Wednesday, August 22, 2018

❤️ओशो के बचपन की घटना❤️

❤️ओशो के बचपन की घटना❤️
मैं छोटा था तो मेरे पिता ने मुझे सिर्फ एक बार सजा दी। बहुत मुश्किल है ऐसा पिता पाना, जिसने एक बार सजा दी है। एक चपत मुझे मारी, सिर्फ एक बार। मैंने उनसे कहा कि मारना आपको जितना हो आप मार सकते हैं, लेकिन फिर एक बात का ध्यान रखना,कि मेरे और आपके बीच प्रेम का रिश्ता न रह जाएगा। आप मुझे नहीं मार रहे,प्रेम को मार रहे हैं। मैं कैसे प्रेम कर सकूंगा उस व्यक्ति को जो मुझे दुःख दे रहा है, पीड़ा दे रहा है,परैशान कर रहा है। निश्चित ही मैं निर्भर हूं अभी आप पर, अपने पैरों पर अभी खड़ा भी नहीं हो सकता, तो आपकी जो मर्जी। मारेंगे तो भी ठीक है,सहना होगा। लेकिन मुझे नहीं मार रहे हैं,ख्याल रखना, मेरे और आपके बीच जो प्रेम है उसे मार रहे हैं।
वे संवेदनशील व्यक्ति थे, बहुत संवेदनशील।बस पहली और आखिरी ‌सजा वही रही। उन्होंने फिर मुझे दो शब्द भी कभी नहीं कहे, मारना तो दूर। मैंने कुछ भी किया हो--ठीक किया हो,गलत किया हो, उन्होंने ‌जैसे एक बात तो बहुत ही गहरे मन में ले ली कि प्रेम को नष्ट नहीं करना है। मुझे पैसों की जरूरत पड़े, तो कहीं चुराना.न.पड़े....किस बच्चे को चुराना नहीं पड़ता?इस.ख्याल से कि कभी मुझे चुराना न पड़े, वे एक डिब्बे में पैसे रख देते. थे कि जब मुझे चाहिए हों मैं निकाल लूं,पूछना न पड़े।क्यों कि पूछो तो अड़चन होती है- किसलिए चाहिए, क्यों चाहिए, अभी कल ही. तो लिए थे।मुझे पूछना न पड़े, उन्हें पूछना न पड़े, इसलिए पैसे रख देते थे, जब. डिब्बा खाली हो जाए तो भर देते।फिर मेरे और उनके बीच प्रेम की गहराई बढ़ती चली गई ।
जिससे भय हो उससे प्रेम नहीं हो सकता, उससे. घृणा होती है।

MAHAVEER AUR BUDDH

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दर्शन

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एक गाँव में एक बहुत क्रोधी आदमी था. इतना क्रोधी कि उसने अपनी पत्‍नी को धक्का देकर कुएँ में गिरा दिया. जब पत्नी मर गई और उसकी लाश निकाली गई, तो वो क्रोधी आदमी जैसे एक नींद से जाग गया. उसे याद आया कि उसने ज़िन्दगी में सिवाय क्रोध के और कुछ भी नहीं किया. इस दुर्घटना में वो एकदम सचेत हो गया. उसे बड़ा पश्‍चाताप हुआ.
गाँव में एक मुनि आए थे. वो मुनि के दर्शन को गया और उनके चरणों में सिर रख के रोया, और उसने कहा कि, “मैं इस क्रोध से कैसे छुटकारा पाऊँ? क्या रास्ता है? मैं कैसे इस क्रोध से बचूँ?”
मुनि ने कहा कि, “संन्यासी हो जाओ. छोड़ दो वो सब, जो तुम कल तक पकड़े थे.”
लेकिन मज़ा ये है कि जिसे छोड़ो, छोड़ने के कारण ही वो और पकड़ जाता है. लेकिन वो थोड़ी गहरी बात है, वो एकदम से दिखाई नहीं पड़ती.
कहा, “छोड़ दो सब! क्रोध को भी छोड़ दो! संन्यासी हो जाओ, शान्त हो जाओ!”
अब कोई क्रोध को छोड़ सकता है?
वो आदमी संन्यासी हो गया. उसने तत्‍क्षण वस्‍त्र फेंक दिए और नग्न हो गया. और उसने कहा कि, “मुझे दीक्षा दें, इसी क्षण!”
मुनि बहुत हैरान हुए, बहुत लोग उन्होंने देखे थे, ऐसा संकल्पवान आदमी नहीं देखा था जो इतनी शीघ्रता से संन्यासी हो जाए.
उन्होंने कहा कि, “तू अद्भुत है! तेरा संकल्प महान है! तेरा संयम महान है! तू इतनी शीघ्रता से संन्यासी होने को तैयार हो गया है सब छोड़कर!”
लेकिन मुनि को भी पता नहीं कि ये क्रोध ही है. ये क्रोध का ही दूसरा रूप है. वो आदमी, जो अपनी पत्‍नी को एक क्षण में धक्का दे सकता है, वो एक क्षण में नंगा खड़ा होकर संन्यासी भी हो सकता है. इन दोनों बातों में विरोध नहीं है. ये एक ही क्रोध के दो रूप हैं.
मुनि बहुत प्रभावित हुए थे. उन्होंने उसे दीक्षा दे दी और उसका नाम रख दिया...शान्तिनाथ. वो मुनि शान्तिनाथ हो गया. और भी शिष्‍य थे मुनि के, लेकिन उस मुनि शान्तिनाथ का मुक़ाबला करना बहुत मुश्किल था, क्योंकि उतना क्रोधी उनमें कोई भी नहीं था. दूसरे दिन में एक बार भोजन करते, तो शान्तिनाथ दो-दो दिन तक भोजन नहीं करते.
क्रोधी आदमी कुछ भी कर सकता है!
दूसरे सीधे रास्ते पे चलते थे, तो मुनि शान्तिनाथ उल्टे, काँटों भरे रास्ते पे चलते! दूसरे छाया में बैठते थे, तो मुनि शान्तिनाथ धूप में खड़े रहते! सूख गया शरीर, कृश हो गया, काला पड़ गया, पैर में घाव पड़ गए... लेकिन मुनि की कीर्ति फैलनी शुरू हो गई, कि मुनि महान तपस्वी हैं.
वो सब क्रोध ही था, जो स्वयं पर लौट आया था, वो क्रोध था, जो दूसरों पे प्रकट होता रहा था, अब वो अपने पर ही प्रकट हो रहा था.
सौ में से निन्यानबे तपस्वी स्वयं पर लौटे हुए क्रोध का परिणाम होते हैं. दूसरों को सताने की चेष्‍टा रूपान्तरित होके ख़ुद को सताने की चेष्‍टा भी बन सकती है. असल में, सताने की इच्छा असली सवाल है. किसको सताने का, ये बड़ा सवाल नहीं है. दूसरों को भी सताया जा सकता है, ख़ुद को भी सताया जा सकता है. सताने में मज़ा है, क्रोधी आदमी का रस है.
अब उसने दूसरों को सताना बन्द कर दिया था, क्योंकि दूसरे तो थे ही नहीं...अब तो वही था, अपने को ही सता रहा था. और एक, पहली बार एक नई घटना घटी थी...दूसरों को सताने में लोग अपमान करते थे, ख़ुद को सताने में लोग सम्मान करने लगे थे! लोग कहते थे महातपस्वी!
मुनि की कीर्ति फैलती गई. जितनी कीर्ति फैलती गई, मुनि अपने को उतना ही टॉर्चर, उतना ही अपने साथ दुष्‍टता करते चले गए. जितनी उन्होंने दुष्‍टता की, उतना यश, उतना सम्मान. दो-चार वर्षों में ही गुरू से भी ज़्यादा उनकी प्रतिष्‍ठा हो गई.
फिर वे देश की राजधानी में आए.
मुनियों को देश की राजधानी में जाना बहुत ज़रूरी रहता है. अगर आप संन्यासियों को खोजना चाहते हों तो हिमालय जाने की कोई ज़रूरत नहीं है, देश की राजधानियों में चले जाइए और वहाँ सब मुनि और सब संन्यासी अड्डा जमाए हुए मिल जाएँगे.
वो मुनि भी राजधानी की तरफ़ चले. राजधानी में पुराना एक मित्र रहता था. उसे ख़बर मिली, वो बहुत हैरान हुआ कि जो आदमी इतना क्रोधी था, वो शान्तिनाथ हो गया! चमत्कार है! जाऊँ, दर्शन करूँ.
वो मित्र दर्शन करने आया. मुनि अपने तख़त पर सवार थे. देख लिया, मित्र को पहचान भी गए.
लेकिन जो लोग भी तख़त पे सवार हो जाते हैं, वो कभी किसी को आसानी से नहीं पहचानते. फिर पुराने दिनों के साथी को पहचानना ठीक भी न था. उससे हम भी कभी इसी जैसे रहे हैं, इसका पता चलता है.
देख लिया, पहचाने नहीं. मित्र भी समझ गया कि पहचान तो लिया है, लेकिन फिर भी पहचान नहीं रहे हैं.
आदमी ऊपर चढ़ता ही इसलिए है कि जो पीछे छूट जाएँ, उनको पहचाने न. और जब बहुत लोग उसको पहचानने लगते हैं, तो वो सबको पहचानना बन्द कर देता है. पद के शिखर पर चढ़ने का रस ही ये है...तुम्हें सब पहचानें, लेकिन तुम्हें किसी को न पहचानना पड़े.
मित्र पास सरक आया और उसने पूछा कि, “मुनि जी! क्या मैं पूछ सकता हूँ आपका नाम क्या है?”
मुनि जी को क्रोध आ गया. कहा, “अख़बार नहीं पढ़ते हो! रेडियो नहीं सुनते हो! मेरा नाम पूछते हो? मेरा नाम जगत-ज़ाहिर है, मेरा नाम है मुनि शान्तिनाथ!”
उनके बताने का ढ़ँग, मित्र समझ गया है कि कोई बदलाहट तो नहीं हुई है, आदमी तो ये वही है, सिर्फ़ नग्न खड़ा हो गया है.
दो मिनट दूसरी बात चलती रही. मित्र ने फिर पूछा कि, “महाराज! मैं भूल गया, आपका नाम क्या है?”
मुनि की तो आँखों में आग जल उठी. उन्होंने कहा, “मूढ़! नासमझ! इतनी भी बुद्धि नहीं है! अभी मैंने तुझसे कहा था कि मेरा नाम मुनि शान्तिनाथ है. मेरा नाम है मुनि शान्तिनाथ.”
मित्र, दो मिनट और दूसरी बातें चलती रहीं, सुनता रहा. फिर उसने पूछा कि, “महाराज! मैं भूल गया, आपका नाम क्या है?”
मुनि ने डण्डा उठा लिया और कहा कि, “सिर तोड़ दूँगा! नाम समझ में नहीं आता? मेरा नाम है मुनि शान्तिनाथ!”
तो उस मित्र ने कहा, “सब समझ में आ गया. वही समझ में आने के लिए तीन-तीन बार पूछ रहा हूँ. नमस्कार है! आप वही के वही हैं, कोई फ़र्क़ नहीं! आप वही के वही हैं, कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा!”
- ओशो (सम्भोग से समाधि की ओर)

लाओत्से की दृष्टि में शिक्षक


लाओत्से की दृष्टि में शिक्षक वही है जिसे शिक्षा देनी न पड़े, जिसकी मौजूदगी शिक्षा बन जाए; गुरु वही है जिसे आदर मांगना न पड़े, जिसे आदर वैसे ही सहज उपलब्ध हो जैसे नदियां सागर की तरफ बहती हैं। ऐसी सहजता ही जीवन में क्रांति ला सकती है।
शिक्षक शिक्षा देना चाहता है; गुरु अपना गुरुत्व दिखाना चाहता है; पिता बेटे को बदलना चाहता है; समाज-सुधारक समाज को नया रूप देना चाहते हैं। उनकी आकांक्षाएं शुभ हैं, लेकिन वे सफल नहीं हो पाते। न केवल वे सफल नहीं हो पाते, बल्कि वे भयंकर रूप से हानिपूर्ण सिद्ध होते हैं। क्योंकि जब कोई किसी को बदलना चाहता है तो वह उसकी बदलाहट में बाधा बन जाता है। और जितना ही आग्रह होता है बदलने का उतना ही बदलना मुश्किल हो जाता है।
आग्रह आक्रमण है। अच्छे पिता अक्सर ही अच्छे बेटों को जन्म नहीं दे पाते। उनका अच्छा होना, और अपने बेटे को भी अच्छा बनाने का आग्रह, बेटों की विकृति बन जाती है। जो समाज बहुत आग्रह करता है शुभ होने का, उसका शुभ पाखंड हो जाता है और भीतर अशुभ की धाराएं बहने लगती हैं। जिस चीज का निषेध किया जाता है उसमें रस पैदा हो जाता है, और जिस चीज को जबरदस्ती थोपने की कोशिश की जाती है उसमें विरस पैदा हो जाता है। ये मनोवैज्ञानिक सत्य आज पश्चिम की मनस की खोज में स्पष्ट होते चले जाते हैं।
लेकिन लाओत्से अभी भी अप्रतिम है, अभी भी लाओत्से की बात पूरी समझ में मनुष्य को नहीं आ सकी है। लाओत्से यह कह रहा है कि शुभ लाने की चेष्टा से अशुभ आता है; अच्छा बनाने की कोशिश बुरा बनने का कारण बन जाती है। परिणाम विपरीत होते हैं। इसको हम ठीक से समझ लें तो फिर इस सूत्र में प्रवेश हो जाएगा।
जब मैं किसी को अच्छा बनाने की कोशिश करता हूं, तो इस पूरी कोशिश की व्याख्या समझ लें, इस पूरी कोशिश का एक-एक ताना-बाना समझ लें। जब मैं किसी को अच्छा बनाने की कोशिश करता हूं तो पहली तो बात यह कि मैं अपने को अच्छा मानता हूं जो कि गहन अहंकार है, और दूसरा कि मैं दूसरे को बुरा मानता हूं जो कि अपमान है। और जितना ही मैं आग्रह करता हूं दूसरे को अच्छा बनाने का उतना ही मैं उसे अपमानित करता हूं; मेरी चेष्टा उसकी गहन निंदा बन जाती है। और अपमान प्रतिकार चाहता है, अपमान बदला लेना चाहता है। तो जिसे मैं अपमानित कर रहा हूं इस सूक्ष्म विधि से वह मुझ से बदला लेगा। और बदले का सबसे सरल उपाय यह है कि जो मैं चाहता हूं वह भर वह न होने दे; उससे विपरीत करके दिखा दे। तो बेटे बाप के विपरीत चल जाते हैं; शिष्य गुरुओं को सब भांति खंडित कर देते हैं; अनुयायी नेताओं को बुरी तरह पराजित कर देते हैं।
इधर हमने देखा, महात्मा गांधी की अथक चेष्टा थी, लोग अच्छे हो जाएं; और उन्होंने अपने अनुयायियों को अच्छा बनाने की भरपूर कोशिश की। लेकिन उन्हें लाओत्से का कोई भी पता नहीं था। और जो परिणाम हुआ वह हमारे सामने है कि उनका अनुयायी, ठीक वह जो चाहते थे, उससे विपरीत हुआ। इसके लिए सभी लोग अनुयायियों को जिम्मेवार ठहराएंगे, लाओत्से जिम्मेवार नहीं ठहराता, मैं भी जिम्मेवार नहीं ठहराता। क्योंकि भूल शिक्षक की है। लेकिन वह भूल दिखाई हमें नहीं पड़ेगी। क्योंकि हम भी यह धारणा मान कर चलते हैं कि महात्मा गांधी ने तो अथक चेष्टा की लोगों को अच्छा बनाने की; अगर लोग नहीं अच्छे बने तो लोगों का कसूर है।
लेकिन लाओत्से यह कहता है कि शिक्षक की बुनियादी भूल है। जहां आग्रह होता है, जहां दूसरे को ठीक करने की चेष्टा होती है, वह चेष्टा विपरीत परिणाम लाती है। और ऐसा नहीं कि विपरीत परिणाम अनुयायियों पर हुए, उनकी खुद की संतान पर भी विपरीत परिणाम हुआ। जो वे चाहते थे उससे उलटा हुआ। चाह में कुछ भूल न थी, लेकिन उन्हें जीवन के गहन इस सत्य का जैसे पता नहीं है कि आग्रह आक्रमण है, और चाहे दूसरा कहे या न कहे, भीतर अपमानित होता है।
जैसे ही मैं किसी को अच्छा करने की कोशिश करता हूं, एक बात तो मैंने कह दी कि तुम बुरे हो। और यह मैं सीधा कह देता तो शायद इतनी चोट न लगती, लेकिन मैं यह परोक्ष कहता हूं कि तुम्हें अच्छा होना है, तुम्हें अच्छा बनना है। यह तो मैं कह रहा हूं कि तुम जैसे हो वैसे स्वीकृत नहीं हो; तुम कटो, छंटो, निखरो, तो मैं स्वीकार कर सकूंगा। मेरे स्वीकार में शर्त है: जैसा मैं चाहता हूं वैसे तुम हो जाओ।
एक तो मैंने मान ही लिया कि मैं ठीक हूं और दूसरी अब मैं यह कोशिश कर रहा हूं कि तुम गलत हो। और यह एक गहरी हिंसा है। दूसरे को मारना बड़ी स्थूल हिंसा है; दूसरे को बदलना बड़ी गहन हिंसा है, बड़ी सूक्ष्म हिंसा है। मैं आपका हाथ काट डालूं, यह बहुत बड़ी हिंसा नहीं है; लेकिन मैं आपके व्यक्तित्व को काटूं–चाहे भली इच्छा से ही, चाहे मैं आपको लाभ पहुंचाने के लिए ही, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। बड़े मजे की तो बात यह है कि जितने लोग भी दूसरों को लाभ पहुंचाना चाहते हैं अक्सर तो लाभ पहुंचाना असली बात नहीं होती, दूसरे को बदलने, तोड़ने, काटने का रस असली बात होती है। और बड़ा सूक्ष्म मजा है कि दूसरे को मैं अपने अनुकूल ढाल रहा हूं। जैसा मैं हूं, जैसा मैं समझता हूं ठीक है, वैसा मैं दूसरे को बना रहा हूं। यह दूसरे की आत्मा का अपमान है।
तो शिक्षक, आदर्शवादी, महात्मा, साधु-संन्यासी, नेता, क्रांतिकारी, समाज-सुधारक समाज को बदल नहीं पाते, और विकृत कर जाते हैं। और उनके पीछे जो छाया आती है वह अत्यंत पतन की होती है। जब भी कोई महापुरुष लोगों को बदलने की कोशिश करता है तो उसके पीछे एक अंधकार की धारा अनिवार्यरूपेण पैदा हो जाती है।
लाओत्से कहता है कि तुम दूसरे को बदलना मत। तुम अपने स्वभाव में जीना। और अगर तुम्हारे स्वभाव में कुछ भी मूल्यवान है तो दूसरे उसकी उपस्थिति में बदलना शुरू हो जाएंगे। यह बदलाहट तुम्हारा आग्रह न होगी; इस बदलाहट में तुम्हारी चेष्टा न होगी; इस बदलाहट में तुम सचेतन रूप से सक्रिय भी नहीं होओगे। दूसरा ही सक्रिय होगा, दूसरा ही यत्न करेगा; लेकिन तुम सिर्फ एक मौन उपस्थिति, एक मौन प्रेरणा रहोगे।
उस प्रेरणा में कोई उपाय तुम्हारी तरफ से नहीं है। और जब कोई सिर्फ उपस्थिति होता है–एक आनंद की, एक उत्सव की, एक समाधि की, एक ध्यान की–तो दूसरे भी उसकी तरफ बहने शुरू हो जाते हैं। इस बहाव में वे दूसरे ही पहल करते हैं। यह उनकी अपनी निजी चेष्टा होती है। जैसे पानी नीचे की तरफ बहता है ऐसे जहां भी आनंद होता है वहां व्यक्ति बहने शुरू हो जाते हैं। न तो सागर निमंत्रण देता, न बुलाता; नदियां भागी चली जाती हैं। खींचता भी नहीं, नदियां अपनी स्वेच्छा से ही भागी चली जाती हैं।
ताओ

Osho Never Born Never Die

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पर हाथ रखकर दोनों आंखों के बीच में एक मिनट तक रगड़ते रहे। चित्‍त अगर प्रसन्‍न हो, तो माथे पर रगड़ते ही सारी प्रसन्‍नता माथे पर इक्कठी हो जाएगी।
ध्‍यान रहे जब आदमी उदास होता है। तो अक्‍सर माथे पर हाथ रखता है। माथे पर हाथ रखने से उदासी बिखरती है। और प्रसन्‍नता इकट्ठी होती है। हालांकि प्रसन्नता में कोई नहीं रखता,उसका खयाल नहीं है।
जब आदमी उदास होता है, दुःख होता है चिंतित होता है, तो माथे पर हाथ रखता है। उससे चिंता बिखर जाती हे। उस समय जो इकट्ठा है वह बिखर जाता है। निगेटिव कुछ होगा तो माथे पर हाथ रखने से बिखर जाता है। पाजीटिव कुछ होगा तो माथे पर हाथ रखने से इक्कठ्ठा हो जाता है।
इस लिए मैंने कहा: जब प्रसन्‍न क्षण हो मन को कोई,लेट जाएं, माथे पर एक क्षण रगड़ लें जोर से हाथ से, अपने ही हाथ से। वह जगह बीच में जो है, वह बहुत कीमती जगह है। शरीर में शायद सर्वाधिक कीमती जगह है। वह अध्‍यात्‍म का सारा राज छिपा है। थर्ड आई, कोई कहता है उसे कोई शिवनेत्र, उसे कोई भी कुछ नाम देता हो, पर वहां राज छिपा है। उस पर हाथ रगड़ लें। उस पर हाथ रगड़ने के बाद जब आपको लगे कि प्रसन्‍नता सारे शरीर से दौड़ने लगी है उस तरफ, आँख बंद ही रखें, और सोचें कि मेरा सिर कहां हे। खयाल करें आप आँख बंद करके कि मेरा सर कहां है।
आपको बराबर पता चल जाएगा कि सिर कहां है। सब को पता है, अपना सिर कहां है। फिर एक क्षण के लिए सोचें कि मेरा सिर जो है, वह छ: इंच लंबा हो गया। आप कहेंगे, कैसे सोचेंगे।
यह बिलकुल सरल है, और एक दो दिन में आपको अनुभव में आ जाएगा कि माथा छ: इंच लंबा हो गया। आँख बंद किए। फिर वापिस लौट आएं, नार्मल हो जाएं, अपनी खोपड़ी के अंदर वापिस आ जाएं। फिर छ: इंच पीछे लोटे, फिर वापस लोटे, पाँच सात बार करें।
जब आपको यह पक्‍का हो जाए कि यह होने लगा, तब सोचें कि पूरा शरीर मेरा जो है। वह कमरे के बराबर बड़ा हो गया है। सिर्फ सोचना, जस्ट ए थाट, एंड दि थिंग हैपेंस। क्‍योंकि जैसे ही वह तीसरे नेत्र के पास शक्‍ति आती हे। आप जो भी सोचें, वह हो जाता हे। इसलिए इस तरफ शक्‍ति लाकर कभी भी कुछ भूलकर गलत नहीं सोच लेना, वरना ........
इस लिए इस तीसरे नेत्र के संबंध में बहुत लोगों को नहीं कहा जाता है। क्‍योंकि इससे बहुत संबंधित द्वार हैं। यह करीब-करीब वैसी ही जगह है, जैसा पश्‍चिम का विज्ञान ऐटमिक एनर्जी के पास जाकर झंझट में पड़ गया है। वैसाही पूरब को योग इस बिंदु के पास आकर झंझट मैं पड़ गया था। और पूरब के मनीषी यों ने खोजा हजारों वर्षों तक, और फिर छिपाया इसको। क्‍योंकि आम आदमी के हाथ में पडा तो खतरा शुरू हो जाएगा।
अभी पश्‍चिम में वहीं हालत है। आइंस्टीन रोते-रोते मरा है, कि किसी तरह एटमिकएनर्जी के सीक्रेट खो जाए तो अच्‍छा हो। नहीं तो आदमी मर जाएगा।
पूरब भी एक दफा इस जगह आ गया था दूसरे बिंदु से, और उसने सीक्रेट खोज लिया था। और उससे बहुत उपद्रव संभव हो गए थे, और शुरू हो गए थे तो,उन्‍हें भुला देना पडा। पर यह छोटा-सा सूत्र मैं कहता हूं, इससे कोई बहुत ज्‍यादा खतरे नहीं हो सकते है। क्‍योंकि और गहरे सूत्र है, जो खतरे ला सकते है।

अवचेतन मन के 11 नियम जो आपकी दुनिया 3 दिन में बदल देंगे

  अवचेतन मन के 11 नियम, जो आपकी जिंदगी को प्रभावित करते हैं और उन्हें संचालित करते हैं इनके बारे में आज आप जानेंगे। ईश्वर के द्वारा रचा गया ...