मुक्त नहीं होता । उसके पश्चात् तो वह सत्सम्पन्न हो जाता है ।2।

वह जो यह अणिमा है एतद्रूप ही यह सब है । वह सत्य है, वह आत्मा है और हे श्वेतकेतो ! वही तू है । ऐसा कहे जाने पर श्वेतकेतु बोला- ‘भगवन् ! आप मुझे फिर समझाइए’ । तब आरुणि ने ‘अच्छा सोम्य !’ ऐसा कहा ।3।

पञ्चदश खण्ड

हे सोम्य ! ज्वरादि से सन्तप्त मुमूर्षु पुरुष को चारों ओर से घेरकर उसके बान्धवगण पूछा करते हैं- ‘क्या तू मुझे जानता है ? क्या तू मुझे पहचानता है ?’ जब तक उसकी वाणी मन में लीन नहीं होती तथा मन प्राण में, प्राण तेज में और तेज परदेवता में लीन नहीं होता तब तक वह पहचान लेता है ।1।

फिर जिस समय उसकी वाणी मन में लीन हो जाती है तथा मन प्राण में, प्राण तेज में और तेज परदेवता में लीन हो जाता है तब वह नहीं पहचानता ।2।

वह जो यह अणिमा है एतद्रूप ही यह सब है । वह सत्य है, वह आत्मा है और हे श्वेतकेतो ! वही तू है । ऐसा कहे जाने पर श्वेतकेतु बोला- ‘भगवन् ! आप मुझे फिर समझाइए’ । तब आरुणि ने ‘अच्छा सोम्य !’ ऐसा कहा ।3।

षोडश खण्ड

हे सोम्य ! राजकर्मचारी किसी पुरुष को हाथ बाँधकर लाते हैं और कहते हैं- ‘इसने धन का अपहरण किया है, चोरी की है इसके लिए परशु तपाओ’ । वह यदि उस चोरी का करने वाला होता है तो अपने को मिथ्यावादी प्रमाणित करता है । वह मिथ्याभिनिवेश वाला पुरुष अपने को मिथ्या से छुपाता हुआ तपे हुए परशु को ग्रहण करता है, किन्तु वह उससे दग्ध होता है और मारा जाता है ।1।

और यदि वह उस चोरी का करने वाला नहीं होता तो उसी से वह अपने को सत्य प्रमाणित करता है । वह सत्याभिसन्ध अपने को सत्य से आवृत कर उस तपे हुए परशु को पकड़ लेता है । वह उससे नहीं जलता और तत्काल छोड़ दिया जाता है ।2।

वह जिस प्रकार उस परीक्षा के समय नहीं जलता, उसी प्रकार विद्वान का पुनरावर्तन नहीं होता । यह सब एतद्रूप ही है । वह सत्य है, वह आत्मा है और हे श्वेतकेतो ! वही तू है । तब वह श्वेतकेतु उसे जान गया- उसे जान गया ।3।

सप्तम प्रपाठक[संपादित करें]

प्रथम खण्ड

‘हे भगवन् ! मुझे उपदेश कीजिये’ ऐसा कहते हुए नारद जी सानत्कुमार जी के पास गए । उनसे सानत्कुमार जी ने कहा- ‘तुम जो कुछ जानते हो उसे बतलाते हुए मेरे पास उपदेश लेने के लिए आओ, तब मैं तुम्हें उससे आगे बतलाऊँगा’ तब नारद ने कहा- ।1।

‘भगवन् ! मुझे ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और चौथा अथर्ववेद याद है, इतिहास-पुराणरूप पाँचवाँ वेद, व्याकरण, श्राद्धकल्प, गणित, उत्पातज्ञान, निधिशास्त्र, तर्कशास्त्र, नीति, देवविद्या, ब्रह्मविद्या, भूतविद्या, क्षत्रविद्या, नक्षत्रविद्या, सर्पविद्या, और देवजनविद्या- नृत्य-संगीत आदि- हे भगवन् ! यह सब मैं जानता हूँ’ ।2।

हे भगवन् ! मैं केवल मन्त्रवेत्ता ही हूँ, आत्मवेत्ता नहीं हूँ । मैंने आप जैसों से सुना है कि आत्मवेत्ता शोक को पार कर लेता है, और हे भगवन् ! मैं शोक करता हूँ, ऐसे मुझको हे भगवन् ! शोक से पार कर दीजिए । तब सानत्कुमार ने उनसे कहा- ‘तुम यह जो कुछ जानते हो यह नाम ही है’ ।3।

ऋग्वेद नाम है, तथा यजुर्वेद, सामवेद, चौथा अथर्वण वेद, पाँचवाँ वेद इतिहास-पुराण, वेदों का वेद (व्याकरण), श्राद्धकल्प, गणित, उत्पातज्ञान, निधिज्ञान, तर्कशास्त्र, नीतिशास्त्र, निरुक्त, देवविद्या, भूतविद्या, धनुर्वेद, ज्यौतिष, गारुड़, संगीतादि कला और शिल्पविद्या- ये सब भी नाम ही हैं, तुम नाम की उपासना करो ।4।

वह जो कि नाम की ‘यह ब्रह्म है’ ऐसी उपासना करता है उसकी जहाँ तक नाम की गति होती है वहाँ तक यथेच्छ गति हो जाती है, जो कि नाम की ‘यह ब्रह्म है’ ऐसी उपासना करता है । – ‘भगवन् ! क्या नाम से भी अधिक कुछ है ?’ – ‘नाम से भी अधिक है’ – ‘तो भगवन् ! मुझे वही बतलावें’ ।5।

द्वितीय खण्ड

वाक् ही नाम से बढ़कर है, वाक् ही ऋग्वेद को विज्ञापित करती है तथा यजुर्वेद, सामवेद, चतुर्थ आथर्वण वेद, पाँचवाँ वेद इतिहास-पुराण, वेदों का वेद (व्याकरण), श्राद्धकल्प, गणित, उत्पातज्ञान, निधिज्ञान, तर्कशास्त्र, नीतिशास्त्र, निरुक्त, देवविद्या, भूतविद्या, धनुर्वेद, ज्यौतिष, गारुड़, संगीतशास्त्र, द्युलोक, पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, तेज, देव, मनुष्य, पशु, पक्षी, तृण-वनस्पति, श्वापद, कीट-पतंग,पिपीलिकापर्यन्त प्राणी, धर्म और अधर्म, सत्य और असत्य, साधु और असाधु, मनोज्ञ और अमनोज्ञ, जो कुछ भी है उसे वाक् ही विज्ञापित करती है । यदि वाणी न होती तो न धर्म का और न अधर्म का ही ज्ञान होता, तथा न सत्य न असत्य, न साधु न असाधु, न मनोज्ञ और न अमनोज्ञ का ही ज्ञान हो सकता । वाणी ही इस सबका ज्ञान कराती है, अतः तुम वाक् की उपासना करो ।1।

वह जो वाणी की ‘यह ब्रह्म है’ ऐसी उपासना करता है उसकी जहाँ तक वाणी की गति है वहाँ तक यथेच्छ गति हो जाती है, जो कि वाणी की ‘यह ब्रह्म है’ ऐसी उपासना करता है । – ‘भगवन् ! क्या वाणी से भी अधिक कुछ है ?’ – ‘वाणी से भी अधिक है’ – ‘तो भगवन् ! मुझे वही बतलावें’ ।2।

तृतीय खण्ड

मन ही वाणी से उत्कृष्ट है । जिस प्रकार दो आँवले, दो बेर अथवा दो बहेड़े मुट्ठी में आ जाते हैं उसी प्रकार वाक् और नाम का मन में अन्तर्भाव हो जाता है । यह पुरुष जिस समय मन से विचार करता है कि ‘मन्त्रों का पाठ करूँ’ तभी पाठ करता है, जिस समय सोचता है ‘काम करूँ’ तभी काम करता है, जब विचारता है ‘पुत्र और पशुओं की इच्छा करूँ’ तभी उनकी इच्छा करता है और जब ऐसा संकल्प करता है कि ‘इस लोक और परलोक की कामना करूँ’ तभी उनकी कामना करता है । मन ही आत्मा है, मन ही लोक है और मन ही ब्रह्म है, मन की उपासना करो ।1।

वह जो मन की ‘यह ब्रह्म है’ ऐसी उपासना करता है उसकी जहाँ तक मन की गति है वहाँ तक यथेच्छ गति हो जाती है, जो कि मन की ‘यह ब्रह्म है’ ऐसी उपासना करता है । – ‘भगवन् ! क्या मन से भी अधिक कुछ है ?’ – ‘मन से भी अधिक है ही’ – ‘तो भगवन् ! मुझे वही बतलावें’ ।2।

चतुर्थ खण्ड

संकल्प ही मन से बढ़कर है । जिस समय मनुष्य संकल्प करता है तभी वह बोलने की इच्छा करता है और फिर वाणी को प्रेरित करता है । वह उसे नाम के प्रति प्रवृत्त करता है, नाम में सब मन्त्र एकरूप हो जाते हैं और मन्त्रों में कर्मों का अन्तर्भाव हो जाता है ।1।

वे ये मन आदि एकमात्र संकल्परूप लयस्थान वाले, संकल्पमय और संकल्प में ही प्रतिष्ठित हैं । द्युलोक और पृथ्वी ने मानो संकल्प किया है । वायु और आकाश ने संकल्प किया है, जल और तेज ने संकल्प किया है । उनके संकल्प के लिए वृष्टि समर्थ होती है, वृष्टि के संकल्प के लिए अन्न समर्थ होता है, अन्न के संकल्प के लिए प्राण समर्थ होते हैं, प्राण के संकल्प के मन्त्र प्राण समर्थ होते हैं, मन्त्रों के संकल्प के लिए कर्म समर्थ होते हैं, कर्मों के संकल्प के लिए लोक समर्थ होता है और लोकों के संकल्प के लिए सब समर्थ होते हैं । वह ऐसा यह संकल्प है, संकल्प की उपासना करो ।2।

वह जो संकल्प की ‘यह ब्रह्म है’ ऐसी उपासना करता है वह रचे हुए ध्रुवलोकों को स्वयं ध्रुव होकर, प्रतिष्ठित लोकों को स्वयं प्रतिष्ठित होकर तथा व्यथा न पाने वाले लोकों को स्वयं व्यथा न पाता हुआ सब प्रकार प्राप्त करता है । उसकी जहाँ तक संकल्प की गति है वहाँ तक यथेच्छ गति हो जाती है, जो कि संकल्प की ‘यह ब्रह्म है’ ऐसी उपासना करता है । – ‘भगवन् ! क्या संकल्प से भी अधिक कुछ है ?’ – ‘संकल्प से भी अधिक है ही’ – ‘तो भगवन् ! मुझे वही बतलावें’ ।3।

पञ्चम खण्ड

चित्त ही संकल्प से उत्कृष्ट है । जिस समय पुरुष चेतनावान होता है, तभी वह संकल्प करता है, फिर मनन करता है, तत्पश्चात वाणी को प्रेरित करता है, उसे नाम में प्रवृत्त करता है । नाम में मन्त्र एकरूप हो जाते हैं और मन्त्रों में कर्म ।1।

वे ये संकल्पादि आदि एकमात्र चित्तरूप लयस्थान वाले, चित्तमय और चित्त में ही प्रतिष्ठित हैं । इसी से यद्यपि कोई मनुष्य बहुज्ञ भी हो तो भी यदि वह अचित्त होता है तो लोग कहने लगते हैं कि ‘यह तो कुछ भी नहीं है यदि यह कुछ जानता तो ऐसा अचित्त न होता’ । और यदि कोई अल्पज्ञ होने पर भी चित्तवान हो तो उसी से सब श्रवण करना चाहते हैं । अतः चित्त ही इनका एकमात्र आश्रय है, चित्त ही आत्मा है, चित्त ही प्रतिष्ठा है, चित्त की उपासना करो ।2।

वह जो चित्त की ‘यह ब्रह्म है’ ऐसी उपासना करता है वह उपचित हुए ध्रुवलोकों को स्वयं ध्रुव होकर, प्रतिष्ठित लोकों को स्वयं प्रतिष्ठित होकर तथा व्यथा न पाने वाले लोकों को स्वयं व्यथा न पाता हुआ सब प्रकार प्राप्त करता है । उसकी जहाँ तक चित्त की गति है वहाँ तक यथेच्छ गति हो जाती है, जो कि चित्त की ‘यह ब्रह्म है’ ऐसी उपासना करता है । – ‘भगवन् ! क्या चित्त से भी अधिक कुछ है ?’ – ‘चित्त से भी अधिक है ही’ – ‘तो भगवन् ! मुझे वही बतलावें’ ।3।

षष्ठ खण्ड

ध्यान ही चित्त से बढ़कर है । पृथ्वी मानो ध्यान करती है, अन्तरिक्ष मानो ध्यान करता है, द्युलोक मानो ध्यान करता है, जल मानो ध्यान करते हैं, पर्वत मानो ध्यान करते हैं तथा देवता और मनुष्य भी मानो ध्यान करते हैं । अतः जो लोग मनुष्यों में यहाँ महत्त्व को प्राप्त करते हैं वे मानो ध्यान के लाभ का ही अंश पाते हैं, किन्तु जो क्षुद्र होते हैं वे कलहप्रिय, चुगलखोर और दूसरों के मुँह पर ही उनकी निन्दा करने वाले होते हैं । जो सामर्थ्यवान हैं वे भी ध्यान के लाभ का ही अंश प्राप्त करने वाले हैं । ध्यान की उपासना करो ।1।

वह जो ध्यान की ‘यह ब्रह्म है’ ऐसी उपासना करता है उसकी जहाँ तक ध्यान की गति है वहाँ तक यथेच्छ गति हो जाती है, जो कि ध्यान की ‘यह ब्रह्म है’ ऐसी उपासना करता है । – ‘भगवन् ! क्या ध्यान से भी अधिक कुछ है ?’ – ‘ध्यान से भी अधिक है ही’ – ‘तो भगवन् ! मुझे वही बतलावें’ ।2।

सप्तम खण्ड

विज्ञान ही ध्यान से श्रेष्ठ है । विज्ञान से ही पुरुष ऋग्वेद समझता है, विज्ञान से ही वह यजुर्वेद, सामवेद, चतुर्थ आथर्वण वेद, पाँचवें वेद इतिहास-पुराण, वेदों का वेद (व्याकरण), श्राद्धकल्प, गणित, उत्पातज्ञान, निधिज्ञान, तर्कशास्त्र, नीतिशास्त्र, निरुक्त, देवविद्या, भूतविद्या, धनुर्वेद, ज्यौतिष, गारुड़, संगीतशास्त्र, द्युलोक, पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, तेज, देव, मनुष्य, पशु, पक्षी, तृण-वनस्पति, श्वापद, कीट-पतंग,पिपीलिकापर्यन्त प्राणी, धर्म और अधर्म, सत्य और असत्य, साधु और असाधु, मनोज्ञ और अमनोज्ञ, अन्न, रस, इहलोक तथा परलोक को जानता है । विज्ञान की उपासना करो ।1।

वह जो विज्ञान की ‘यह ब्रह्म है’ ऐसी उपासना करता है उसे विज्ञानवान और ज्ञानवान लोकों की प्राप्ति होती है । उसकी जहाँ तक विज्ञान की गति है वहाँ तक यथेच्छ गति हो जाती है, जो कि विज्ञान की ‘यह ब्रह्म है’ ऐसी उपासना करता है । – ‘भगवन् ! क्या विज्ञान से भी अधिक कुछ है ?’ – ‘विज्ञान से भी अधिक है ही’ – ‘तो भगवन् ! मुझे वही बतलावें’ ।2।

अष्टम खण्ड

बल ही विज्ञान की अपेक्षा उत्कृष्ट है । सौ विज्ञानवानों को भी एक बलवान हिला देता है । जिस समय यह पुरुष बलवान होता है तभी उठनेवाला भी होता है, उठकर ही परिचर्या करनेवाला होता है तथा परिचर्या करने वाला होने पर ही उपसदन करने वाला होता है और उपसदन करने वाला होने पर ही दर्शन करने वाला होता है, श्रवण करने वाला होता है, मनन करने वाला होता है, बोधवान होता है, कर्ता होता है एवं विज्ञता होता है । बल से ही पृत्वी स्थित है, बल से ही अन्तरिक्ष, बल से ही द्युलोक, बल से ही पर्वत, बल से ही देवता और मनुष्य, बल से ही पशु, पक्षी, तृण-वनस्पति, श्वापद, कीट-पतंग,पिपीलिकापर्यन्त समस्त प्राणी स्थित हैं तथा बल से ही लोक स्थित है । बल की उपासना करो ।1।

वह जो बल की ‘यह ब्रह्म है’ ऐसी उपासना करता है उसकी जहाँ तक बल की गति है वहाँ तक यथेच्छ गति हो जाती है, जो कि बल की ‘यह ब्रह्म है’ ऐसी उपासना करता है । – ‘भगवन् ! क्या बल से भी अधिक कुछ है ?’ – ‘बल से भी अधिक है ही’ – ‘तो भगवन् ! मुझे वही बतलावें’ ।2।

नवम खण्ड

अन्न ही बल से उत्कृष्ट है । इसी से यदि दस दिन भोजन न करे और जीवित भी रह जाये तो भी वह अद्रष्टा, अश्रोता, अमन्ता, अबोद्धा, अकर्ता और अविज्ञाता हो ही जाता है । फिर अन्न की प्राप्ति होने पर ही द्रष्टा होता है, श्रोता होता है, मनन करने वाला होता है, बोद्धा होता है, कर्ता होता है और विज्ञाता होता है । अन्न की उपासना करो ।1।

वह जो अन्न की ‘यह ब्रह्म है’ ऐसी उपासना करता है उसे अन्नवान और पानवान लोकों की प्राप्ति होती है । उसकी जहाँ तक अन्न की गति है वहाँ तक यथेच्छ गति हो जाती है, जो कि अन्न की ‘यह ब्रह्म है’ ऐसी उपासना करता है । – ‘भगवन् ! क्या अन्न से भी अधिक कुछ है ?’ – ‘अन्न से भी अधिक है ही’ – ‘तो भगवन् ! मुझे वही बतलावें’ ।2।

दशम खण्ड

जल ही अन्न की अपेक्षा श्रेष्ठ है । इसी से जब सुवृष्टि नहीं होती तो प्राण दुःखी हो जाते हैं कि अन्न थोड़ा होगा । और जब सुवृष्टि होती है तो यह सोचकर कि खूब अन्न होगा प्राण प्रसन्न हो जाते हैं । यह जो पृथ्वी है मूर्तिमान जल ही है तथा जो अन्तरिक्ष, द्युलोक, पर्वत, देव्-मनुष्य, जो पशु, पक्षी, तृण-वनस्पति, श्वापद, कीट-पतंग,पिपीलिकापर्यन्त समस्त प्राणी हैं वे भी मूर्तिमान जल ही हैं । जल की उपासना करो ।1।

वह जो जल की ‘यह ब्रह्म है’ ऐसी उपासना करता है, सम्पूर्ण कामनाओं को प्राप्त कर लेता है और तृप्तिमान होता है । उसकी जहाँ तक जल की गति है वहाँ तक यथेच्छ गति हो जाती है, जो कि जल की ‘यह ब्रह्म है’ ऐसी उपासना करता है । – ‘भगवन् ! क्या जल से भी श्रेष्ठ कुछ है ?’ – ‘जल से भी श्रेष्ठ है ही’ – ‘तो भगवन् ! मुझे वही बतलावें’ ।2।

एकादश खण्ड

तेज ही जल की अपेक्षा उत्कृष्टतर है । वह यह तेज जिस समय वायु को निश्चल कर आकाश को सब ओर से तृप्त करता है उस समय लोग कहते हैं- ‘गर्मी हो रही है, बड़ा ताप है, वर्षा होगी’ । इस प्रकार तेज ही पहले अपने को उद्भूत हुआ दिखलाकर फिर जल की उत्पत्ति करता है । वह यह तेज ही वर्षा का हेतु है । जब उर्ध्वगामी और तिर्यग्गामी विद्युत के सहित गड़गड़ाहट के शब्द फैल जाते हैं, तब उससे प्रभावित होकर लोग कहते हैं- ‘बिजली चमकती है, बादल गर्जता है, वर्षा होगी’ । इस प्रकार तेज ही पहले अपने को प्रदर्शित कर फिर जल को उत्पन्न करता है । अतः तेज की उपासना करो ।1।

वह जो तेज की ‘यह ब्रह्म है’ ऐसी उपासना करता है वह तेजस्वी होकर तेजःसम्पन्न, प्रकाशमान और तमोहीन लोकों को प्राप्त करता है । उसकी जहाँ तक तेज की गति है वहाँ तक यथेच्छ गति हो जाती है, जो कि तेज की ‘यह ब्रह्म है’ ऐसी उपासना करता है । – ‘भगवन् ! क्या तेज से भी अधिक कुछ है ?’ – ‘तेज से भी अधिक है ही’ – ‘तो भगवन् ! मुझे वही बतलावें’ ।2।

द्वादश खण्ड

आकाश ही तेज से बढ़कर है । आकाश में ही सूर्य, चन्द्र ये दोनों तथा विद्युत, नक्षत्र और अग्नि स्थित है । आकाश के द्वारा ही एक-दूसरे को पुकारते हैं, आकाश से ही सुनते हैं, आकाश से ही प्रतिश्रवण करते हैं, आकाश में ही रमण करते हैं, आकाश में ही रमण नहीं करते, आकाश में ही उत्पन्न होते हैं, आकाश की ओर ही बढ़ते हैं । आकाश की उपासना करो ।1।

वह जो कि आकाश की ‘यह ब्रह्म है’ ऐसी उपासना करता है वह आकाशवान, प्रकाशवान, पीड़ारहित और विस्तार वाले लोकों को प्राप्त करता है । उसकी जहाँ तक आकाश की गति है वहाँ तक यथेच्छ गति हो जाती है, जो कि आकाश की ‘यह ब्रह्म है’ ऐसी उपासना करता है । – ‘भगवन् ! क्या आकाश से भी अधिक कुछ है ?’ – ‘आकाश से भी अधिक है ही’ – ‘तो भगवन् ! मुझे वही बतलावें’ ।2।

त्रयोदश खण्ड

स्मर ही आकाश से बढ़कर है । इसी से यद्यपि बहुत-से लोग बैठे हों तो भी स्मरण न करने पर वे न कुछ सुन सकते हैं, न मनन कर सकते हैं और न जान ही सकते हैं । जिस समय वे स्मरण करते हैं उसी समय सुन सकते हैं, उसी समय मनन कर सकते हैं और उसी समय जान सकते हैं । स्मरण करने से ही पुरुष पुत्रों को पहचानता है और स्मरण से ही पशुओं को । तुम स्मर की उपासना करो ।1।

वह जो स्मर की ‘यह ब्रह्म है’ ऐसी उपासना करता है उसकी जहाँ तक स्मर की गति है वहाँ तक यथेच्छ गति हो जाती है, जो कि स्मर की ‘यह ब्रह्म है’ ऐसी उपासना करता है । – ‘भगवन् ! क्या स्मर से भी श्रेष्ठ कुछ है ?’ – ‘स्मर से भी श्रेष्ठ है ही’ – ‘तो भगवन् ! मुझे वही बतलावें’ ।2।

चतुर्दश खण्ड

आशा ही स्मरण की अपेक्षा उत्कृष्ट है । आशा से दीप्त हुआ स्मरण ही मन्त्रों का पाठ करता है, कर्म करता है, पुत्र और पशुओं की इच्छा करता है, तथा लोक और परलोक की कामना करता है । आशा की उपासना करो ।1।

वह जो आशा की ‘यह ब्रह्म है’ ऐसी उपासना करता है उसकी सब कामनाएँ आशा से समृद्ध होती हैं । उसकी प्रार्थनाएँ सफल होती हैं । उसकी जहाँ तक आशा की गति है वहाँ तक यथेच्छ गति हो जाती है, जो कि आशा की ‘यह ब्रह्म है’ ऐसी उपासना करता है । – ‘भगवन् ! क्या आशा से भी अधिक कुछ है ?’ – ‘आशा से भी अधिक है ही’ – ‘तो भगवन् ! मुझे वही बतलावें’ ।2।

पञ्चदश खण्ड

प्राण ही आशा से बढ़कर है । जिस प्रकार रथचक्र की नाभि में अरे समर्पित रहते हैं उसी प्रकार इस प्राण में सारा जगत समर्पित है । प्राण प्राण के द्वारा गमन करता है, प्राण प्राण को देता है और प्राण के लिए ही देता है । प्राण ही पिता है, प्राण ही माता है, प्राण ही भाई है, प्राण बहिन है, प्राण आचार्य है और प्राण ही ब्राह्मण है ।1।

यदि कोई परुष अपने पिता, माता, भ्राता, भगिनी, आचार्य अथवा ब्राह्मण के लिए कोई अनुचित बात कहता है, तो सब उससे कहते हैं- ‘तुझे धिक्कार है, तू निश्चय ही पिता का हनन करने वाला है, तू माता का हनन करने वाला है, तू भी का हनन करने वाला है, तू बहिन का हनन करने वाला है, तू आचार्य का हनन करने वाला है, तू ब्राह्मण का हनन करने वाला है’ ।2।

किन्तु जिनके प्राण उत्क्रमण कर गए हैं उन पिता आदि को यदि वह शूल से एकत्रित और छिन्न-भिन्न करके जला दे तो भी उससे ‘तू पितृहा है, मातृहा है, भाई की हत्या करने वाला है, बहिन की हत्या करने वाला है, आचार्यघाती है अथवा ब्राह्मण घाती है’ ऐसा कुछ नहीं कहते ।3।

प्राण ही ये सब हैं । वह जो इस प्रकार देखने वाला, इस प्रकार चिन्तन करने वाला और इस प्रकार जानने वाला है अतिवादी होता है । यदि उससे कोई कहे कि ‘तू अतिवादी है’ तो उसे यही कहना चाहिए कि ‘हाँ अतिवादी हूँ’, उसे छिपाना नहीं चाहिए ।4।

षोडश खण्ड

‘जो सत्य के कारण अतिवदन करता है, वही निश्चय अतिवदन करता है’ – ‘भगवन् ! मैं तो परमार्थ सत्य विज्ञान के कारण ही अतिवदन करता हूँ’ – ‘सत्य की ही तो विशेष रूप से जिज्ञासा करनी चाहिए’ – ‘भगवन् ! मैं विशेष रूप से सत्य की जिज्ञासा करता हूँ’ ।1।

सप्तदश खण्ड

‘जिस समय पुरुष सत्य को विशेषरूप से जानता है तभी वह सत्य बोलता है । बिना जाने सत्य नहीं बोलता, अपितु विशेषरूप से जानने वाला ही सत्य का कथन करता है । अतः विज्ञान की ही विशेष रूप से जिज्ञासा करनी चाहिए’ – ‘भगवन् ! मैं विशेष रूप से विज्ञान की जिज्ञासा करता हूँ’ ।1।

अष्टादश खण्ड

‘जिस समय मनुष्य मनन करता है तभी वह विशेषरूप से जानता है । बिना मनन किये कोई नहीं जानता, अपितु मनन करने पर ही जानता है । अतः मति की ही विशेष रूप से जिज्ञासा करनी चाहिए’ – ‘भगवन् ! मैं विशेष रूप से मति की जिज्ञासा करता हूँ’ ।1।

एकोनविंश खण्ड

‘जिस समय मनुष्य श्रद्धा करता है तभी वह मनन करता है । बिना श्रद्धा किये कोई मनन नहीं करता, अपितु श्रद्धा करने वाला ही मनन करता है । अतः श्रद्धा की ही विशेष रूप से जिज्ञासा करनी चाहिए’ – ‘भगवन् ! मैं विशेष रूप से श्रद्धा की जिज्ञासा करता हूँ’ ।1।

विंश खण्ड

‘जिस समय मनुष्य की निष्ठा होती है तभी वह श्रद्धा करता है । बिना निष्ठा के कोई श्रद्धा नहीं करता, अपितु निष्ठा करने वाला ही श्रद्धा करता है । अतः निष्ठा की ही विशेष रूप से जिज्ञासा करनी चाहिए’ – ‘भगवन् ! मैं विशेष रूप से निष्ठा की जिज्ञासा करता हूँ’ ।1।

एकविंश खण्ड

‘जिस समय मनुष्य करता है उस समय वह निष्ठा भी करने लगता है । बिना किये किसी की निष्ठा नहीं होती, पुरुष करने पर ही निष्ठावान होता है । अतः कृति की ही विशेष रूप से जिज्ञासा करनी चाहिए’ – ‘भगवन् ! मैं विशेष रूप से करती की जिज्ञासा करता हूँ’ ।1।

द्वाविंश खण्ड

‘जब मनुष्य को सुख प्राप्त होता है तभी वह करता है । बिना सुख मिले कोई नहीं करता, अपितु सुख पाकर ही करता है । अतः सुख की ही विशेष रूप से जिज्ञासा करनी चाहिए’ – ‘भगवन् ! मैं विशेष रूप से सुख की जिज्ञासा करता हूँ’ ।1।

त्रयोविंश खण्ड

‘निश्चय जो भूमा है वही सुख है, अल्प में सुख नहीं है । सुख भूमा ही है । अतः भूमा की ही विशेष रूप से जिज्ञासा करनी चाहिए’ – ‘भगवन् ! मैं विशेष रूप से भूमा की जिज्ञासा करता हूँ’ ।1।

चतुर्विंश खण्ड

‘जहाँ कुछ और नहीं देखता, कुछ और नहीं सुनता तथा कुछ और नहीं जानता वह भूमा है । किन्तु जहाँ कुछ और देखता है, कुछ और सुनता है एवं कुछ और जानता है वह अल्प है । जो भूमा है वही अमृत है और जो अल्प है वही मर्त्य है’ – ‘भगवन् ! वह भूमा किसमें प्रतिष्ठित है ?’ – ‘अपनी महिमा में अथवा अपनी महिमा में भी नहीं है’ ।1।

‘इस लोक में गौ, अश्व आदि को महिमा कहते हैं तथा हाथी, सुवर्ण, दास, भार्या, क्षेत्र और घर- इनका नाम भी महिमा है । किन्तु मेरा ऐसा कथन नहीं है, क्योंकि अन्य पदार्थ अन्य में प्रतिष्ठित होता है । मैं तो यह कहता हूँ’- ऐसा सानत्कुमारजी ने कहा ।2।

पञ्चविंश खण्ड

वही नीचे है, वही ऊपर है, वही पीछे है, वही आगे है, वही दक्षिण है, वही उत्तर है और वही यह सब है । अब उसी में अहँकारादेश किया जाता है- ‘मैं ही नीचे हूँ, मैं ही ऊपर हूँ, मैं ही पीछे हूँ, मैं ही आगे हूँ, मैं ही दक्षिण हूँ, मैं ही उत्तर हूँ और मैं ही यह सब हूँ ।1।

अब आत्मारुप से ही भूमा का आदेश किया जाता है । आत्मा ही नीचे है, आत्मा ही ऊपर है, आत्मा ही पीछे है, आत्मा ही आगे है, आत्मा ही दक्षिण है, आत्मा ही उत्तर है और आत्मा ही यह सब है । वह यह इस प्रकार देखने वाला, इस प्रकार मनन करने वाला तथा विशेषरूप से इस प्रकार जानने वाला आत्मरति, आत्मक्रीड, आत्ममिथुन और आत्मानन्द होता है, वह स्वराट् है, सम्पूर्ण लोकों में उसकी यथेच्छ गति होती है । किन्तु जो इससे विपरीत जानते हैं वे अन्यराट् और क्षयशील लोकों को प्राप्त होते हैं । उनकी सम्पूर्ण लोकों में स्वेच्छागति नहीं होती ।2।

षडविंश खण्ड

उस इस प्रकार देखने वाले, इस प्रकार मनन करने वाले और इस प्रकार जानने वाले इस विद्वान के लिए आत्मा से प्राण, आत्मा से आशा, आत्मा से स्मृति, आत्मा से आकाश, आत्मा से तेज, आत्मा से जल, आत्मा से आविर्भाव, आत्मा से तिरोभाव, आत्मा से अन्न, आत्मा से बल, आत्मा से विज्ञान, आत्मा से ध्यान, आत्मा से चित्त, आत्मा से संकल्प, आत्मा से मन, आत्मा से वाक्, आत्मा से नाम, आत्मा से मन्त्र, आत्मा से कर्म और आत्मा से ही यह सब हो जाता है ।1।

इस विषय में यह मन्त्र है- ‘विद्वान न तो मृत्यु को देखता है, न रोग को न दुःखत्व को ही । वह विद्वान सबको आत्मरूप ही देखता है, अतः सबको प्राप्त हो जाता है । वह एक होता है, फिर वही तीन, पाँच, सात और नौ रूप हो जाता है । फिर वही ग्यारह कहा गया है तथा वही सौ, दस, एक सहस्र और बीस भी होता है । आहारशुद्धि होने पर अंतःकरण की शुद्धि होती है, अंतःकरण की शुद्धि होने पर निश्चल स्मृति होती है, तथा स्मृति की प्राप्ति होने पर सम्पूर्ण ग्रन्थियों की निवृत्ति हो जाती है । इस प्रकार उन नारदजी को, जिनकी वासनाएँ क्षीण हो गयी थीं, भगवान् सानत्कुमार ने अज्ञानान्धकार का पार दिखलाया । उनको ‘स्कन्द’ ऐसा कहते हैं, ‘स्कन्द’ ऐसा कहते हैं ।2।

अष्टम प्रपाठक[संपादित करें]

प्रथम खण्ड

हरि ॐ । अब, इस ब्रह्मपुर के भीतर जो यह सूक्ष्म कमलाकार स्थान है इसमें जो सूक्ष्म आकाश है उसके भीतर जो वस्तु है उसका अन्वेषण करना चाहिए और उसी की जिज्ञासा करनी चाहिए ।1।

उससे यदि पूछे कि इस ब्रह्मपुर में जो सूक्ष्म कमलाकार गृह है उसमें जो अन्तराकाश है उसके भीतर क्या वस्तु है जिसका अन्वेषण करना चाहिए ? – तो वह यों कहें ।2।

जितना यह आकाश है उतना ही हृदयान्तर्गत आकाश है । द्युलोक और पृथ्वी- ये दोनों लोक सम्यक् प्रकार से इसके भीतर ही स्थित हैं । इसी प्रकार अग्नि और वायु- ये दोनों, सूर्य और चन्द्रमा- ये दोनों तथा विद्युत और नक्षत्र एवं इस आत्मा का जो कुछ इस लोक में है और जो नहीं है वह सब सम्यक् प्रकार से इसी में स्थित है ।3।

यदि उससे पूछे कि यदि इस ब्रह्मपुर में सब समाहित है तथा सम्पूर्ण भूत और समस्त कामनाएँ भी सम्यक् प्रकार से स्थित हैं तो जिस समय वह वृद्धावस्था को प्राप्त होता है अथवा नष्ट हो जाता है उस समय क्या शेष रह जाता है ?।4।

उसे कहना कि इस देह की जरावस्था से यह जीर्ण नहीं होता । इसके वध से उसका नाश नहीं होता । यह ब्रह्मपुर सत्य है, इसमें समस्त कामनाएँ सम्यक् प्रकार से स्थित हैं, यह आत्मा है, धर्माधर्म से शून्य है तथा जराहीन, मृत्युहीन, शोकरहित, भोजनेच्छारहित, पिपासाशून्य, सत्यकाम और सत्यसंकल्प है, जिस प्रकार इस लोक में प्रजा राजा की आज्ञा का अनुवर्तन करती है तो वह जिस-जिस सन्निहित वस्तु की कामना करती है तथा जिस-जिस देश या भूभाग की इच्छा करती है उसी-उसी के आश्रित जीवन धारण करती है ।5।

जिस प्रकार यहाँ कर्म से प्राप्त किया हुआ लोक क्षीण हो जाता है, उसी प्रकार परलोक में पुण्योपार्जित लोक क्षीण हो जाता है । जो लोग इस लोक में आत्मा को और इस सत्य कामनाओं को जाने बिना ही परलोकगामी होते हैं उनकी सम्पूर्ण लोकों में यथेच्छ गति नहीं होती और जो इस लोक में आत्मा को तथा सत्य कामनाओं को जानकर जाते हैं उनकी समस्त लोकों में यथेच्छ गति होती है ।6।

द्वितीय खण्ड

वह यदि पितृलोक की कामना वाला होता है तो उसके संकल्प से ही पितृगण वहाँ उपस्थित होते हैं, उस पितृलोक से सम्पन्न होकर वह महिमान्वित होता है ।1।

वह यदि मातृलोक की कामना वाला होता है तो उसके संकल्प से ही माताएँ वहाँ उपस्थित हो जाती हैं, उस मातृलोक से सम्पन्न होकर वह महिमान्वित होता है ।2।

और वह यदि भ्रातृलोक की कामना वाला होता है तो उसके संकल्प से ही भ्रातृगण वहाँ उपस्थित होते हैं, उस भ्रातृलोक से सम्पन्न होकर वह महिमान्वित होता है ।3।

और वह यदि भगिनीलोक की कामना वाला होता है तो उसके संकल्प से ही बहनें वहाँ उपस्थित हो जाती हैं, उस भागिनीलोक से सम्पन्न होकर वह महिमान्वित होता है ।4।

और वह यदि सखाओं के लोक की कामना वाला होता है तो उसके संकल्प से ही सखालोग वहाँ उपस्थित होते हैं, उस सखाओं के लोक से सम्पन्न होकर वह महिमान्वित होता है ।5।

और वह यदि गन्धमाल्यलोक की कामना वाला होता है तो उसके संकल्प से ही गन्धमाल्यादि वहाँ उपस्थित हो जाते हैं, उस गन्धमाल्यलोक से सम्पन्न होकर वह महिमान्वित होता है ।6।

और वह यदि अन्नपान सम्बन्धी लोक की कामना वाला होता है तो उसके संकल्प से ही अन्नपान वहाँ उपस्थित हो जाते हैं, उस अन्नपानलोक से सम्पन्न होकर वह महिमान्वित होता है ।7।

और वह यदि गीतवाद्य सम्बन्धी लोक की कामना वाला होता है तो उसके संकल्प से ही गीत-वाद्य वहाँ उपस्थित होते हैं, उस गीतवाद्यलोक से सम्पन्न होकर वह महिमान्वित होता है ।8।

और वह यदि स्त्रीलोक की कामना वाला होता है तो उसके संकल्प से ही स्त्रियाँ वहाँ उपस्थित हो जाती हैं, उस स्त्रीलोक से सम्पन्न होकर वह महिमान्वित होता है ।9।

वह जिस-जिस प्रदेश की कामना करने वाला होता है और जिस-जिस भोग की इच्छा करता है वह सब उसके संकल्प से ही उसको प्राप्त हो जाता है, उससे सम्पन्न होकर वह महिमान्वित होता है ।10।

तृतीय खण्ड

वे ये सत्यकाम अनृताच्छादनयुक्त हैं । सत्य होने पर भी अनृत उनका अपिधान है, क्योंकि इस प्राणी का जो-जो सम्बन्धी यहाँ से मरकर जाता है वह-वह उसे फिर देखने को नहीं मिलता ।1।

तथा उस लोक में अपने जिन जीवित अथवा जिन मृतक को और जिन पदार्थों को यह इच्छा करते हुए भी प्राप्त नहीं करता उन सबको यह इस ब्रह्मपुर में जाकर प्राप्त कर लेता है, क्योंकि यहाँ इसके ये सत्यकाम अनृत से ढके हुए रहते हैं । इस विषय में यह दृष्टांत है- ‘जिस प्रकार पृथ्वी में गड़े हुए स्वर्ण के खजाने को उस स्थान से अनभिज्ञ पुरुष ऊपर-ऊपर विचरते हुए भी नहीं जानते । उसी प्रकार यह सारी प्रजा नित्यप्रति ब्रह्मलोक को जाती हुई उसे नहीं पाती, क्योंकि यह अनृत के द्वारा हर ली गयी है ।2।

वह यह आत्मा हृदय में है ‘हृदि अयम्’ यही इसका निरुक्त है । इसी से यह ‘हृदय’ है । इस प्रकार जानने वाला पुरुष प्रतिदिन स्वर्गलोक को जाता है ।3।

यह जो सम्प्रसाद है वह इस शरीर से उत्थान कर परमज्योति को प्राप्त हो अपने स्वरूप से युक्त हो जाता है । यह आत्मा है, यही अमृत एवं अभय है और यही ब्रह्म है- ऐसा आचार्य ने कहा । उस इस ब्रह्म का ‘सत्य’ यह नाम है ।4।

वे ये ‘स’, ‘त्’ और ‘यम्’ तीन अक्षर हैं । उनमें जो ‘सकार’ है वह अमृत है, जो ‘तकार’ है वह मर्त्य है और जो ‘यम्’ है उससे वह दोनों का नियमन करता है, क्योंकि उससे वह उन दोनों का नियमन करता है, इसलिए ‘यम्’ इस प्रकार जानने वाला प्रतिदिन ही स्वर्गलोक को जाता है ।5।

चतुर्थ खण्ड

जो आत्मा है वह इन लोकों के असम्भेद के लिए इन्हें विशेषरूप से धारण करने वाला सेतु है । इस सेतु का दिन-रात अतिक्रमण नहीं करते । इसे न जरा, न मृत्यु, न शोक और न सुकृत या दुष्कृत ही प्राप्त हो सकते हैं । सम्पूर्ण पाप इससे निवृत्त हो जाते हैं, क्योंकि यह ब्रह्मलोक पापशून्य है ।1।

इसलिए इस सेतु को तरकर पुरुष अन्धा होकर भी अन्धा नहीं होता, विद्ध होने पर भी विद्ध नहीं होता है, उपतापी होने पर भी अनुपतापी नहीं होता है, इसी से इस सेतु को तरकर अन्धकाररूप रात्रि भी दिन हो जाती है, क्योंकि यह ब्रह्मलोक सर्वदा प्रकाशस्वरूप है ।2।

वहाँ ऐसा होने के कारण जो इस ब्रह्मलोक को ब्रह्मचर्य के द्वारा जानते हैं उन्हीं को यह ब्रह्मलोक प्राप्त होता है तथा उनकी सम्पूर्ण लोकों में यथेच्छ गति हो जाती है ।3।

पञ्चम खण्ड

अब, जिसे ‘यज्ञ’ कहते हैं वह ब्रह्मचर्य ही है, क्योंकि जो ज्ञात है वह ब्रह्मचर्य के द्वारा ही उसको प्राप्त हो जाता है । और जिसे ‘इष्ट’ ऐसा कहते हैं वह भी ब्रह्मचर्य ही है, क्योंकि ब्रह्मचर्य के द्वारा पूजन करके ही पुरुष आत्मा को प्राप्त होता है ।1।

तथा जिसे ‘सत्त्रायण’ ऐसा कहा जाता है वह भी ब्रह्मचर्य ही है, क्योंकि ब्रह्मचर्य के द्वारा ही सत्-आत्मा से अपना त्राण प्राप्त करता है । इसके सिवा जिसे ‘मौन’ ऐसा कहा जाता है वह भी ब्रह्मचर्य ही है, क्योंकि ब्रह्मचर्य के द्वारा ही आत्मा को जानकर पुरुष मनन करता है ।2।

तथा जिसे ‘अनाशकायन’ कहा जाता है वह भी ब्रह्मचर्य ही है, क्योंकि जिसे ब्रह्मचर्य के द्वारा प्राप्त होता है वह यह आत्मा नष्ट नहीं होता । और जिसे ‘अरन्यायन’ ऐसा कहा जाता है वह भी ब्रह्मचर्य ही है, क्योंकि इस ब्रह्मलोक में ‘अर’ और ‘ण्य’ ये दो समुद्र हैं, यहाँ से तीसरे द्युलोक में एरंमदीय सरोवर है, सोमसवन नाम का अश्वत्थ है, वहाँ ब्रह्मा की अपराजिता पुरी है और प्रभु का विशेषरूप से निर्माण किया हुआ सुवर्णमय मण्डप है ।3।

उस ब्रह्मलोक में जो लोग ब्रह्मचर्य के द्वारा इन ‘अर’ और ‘ण्य’ दोनों समुद्रों को प्राप्त करते हैं, उन्हीं को इस ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है । उनकी सम्पूर्ण लोकों में यथेच्छ गति हो जाती है ।4।

षष्ठ खण्ड

अब, ये जो हृदय की नाड़ियाँ हैं वे पिंगलवर्ण सूक्ष्म रस की हैं । वे शुक्ल, नील, पीत, और लोहित रस की हैं, क्योंकि यह आदित्य पिंगलवर्ण है, यह शुक्ल है, यह नील है, यह पीत है और यह लोहित वर्ण है ।1।

इस विषय में यह दृष्टांत है कि जिस प्रकार कोई विस्तीर्ण महापथ इस और उस दोनों गाँवों को जाता है उसी प्रकार ये सूर्य की किरणें इस पुरुष में और उस आदित्यमण्डल में दोनों लोकों में प्रविष्ट हैं । वे निरन्तर इस आदित्य से ही निकली हैं और इन नाड़ियों में व्याप्त हैं तथा जो इन नाड़ियों से निकलती हैं वे इस आदित्य में व्याप्त हैं ।2।

ऐसी अवस्था में जिस समय वह सोया हुआ- भली प्रकार लीन हुआ पुरुष सम्यक् प्रकार से प्रसन्न होकर स्वप्न नहीं देखता उस समय यह इन नाड़ियों में चला जाता है, तब इसे कोई पाप स्पर्श नहीं करता और यह तेज से व्याप्त हो जाता है ।3।

अब, जिस समय वह जीव शरीर की दुर्बलता को प्राप्त होता है उस समय उसके चारों ओर बैठे हुए लोग कहते हैं- ‘क्या तुम मुझे जानते हो ? क्या तुम मुझे जानते हो ?’ जब तक वह इस शरीर से उत्क्रमण नहीं करता तब तक उन्हें जानता है ।4।

फिर जिस समय यह इस शरीर से उत्क्रमण करता है उस समय इन किरणों से ही ऊपर की ओर चढ़ता है । वह ‘ॐ’ ऐसा कहकर ऊर्ध्वलोक अथवा अधोलोक को जाता है । वह जितनी देर में मन जाता है उतनी ही देर में आदित्य लोक में पहुँच जाता है । यह निश्चय ही लोकद्वार है । यह विद्वानों के लिए ब्रह्मलोक प्राप्ति का द्वार है और अविद्वानों का निरोधस्थान है ।5।

इस विषय में यह मन्त्र है- ‘हृदय की एक सौ एक नाड़ियाँ हैं । उनमें से एक मस्तक की ओर निकल गयी है । उसके द्वारा ऊपर की ओर जाने वाला जीव अमरत्व को प्राप्त होता है, शेष इधर-उधर जाने वाली नाड़ियाँ केवल उत्क्रमण का कारण होती हैं, उत्क्रमण का कारण होती हैं ।6।

सप्तम खण्ड

जो आत्मा पापशून्य, जरारहित, मृत्युहीन, विशोक, क्षुधारहित, पिपासारहित, सत्यकाम और सत्यसंकल्प है उसे खोजना चाहिए और उसे विशेषरूप से जानने की इच्छा करनी चाहिए । जो उस आत्मा को शास्त्र और गुरु के उपदेशानुसार खोजकर जान लेता है वह सम्पूर्ण लोक और समस्त कामनाओं को प्राप्त कर लेता है- ऐसा प्रजापति ने कहा है ।1।

प्रजापति के इस वाक्य को देवता और असुर दोनों ही ने परम्परा से जान लिया । वे कहने लगे- ‘हम उस आत्मा को जानना चाहते हैं जिसे जानने पर जीव सम्पूर्ण लोकों और समस्त भोगों को प्राप्त कर लेता है’- ऐसा निश्चय कर देवताओं का राजा इन्द्र और असुरों का राजा विरोचन- ये दोनों परस्पर ईर्ष्या करते हुए हाथों में समिधाएँ लेकर प्रजापति के पास आये ।2।

उन्होंने बत्तीस वर्ष तक ब्रह्मचर्यवास किया । तब उनसे प्रजापति ने कहा- ‘तुम यहाँ किस इच्छा से रहे हो ?’ उन्होंने कहा- ‘जो आत्मा पापशून्य, जरारहित, मृत्युहीन, विशोक, क्षुधारहित, तृषाहीन, सत्यकाम और सत्यसंकल्प है उसे खोजना चाहिए और उसे विशेषरूप से जानने की इच्छा करनी चाहिए । जो उस आत्मा का अन्वेषण कर उसे विशेषरूप से जान लेता है वह सम्पूर्ण लोक और समस्त भोगों को प्राप्त कर लेता है- ‘इस श्रीमान् के वाक्य को शिष्टजन बतलाते हैं । उसी को जानने की इच्छा करते हुए हम यहाँ रहे हैं’ ।3।

उनसे प्रजापति ने कहा- ‘यह जो पुरुष नेत्रों में दिखाई देता है यह आत्मा है, यह अमृत है, यह अभय है, यह ब्रह्म है’ । उन्होंने पूछा- ‘भगवन् ! यह जो जल में सब ओर प्रतीत होता है और जो दर्पण में दिखाई देता है उनमें आत्मा कौन-सा ह ?’ इस पर प्रजापति ने कहा- ‘मैंने जिस नेत्रान्तर्गत पुरुष का वर्णन किया है वही इन सबमें सब ओर प्रतीत होता है’ ।4।

अष्टम खण्ड

‘जलपूर्ण शकोरे में अपने को देखकर तुम आत्मा के विषय में जो न जान सको वह मुझे बतलाओ’ ऐसा प्रजापति ने कहा । उन्होंने जल के शकोरे में देखा । उनसे प्रजापति ने कहा- ‘तुम क्या देखते हो ?’ उन्होंने कहा, ‘भगवन् ! हम अपने इस समस्त आत्मा को लोम और नखपर्यन्त ज्यों-का-त्यों देखते हैं’ ।1।

उन दोनों से प्रजापति ने कहा- ‘तुम अच्छी तरह अलंकृत होकर, सुन्दर वस्त्र पहनकर और परिष्कृत होकर जल के शकोरे में देखो ।’ तब उन्होंने अच्छी तरह अलंकृत हो, सुन्दर वस्त्र धारण कर और परिष्कृत होकर जल के शकोरे में देखा । उनसे प्रजापति ने पूछा, ‘तुम क्या देखते हो ?’ ।2।

। उन दोनों ने कहा- ‘भगवन् ! जिस प्रकार हम दोनों उत्तम प्रकार से अलंकृत, सुन्दर वस्त्र धारण किये और परिष्कृत हैं उसी प्रकार हे भगवन् ! ये दोनों भी उत्तम प्रकार से अलंकृत, सुन्दर वस्त्रधारी और परिष्कृत हैं ।’ तब प्रजापति ने कहा- ‘यह आत्मा है, यह अमृत है और अभय है और यही ब्रह्म है ।’ तब वे दोनों शान्तचित्त से चले गए ।3।

प्रजापति ने उन्हें देखकर कहा- ‘ये दोनों आत्मा को उपलब्ध किये बिना- उसका साक्षात्कार किये बिना ही जा रहे हैं, देवता हों या असुर, जो कोई ऐसे निश्चय वाले होंगे उन्हीं का पराभव होगा ।’ वह जो विरोचन था शान्तचित्त से असुरों के पास पहुँचा और उनको यह अध्यात्मविद्या सुनाई- ‘इस लोक में आत्मा (देह) ही पूजनीय है और आत्मा ही सेवनीय है । आत्मा की ही पूजा और परिचर्या करनेवाला पुरुष इहलोक और परलोक दोनों लोकों को प्राप्त कर लेता है’ ।4।

इसी से इस लोक में जो दान न देने वाला, श्रद्धा न करने वाला और यजन न करने वाला पुरुष होता है उसे शिष्टजन ‘अरे ! यह तो आसुर ही है’ ऐसा कहते हैं । यह उपनिषद् असुरों की ही है । वे ही मृतक पुरुष के शरीर को भिक्षा, वस्त्र और अलंकार से सुसज्जित करते हैं और इसके द्वारा हम परलोक प्राप्त करेंगे- ऐसा मानते हैं ।5।

नवम खण्ड

किन्तु इन्द्र को देवताओं के पास पहुँचे बिना ही यह भय दिखाई दिया कि जिस प्रकार इस शरीर के अच्छी तरह अलंकृत होने पर यह आत्मा अलंकृत होता है, सुन्दर वस्त्रधारी होने पर सुन्दर वस्त्रधारी होता है और परिष्कृत होने पर परिष्कृत होता है उसी प्रकार इसके अन्धे होने पर अन्धा हो जाता है, स्राम होने पर स्राम हो जाता है और खण्डित होने पर खण्डित हो जाता है तथा इस शरीर का नाश होने पर यह भी नष्ट हो जाता है ।1।

‘इसमें मैं कोई भोग्य नहीं देखता ।’ इसलिए वे समित्पाणि होकर फिर प्रजापति के पास आये । उससे प्रजापति ने कहा- ‘इन्द्र ! तुम विरोचन के साथ शान्तचित्त होकर गए थे, अब किस इच्छा से पुनः आये हो ?’ इन्द्र ने कहा- ‘भगवन् ! जिस प्रकार इस शरीर के अच्छी तरह अलंकृत होने पर यह आत्मा अलंकृत होता है, सुन्दर वस्त्रधारी होने पर सुन्दर वस्त्रधारी होता है और परिष्कृत होने पर परिष्कृत होता है उसी प्रकार इसके अन्धे होने पर अन्धा हो जाता है, स्राम होने पर स्राम हो जाता है और खण्डित होने पर खण्डित हो जाता है तथा इस शरीर का नाश होने पर यह भी नष्ट हो जाता है, मुझे इसमें कोई फल नहीं दिखाई देता’ ।2।

‘हे इन्द्र ! यह बात ऐसी ही है’ ऐसा प्रजापति ने कहा, ‘मैं तुम्हारे प्रति उसकी पुनः व्याख्या करूँगा । अब तुम बत्तीस वर्ष यहाँ और रहो’ । इन्द्र ने वहाँ बत्तीस वर्ष और निवास किया । तब प्रजापति ने उससे कहा ।3।

दशम खण्ड

‘जो यह स्वप्न में पूजित होता हुआ विचरता है यह आत्मा है’ ऐसा प्रजापति ने कहा ‘यह अमृत है, अभय है, और यही ब्रह्म है ।’ ऐसा सुनकर इन्द्र शान्तहृदय से चला गया । किन्तु देवताओं के पास पहुँचे बिना ही उसे यह भय दिखाई दिया ‘यद्यपि यह शरीर अन्धा होता है तो भी वह अनन्ध होता है और यदि यह स्राम होता है तो भी वह अस्राम होता है । इस प्रकार यह इसके दोष से दूषित नहीं होता’ ।1।

‘यह इस देह के वध से नष्ट भी नहीं होता और न इसकी स्रामता से स्राम होता है । किन्तु इसे मानो कोई मरता हो, कोई ताड़ित करता हो, यह मानो अप्रियवेत्ता हो और रुदन करता हो- ऐसा हो जाता है, अतः इसमें मैं कोई फल नहीं देखता’ ।2।

वह समित्पाणि होकर फिर प्रजापति के पास आया । उससे प्रजापति ने कहा- ‘इन्द्र ! तुम तो शान्तचित्त होकर गए थे, अब किस इच्छा से पुनः आये हो ?’ इन्द्र ने कहा- भगवन् ! यद्यपि यह शरीर अन्धा होता है तो भी वह अनन्ध रहता है और यदि यह स्राम होता है तो भी वह अस्राम रहता है । इस प्रकार यह इसके दोष से दूषित नहीं होता’ ।3।

न इस देह के वध से नष्ट भी होता है और न इसकी स्रामता से स्राम होता है । किन्तु इसे मानो कोई मरता हो, कोई ताड़ित करता हो, यह मानो अप्रियवेत्ता हो और रुदन करता हो- ऐसा हो जाता है, अतः इसमें मैं कोई फल नहीं देखता’ । तब प्रजापति ने कहा- ‘हे इन्द्र ! यह बात ऐसी ही है, मैं तुम्हारे प्रति उसकी पुनः व्याख्या करूँगा । अब तुम बत्तीस वर्ष यहाँ और रहो’ । इन्द्र ने वहाँ बत्तीस वर्ष और निवास किया । तब प्रजापति ने उससे कहा ।4।

एकादश खण्ड

‘जिस अवस्था में यह सोया हुआ दर्शनवृत्ति से रहित और सम्यक्-रूप से आनन्दित हो स्वप्न का अनुभव नहीं करता वह आत्मा है’- ऐसा प्रजापति ने कहा ‘यह अमृत है, अभय है, और यही ब्रह्म है ।’ ऐसा सुनकर इन्द्र शान्तहृदय से चला गया । किन्तु देवताओं के पास पहुँचे बिना ही उसे यह भय दिखाई दिया- ‘उस अवस्था में तो इसे निश्चय ही यह भी ज्ञान नहीं होता कि ‘यह मैं हूँ’ और न यह इन अन्य भूतों को ही जानता है, उस समय तो यह मानो विनाश को प्राप्त हो जाता है । अतः इसमें मैं कोई फल नहीं देखता’ ।1।

वह समित्पाणि होकर फिर प्रजापति के पास आया । उससे प्रजापति ने कहा- ‘इन्द्र ! तुम तो शान्तचित्त होकर गए थे, अब किस इच्छा से पुनः आये हो ?’ इन्द्र ने कहा- भगवन् ! उस अवस्था में तो इसे यह भी ज्ञान नहीं होता कि ‘यह मैं हूँ’ और न यह इन अन्य भूतों को ही जानता है, उस समय तो यह मानो विनाश को प्राप्त हो जाता है । अतः इसमें मैं कोई फल नहीं देखता’ ।2।

तब प्रजापति ने कहा- ‘हे इन्द्र ! यह बात ऐसी ही है, मैं तुम्हारे प्रति उसकी पुनः व्याख्या करूँगा । आत्मा इससे भिन्न नहीं है । अभी तुम पाँच वर्ष यहाँ ब्रह्मचर्यवास करो’ । इन्द्र ने वहाँ पाँच वर्ष और निवास किया । ये सब मिलकर एक सौ एक वर्ष हो गए । इसी से ऐसा कहते हैं कि इन्द्र ने एक सौ एक वर्ष तक प्रजापति के यहाँ ब्रह्मचर्यवास किया । तब प्रजापति ने उससे कहा ।3।

द्वादश खण्ड

हे इन्द्र ! यह शरीर मरणशील ही है, यह मृत्यु से ग्रस्त है । यह इस अमृत, अशरीरी आत्मा का अधिष्ठान है । सशरीर आत्मा निश्चय ही प्रिय और अप्रिय से ग्रस्त है, सशरीर रहते हुए इसके प्रियाप्रिय का नाश नहीं हो सकता और अशरीर होने पर इसे प्रिय और अप्रिय स्पर्श नहीं कर सकते ।1।

वायु अशरीर है, अभ्र, विद्युत और मेघध्वनि ये सब अशरीर हैं । जिस प्रकार ये सब उस आकाश से समुत्थान कर सूर्य की परम ज्योति को प्राप्त हो अपने स्वरूप में परिणत हो जाते है ।2।

उसी प्रकार यह सम्प्रसाद इस शरीर से समुत्थान कर परम ज्योति को प्राप्त हो अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है । वह उत्तम पुरुष है । उस अवस्था में वह हँसता, क्रीड़ा करता और स्त्री, यान अथवा ज्ञातिजन के साथ रमण करता अपने साथ उत्पन्न हुए इस शरीर को स्मरण न करता हुआ सब ओर विचरता है । जिस प्रकार घोड़ा या बैल गाड़ी में जुता रहता है उसी प्रकार यह प्राण इस शरीर में जुता हुआ है ।3।

जिसमें यह चक्षु द्वारा उपलक्षित आकाश अनुगत है वह चाक्षुष पुरुष है, उसके रूपग्रहण के लिए नेत्रेन्द्रिय है । जो ऐसा अनुभव करता है कि मैं इसे सूँघूँ वह आत्मा है, उसके गन्धग्रहण के लिए नासिका है और जो ऐसा समझता है कि मैं यह शब्द बोलूँ यही आत्मा है, उसके शब्दोच्चारण के लिए वागिन्द्रिय है तथा तथा जो ऐसा जानता है कि मैं यह श्रवण करूँ, वह भी आत्मा, उसके श्रवण के लिए श्रोत्रेन्द्रिय है ।4।

और जो यह जानता है कि मैं मनन करूँ वह आत्मा है । मन उसका दिव्य नेत्र है, वह यह आत्मा इस दिव्य चक्षु के द्वारा भोगों को देखता हुआ रमण करता है ।5।

जो ये भोग इस ब्रह्मलोक में हैं उन्हें देखता हुआ रमण करता है । उस आत्मा की देवगण उपासना करते हैं । इसी से उन्हें सम्पूर्ण लोक और समस्त भोग प्राप्त हैं । जो उस आत्मा को शास्त्र और आचार्य के उपदेशानुसार जानकर साक्षातरूप से अनुभव करता है वह सम्पूर्ण लोक और समस्त भोगों को प्राप्त कर लेता है । ऐसा प्रजापति ने कहा, प्रजापति ने कहा ।6।

त्रयोदश खण्ड

मैं श्याम से शबल को प्राप्त होऊँ और शबल से श्याम को प्राप्त होऊँ । अश्व जिस प्रकार रोएँ झाड़कर निर्मल हो जाता है उसी प्रकार मैं पापों को झाड़कर तथा राहु के मुख से निकले चन्द्रमा के समान शरीर को त्यागकर कृतकृत्य हो अकृत ब्रह्मलोक को प्राप्त होता हूँ, ब्रह्मलोक को प्राप्त होता हूँ ।1।

चतुर्दश खण्ड

आकाश नाम से प्रसिद्ध आत्मा नाम और रूप का निर्वाह करने वाला है । वे नाम-रूप जिसके अन्तर्गत हैं वह ब्रह्म है, वह अमृत है, वही आत्मा है । मैं प्रजापति के सभागृह को प्राप्त होता हूँ, मैं यशः संज्ञक आत्मा हूँ, मैं ब्राह्मणों के यश, क्षत्रियों के यश और वैश्यों के यश को प्राप्त होना चाहता हूँ, वह मैं यशों का यश हूँ, मैं बिना दाँतों के भक्षण करने वाले रोहित वर्ण पिच्छिल स्त्रीचिह्न को प्राप्त न होऊँ, प्राप्त न होऊँ ।1।

पञ्चदश खण्ड

उस इस आत्मज्ञान का ब्रह्मा ने प्रजापति के प्रति वर्णन किया, प्रजापति ने मनु से कहा, मनु ने प्रजावर्ग को सुनाया । नियमानुसार गुरु के कर्तव्यकर्मों को समाप्त करता हुआ वेद का अध्ययन कर आचार्यकुल से समावर्तन कर कुटुम्ब में स्थित हो पवित्र स्थान में स्वाध्याय करता हुआ, धार्मिक कर सम्पूर्ण इन्द्रियों को अपने अंतःकरण में स्थापित कर शास्त्र की आज्ञा से अन्यत्र प्राणियों की हिंसा न करता हुआ वह निश्चय ही आयु की समाप्ति पर्यन्त इस प्रकार बर्तता हुआ ब्रह्मलोक को प्राप्त होता है, और फिर नहीं लौटता, फिर नहीं लौटता ।1।

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