Saturday, July 27, 2019

SAMADHI

देहाभिमाने गलिते विज्ञते परमात्मन ।
यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र समाधय: ॥
अर्थात जब साधक को शरीर का भी भान न रहे और परमात्मा का ज्ञान हो जाये ऐसी अवस्था में मन जहाँ जहाँ भी जाएगा वहीं वहीं समाधि है ।
समाधि आपमें कहीं बाहर से नही आएगी, यह आपके अंदर ही घटित होगी । यह समायातीत है जिसे मोक्ष या निर्वाण भी कहा जा सकता है । बोद्ध धर्म में इसे निर्वाण तथा जैन धर्म में इसे कैवल्य कहा जाता है । योग शास्त्रों में इसका नाम समाधि है । मोक्ष की स्थिति में मन निष्क्रिय हो जाता है । समाधि ध्यान की सभी साधनाओं की पराकाष्ठा है, चर्म सीमा है । इसमे ध्यान सदा के लिए अंतर्मुखी हो जाता है । समाधि के लिए एक बौद्धिक और शांत दिमाग, स्पष्ट लक्ष्य, आलस्य विहीनता, सहजता, सरलता तथा सत्यता होनी चाहिए । समाधि तब प्राप्त होती है जब साधक साधनाओं के सभी पड़ाव पार कर जाता है तथा उसका ध्यान एकचित्त अंतर में लगा रहता है । इसको निम्नानुसार भी समझा जा सकता है –
तवेवार्थ मात्र निर्भासं स्वरूप शून्यमिव समाधि ।
न गंध न रसं रुपं न छ स्पर्श न नि:स्वनम ।
नात्मानं न परस्प छ योगी युक्त: समाधिना ॥
अर्थात जब साधक ध्यान करते करते ऐसी स्थिति में पहुँच जाता है जहां उसे खुद का ध्यान ही न रहे मात्र ध्येय ही शेष रह जाये तो ऐसी स्थिति को समाधि कहते हैं । इसमे ज्ञेय, ज्ञान तथा ज्ञाता का अंतर समाप्त हो जाता है । साधक अणु परमाणुओं की संरचना के पार मुक्त साक्षी आत्मा रह जाता है । यहाँ साधक परम स्थिर तथा परम जाग्रत हो जाता है ।
सलिलै सैंधवं यद्धत्साम्भजति योगत: ।
तथात्मन परस्यं छ योगी युक्त: समाधिना ॥
अर्थात जिस प्रकार यदि कोई नमक का टुकड़ा समुद्र में फेका जाये तो वह समुद्र की गहराई तक जाते जाते समुद्र में ही घुल जाता है तथा अपना अस्तित्व खो बैठता है । इसी प्रकार साधक भी समाधि के माध्यम से परम पिता परमेश्वर में समा जाता है ।
भगवान शंकराचार्य जी ने कहा है :
समाहिता ये प्रविलाप्य ब्रह्मं ।
श्रोतादि चेत: स्वयहं चिदात्मानि ॥
त एव मुक्ता भवपाशबंधे ।
नित्ये तु पारोक्ष्यकथामिध्यामिन: ॥
अर्थात जो साधक अपनी इंद्रियों के वाह्य प्रवाह को रोक कर, दुनयावी वस्तुओं का मोह छोड़ कर, मन से अहंकार त्याग कर, आत्मा में लीन होकर समाधि को धारण करता है वे साधक संसार के बंधनो से मुक्त होकर, जन्म मरण से मुक्त होकर स्थायी मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं । किन्तु जो केवल आध्यात्मिक बाते तो करते है लेकिन जो ध्यान समाधि का अभ्यास नहीं करते वे कभी भी दुनयावी बंधनो को तोड़कर मुक्ति नही पा सकते है ।

समाधि का स्वरूप

समाधि की स्थित को प्राप्त करने वाला साधक रस, गंध, स्पर्श, शब्द, अंधकार, प्रकाश, जन्म, मरण, रूप आदि विषयों के परे हो जाता है । साधक गर्मी - सर्दी, भूख – प्यास, यश – अपयश, सुख – दुख आदि की अनुभूति से परे हो जाता है । ऐसा साधक जन्म मरण से मुक्त होकर अमरत्व को प्राप्त कर लेता है । समाधि में ध्याता भी नहीं रहता और ध्यान भी नहीं रहता है । ध्येय और ध्याता एकरूप हो जाते हैं I मन की चेतना समाप्त हो जाती है और मन ध्यान में निहित हो जाता है I प्रभु का ध्याता साधक प्रभू रूपी समुद्र में अपने आप को विसर्जित कर मुक्त पा लेता है I समाधि में शारीरिक एवं मानसिक चेतना का अभाव रहता है I आध्यात्मिक चेतना जाग्रत हो जाती है I साधक के वास्तविक स्वरूप का केवल अस्तित्व शेष रहता है I ऐसी अवस्था को तुरिया अवस्था कहते है जो परम चेतना की अवस्था है तथा अनिर्वचनीय है ।
कभी कभी साधक को अर्द्ध निंद्रा की स्थिति में ऐसा अनुभव भी हो सकता है जब साधक का मस्तिष्क जागृत अवस्था में हो लेकिन शरीर सोया हुआ हो । इसमे नींद के मुक़ाबले साधक को अधिक स्फूर्ति तथा आराम मिलता है । यह अवस्था लंबी साधना से ही संभव हो पाती है । कुछ लोग ऐसा मानते है कि समाधि पत्थर की तरह जड़ अवस्था है I जबकि साधक का ब्रह्मांडीय जीवन यहीं से शुरू होता है I आत्म-विकास शुरू होता है । साधक की कुंडलनी नाभि चक्र से जाग्रत होकर सुषमना के जरिये मस्तिष्क तक पहुँचती है जिससे सभी चक्र जाग्रत हो जाते हैं ।
आनन्दमय कोश में प्रवेश कर जाना भी समाधि की अवस्था कहलाता हैं । समाधि विभिन्न प्रकार की होती हैं। जैसे जड़- समाधि ( काष्ठ समाधि ), ध्यान समाधि, भाव समाधि, सहज समाधि, प्राण समाधि आदि । बेहोशी, नशा तथा क्लोरोफॉर्म इत्यादि सूंघने से प्राप्त समाधि को काष्ठ-समाधि कहा जाता हैं । किसी भावनावश भावनाओं में बहुत डूब जाने से शरीर चेष्टा शून्य हो जाना भाव समाधि है । किसी इष्ट देव आदि के ध्यान में इतना डूब जाए कि साधक को निराकार अद्भुद अदृश्य ताकते साक्षात दिखाई देने लगे, ऐसा प्रतीत होने लगे कि बंद आँखों से स्पष्ट प्रतिमा नज़र आ रही है इसे ध्यान समाधि कहते हैं । ब्रह्मरन्ध्र में प्राणों को एकाग्र करना प्राण-समाधि कहलाता है । साधक स्वयं को ब्रह्म में लीन होने जैसी अवस्था में बोध पाता है इसे ब्रह्म समाधि कहते हैं । सभी समाधियों में सबसे सहज, सुखकारी तथा सुलभ “सहज समाधि” है । संत कबीर जी ने कहा है –
साधो ! सहज समाधि भली। गुरु प्रताप भयो जा दिन ते सुरति न अनत चली ॥
आँख न मूँदूँ कान न रूँदूँ काया कष्ट न धारूँ।
खुले नयन से हँस- हँस देखूँ सुन्दर रूप निहारूँ ॥
कहूँ सोईनाम, सुनूँ सोई सुमिरन खाऊँ सोई पूजा।
गृह उद्यान एक सम लेखूँ भाव मिटाऊँ दूजा ॥
जहाँ- जहाँ जाऊँ सोई परिक्रमा जो कुछ करूँ सो सेवा।
जब सोऊँ तब करूँ दण्डवत पूँजू और न देवा ॥
शब्द निरन्तर मनुआ राता मलिन वासना त्यागी।
बैठत उठत कबहूँ ना विसरें, ऐसी ताड़ी लागी ॥
कहैं ‘कबीर’ वह अन्मनि रहती सोई प्रकट कर गाई।
दुख सुख के एक परे परम सुख, तेहि सुख रहा समाई ॥
असंख्य योग-साधनाओं में से सहज समाधि एक सर्वोत्त्म साधन है । इसका विशेष गुण यह है कि सांसारिक जीवन जीते हुए भी साधक का साधना अभ्यास चलता रहता है । साधक के जीवन से अहम भाव लगभग समाप्त हो जाता है । वह संसार का प्रत्येक कार्य प्रभु इच्छा मानकर करता रहता है । वह प्रभु के इस संसार को प्रभु की सुरम्य वाटिका के समान देखते हुए एक माली के समान कार्य करता है । संत कबीर जी भी उक्त पद में ऐसी ही समाधि की चर्चा कर रहे हैं और यह समाधि उन साधकों को ही प्राप्त हो सकती है जो मलिन वासनाओं को त्याग कर हर वक्त शब्द में लीन रहते हैं ।

समाधि का घटित होना

जब साधक किसी सद्गुरु की कृपा से साधना, ध्यान अभ्यास पूर्ण कर समाधि योग्य हो जाता है, बाहरी विचारों से मुक्त होकर अंतर्मुखी हो जाता है तथा वह अपनी आत्मा में ही लीन रहता है तो समाधि घटित होती है । जब साधक ध्यान में बैठता है तो कुछ समय पश्चात उसे एक मौन जैसी अवस्था प्राप्त होती है । यहाँ उसे बेचैनी और उदासी सी अनुभव होती है । यहाँ पर साधक को अपने विचारों पर अधिक ध्यान नही देना चाहिए । विचार आ रहे है तो आने दो, जा रहे हैं तो जाने दो, बस दृष्टा बने रहो, एक पैनी नज़र के साथ । यहाँ साधक को धैर्य बनाए रखना चाहिए । इस मौन और उदासी के बाद ही हृदय प्रकाश से भरने लगता है । ध्यान में शरीरी भाव खोने लगेगा लेकिन साधक को इससे डरना नहीं चाहिए बल्कि खुश होना चाहिए कि वह परमात्मा प्राप्ति के मार्ग की और अग्रसर हो रहा है । अब साधक को ब्रह्म भाव की अनुभूति होने लगेगी । शरीर में विद्युत ऊर्जा का संचार होने लगेगा । इससे कभी कभी साधक के सिर में दर्द हो सकता है और यह बहुत ज्यादा भी हो सकता है । पीड़ा या दर्द यदि अधिक बढ़े तो चिंता नहीं करना चाहिए क्योंकि जब चक्र टूटते है तो पीड़ा होती ही है क्योंकि चक्र आदि काल से सोये पड़े हैं । अत: इस पीड़ा को शुभ मानना चाहिए । साधक के शरीर में या मस्तिष्क में झटते लग सकते है । कभी कभी शरीर कांपने लगता है लेकिन साधक को इस स्थिति से डरना नहीं चाहिए । कभी कभी शरीर में दर्द होगा और चला जाएगा । इसको भी दृष्टा भाव से देखते रहना क्योंकि यह भी अपना काम करके चला जाएगा । ध्यान में डटे रहना । यह कुंडलनी जागरण के चिह्न हैं, शरीर में विद्युत तेजी से चलती है । फिर धीरे धीरे अलौकिक अनुभव होने लगते है । शरीर तथा आत्मा आनंद से भरपूर हो जाती हैं । यहाँ साधक को चाहिए कि अपना कर्ता भाव पूर्ण रूप से छोडकर बस देखता रहे जैसे कोई नाटक देखता है । अब ऊर्जा उर्द्धगामी हो जाती है । यदि आपका तीसरा नेत्र अर्थात शिवनेत्र नहीं खुला है तो चिंता नहीं करना क्योंकि परमात्मा प्राप्ति की यात्रा के लिए यह जरूरी भी नहीं है । उच्चस्थिति आने पर यह स्वत: ही खुल जाता है । समय से पूर्व शक्ति का खुल जाना भी हानिप्रद हो सकता है । अब यह समझिए कि बीज अंकुरित हो चुका है अत: साधना में धैर्य रखते चलना । यह धैर्य ही ध्यान समाधि के रास्ते में खाद का कार्य करता है । अध्यात्म के अनुभवों का बुद्धि के आधार पर विश्लेषण न करना । क्योंकि ध्यान में तरक्की कुछ इस ढंग से होती रहती है जैसे मिट्टी में दबा बीज अंकुरित होता रहता है लेकिन अंकुरण की तरक्की का पता जब चलता है जब वह धरती की सतह से ऊपर आ जाता है । इस प्रकार धीरे धीरे साधक ( ध्याता ) ध्यान द्वारा ध्येय में पूर्णरूपेण लय हो जाता है और उसमें द्वैतभाव नहीं रहता है ऐसी अवस्था में समाधि लगती है । समाधि प्राप्त साधक दिव्य ज्योति एवं अद्भुद ताकत से पूर्ण हो जाता है । समाधि प्राप्त साधक सभी जीवों में प्रभु का वास देखने लगता है । समाधि घटित होने से साधक को मोक्ष मार्ग की यात्रा की और बढ़ते हुए विभिन्न सिद्धियाँ तथा रिद्धियाँ भी प्राप्त हो जाती है लेकिन साधक को परम मोक्ष प्राप्ति के लिए इनके प्रयोग से बचना चाहिए अन्यथा यात्रा और कठिन हो जाती है । ये सिद्धियाँ तथा रिद्धियाँ इस प्रकार है-
  1. अणिमा
  2. लघिमा
  3. गरिमा
  4. प्राप्ति
  5. प्राकाम्य
  6. ईशित्व
  7. महिमा
  8. सर्व कामना सादिका
  9. वाशित्व
  10. दुरश्रवण
  11. सर्वज्ञता
  12. वाक्य सिद्धि
  13. परकाया प्रवेश
  14. कल्पवृक्ष
  15. संहारशक्ति
  16. सृष्टि शक्ति
  17. सर्वाग्रगण्यता
  18. अमरत्व
समाधि लगने पर साधक बिना आँखों के देख सकता है, बिना कानों के सुन सकता है, बिना मन मस्तिष्क के बोध कर सकता है, जन्म मरण से मुक्त स्थूल देह से बाहर निकल कर खुद को अभिव्यक्त कर सकता है, ब्रह्मांड से भी अलग होने की ताकत प्राप्त कर लेता है । इसके बारे में संत कबीर जी ने कहा है –
बिना चोलनै बिना केचुकी, बिनहीं संग संग होई ।
दास कबीर औसर भाल देखिया जानेगा जस कोई ॥
संत नानक देव जी उक्त संबंध में फरमाते हैं कि -
अखी बाझहु वेखणा, विणु कन्ना सुनणा ।
पैरा बाझहु चलणा, बिणु हथा करणा ।
जीभै बाझहु बोलणा, एउ जीवट मरणा ।
नानक हुकमु पछाणी कै तउ खसमै मिलणा ।
दादू दयाल जी कहते है कि –
बिन श्रवणौ सब कुछ सुनै, बिन नैना सब देखै ।
बिन रसना मुख सब कुछ बोलै, यह दादू अचरज पेखै ॥
एक मुस्लिम महात्मा मौलाना रूम इसको इस प्रकार व्यक्त करते है –
बेपरो बे पा सफ़र में करदम ।
बे लबो बे दंदो शंकरं में खुर्दम ।
चश्म बस्ता आलम में दीदम ॥
रामायण में संत तुलसीदास जी लिखते है कि -
बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना । कर बिनु करम करइ बिधि नाना ॥
आनन रहित सकल रस भोगी । बिनु बानी बकता बड़ जोगी ॥
तन बिनु परस नयन बिनु देखा । ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा ॥
असि सब भाँति अलौकिक करनी । महिमा जासु जाइ नहिं बरनी ॥
“ध्यान” तथा “समाधि” में एक महत्वपूर्ण अंतर है कि साधक जब ध्यान कर रहा होता है तो उसको यह पूरा अहसास रहता है कि वह “ध्याता” है तथा “ध्येय” का ध्यान कर रहा है अर्थात यहाँ पर द्वैत भावना रही । लेकिन जब साधक का चित्त पूर्ण रूप से “ध्येय” में परिवर्तित होने लगता है और स्वयं के अस्तित्व का अभाव हो जाता है अर्थात यहाँ केवल “ध्येय” ही शेष रह जाता है, यहाँ पर अद्वैत ही शेष रह जाता है ।

समाधि के प्रकार

योग के अनुसार समाधि के दो प्रकार बताए जाते हैं –
  • क) संप्रज्ञात समाधि
    इस प्रकार की समाधि में साधक वैराग्य द्वारा अपने अंदर से सभी नकारात्मक विचार, दोष, लोभ, द्वेष, इच्छा आदि निकाल देता है । इस समाधि में आनंद तथा अस्मितानुगत की स्थिति हुआ करती है ।
  • ख) असंप्रज्ञात समाधि
    इस प्रकार की समाधि में साधक को अपना भी भान नहीं रहता और वह केवल प्रभु के ध्यान में एकरत तल्लीन हो जाता है ।
संप्रज्ञात समाधि को भी चार भागों में बताया गया है :
  • अ) वितर्कानुगत समाधि: विभिन्न देवी देवताओं की मूर्ति का ध्यान करते करते समाधिस्थ हो जाना ।
  • आ) विचारानुगत समाधि: स्थूल पदार्थो पर ध्यान टिका कर विचारों के साथ समाधिस्थ हो जाना ।
  • इ) आनंदानुगत समाधि: विचार शून्य होकर आनंदित हो कर समाधिस्थ हो जाना ।
  • ई) अस्मितानुगत समाधि: इस समाधि में अहंकार, आनंद भी समाप्त हो जाता है ।
अवस्थाओं के आधार पर समाधि को दो भागों में बांटा जा सकता है:-
  1. सविकल्प समाधि : यह समाधि की शुरुआत है । इसमे ध्येय, ध्याता एवं ध्यान तीनों ही होते हैं । यह समाधि द्वैत भाव युक्त है, इसमें साधक का अस्तित्व भी विद्यमान रहता है । इसको इस प्रकार से समझ सकते हैं जैसे लोहे का कोई बर्तन बनाया तो बर्तन में लोहे की भी अभिव्यक्ति मौजूद रहती है । समाधि की इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए साधक को किसी न किसी सहारे की आवश्यकता होती है । चित्त एकाग्र होने पर ही यह समाधि घटित होती है । ऐसी अवस्था में प्रज्ञा के संस्कार बाकी रह जाते हैं ।
  2. निर्विकल्प समाधि : जब साधक ( ध्याता ) ध्यान करते करते ध्येय में इस प्रकार समाहित हो जाता है कि उसका अपना अस्तित्व समाप्त हो जाता है तथा केवल “ध्येय” ही शेष रह जाता है अर्थात अद्वैत अवस्था को प्राप्त कर लेता है तो इसे निर्विकल्प समाधि कहते हैं । समाधि की इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए साधक को किसी भी प्रकार के सहारे की आवश्यकता नहीं होती है । इस समाधि के उपरांत सभी दुखों की निवृत्ति होकर पूर्ण सुख की प्राप्ति हो जाती है ।
उपरोक्त दोनों अवस्थाएँ समाधि की शुरुआती तथा आखरी अवस्थाएँ हैं । समाधि को प्राप्त करने के विभिन्न साधनों के आधार पर समाधि के कई प्रकार हैं । जैसे-
  • ध्यान योग समाधि : समाधि की यह आरंभिक स्थिति है । ध्यान पक्का होने पर ही समाधि लगती है अत: साधक “ध्येय” का ध्यान कर ध्यान की सिद्धि प्राप्त करता है । ध्यान की सिद्धि के लिए साधक का मन पवित्र तथा पाप रहित रहना चाहिए । घेरण्ड संहिता में उल्लखित है कि-
    शांभावी मुद्रिकामं कृत्वा आत्मप्रत्यक्षमानयेत ।
    बिन्दुब्रह्म सकृद्दृष्ट्वा मनस्तत्रनियोजयेत ॥
    खमध्ये कुरुचात्मानं आत्ममध्ये च खं कुरु ।
    आतमानं खमयं दृष्ट्वा न किंचदपि बाध्यते ॥
    सदानंदमयों भूत्वा समाधिस्थों भवेन्नर: ।
    अर्थात शांभावी मुद्रा द्वारा आत्मा को साक्षात करें और बिन्दु समान ब्रह्म का साक्षात्कार करें । उसके बाद मस्तिष्क में मौजूद ब्रह्म में आत्मा का प्रवेश कराएं । अब आत्मा को आकाश में लय कर दें । अब आत्मा को परमात्मा के मार्ग की और प्रवेश कराये इससे साधक हमेशा के आनंद तथा समाधि को प्राप्त कर लेता है ।
  • नाद योग समाधि : साधक इस प्रकार की समाधि में अपने मन को पूर्णरुपेण अनाहत नाद में लगा देता है । इससे नि:शब्द समाधि की प्राप्ति होती है । इसमें मन नाद रूपी नि:अक्षर शक्ति में समाने लगता है । इसको महाबोध समाधि भी कहते हैं ।
  • मंत्र योग समाधि : इसमें साधक अपने मन को श्वास प्रश्वास की क्रिया में लय करता है । श्वास लेते तथा छोड़ते हुए उत्पन्न आवाज पर साधक ध्यान रखता है और एकाग्रचित होकर समाधिस्थ हो जाता है । अभ्यास पक्का हो जाने पर श्वास उलट जाती हैं । इसी उल्टे जाप का उच्चारण महाऋषि बाल्मीकि जी ने किया था ।
  • लय योग समाधि : हमारे शरीर में “कुंडलनी” सुषमना नाड़ी का रास्ता बंद कर साढ़े तीन चक्कर ( कुण्डल ) मार कर सुषुप्त अवस्था में पड़ी रहती है । कुंडलनी को शक्ति का द्योतक माना जाता है । ध्यान साधना द्वारा समाधि की स्थिति को प्राप्त करने के लिए कुंडलनी को जाग्रत करते हुए छ चक्रों को भेदना होता है । इसमे साधक को ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे उसमे परमात्मा की शक्ति लय होती जा रही है । इसे “महालय समाधि” भी कहा जाता है ।
  • भक्ति योग समाधि : जब साधक अपने मन को अपने इष्ट में इस प्रकार समा देता है कि उस अपने शरीर का भी भान नही रहता है । वह बाहरी सभी प्रकरणों से अपने आप को संज्ञाशून्य समझने लगता है । शरीर प्रसन्नता से भर जाता है आनंद में आँसू निकालने लगते है तो इसे भक्ति योग समाधि कहा जाता है । इससे मन में एकाग्रता आ जाती तथा ब्रह्म का साक्षात्कार हो जाता है ।
  • राज योग समाधि : मन को बाहरी सभी प्रपंचों से हटाकर आत्मा में तथा आत्मा को परमात्मा में लगा देना ही राज योग समाधि है । इसमे साधक की प्राथमिकता यही रहती है कि मन की सभी वृत्तियों को रोककर प्रभु में लगा दिया जाये ।
महत्वपूर्ण नोट : समाधि में प्रवेश की विद्या का अभ्यास किसी भी साधक को किसी पूर्ण संत सद्गुरु के मार्गदर्शन में ही करना चाहिए क्योंकि इसमे कई प्रकार की जटिलताएँ आने की संभावना रहती है । इसमे साधक को समय समय पर सद्गुरु की मदद की आवश्यकता पड़ती है जिसमे सद्गुरु द्वारा शिष्य को दी जाने वाली आध्यात्मिक शक्ति भी शामिल है ।

DHYAN

अध्यात्म में ध्यान के ऊपर बहुत चर्चा की गई है और वास्तव में ध्यान ही अध्यात्म का सार है। ध्यान क्या है इसके बारे में समझने के लिए कहा जा सकता है कि व्यक्ति हर समय कुछ ना कुछ ध्यान अर्थात चिंतन करता ही रहता है। मनुष्य यदि इस ध्यान को ही प्रभु की ओर लगा दें तो वह ब्रह्मस्वरूप हो जाता है। अंतर की ओर लगाया गया ध्यान आंतरिक आध्यात्मिक जागृति का कारण  बन जाता है। वास्तव में ध्यान द्वारा पूर्ण रुप से निर्विचार होकर समाधिस्थ हो जाना ही ध्यान की पराकाष्ठा है।
अंग्रेजी में ध्यान को मेडिटेशन (Meditation) कहते हैं। हिंदी में इसको बोध का आ जाना कहा जा सकता है। अर्थात इंसान का होश में आ जाना ही ध्यान की प्राप्ति है। इसके लिए हम दूसरे शब्द भी प्रयोग में ला सकते हैं - होश, साक्षीभाव बोध, दृष्टा भाव आदि।  ध्यान ही एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा मनुष्य अपनी आत्मा को इस लोक से अमरलोक ले जा सकता है। ध्यान के द्वारा मनुष्य की चित्तवृति एकाग्रचित हो जाती है अर्थात ध्यान द्वारा चित्त ठहर जाता है। ध्यान करने से एक योगी की आंतरिक आध्यात्मिक शक्तियां इतनी बढ़ चले जाती हैं कि ब्रह्मांड की हर वस्तु उसकी पकड़ के अंदर आ जाती है। 
कुछ व्यक्ति विभिन्न क्रियाओं को ही ध्यान समझने लगते हैं जैसे की सुदर्शन क्रिया आदि और व्यक्ति इन विधियों को ही ध्यान करने की भूल कर बैठता है।  बहुत से गुरू, महात्मा तथा संत ध्यान करने की विभिन्न प्रकार की विधियां बताते हैं। लेकिन वह ध्यान और इन विधियों के अंतर को स्पष्ट नहीं बताते। वास्तव में ध्यान और इन क्रियाओं में अंतर है। क्रिया तो एक हथियार के समान है क्रिया एक साधन है जो कि साध्य नहीं है।  सिर्फ आंखें  बंद कर लेना और विशेष मुद्रा में बैठ जाना ही ध्यान नहीं है। किसी मूर्ति आदि का ध्यान करना तथा माला जपना भी ध्यान नहीं कहा जा सकता। 
हमारे अंतर्मन में हमेशा विभिन्न प्रकार की कल्पनाएं तथा विचार आते रहते हैं जिससे कि मन मस्तिष्क में हमेशा एक कोलाहल जैसी स्थिति बनी रहती है। कभी कभी जीवन में किसी दुखद घटना को हम याद नहीं करना चाहते लेकिन वह हमें बार-बार याद आती रहती है और चाह कर भी हम उससे अलग नहीं हो पाते। हम नहीं चाहते कि ऐसे विचार हमारे मन-मस्तिष्क में आए लेकिन यह बार-बार आते ही रहते हैं और इससे हमारा मस्तिष्क और हम स्वयं ही कमजोर होते जाते हैं। ध्यान द्वारा हम इन अनचाही कल्पना तथा विचारों से अपने मन को हटाकर शुद्ध तथा निर्मलकर आध्यात्मिक स्थिति को प्राप्त कर सकते हैं। ध्यान जैसे-जैसे अपनी पराकाष्ठा को प्राप्त करता है साधक साक्षी भाव में स्थित होता जाता है। एक समय आता है कि साधक के ऊपर विचार कल्पना तथा भावों का किसी प्रकार का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। मस्तिष्क तथा मन एकदम शांत हो जाता है जो वास्तव में ध्यान का प्रारंभिक एवं मूलभूत स्वरूप होता है। हमारे दैनिक जीवन में विभिन्न प्रकार के अतीत के सुख दुख के विचारों में खोए रहना या विभिन्न कल्पनाओं में खोया रहना या विभिन्न प्रकार की लोभ लालचकारी  आकांक्षाओं में खोया रहना, ध्यान प्रक्रिया के लिए बाधक सिद्ध होता है। इसके बारे में हाथरस वाले संत तुलसी साहिब जी ने कहा है:
चश्म दिल से देख तू, क्या क्या तमाशे हो रहे ।
दिल सतां क्या क्या है, तेरे दिल सताने के लिए ।
ध्यान गैरों का उठा, उसके बैठने के लिए ।
एक दिल लाखों तमन्ना, उसपे भी ज्यादा हवस ।
फिर ठिकाना है कहाँ, उसको बैठने के लिए ।
ध्यान द्वारा मन, इंद्रियां, बुद्धि, चित्त और अहंकार आदि सब आत्मा में लीन हो जाते हैं तथा साधक के अंदर दृष्टा भाव अर्थात साक्षीभाव आ जाता है। ध्यान करते करते ध्यान की गहनता से इंसान ऐसी अवस्था में चला जाता है जहां मनुष्य का शरीर तो सो जाता है लेकिन मनुष्य की चेतनता आंतरिक रुप से पूर्ण रुप से जागृत हो जाती है। साधक त्रिकालदर्शी हो जाता है। साधक अपने अंतर में विभिन्न प्रकार के दिव्य मंडलों के दर्शन करने लगता है, जहाँ उसे अद्भुद नज़ारे भी देखने को मिलते है तथा उनकी यात्राए करता है। इन यात्राओं के उपरांत साधक एक ऐसी यात्रा पर निकलता है जहाँ दिव्य मंडलों के नज़ारे भी नहीं रहते हैं। वहाँ दृश्य भाव समाप्त हो जाता है अब वह अद्वैत में प्रवेश करता है जिसके फलस्वरूप सम्पूर्ण मोक्ष प्राप्त करता है। इसके लिए एक सक्षम तथा पूर्ण सद्गुरु की आवश्यकता होती है क्योंकि यह सब पूर्ण सद्गुरु की कृपा से ही संभव है। यह स्थिति कुछ इस प्रकार है:
अब कह कहौं कछु कहि न जाय । जब हम तुम तुम हम रहे बिलाय ॥
जस लवन परयो है सिंधु माहि । जेहि खोजत पावत कछुक नाहि ॥
अस जीव ब्रह्म को मिटयो भेद । संसार भरम को भयो निषेध ॥
जस बरफ रूप अरु जलाकार । दोऊ भिन्न भिन्न दीखत न सार ॥
जस खंड खिलौना रूप रंग । बहु भौतिन्ह कर आकार ढंग ॥
जब खाँड गली है मिटा भेक । तब खाँड खिलौना एक मेक ॥
जस ताने बाने एक सूत । अस ब्रहमहि दरसे जीवभूत ॥
कहते संत आतम परकास । ज्यों घट बाहर भीतर अकास ॥
साधक अपने आप में तथा ब्रह्म में एकरूपता महसूस करने लगता है। इस स्थिति को हम इस प्रकार भी समझ सकते हैं जैसे एक स्त्री ने सपने में देखा कि उसका शिशु गुम हो गया है और वह परेशान है। जैसे ही उस स्त्री की घबराहट में नींद खुली तो देखा कि बेटा तो पास ही में सोया है। इसी तरह परमात्मा अपने अंदर से ही प्रकट हो जाता है। लेकिन साधारण इंसान अज्ञानता के कारण मन के भ्रम जाल के कारण प्रभु को कहीं दूर ही समझता है। 
ज्यों तिरिया सपने सुत खोयो, सपने में अकुलायी । 
जाग परी पलंग पर पायो, न कहीं गयो न आयो ॥ 
संत कबीर जी ने भी कहा है कि मृग की नाभि में सुगंध फैलाने वाली कस्तूरी होती है परंतु वह यह भ्रम में रहता है कि शायद सुगन्ध जंगल से आ रही है और वह इस सुगन्ध की तलाश में जंगल में इधर उधर घूमता रहता है।
मृगा नाभि बसे कस्तूरी, वन वन खोजत धाये ॥
संत नानक देव जी महाराज ने इस विषय में फरमाया है कि:
परम समाधि की जो मिति जानै । परम तत्त कौ तबहि पछानै ॥
परै ते परै पर मिति जब आवै । तब नानक परम समाधि समावै ॥
शब्दि नादु की सुरति समावै । नानक सुन्न समाधि लगावै ॥
सर्ब निरंतरि अलखु परधाने । एको एकी ब्रह्म पछानै ॥
सप्त ध्यान धरै मन मारि । तब लागी धुन शब्द मँझारि ।
काटि कर्म होवै नि:कर्मा ।
आवागवन मिटै गुर धरमा ।
पारसु परसि परम पदु पावै ।
नानक सुन्न समाधि लगावै ।
संत पलटू साहिब जी महाराज ने इस विषय में फरमाया है कि:
बांध सुरत की डोरी सब्द में पिलैगा ।
अरे हाँ पलटू ज्ञान ध्यान के पार ठिकाना मिलैगा ॥
लागी सहज समाधि सब्द ब्रह्माण्ड में फूटा ॥
संत कबीर साहिब जी महाराज ने इस विषय में फरमाया है कि:
सतगुरु मिले जेहि देहि लखाई । सुरति निरंतर ध्यान बताई ।
मकर तार तहँ लागी डोरी । पहुंचे हंस नाम की सोरी ।
जब लग ध्यान विदेह न आवे । तब लग जिव भव भटका खावे ।
ध्यान विदेह और नाम विदेहा ? दोउ लखि पावे मिटे संदेहा ।
कहे कबीर मुक्ति तब पावे । सुरति निरति ले तब समावे ।
उन्मुनि ध्यान रहो लौ लाई । अजपा जपो सदा दिल भाई ।
सहज शून्य जो ध्यान लगावै । भवजल तरत वार नहिं लावै ।
सुरति शब्द लै सहज समावै । सहज समाधि परमपद पावै ।
जब भी हम कोई कार्य करते हैं तो हमारी ऊर्जा बाहर की ओर चलती है अर्थात गति करती है लेकिन जब हम कुछ भी नहीं करते तो यही ऊर्जा अंतर्मुखी हो जाती है। इसी का उपयोग ध्यान के समय होता है। असलियत में ध्यान एक ऐसी अवस्था है जिसमें मनुष्य को कुछ भी नहीं करना होता है अर्थात उसको अपने आप में पहले खाली होना होता है। तब ध्यान अपने आप में घटित हो जाता है। इसको ऐसे कहा जाता है कि बिना कुछ करे सब कुछ हो जाता है। ध्यान में जब ऐसी अवस्था आती है कि आप कुछ भी नहीं कर रहे होते तब ही वह ध्यान का फूल हमारे अंदर खिलता है अर्थात शारीरिक रूप से भी हम कुछ भी ना करें, मन से भी कुछ ना करें, इंद्रियों से भी कुछ नहीं करें  और पूर्ण रुप से विचार शून्य हो जाए। 
इसको हम दूसरे शब्दों में इस प्रकार भी कह सकते हैं कि कुछ करना अर्थात अंतर से बाहर की ओर जाने का रास्ता अपनाना और कुछ नही करना बाहर से अंदर की ओर जाने का रास्ता अपनाना। वास्तव में अंतर में ही असलियत है बाहर तो सब झूठा और नाशवान है। अंतर में जाना यह बहुत बड़े धैर्य का कार्य है क्योंकि विचार और भाव धीरे धीरे ही गायब होते हैं। ध्यान में शुरूआती अवस्था में प्राय: अंधकार ही नजर आता है क्योंकि हम उस प्रकाश को देखने के लिए अभ्यस्त नहीं है और हमारी एकाग्रता नही बनी होती है जो कि अभ्यास द्वारा धीरे धीरे आती है। इसको हम एक उदाहरण के माध्यम से समझ सकते हैं। यदि आप बाहर धूप की रोशनी से जाकर अपने कमरे के अंदर जाते हैं तो आपको अपने कमरे के अंदर अंधेरा ही नजर आता है। लेकिन अगर आप वहाँ शांति से कुछ देर बैठ जाएं तो आप को वहाँ रखी सभी वस्तुएं साफ-साफ नजर आने लगती है। इसी प्रकार ध्यान में भी  धैर्य की आवश्यकता है। ध्यान में आपके विचार और भाव इसी प्रकार गायब होने लगते हैं तो आप प्रकाश की ओर बढ़ने लगते हैं। यह गहराई में बहुत अधिक प्रतीक्षा करने वाली जैसी स्थिति होती है। अपने आपको जानने के लिए बहुत अधिक धैर्य की आवश्यकता पड़ती है। धैर्य के साथ ध्यान करते-करते आपको एक मंदम मंदम सा प्रकाश नजर आने लगता है। इस प्रकाश का अंदाजा आप लगा सकते हैं उस प्रकाश से जो भोर में सूर्योदय से पहले आकाश में नज़र आता है । यह वास्तव में सूरमाओं का कार्य है। यह बहुत ही साहस का कार्य है। यहाँ से शुरू कर एक साधक गुरु कृपा तथा मेहनत से अधिक प्रकाश की ओर बढ़ाने लगता है। साधक समाधिस्थ होने लगता है उसका शरीर सुन्न होने लगता है तथा वह शरीर से निकाल कर अंतरीय मंडलों की यात्रा करने लगता है। एक अवशठा ऐसी आती है जब साधक अंतरीय मंडलों को भी पर लेता है और माया के घेरे से पार होकर परम पिता परमेश्वर के साथ अखंड आनंद में विलीन हो जाता है। कार्य कठीन है लेकिन जिसको प्रभु प्राप्ति की चाह है वह इसे गुरु कृपा से आसानी से कर जाता है। इसी संबंध में संत कबीर साहब जी ने कहा है :
कामी क्रोधी लालची इनसे भक्ति न होय । 
भक्ति करे कोई सूरमा जाति बरन कुल खोय ॥ 

ध्यान की पराकाष्ठा


साधक जब ध्यान की गहराई में पहुंचता है तो विदेह हो जाता है कबीर साहिब जी इस संबंध में बताते हैं कि विदेही साधक के सभी भ्रम संताप समाप्त हो जाते हैं। साधक विदेह होने की स्थिति को पूर्ण सद्गुरु द्वारा प्रदत्त विदेह नाम की सहायता से ही प्राप्त कर सकता है। यह ऐसा नाम है जिसको अक्षरों द्वारा लिखा नहीं जा सकता है, न इसको बोला जा सकता है। यह कोई मंत्र या शब्द नहीं है क्योंकि कहा गया है “जित्ते मंत्र जगत के माही, सतलोक पहुँचावत नाही”। यदि साधक का ध्यान विदेह में एक क्षण के लिए भी अवस्थित हो जाता है तो वह अखंड आनंद की अनुभूति को पा लेता है जो चिर स्थायी रहती है । अत: इस दुनिया का कोई भी मंत्र या शब्द साधक को ध्यान की पराकाष्ठा तक ले जाने में सक्षम नहीं है। संत कबीर कहते हैं :
जब लग ध्यान विदेह न आवे । तब लग जीव भव भटका खावे ॥
ध्यान विदेह और नाम विदेहा । दौउ लखि पावे मिटे संदेहा ॥
छिन एक ध्यान विदेह समाई । ताकि महिमा वरणि न जायी ॥
काया नाम सबै गोहरावे । नाम विदेह विरला कोई पावे ॥
बिनु रसना के नाम जाप समाई । तासो काल रहे मुरझाई ॥
नहि वह शब्द न सुमिरन जापा । पुराण वस्तु काल दिखलापा ॥
सूक्ष्म सहज पंथ है पूरा । ता पर चढ़ो रहे जन सूरा ॥
सार नाम सद्गुरु से पावे । नाम डोर गही लोक सीधे ॥
धर्मराय ताको सिर नावे । जो हंसा नि:तत्व समावे ॥
सार शब्द विदेह स्वरूपा । नि: अक्सर वह रूप अनूपा ॥
तत्व प्रकृति भाव सब देहा । सार शब्द नि:तत्व विदेहा ॥
किसी संत ने बहुत ही खूबसूरत लिखा है:
राम खुदा कहैं सब, नाम कोई बिरला नर पावै ॥
है बिन अक्षर नाम, मिलै बिना दाम सदा सुखकारी ॥
वाई शख्स को मिलै, जिन आस मारी ॥
बहुतक शौरा लिए कमंडल, कहै बहु वाणी ॥
चेतन ब्रह्म ताही नहीं जानी ॥
लंबे केश, संत के भेष, दृव्य हरी लेत ॥
मंत्र दे कानन भरमावै ॥
ऐसे गुरु मत करै, फंद मत पड़े, मंत्र सिखलावै ॥
जब रूक जाये कंठ, मंत्र काम नहीं आवे ॥
ऐसे गुरु कर ले भृंग, सदा रहे जो संग, लोक चौथा दर्शावै ॥
राम खुदा कहै सब, नाम कोई बिरला नर पावै ॥
इसी नि:अक्षर शब्द के बारे में बहुत से संतो ने वर्णन किया है। उन्होने स्पष्ट कहा है कि मुक्ति प्रदान करने वाला शब्द अक्षरों के परे है। कहा है कि –
मेरुदंड पे डारी दुलेची, जोगी तारी लाया ॥
ता सुमिर की खाक उढ़ानी, तो कहाँ है रैन तुम्हारी ॥
इंगला बिनशै पिंगला बिनशै, बिनशै सुषमना नाड़ी ॥
जब त्रिकुटी की खाक उढ़ानी, तो कहाँ है रैन तुम्हारी ॥
अद्वैत बैराग कठिन है भाई, अटके मुनिवर जोगी ॥
अक्षर ही को सत्य बतावै, ऐसे झूठे मुक्त वियोगी ॥
अक्षरतीत शब्द एक बाका, अजपहु ही की जो है नाका ॥
उर्द्ध में रहे अर्द्ध में आवै, तब जाये ॥
ता लखे जो जोगी, फिर जन्म नहीं होये ॥
उक्त सभी वाणियों से स्पष्ट हो जाता है कि यदि कोई तथाकथित संत महात्मा आपको मंत्र आदि के जाप से परमात्मा प्राप्ति का रास्ता बताता है तो यह निरर्थक ही है। जिससे साधक की मेहनत बेकार ही जाती है क्योंकि सही युक्ति से ही मुक्ति है। ध्यान करने के मार्ग के बारे में हमारी वैबसाइट के “मूलभूत जानकारी” कॉलम के अंतर्गत दीक्षाएं नाम लेख से अधिक जानकारी प्राप्त की जा सकती है ।

KUNDALNI AUR CHAKRA GYAN

मनुष्य शरीर में उपलब्ध सात चक्रों का वर्णन :

शरीर के विभिन्न चक्रदेवी देवताओं का निवास, विभिन्न कमाल दल और तत्व
सहस्रसार चक्र -
स्थान: सिर के उस स्थान पर जहां ब्राह्मण लोग चोटी रखते हैं ।
यहाँ एक हज़ार पंखुड़ियों के समान कमल है । स्वयं निरंजन भगवान का निवास स्थान इसी स्थान पर है ।
आज्ञा चक्र -
स्थान: दोनों भृकुटियों के मध्य जहाँ पर तिलक लगाया जाता है ।
यहाँ दो दल का कमल है तथा जाग्रत अवस्था में यह आत्मा का निवास स्थान यही है।
कंठ (विशुद्ध) चक्र -
स्थान: कंठ
यहाँ सोलह दल का कमल है इस चक्र पर देवी “आदि शक्ति” का निवास है।
कंठ (विशुद्ध) चक्र -
स्थान: कंठ
यहाँ सोलह दल का कमल है इस चक्र पर देवी “आदि शक्ति” का निवास है।
हृदय (अनाहत) चक्र –
स्थान: हृदय
यहाँ पर भगवान शिव तथा पार्वती का वास है । यहाँ बारह दल का कमल है । यहाँ अग्नि तत्व विद्यमान है।
नाभि (मणिपुर) चक्र –
स्थान: नाभि
यहाँ पर भगवान विष्णु तथा लक्ष्मी का वास है । यहाँ दस दल कमल है । यहाँ वायु तत्व विद्यमान है।
इंद्री (स्वादिष्ठान) चक्र –
स्थान: लिंग
यहाँ पर भगवान ब्रहमा तथा सावित्री का वास है । यहाँ आठ दल कमल है । यहाँ जल तत्व विद्यमान है।
मूलाधार (गुदा) चक्र –
स्थान: गुदा
यह गणेश भगवान का वास है। यहाँ चार दल कमल है । यहाँ पृथ्वी तत्व विद्यमान है।
मनुष्य शरीर में उपलब्ध इन चक्रों पर ध्यान टिकाने से असीम मानसिक तथा आध्यात्मिक शक्तियाँ आ जाती हैं मानव शरीर में पाँच कर्म इंद्रियाँ, पाँच ज्ञानेंद्रियाँ व चार सूक्षम इंद्रियाँ भी हैं । जो इस प्रकार हैं। कर्म इंद्रियाँ - मुंह, हाथ, पैर, गुदा, लिंग । ज्ञानेंद्रियाँ - कान, मुंह, त्वचा, आंख, नाक । सूक्ष्म इंद्रियाँ - मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार । मन का निवास सुषमना नाड़ी में है । यह नाड़ी नाक के दोनों छिद्रों की नाड़ियों इडा तथा पिंगला के बीच की नाड़ी होती है। मन इसी सुषमना नाड़ी में बैठकर मस्तिष्क को आदेश देता है । यही मन इस नाशवान संसार की हर गतिविधि को नियंत्रित करता है।

कुण्डलिनी शक्ति

कुण्डलिनी योग अंतर्गत शक्तिपात विधान का वर्णन अनेक ग्रंथों में मिलता है । योग वशिष्ठ, तेजबिन्दूनिषद्, योग चूड़ामणि, ज्ञान संकलिनी तंत्र, शिवपुराण , देवी भागवत, शाण्डिपनिषद, मुक्तिकोपनिषद, हठयोग संहिता, कुलार्णव तंत्र, योगनी तंत्र, घेरंड संहिता, कंठ श्रुति ध्यान बिन्दूपनिषद, रुद्र यामल तंत्र, योग कुण्डलिनी उपनिषद्, शारदा तिलक आदि ग्रंथों में इस विद्या के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है । कुण्डलिनी साधना को अनेक स्थानों पर षट्चक्र बेधन की साधना भी कहते हैं । इस समस्त शरीर को-सम्पूर्ण जीवन कोशों को-महाशक्ति की प्राण प्रक्रिया संम्भाले हुए हैं । उस प्रक्रिया के दो ध्रुव-दो खण्ड हैं । एक को चय प्रक्रिया (एनाबॉलिक एक्शन) कहते हैं । इसी को दार्शनिक भाषा में शिव एवं शक्ति भी कहा जाता है । शिव क्षेत्र सहस्रार तथा शक्ति क्षेत्र मूलाधार कहा गया है । इन्हें परस्पर जोड़ने वाली परिभ्रमणिका शक्ति का नाम कुण्डलिनी है ।

सहस्रार और मूलाधार का क्षेत्र विभाजन करते हुए मनीषियों ने मूलाधार से लेकर कण्ठ पर्यन्त का क्षेत्र एवं चक्र संस्थान 'शक्ति' भाग बताया है और कण्ठ से ऊपर का स्थान 'शिव' देश कहा है ।
मूलाद्धाराद्धि षट्चक्रं शक्तिरथानमूदीरतम् ।
कण्ठादुपरि मूर्द्धान्तं शाम्भव स्थानमुच्यते॥
वराहश्रुति
मूलाधार से कण्ठपर्यन्त शक्ति का स्थान है । कण्ठ से ऊपर से मस्तक तक शाम्भव स्थान है ।

हमारे सात चक्र है जिनका नाम -
  1. मूलाधार चक्र
  2. स्वाधिष्ठान चक्र
  3. मणिपुर चक्र
  4. अनाहत चक्र
  5. विशुद्ध चक्र
  6. आज्ञा चक्र
  7. सहस्रदल चक्र
मूलाधार से सहस्रार तक की, काम बीज से ब्रह्म बीज तक की यात्रा को ही महायात्रा कहते हैं । योगी इसी मार्ग को पूरा करते हुए परम लक्ष्य तक पहुँचते हैं । जीव, सत्ता, प्राण, शक्ति का निवास जननेन्द्रिय मूल में है । प्राण उसी भूमि में रहने वाले रज वीर्य से उत्पन्न होते हैं । ब्रह्म सत्ता का निवास ब्रह्मलाक में-ब्रह्मरन्ध्र में माना गया है । यह द्युलोक-देवलोक स्वर्गलोक है आत्मज्ञान का ब्रह्मज्ञान का सूर्य इसी लोक में निवास करता है । कमल पुष्प पर विराजमान ब्रह्म जी-कैलाशवासी शिव और शेषशायी विष्णु का निवास जिस मस्तिष्क मध्य केन्द्र में है-उसी नाभिक (न्यूविलस) को सहस्रार कहते हैं ।
आत्मोत्कर्ष की महायात्रा जिस मार्ग से होती है उसे मेरुदण्ड या सुषुम्ना कहते हैं । उसका एक सिरा मस्तिष्क का-दूसरा काम केन्द्र का स्पर्श करता है । कुण्डलिनी साधना की समस्त गतिविधियाँ प्रायः इसी क्षेत्र को परिष्कृत एवं सरल बनाने के लिए हैं । इड़ा पिंगला के प्राण प्रवाह इसी क्षेत्र को दुहराने के लिए नियोजित किये जाते हैं । साबुन पानी में कपड़े धोये जाते हैं । झाड़ू झाड़न से कमरे की सफाई होती है । इड़ा पिंगला के माध्यम से किये जाने वाले नाड़ी शोधन प्राणायाम मेरुदण्ड का संशोधन करने के लिए है । इन दोनों ऋणात्मक और धनात्मक शक्तियों का उपयोग सृजनात्मक उद्देश्य से भी होता है । इड़ा पिंगला के माध्यम से सुषम्ना क्षेत्र में काम करने वाली प्राण विद्युत का विशिष्ट संचार क्रम प्रस्तुत करके कुण्डलिनी जागरण की साधना सम्पन्न की जाती है । 
मेरुदण्ड को राजमार्ग-महामार्ग कहते हैं । इसे धरती से स्वर्ग पहुँचने का देवयान मार्ग कहा गया है । इस यात्रा के मध्य में सात लोक हैं । हिन्दू धर्म के भूःभुवःस्वःतपःमहःसत्यम् यह सात लोक प्रसिद्ध है । आत्मा और परमात्मा के मध्य इन्हें विराम स्थल माना गया है । इन विराम स्थलों को 'चक्र ' कहा गया है । 
चक्रों की व्याख्या दो रूपों में होती है, एक अवरोध के रूप में दूसरे अनुदान के रूप में महाभारत में चक्रव्यूह की कथा है । अभिमन्यु उसमें फँस गया था । वेधन कला की समुचित जानकारी न होने से वह मारा गया था । चक्रव्यूह में सात परकोटे होते हैं । इस अलंकारिक प्रसंग को आत्मा का सात चक्रों में फँसा होना कह सकते हैं । भौतिक आकर्षणों की, भ्राँतियों की विकृतियों की चहारदीवारी के रूप में भी चक्रों की गणना होती है । इसलिए उसके वेधन का विधान बताया गया है ।
कुण्डलिनी शक्ति को जाग्रत कर लेना बहुत ही जटिल प्रक्रिया है और यह एक अद्भुत और विचित्र अनुभव है जसकी कुण्डलिनी शक्ति जागृत है या सात चक्र जागृत है ,वह साधारण मानव नहीं रह जाता है ,वह एक योगिक और अलोकिक व्यक्ति हो जाता है ,दुनिया के भौतिक सुखो से पर हो कर ईश्वर की साधन में लीन हो जाता है लेकिन ऐसे व्यक्ति के लिए कुछ भी प्राप्त करना असंभव नहीं रहता है।
चक्रों को अनुदान केन्द्र इसलिए कहा जाता है कि उनके अन्तराल में दिव्य सम्पदाएँ भरी पड़ी हैं । उन्हें ईश्वर ने चक्रों की तिजोरियों में इसलिए बन्द करके छोड़ा है कि प्रौढ़ता, पात्रता की स्थिति आने पर ही उन्हें खोलने उपयोग करने का अवसर मिले कुपात्रता अयोग्यता की स्थिति में बहुमूल्य साधन मिलने पर तो अनर्थ ही होता है । धातुओं की खदानें जमीन की ऊपरी परत पर बिखरी नहीं होती, उन्हें प्राप्त करने के लिए गहरी खुदाई करनी पड़ती है । मोती प्राप्त करने के लिए लिए समुद्र में गहरे गोते लगाने पड़ते हैं । यह अवरोध इसलिए है कि साहसी एवं सुयोग्य सत्पात्रों को ही विभूतियों को वैभव मिल सके । मेरुदण्ड में अवस्थित चक्रों को ऐसी सिद्धियों का केन्द्र माना गया है जिनकी भौतिक और आत्मिक प्रगति के लिए नितान्त आवश्यकता रहती है ।इन सभी चक्रो को जागृत करने के लिए श्रद्धा और विश्वास और निरंतरता की आवश्यकता होती है। और किसी कुशल साधक के सरंक्षण में करना चाहिए ,नहीं तो अनिष्ट भी हो सकता है | 
चक्रवेधन, चक्रशोधन, चक्र परिष्कार, चक्र जागरण आदि नामों से बताये गये विवेचनों एवं विधानों में कहा गया है कि इस प्रयास से अदक्षताओं एवं विकृतियों का निराकरण होता है । जो उपयुक्त है उसकी अभिवृद्धि का पथ प्रशस्त होता है । सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन, दुष्प्रवृत्तियों के दमन में यह चक्रवेधन विधान उपयोगी एवं सहायक है |

1. मूलाधार चक्र

मूलाधार-चक्र वह चक्र है जहाँ पर शरीर का संचालन वाली कुण्डलिनी-शक्ति से युक्त ‘मूल’ आधारित अथवा स्थित है। यह चक्र शरीर के अन्तर्गत गुदा और लिंग मूल के मध्य में स्थित है जो अन्य स्थानों से कुछ उभरा सा महसूस होता है। शरीर के अन्तर्गत ‘मूल’, शिव-लिंग आकृति का एक मांस पिण्ड होता है, जिसमें शरीर की संचालिका शक्ति रूप कुण्डलिनी-शक्ति साढ़े तीन फेरे में लिपटी हुई शयन-मुद्रा में रहती है। चूँकि यह कुण्डलिनी जो शरीर की संचालिका शक्ति है और वही इस मूल रूपी मांस पिण्ड में साढ़े तीन फेरे में लिपटी रहती है इसी कारण इस मांस-पिण्ड को मूल और जहाँ यह आधारित है, वह मूलाधार-चक्र कहलाता है।
मूलाधार-चक्र अग्नि वर्ण का त्रिभुजाकार एक आकृति होती है जिसके मध्य कुण्डलिनी सहित मूल स्थित रहता है। इस त्रिभुज के तीनों उत्तंग कोनों पर इंगला, पिंगला और सुषुम्ना आकर मिलती है। इसके अन्दर चार अक्षरों से युक्त अग्नि वर्ण की चार पंखुणियाँ नियत हैं। ये पंखुणियाँ अक्षरों से युक्त हैं वे – स, ष, श, व । यहाँ के अभीष्ट देवता के रूप में गणेश जी नियत किए गए हैं। जो साधक साधना के माध्यम से कुण्डलिनी जागृत कर लेता है अथवा जिस साधक की स्वास-प्रस्वास रूप साधना से जागृत हो जाती है और जागृत अवस्था में उर्ध्वगति में जब तक मूलाधार में रहती है, तब तक वह साधक गणेश जी की शक्ति से युक्त व्यक्ति हो जाता है।
मंत्र : इस चक्र का स्थान मेरु दंड के सबसे निचले  स्थिति होता है, इसका मूल मंत्र " लं " है |
व्यक्ति को पहले प्राणायाम कर के मूलाधार चक्र पर अपना ध्यान केंद्रित कर मंत्र का उच्चारण करना चाहिए। धीरे धीरे चक्र जागृत होता है
लाभ: इससे लाभ यह मिलता है की व्यक्ति के जीवन में लालच नाम की चीज खत्म हो जाता है ,और एक आत्मिक ज्ञान प्राप्त होता है व्यक्ति अच्छा ज्ञान प्राप्त करता है और जिंदगी में बड़ी से बड़ी जिम्मेवारी लेने की क्षमता बढ़ जाता है। हौसला मजबूत होता है शारीरिक ऊर्जा बढ़ता है |
हानि: जब साधक-सिद्ध व्यक्ति सिद्धियों के चक्कर अथवा प्रदर्शन में फँस जाता है तो उसकी कुण्डलिनी उर्ध्वमुखी से अधोमुखी होकर पुनः शयन-मुद्रा में चली जाती है जिसका परिणाम यह होता है की वह सिद्ध-साधक सिद्धि का प्रदर्शन अथवा दुरुपयोग करते-करते पुनः सिद्धिहीन हो जाता है। परिणाम यह होता है कि वह उर्ध्वमुखी यानि सिद्ध योगी तो बन नहीं पाता, सामान्य सिद्धि से भी वंचित हो जाता है। परन्तु जो साधक सिद्धि की तरफ ध्यान न देकर निरन्तर मात्र अपनी साधना करता रहता है उसकी कुण्डलिनी उर्ध्वमुखी के कारण ऊपर उठकर स्वास-प्रस्वास रूपी डोरी (रस्सी) के द्वारा मूलाधार से स्वाधिष्ठान-चक्र में पहुँच जाती है।

2. स्वाधिष्ठान चक्र

मूलाधार चक्र से थोड़ा ऊपर और नाभि से निचे यह चक्र स्थित है। स्वाधिष्ठान-चक्र में चक्र के छः दल हैं, जो पंखुणियाँ कहलाती हैं। यह चक्र सूर्य वर्ण का होता है जिसकी छः पंखुनियों पर स्वर्णिम वर्ण के छः अक्षर होते हैं जैसे- य, र, य, म, भ, ब । इस चक्र के अभीष्ट देवता इन्द्र नियत हैं। जो साधक निरन्तर स्वांस-प्रस्वांस रूपी साधना में लगा रहता है, उसकी कुण्डलिनी ऊर्ध्वमुखी होने के कारण स्वाधिष्ठान में पहुँचकर विश्राम लेती है। तब इस स्थिति में वह साधक इन्द्र की सिद्धि प्राप्त कर लेता है अर्थात सिद्ध हो जाने पर सिद्ध इन्द्र के समान शरीर में इन्द्रियों के अभिमानी देवताओं पर प्रशासन करने लगता है, इतना ही नहीं प्रशासनिक नेता, मन्त्री और राजा लोग भी प्रशासनिक व्यवस्था के सुचारु एवं सुदृढ़ता हेतु आशीर्वचन हेतु आने और निर्देशन में चलने लगते हैं। साथ ही सिद्ध-पुरुष में प्रबल अहंकार रूप में अभिमानी होने लगता है जो उसके लिए बहुत ही खतरनाक होता है।
मंत्र: इसका मूल मंत्र " वं " है। यह चक्र जल तत्त्व से सम्बंधित है।
लाभ: इस चक्र के जागृत होने पर शारीरिक समस्या समाप्त हो जाती है। शरीर में कोई भी विकार जल तत्त्व के ठीक न होने से होता है , इसके जाग्रत होने से जल तत्व का पूर्ण ज्ञान होता है , शारीरिक विकार का नाश हो जाता है ,जल सीधी की प्राप्ति हो जाती है |  इसके जाग्रत होने पर क्रूरता, गर्व, आलस्य, प्रमाद, अवज्ञा, अविश्वास आदि दुर्गणों का नाश होता है ।
हानि: यदि साधना बन्द हो गयी तो आगे का मार्ग तो रुक ही जाएगा, वर्तमान सिद्धि भी समाप्त हो जाएगी | 

3. मणिपुर चक्र

नाभि मूल में स्थित रक्त वर्ण का यह चक्र शरीर के अन्तर्गत मणिपूरक नामक तीसरा चक्र है, जो दस दल कमल पंखुनियों से युक्त है जिस पर स्वर्णिम वर्ण के दस अक्षर बराबर कायम रहते हैं। वे अक्षर – फ, प, न, ध, द, थ, त, ण, ढ एवं ड हैं। इस चक्र के अभीष्ट देवता ब्रह्मा जी हैं। जो साधक निरन्तर स्वांस-प्रस्वांस रूप साधना में लगा रहता है उसी की कुण्डलिनी-शक्ति मणिपूरक-चक्र तक पहुँच पाती है आलसियों एवं प्रमादियों की नहीं। मणिपूरक-चक्र एक ऐसा विचित्र-चक्र होता है; जो तेज से युक्त एक ऐसी मणि है, जो शरीर के सभी अंगों-उपांगों के लिए यह एक आपूर्ति-अधिकारी के रूप में कार्य करता रहता है। यही कारण है कि यह मणिपूरक-चक्र कहलाता है। नाभि कमल पर ही ब्रह्मा का वास है। सहयोगार्थ-समान वायु - मणिपूरक-चक्र पर सभी अंगों और उपांगों की यथोचित पूर्ति का भार होता है। इसके कार्य भार को देखते हुये सहयोगार्थ समान वायु नियत की गयी, ताकि बिना किसी परेशानी और असुविधा के ही अतिसुगमता पूर्वक सर्वत्र पहुँच जाय। यही कारण है कि हर प्रकार की भोग्य वस्तु इन्ही के क्षेत्र के अन्तर्गत पहुँच जाने की व्यवस्था नियत हुई है ताकि काफी सुविधा-पूर्वक आसानी से लक्ष्य पूर्ति होती रहे। 
मणिपूरक-चक्र के अभीष्ट देवता ब्रह्मा जी पर ही सृष्टि का भी भार होता है अर्थात गर्भाशय स्थित शरीर रचना करना, उसकी सामग्रियों की पूर्ति तथा साथ ही उस शरीर की सारी व्यवस्था का भार जन्म तक ही इसी चक्र पर रहता है जिसकी पूर्ति ब्रह्मनाल (ब्रह्म-नाड़ी) के माध्यम से होती रहती है। जब शरीर गर्भाशय से बाहर आ जाता है तब इनकी जिम्मेदारी समाप्त हो जाती है।
मणिपूरक-चक्र ही शरीर का केंद्र बिन्दु होता है। यहीं से शरीर में सब तरफ नाड़ियों का जाल बिछा होता है। समस्त अंगों-उपांगों की आपूर्ति व्यवस्था भी यहीं से होती है। यह सोता रहे तो लिप्सा, कपट, तोड़-फोड़, कुतर्क, चिन्ता, मोह, दम्भ, अविवेक अहंकार से भरा रहेगा । जागरण होने पर यह सब दुर्गुण हट जायेंगे ।
मंत्र: यह नाभि में स्थित होता है और इसके जागृत करने का मूल मंत्र " रं " है। इस चक्र को जागृत करने के लिए बहुत ज्यादा साधना की जरूरत होती है।
लाभ: यह चक्र जागृत होते है तब व्यक्ति सर्व शक्ति संपन्न हो जाता है। प्रकृति के बारे में ज्ञान प्राप्त होता है ,जीवो की उत्पत्ति कैसे हुई इसका ज्ञान होता है। यहाँ तक की यह चक्र पूर्व जन्म का ज्ञान भी देता है , भाषा का ज्ञान देता है , अग्नि तत्त्व की सिद्धि देता है।

4. अनाहत चक्र

हृदय स्थल में स्थित स्वर्णिम वर्ण का द्वादश दल कमल की पंखुड़ियों से युक्त द्वादश स्वर्णाक्षरों से सुशोभित चक्र ही अनाहत्-चक्र है। जिन द्वादश(१२) अक्षरों की बात काही जा रही है वे – ठ, ट, ञ, झ, ज, छ, च, ड़, घ, ग, ख और क हैं। इस के अभीष्ट देवता श्री विष्णु जी हैं। अनाहत्-चक्र ही वेदान्त आदि में हृदय-गुफा भी कहलाता है, जिसमें ईश्वर स्थित रहते हैं, ऐसा वर्णन मिलता है। ईश्वर ही ब्रह्म और आत्मा भी है।
सबका एक ही - यथार्थ बात यह है कि जो कर्मकांडियों का क्षीर-सागर है, वही वेदान्तियों का हृदय गुफा है और वही ध्यान-साधना वाले साधकों का अनाहत्-चक्र है। जब कुण्डलिनी अनाहत्-चक्र में प्रवेश कर उर्ध्वमुखी रूप में विश्राम लेते हुये जब तक इस चक्र में वास करती है, तब तक साधन-रत सिद्ध-साधक श्री विष्णु जी की सिद्धि को प्राप्त कर के उसी के प्रभाव के समान प्रभावी होने लगता है।
मंत्र: इसका मूल मंत्र " यं " है। व्यक्ति को यह चक्र जागृत करने के लिए हृदय पर ध्यान केंद्रित कर के इस मंत्र का उच्चारण करना चाहिए।
लाभ: अनाहत चक्र जागृत होते ही व्यक्ति को बहुत सारी सिद्धियाँ मिलती है। व्यक्ति को ब्रह्माण्डीय ऊर्जा से शक्ति प्राप्त होती है , यहाँ तक की यह चक्र जागृत हो जाये तो व्यक्ति सूक्षम रूप ले सकता है और शरीर त्यागने की शक्ति प्राप्त हो जाती है। आनद प्राप्त होता है। श्रद्धा प्रेम जागृत होता है।  वायु तत्त्व से सम्बंधित सिद्धियाँ प्राप्त होती है। योग शक्ति प्राप्त होती है।

5. विशुद्ध चक्र

कण्ठ स्थित चन्द्र वर्ण का षोडसाक्षर अः, अं, औ, ओ, ऐ, ए, ऊ, उ, लृ, ऋ, ई, इ, आ, अ वर्णों से युक्त षोडसदल कमल की पंखुड़ियों वाला यह चक्र विशुद्ध-चक्र है, यहाँ के अभीष्ट देवता शंकर जी हैं। कण्ठ में विशुद्धख्य चक्र यह सरस्वती का स्थान है । यहाँ सोलह कलाएँ सोलह विभतियाँ विद्यमान है |
जब कुण्डलिनी-शक्ति विशुद्ध-चक्र में प्रवेश कर विश्राम करने लगती है, तब उस सिद्ध-साधक के अन्दर संसार त्याग का भाव प्रबल होने लगता है और उसके स्थान पर सन्यास भाव अच्छा लगने लगता है। संसार मिथ्या, भ्रम-जाल, स्वप्नवत् आदि के रूप में लगने लगता है। उस सिद्ध व्यक्ति में शंकर जी की शक्ति आ जाती है।
मंत्र: व्यक्ति को कंठ पर अपना ध्यान एकत्रित कर " हं " मूल मंत्र का उच्चारण करना चाहिए।
लाभ: विशुद्ध चक्र बहुत ही महत्वपूर्ण चक्र होता है। यह जागृत होते ही व्यक्ति को वाणी की सिद्धि प्राप्त होता है। इस चक्र के जागृत होने से आयु वृद्धि होती है , संगीत विद्या की सिद्धि प्राप्त होती है , शब्द का ज्ञान होता है। व्यक्ति विद्वान होता है |

6. आज्ञा चक्र

भू-मध्य स्थित लाल वर्ण दो अक्षरों हं, सः से युक्त दो पंखुड़ियों वाला यह चक्र ही आज्ञा-चक्र है। इसका अभीष्ट प्रधान आत्मा (सः) रूप शब्द-शक्ति अथवा चेतन-शक्ति अथवा ब्रह्म-शक्ति अथवा ईश्वर या नूरे-इलाही या चाँदना अथवा दिव्य-ज्योति अथवा डिवाइन लाइट अथवा भर्गो-ज्योति अथवा सहज-प्रकाश अथवा परमप्रकाश अथवा आत्म ज्योतिर्मय शिव आदि-आदि अनेक नामों वाला परन्तु एक ही रूप वाला ही नियत है। यह वह चक्र है जिसका सीधा सम्बन्ध आत्मा (सः) रूप चेतन-शक्ति अथवा शब्द-शक्ति से और अप्रत्यक्ष रूप अर्थात् शब्द-शक्ति के माध्यम से शब्द-ब्रह्म रूप परमेश्वर से भी होता है। दूसरे शब्दों में आत्मा का उत्पत्ति स्रोत तो परमेश्वर होता है और गन्तव्य-स्थल आज्ञा-चक्र होता है।
शरीर संरचना में इस स्थान पर अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथियों से सम्बन्ध रैटिकुलर एक्टिवेटिंग सिस्टम का अस्तित्व है । वहाँ से जैवीय विद्युत का स्वयंभू प्रवाह उभरता है । वे धाराएँ मस्तिष्क के अगणित केन्द्रों की ओर दौड़ती हैं । इसमें से छोटी-छोटी चिनगारियाँ तरंगों के रूप में उड़ती रहती हैं । उनकी संख्या की सही गणना तो नहीं हो सकती, पर वे हैं हजारों । इसलिए हजार या हजारों का उद्बोधक 'सहस्रार' शब्द प्रयोग में लाया जाता है । सहस्रार चक्र का नामकरण इसी आधार पर हुआ है सहस्र फन वाले शेषनाग की परिकल्पना का यही आधार है ।
लाभ: यह चक्र जागृत होते ही अनंत सिद्धियाँ मिलती है , व्यक्ति इतना सक्षम हो जाता है कि वह अपने आप को एक स्थान से दूसरे स्थान पर सूक्षम रूप से ले जा सकता है। वह अपनी इसकचा से मोक्ष प्राप्त कर सकता यही , उसको अनंत लोक का ज्ञान होता है , वह पूर्ण होता है। वह देव तुल्य होता है।

कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत करने के लाभ

कुण्डलिनी  शक्ति जागरण विधा अन्धकार को दूर करने का सशक्त माध्यम है। स्यंव को समझने व् दूसरे को पहचानने व् घर परिवार समाज और ब्रहमांड को समझने का मार्ग है । कुण्डलिनी शक्ति जागरण चारों ओर परम शांति प्रेम और आनंद स्थापना का सच्चा मार्ग है । परमानन्द प्राप्ति के बाद क्या करना चाहिए यही बताने का ज्ञान है । अपने शरीर मन बुद्धि व् सब कर्मेन्द्रियों व् ज्ञानेन्द्रियों को विकिसित कर कैसे उनका प्रयोग सम्पूर्णता से सर्जन करने पूर्णता की ओर ले जाने और   अपूर्णता के संहार में लगाना है । कुण्डलिनी शक्ति जैसे जैसे आगे बढती है व् अनेक रंग इन्द्रधनुष की तरह से देखने को मिलते हैं । कभी हम बहुत शांत होते हैं कभी संतुष्ट दिखाई देते हैं । कभी हम दूसरों पर हंस रहे होते हैं । कुण्डलिनी जागरण की यात्रा तरह तरह के रंगों से भरी हुई है । इस जीवन में कुछ भी एक सा तो रहता नहीं लेकिन कुण्डलिनी जागरण यात्रा को एकरस कहा गया है । इस दुनियां में जब हम कुण्डलिनी जागरण की ओर पग बढाते हैं तो मन और माया रुपी शत्रु हमारे मार्ग में अनेक प्रकार की बाधाएं उत्पन्न करते हैं । इसलिए अनहोनियों से न घबराकर लगन व् निष्ठा पूर्वक हमें अपने मार्ग कीओर अग्रसर रहना चाहिए । गुरु के प्रति हमारा प्रेम जितना गहरा होगा उतना ही कुण्डलिनी जागरण के प्रति हमारा प्रयास अधिक होता चला जायेगा । कुण्डलिनी शक्ति साधना दो प्रकार की होती है । एक प्राणायाम और योग वाली जिसमें शक्ति चालिनी मुद्रा उड्या न  बंध तथा कुम्भक प्राणायाम और ओज का महत्व प्रतिपादित किया गया है । ऐसी साधना प्रक्रिया अविवाहित विधुर अथवा सन्यासियों के लिए महत्वपूर्ण है । यह साधना उन लोगों  के लिए उपयूक्त नहीं रही जो गृहस्थाश्रम में रहकर साधना करना चाहते हैं ।गृहस्थ बिना स्त्री के नहीं चलता है और संन्यास स्त्री के रहते कभी नहीं चलता है । परन्तु जहाँ तक साधना का प्रश्न है तो क्या गृहस्थ और क्या सन्यासी क्या स्त्री और क्या पुरुष सभी सामान अधिकार रखते हैं । ऐसे प्रवृत्तिमार्गी गृहस्थों के लिए स्त्री के साथ ही साधनारत होने का मार्ग भी ऋषियों ने खोज निकाला । निवृत्ति मार्ग में जो कार्य शक्ति चालिनी मुद्रा ने किया वह कार्य प्रवृत्ति मार्ग में सम्भोग मुद्रा से संपन्न किया गया  शेष बंध और कुम्भक समान रहे । सम्भोग मुद्रा को अधिक टिकाऊ बनाने के लिए आचार्यों ने विभिन्न की काम मुद्राएँ बाजीकरण विधियाँ तथा तान्त्रिंक औषधियां खोज डालीं । इस प्रकार वीर्य को उर्ध्व गति देने के लिए जहाँ सन्यासी लोग भस्त्रिका प्राणायाम का प्रयोग करते थे वहां प्रवृत्ति मार्ग तांत्रिक दीर्घ सम्भोग का उपयोग करने लगे ।इस प्रकार कुण्डलिनी साधना का दूसरा प्रकार काम मुद्राओं वाला बन गया ।सम्भोग के कारण इस साधना में पुरुष व् स्त्री दोनों का बराबर का योगदान रहा ।रमण एक तकनिकी प्रक्रिया है इस कारण सम्भोग साधना तांत्रिक क्रिया कहलाई । साधक को यम व् नियम का तथा आसन प्राणायाम आदि बहिरंग साधना की उतनी ही तैयारी करनी पड़ती है जितनी निवृति मार्ग अपनाने वाले साधक को करनी पड़ती है । मनुष्य में कार्य करने के लिए ऊर्जा व् आभा तथा ज्योति का मिश्रण ही काम में लाना पड़ता है । मनुष्य में इन तीनों तत्वों का उदगम है उसका खानपान और उसके विचार । जैसा उसका खानपान होगा वैसी उसके शरीर की ऊर्जा होगी । सात्विक जीवन सात्विक ऊर्जा तथा तामसिक भोजन तो तामसिक ऊर्जा ।अतएव कुण्डलिनी शक्ति जागरण के लिए सात्विक ऊर्जा  अति आवश्यक है । कुण्डलिनी शक्ति जागरण के लिए उत्तम उम्र 25 वर्ष से 45 वर्ष तक मानी गई है । 

Wednesday, July 24, 2019

YOG AUR VIGYAN

विज्ञान और योग में यदि देखा जाए तो कोई विशेष अंतर नहीं है। हालांकि विज्ञान जहां समाप्त होता है, योग वहीं से प्रारंभ होता है। खोजी मन यदि इस बात का चितंन करे तो पाएगा कि विज्ञान बाहर की ओर कार्यरत है, जबकि योग अंदर की ओर। अर्थात विज्ञान भौतिक जगत को आगे बढ़ता है, जबकि योग मनुष्य को प्रकृति से जोड़ता है। ऐसा माना जाता है कि मनुष्य प्रकृति का ही एक अंग है। जब विज्ञान जनित वस्तुएं मनुष्य को इससे विमुख करने लगी हैं तो योग ही वह मार्ग है जिसे अपना कर मनुष्य फिर प्रकृति के साथ जुड़ सकता है। इस बात को इस तरह से समङों कि मेरुदंड के दोनों धनात्मक और ऋणात्मक विद्युत प्रवाह अनवरत चलते रहते हैं, जिसे पिंगला और इड़ा कहते हैं। विज्ञान उसे प्रोटॉन और इलेक्ट्रॉन कहता है। विज्ञान के शोध की तरह योगीजन अपनी ऊर्जा को निरुद्देश्य बर्बाद न करके उध्र्व प्रवाह देकर कुंडलिनी जाग्रत करते हैं। यह योगी पर आधारित है कि वह अपनी ऊर्जा का प्रयोग किस प्रकार करता है। इसी से योगियों के स्वभाव में परिवर्तन हो जाता है। इस स्वभाव के दो क्रियात्मक रूप हैं-एक गति का और दूसरा अवरोध का। विज्ञान के अनुसंधानकर्ता अंतरिक्ष में यही कर रहे हैं। यूरेनियम ईंधन से न्यूट्रॉन का योग मिलकर शीतल जल का प्रवाह होता है वहीं संघात करके प्लूटोनियम का निर्माण होता है जो रक्षात्मक भी है और संहारक भी। योगी अपनी शक्ति को गति देकर, संकल्प को प्राप्त कर, समय-समय पर शब्दों के माध्यम से सदुपयोग कर लेते हैं, जबकि विज्ञान इसे एकत्र कर दुनिया को मौत का भय दिखाता है।१विज्ञान ने अपनी खोज के लिए भिन्न-भिन्न नियमों, सूत्रों और तरह-तरह की प्रयोगशालाएं बनाई हैं और योग ने भी भिन्न-भिन्न क्रियाओं को जन्म दे रखा है। प्रयोगकर्ता अपने संरक्षक के सानिध्य में रहकर धीरे-धीरे प्रयोग करके अपनी खोज में सफलता पा सकता है। कर्म योग, भक्ति योग, राज योग, क्रिया योग, भाव योग, लय योग, ज्ञान-योग आदि अनेक योग आज मनुष्य के जीवन क्रम में घर बनाए बैठे हैं। योग हमारे जीवन में बोधितत्व का मार्ग प्रशस्त करता है। योग जीवन का आधार है। इसलिए इसके महत्व को समझकर इसे जीवन में उतारने का प्रयास जरूर करें।
महायोगी पायलट बाबा

योग आत्मा का विषय है जो स्वानुभूति कराता है। मानव के विचारों को एकाग्र कर भौतिक से सूक्ष्म, सूक्ष्म से अतिसूक्ष्म तक ले जाकर आत्मीय-बोध कराता है। योग का संबंध अंत:करण और बाह्य दोनों से है। योग मानव को इहलौकिक और पारलौकिक दोनों की यात्र कराता है। योग शरीर, मन और इंद्रियों की क्रिया है। एकमात्र योग ही ऐसी क्रिया है जो मन को वश में करने का मार्ग बताती है। योग जन्म से ही प्राप्त है। आसन-योग नहीं है। यह योग की एक बहिमरुखी क्रिया है जो शरीर को स्वस्थ रखती है, परंतु आसन को ही लोगों ने योग समझ लिया है। वैसे तो योग अनेक हैं और इसके सहयोग के बगैर बोधितत्व सत्य की प्राप्ति भी नहीं है। इसीलिए भक्ति के साथ योग है, ज्ञान के साथ भी योग है, क्रिया के साथ भी योग है, संकल्प के साथ भी योग है। 
योग एक विज्ञान है, जीवन जीने की विधि है। योग एक व्यवस्थित नियम को प्रतिपादित करता है। योग शरीर को अनुशासित ढंग से रखता है। मन को उद्देश्यपूर्ण दिशा में चलने का बोध देता रहता है। योग एक प्रयोग भी है, क्योंकि यही मनुष्य को प्रकृति के अनुकूल चलने के लिए प्रेरित करता है। विचार गति है, भाव उत्पत्ति है और शब्द अभिव्यक्ति है। योग में सबका अपना महत्वपूर्ण योगदान है। यह पूरी तरह से शरीर के धर्म का प्रकृति के अनुकूल बोध कराता है। 
मानव शरीर में ही संपूर्ण ब्रrांड का वैभव छिपा है। जिसे पहचानना और जानना आवश्यक है। संपूर्ण ब्रrांड की चेतना और प्रारूप को पाकर भी मानव सांसारिक वाटिका में भटकता रहता है। आकाश और घटाकाश का भेद जानते हुए भी मनुष्य ब्रrा और काया का विमोचन नहीं कर पाता। किनारे की खोज में लक्ष्य के भेदन में सामंजस्य स्थापित करता हुआ, वह स्वत: एक दिन अपने आपको जीवन तट पर खड़ा पाता है। समय दूर फेंक देता है, जीवन ढलने लगता है। तब व्यक्ति जन्म के उद्देश्य को लेकर प्रायश्चित करने लगता है, लेकिन तब वक्त समझौता करना छोड़ देता है। नदियों में जब पानी का बहाव रुक गया तब संगम स्थल तक नहीं पहुंचने के लिए पश्चाताप करने के सिवाय है ही क्या? इसलिए मेरा संदेश है कि योग को माध्यम बनाकर आज और अभी से शरीर रूपी प्रयोगशाला का उपयोग कर सदैव संकल्पित स्वरूप को प्राप्त कर ब्रह्ममय जीवन जिएं

विज्ञान और योग ‌- मंजिल एक ही, पर अलग हैं राहें


वास्तव में देखा जाए तो आध्यात्म का विज्ञान के साथ कोई पंगा नहीं है। विज्ञान किसी आध्यात्मिक प्रक्रिया से अलग नहीं है। बस इसमें इस्तेमाल होने वाले तरीके और दृष्टिकोण अलग हैं, लेकिन बुनियादी तौर पर दोनों ही अस्तित्व की प्रकृति को जानना चाहते हैं।
अज्ञात की खोज में विज्ञान एक खास दिशा में आगे बढ़ रहा है। जैसे-जैसे विज्ञान प्रगति कर रहा है, उसकी कोशिश है कि वह हर चीज को ज्ञान में बदल दे।
विज्ञान किसी आध्यात्मिक प्रक्रिया से अलग नहीं है। यहां विज्ञान से मेरा मतलब मौलिक विज्ञान से है। हां, तकनीक से समस्या जरूर है, क्योंकि कई तकनीकें साफतौर पर हानिकारक हैं।
जो कुछ भी अपरिचित है, हम उससे परिचित होना चाहते हैं। इसलिए पिछले सौ-डेढ़ सौ सालों में वैज्ञानिक समुदाय ने एक असाधारण प्रयास किया है। हमने तरह-तरह के ऐसे उपकरणों का आविष्कार किया है, जो तीसरी आंख की तरह काम करते हैं। इनसे हम उन वस्तुओं को भी देख सकते हैं, जिन्हें नंगी आंखों से नहीं देखा जा सकता। फिर चाहे वह सूक्ष्मदर्शी हो या दूरबीन, ये सभी विज्ञान की तीसरी आंख हैं। लेकिन इन यंत्रों की मदद से सूक्ष्म जीवों से लेकर तारों और आकाशगंगाओं तक को देख लेने पर भी कुछ सार्थक जानकारी हासिल नहीं हो सकी है, बल्कि इन चीजों की वजह से जिंदगी पहले से ज्यादा रहस्यमय हो गई है।
जब आप रात में आकाश की तरफ देखते हैं तो आपको कितने तारे दिखाई देते हैं? क्या आपने कभी उन्हें गिनने की कोशिश की है? मैंने की है। जब मैं छोटा था तो मैंने तारों को गिनने की भरपूर कोशिश की थी और लगभग तीन-चार हजार तारे गिन भी लिए थे। पर गिनते-गिनते वे सब गड्डमड्ड हो गए। लेकिन मुझे लगता है कि वहां करीब आठ हजार तारे और हो सकते हैं। हम अपनी नंगी आंखों से शायद दस से पंद्रह हजार तारे देख सकते हैं। लेकिन आज हमारे पास शक्तिशाली टेलिस्कोप हैं, जिनकी मदद से हम दो खरब से भी ज्यादा तारे देख सकते हैं। सवाल यह है कि इन सबके बावजूद इस संसार का रहस्य कम हुआ है या और बढ़ गया है? बढ़ गया न? आप वैज्ञानिक प्रक्रिया को जितना सुलझाते हैं, यह संसार उतना ही रहस्यपूर्ण होता चला जाता है।
अगर आप सौ साल पहले किसी पत्ते को देखते, तो आपको वह सिर्फ एक पत्ता नजर आता। लेकिन आज यह सिर्फ पत्ता नहीं है। हम इस बात से परिचित हैं कि उस पत्ते में अनगिनत तरह की चीजें चल रही हैं, लेकिन फिर भी हम उस पत्ते को पूरी तरह नहीं जानते।
तो ज्ञान तक पहुंचने के ये तरीके - जिंदगी को उधेडक़र के, उसका चीड़-फाड़ करके जानने की कोशिश करना - कारगर नहीं हैं।
यह आध्यात्मिक खोज से खास अलग नहीं है। बस इसमें इस्तेमाल होने वाले तरीके और दृष्टिकोण अलग हैं, लेकिन बुनियादी तौर पर दोनों ही अस्तित्व की प्रकृति को जानना चाहते हैं।
क्योंकि हम जिंदगी की तहों को जितना खोलते हैं, ये उतनी ही जटिल होती जाती है। अगर विज्ञान की कोई तकनीकी उपशाखा नहीं होती, अगर इससे किसी भी तरह के फायदे नहीं होते, तो विज्ञान को पूरी तरह से एक निरर्थक प्रयास समझकर खारिज कर दिया गया होता। आज दुनिया के ज्यादातर लोग असली विज्ञान से अनजान हैं। वे बस टेक्नोलॉजी यानी तकनीक को ही जानते हैं, क्योंकि वे उसी का आनंद ले रहे हैं। तकनीक विज्ञान की एक शाखा है, उसका परिणाम है, लेकिन विज्ञान नहीं है।
वास्तव में देखा जाए तो आध्यात्म का विज्ञान के साथ कोई पंगा नहीं है। विज्ञान किसी आध्यात्मिक प्रक्रिया से अलग नहीं है। यहां विज्ञान से मेरा मतलब मौलिक विज्ञान से है। हां, तकनीक से समस्या जरूर है, क्योंकि कई तकनीकें साफतौर पर हानिकारक हैं। इस संसार में हम जो कुछ भी करने की कोशिश कर रहे हैं, वह उन चीजों को करने का बेतुका तरीका है। कई जगहों पर तकनीक का विकास बहुत ही अवैज्ञानिक तरीके से हुआ है।
अब अगर हम विज्ञान पर आएं, तो मुझे लगता है कि यह सिर्फ इस अस्तित्व की प्रकृति को जानने की एक चाहत है। यह आध्यात्मिक खोज से खास अलग नहीं है। बस इसमें इस्तेमाल होने वाले तरीके और दृष्टिकोण अलग हैं, लेकिन बुनियादी तौर पर दोनों ही अस्तित्व की प्रकृति को जानना चाहते हैं।
देखिए, जब हम आध्यात्मिक व्यक्ति की बात करते हैं तो दुर्भाग्य से लोग उसे भगवान का भक्त समझ लेते हैं। दरअसल एक आध्यात्मिक व्यक्ति की रुचि भगवान में नहीं होती। वह बस वही जानना चाहता है, जो सत्य है। अपने मत या मान्यताओं को ही सही साबित करने में हमारी कोई दिलचस्पी नहीं है, क्योंकि हमारी कोई मान्यता है ही नहीं।
मुझे लगता है कि वैज्ञानिकों की जिज्ञासाएं तो अपनी जगह ठीक हैं, लेकिन कभी-कभी उनका यह विश्वास कि उनकी सभी जिज्ञासाओं का मूल कारण भौतिक ही होगा, उन्हें असहाय बना देता है। अत: मेरे हिसाब से विज्ञान की तरक्की में रुकावट पैदा कर देने वाला मुख्य तत्व यही है।
जब हम आध्यात्मिकता की बात करते हैं तो हम इस सृष्टि की परतें उधेडऩे की कोशिश नहीं करते। ऐसा करने से यह सृष्टि और भी ज्यादा जटिल हो जाएगी। इसीलिए योगियों का चीजों को देखने का नजरिया अलग ही होता है। हम अंदर की ओर देखते हैं। जब आप अपने भीतर की तरफ देखते हैं तो एक अलग ही आयाम खुलता है। अब चीजें जटिल होने की बजाय सरल होती जाती हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हमारा मानना है कि जो लोग अपने भीतर देखते हैं, उनके पास एक तीसरी आंख होती है जिससे वे वह सब देख सकते हैं जो दूसरे नहीं देख पाते। उन्होंने जीवन को एक नई स्पष्टता दी है।
तो योग और अध्यात्म का यह मूल स्वभाव है कि अगर आप पूरी तरह से अस्तित्वहीन हो जाते हैं, तभी आप इस सृष्टि को जान पाएंगे।
मुझे लगता है कि वैज्ञानिकों की जिज्ञासाएं तो अपनी जगह ठीक हैं, लेकिन कभी-कभी उनका यह विश्वास कि उनकी सभी जिज्ञासाओं का मूल कारण भौतिक ही होगा, उन्हें असहाय बना देता है।
यदि आप इस जगत में ही घूमते रहेंगे, तो आप पेड़ की एक पत्ती को भी नहीं समझ पाएंगे। अगर आप लाखों साल पेड़ की एक पत्ती को समझने में ही लगा दें, तब भी जरूरी नहीं है कि आप उसे पूरी तरह से जान पाएं। इसका एक ही तरीका है। अगर आप अस्तित्वहीन हो जाएं, तो इस अस्तित्व की प्रकृति आपके सामने स्पष्ट हो जाएगी और आप इसे समझ पाएंगे। अध्यात्म का सार यही है कि आप अपने आप में डूब जाएं, क्योंकि यही सृष्टि है।
अपने भीतर ही इस जगत को जानने की जिज्ञासा आपके अंदर एक चमत्कारिक अंतर पैदा कर देती है। इस फर्क को महसूस करने से आपको इतनी आजादी मिलती है कि आप अपने जीवन को ऐसे तरीकों से जीने लगते हैं, जिनकी आपने कल्पना भी नहीं की होती। फिर जीवन ऊर्जा को आप ऐसे तरीकों से इस्तेमाल करने लगते हैं, जो कभी आपके लिए संभव ही न थे।
ज्ञान तक पहुंचने के दो तरीके हैं - विज्ञान और योग। विज्ञान जिंदगी को उधेडक़र के, उसका चीड़-फाड़ करके जानने की कोशिश करता है। जब हम आध्यात्मिकता की बात करते हैं तो हम इस सृष्टि की परतें उधेडऩे की कोशिश नहीं करते। हम अंदर की ओर देखते हैं।
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योग और ध्यान को, भारत की ही तरह, यूरोप में भी मूल रूप से एक धार्मिक-आध्यात्मिक विषय ही माना जाता था। उनकी उपयोगिता को लेकर गंभीर क़िस्म के वैज्ञानिक शोध नहीं होते थे। किंतु अब वैज्ञानिक जितना ही अधिक शोध कर रहे हैं, उतना ही अधिक मुग्ध हो रहे हैं।  
लंबे समय तक यूरोप वालों के लिए भी योग का अर्थ शरीर को खींचने-तानने और ऐंठने-मरोड़ने की एक कठिन भारतीय 'हिंदू' कला से अधिक नहीं था। 'हिंदू' शब्द उसकी व्यापक स्वीकृति और वैज्ञानिक अनुमति में मनोवैज्ञानिक बाधा डालने के लिए कभी-कभार अब भी उसके साथ जोड़ा जाता है।
विज्ञान के लिए वह सब प्राय: अवैज्ञानिक और अछूत रहा है, जिसका आत्मा-परमात्मा जैसी अलौकिक, अभौतिक अवधारणाओं से कुछ भी संबंध हो। जो कुछ अभौतिक है, नापा-तौला नहीं जा सकता, विज्ञान की दृष्टि से उसका अस्तित्व भी नहीं हो सकता। हालांकि महान भौतिकशास्त्री अलबर्ट आइनश्टाइन भी मानते थे कि भौतिकता से परे भी कोई वास्तविकता है। 
जर्मनी की डॉ. डागमार वूयास्तिक को भौतिकता से परे ऐसी ही एक वास्तविकता का पता लगाने का काम सौंपा गया हैं। वूयास्तिक ने भारतविद्या (इंडोलॉजी) में डॉक्टरेट की है। भारत की पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों का अध्ययन उनका प्रिय विषय रहा है। 
यूरोपीय संघ की वैज्ञानिक शोध परिषद से मिले 14 लाख यूरो (इस समय 1यूरो =74 रुपए) के एक आरंभिक अनुदान के आधार पर तीन सदस्यों की उनकी टीम, 2015 के वसंतकाल से, ऑस्ट्रिया के वियेना विश्वविद्यालय में ''औषधि, अमरत्व और मोक्ष'' नाम की एक परियोजना पर काम कर रही है। सोचने की बात है कि भारत में अमरत्व और मोक्ष जैसी बातों की खिल्ली उड़ाई जाती है, जबकि यूरोपीय संघ उनकी वैज्ञानिक विवेचना जानना चाहता है।  

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अमरत्व और मोक्ष की खोज : डॉ. वूयास्तिक का कहना है कि उनकी टीम संस्कृत में लिखी पुरानी पांडुलिपियों और हिंदी-अंग्रेज़ी में उपलब्ध पुस्तकों की सहायता से ''औषधि, अमरत्व और मोक्ष'' के ऐतिहासिक एवं दार्शनिक पक्ष का अध्ययन कर रही है। इसके लिए तीन कार्यक्षेत्र चुने गए हैं – दो हज़ार वर्ष तक पुरानी आयुर्वेदिक पांडुलिपियां, ऐसे रासायनिक पदार्थों संबंधी साहित्य, जिनमें अमृत जैसे जादुई प्रभाव वाली दवाओं का वर्णन मिलता है, और हठयोग संबंधी 15वीं सदी तक की पांडुलिपियां व साहित्य।
सबसे अधिक ध्यान हठयोग के बारे में उन पांडुलिपियों और पुस्तकों पर दिया जाएगा, जिनमें आसनों और प्राणायाम द्वारा हर प्रकार की बीमारियों से लड़ने-बचने की विधियों का वर्णन किया गया है। डॉ. वूयास्तिक का मानना है कि आसन, प्राणायाम और ध्यान पर आधारित तीन अंगों वाले हठयोग से ही प्राचीन भारत के ऋषि-मुनि निरोग रहते और दीर्घायु होते थे।
पिछले 20-25 वर्षों से यूरोप में योग की, विशेषकर हठयोग, की जब से धूम मची है, चिकित्सा, स्वास्थ्य और मनोविज्ञान में उस पर शोधकार्यों की भी बाढ़ आ गई है। उसकी उपयोगिता और कारगरता के बारे में नित नए सामाचार आने लगे हैं। नियमित रूप से हठयोग लगभग सभी बीमारियों को दूर रखने की रामबाण दवा सिद्ध हो रहा है। उसकी सहायता से पीठ और कमर-दर्द को दूर करने से लेकर हृदयरोगों और कैंसर तक की रोकथाम या उनकी डॉक्टरी चिकित्सा के बाद  स्वास्थ्यलाभ और पुनर्वासन (रिहैबिलिटेशन) की गति को तेज़ किया जा सकता है।  
डॉक्टर छोड़ें, योगी को ढूंढें : एंटिबायॉटिक गोलियां निगलने के बदले एक घंटा योगाभ्यास करें। उच्च रक्तचाप की दशा में 'बीटा-ब्लॉकर' लेने बदले ध्यान लगाएं (मेडिटेशन करें)। यानी डॉक्टर के दवाख़ाने के बदले किसी योग-स्कूल में जाएं। कह सकते हैं कि यह सलाह है ब्रिटेन में एक्सेटर विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों की, जिन्होंने धमनी-काठिन्य (आर्टेरियोस्क्लेरॉसिस) जनित हृदयरोगों पर अंतरराष्ट्रीय अध्ययनों का मूल्यांकन किया है।
विभिन्न देशों में हुए इन अध्ययनों का निचोड़ यह है कि योगाभ्यास और ध्यान करने से रक्तवसा (कोलोस्ट्रॉल) की मात्रा और मोटापे को घटाया जा सकता है। हृदयशूल (ऐंजाइना पेक्टरिस) और रक्तवाहिकाएं तंग हो जाने पर सही क़िस्म के नियमित योगासनों से लाभ मिलता है।
यूरोप में हुए अध्ययनों से पता चलता है कि हठयोग बीमारियों की रोकथाम तो करता ही है, पर यदि कोई व्यक्ति योग नहीं भी करता रहा हो और बीमार पड़ जाए, तो उसकी उपचार-योजना में हठयोग को शामिल करने पर रक्त के विभिन्न घटकों की मात्राओं में अनुकूल सुधार लाया जा सकता है। विभिन्न हार्मोनों के स्राव सामान्य स्तर पर आने लगते हैं। जोड़ों में मानो चिकनाहट बढ़ जाती है। बैक्टीरिया और वायरस से लड़ने की शरीर की रोग-प्रतिरक्षण प्रणाली और भी शक्तिशाली बनती है।
नियमित रूप से हठयोग करने पर रक्त में 'इंटरल्यूकीन-6' (आईएल-6) नाम के प्रोटीन का संकेंद्रण घटता है। यह एक ऐसा प्रोटीन है, जिस की मात्रा रक्त में बढ़ने से हृदयरोग, मस्तिष्काघात (लकवा), मधुमेह2 (डायबेटीज़2) या जोड़ों में दर्द जैसी बीमारियां होती हैं। शरीर के भीतरी अंगों में जलन या सूजन पैदा करने में भी इस प्रोटीन की भूमिका होती है।

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नियमित योगाभ्यास है सबसे कारगर दवा : योगाभ्यास उन बीमारियों के विरुद्ध सबसे कारगर और उपप्रभाव (साइड इफ़ेक्ट) रहित सुरक्षित दवा के समान है, जो हमारी आधुनिक रहन-सहन की देन हैं – जैसे हाथ-पैर और कमर में दर्द, मधुमेह जैसी चयापचय (मेटबॉलिज़्म) में गड़बड़ी की बीमारियां, सांस, हृदय और रक्तंचार की बीमारियां, यहां तक कि मानसिक बीमारियां भी। महिलाओं के बीच योगाभ्यास की सबसे अधिक लोकप्रियता का एक प्रमुख कारण यह है कि मासिकधर्म के कष्टों, गर्भधारण होने या नहीं होने की समस्याओं या रजोविराम जैसी अवस्थाओं की शारीरिक ही नहीं, मानसिक परेशानियां कम करने में योगाभ्यास से सहायता मिलती है। 
  
जर्मनी में लापज़िग के डॉक्टर डीट्रिश एबर्ट 1980 वाले दशक से ही एक उपचारविधि के तौर पर हठयोग की उपयोगिता का अध्ययन करते रहे हैं। वे इस विषय पर लाइपज़िग विश्वविद्याल के मेडिकल छात्रों की क्लास भी लेते हैं। उनका कहना है कि ऐसे वैज्ञानिक अवलोकनों की कमी नहीं है, जो शरीरक्रिया (फ़िजियोलॉजी) पर योग के बहुत अनुकूल प्रभावों की पुष्टि करते हैं।
पूर्वी जर्मनी के ग्राइफ्सवाल्ड विश्वविद्यलय के छात्रों के बीच इसी प्रकार के एक ताज़ा अध्ययन में देखा गया कि उन्हें 10 सप्ताह तक हठयोग कराने के बाद हृदय की धड़कन और रक्तचाप के बीच तालमेल रखने वाली तथाकथित ''बैरो-रिफ्लेक्स'' प्रणाली में स्पष्ट सुधार आ गया था। 'बैरोरिसेप्टर' कहलाने वली विशेष प्रकार की तंत्रिका कोशिकाओं (न्यूरॉन) की बनी यह प्रणाली महाधमनी के हृदय के पास वाले घुमाव में काम करती है। वहां वह रक्तप्रवाह की मात्रा को नियंत्रित करते हुए उच्च या निम्न रक्तचाप के अनुपात में हृदय के धडकने की गति घटाने या बढ़ाने की क्रिया में सहभागी बनती है।
रोगप्रतिरक्षण प्रणाली बने और भी प्रभावशाली : नॉर्वे के वैज्ञानिकों ने हाल ही में पाया कि हठयोग बहुत थोड़े ही समय में शरीर की रोगप्रतिरक्षण प्रणाली (इम्यून सिस्टम) पर अनुकूल प्रभाव डालने लगता है। नियमित हठयोग न केवल तनाव घटाता है, हड्डियों को भी मज़बूत करता है, अवसाद (डिप्रेशन) और कमर या पीठ के दर्द को कम करता है और गंभीर क़िस्म के हृदयरोगों का ख़तरा भी टालता है। नॉर्वे की विज्ञान पत्रिका 'प्लोस वन' में प्रकाशित एक लेख के अनुसार, वहां के वैज्ञानिकों नेइन प्रभावों को रोगप्रतिरक्षण प्रणाली की तथाकथित 'टी' (T) कोशिकाओं के जीनों में आए परिवर्तनों के द्वारा प्रमाणित किया है। 
इस अध्ययन के लिए नॉर्वे में दस लोगों को एक सप्ताह तक हठयोग के तीनों अंगों यानी आसनों, प्राणायाम और ध्यानधारण का अभ्यास कराया गया। चार-चार घंटे चलने वाले अभ्यास-सत्रों से पहले और बाद में प्रतिभागियों के रक्त-नमूने लिए गए और प्रयोगशाला में उनकी तुरंत जांच की गई। दस दिन बाद पाया गया कि रोगप्रतिरक्षण प्रणाली की 'टी' कोशिकाओं के 111 जीन पहले की अपेक्षा बदले हुए थे। तुलना के लिए, जो लोग दौड़ लगाते या कोई पश्चिमी नृत्य करते हैं, उनके प्रसंग में मुश्किल से 38 जीन ही बदले हुए मिलते हैं।
जीन तक में नवजीवन का संचार : इस अध्ययन की रिपोर्ट में कहा गया है कि ''हठयोग करने के दो घंटों के भीतर ही 'टी' कोशिकाओं के जीनों में परिवर्तन होने लगा था... इसका अर्थ यही है कि योगाभ्यास जैव-आणविक स्तर पर तुरंत और दीर्धकालिक प्रभाव डालने लगता है।'' इस परिणाम का एक दूसरा अर्थ यह भी निकलता है कि आजकल योग के कुछेक हल्के-फुल्के आसन कर लेने का जो फ़ैशन चल पड़ा है, उससे योगाभ्यास का पूरा लाभ नहीं मिल सकता। आसनों के बाद प्राणायाम और ध्यानधारण नहीं करने पर सारा लाभ अधूरा और अस्थायी ही सिद्ध होगा। भारतीय ऋषियों-मुनियों ने प्राणायाम और ध्यानधारण को व्यर्थ ही हठयोग का अंग नहीं बनाया था।



अवचेतन मन के 11 नियम जो आपकी दुनिया 3 दिन में बदल देंगे

  अवचेतन मन के 11 नियम, जो आपकी जिंदगी को प्रभावित करते हैं और उन्हें संचालित करते हैं इनके बारे में आज आप जानेंगे। ईश्वर के द्वारा रचा गया ...