एक गाँव में एक बहुत क्रोधी आदमी था. इतना क्रोधी कि उसने अपनी पत्नी को धक्का देकर कुएँ में गिरा दिया. जब पत्नी मर गई और उसकी लाश निकाली गई, तो वो क्रोधी आदमी जैसे एक नींद से जाग गया. उसे याद आया कि उसने ज़िन्दगी में सिवाय क्रोध के और कुछ भी नहीं किया. इस दुर्घटना में वो एकदम सचेत हो गया. उसे बड़ा पश्चाताप हुआ.
गाँव में एक मुनि आए थे. वो मुनि के दर्शन को गया और उनके चरणों में सिर रख के रोया, और उसने कहा कि, “मैं इस क्रोध से कैसे छुटकारा पाऊँ? क्या रास्ता है? मैं कैसे इस क्रोध से बचूँ?”
मुनि ने कहा कि, “संन्यासी हो जाओ. छोड़ दो वो सब, जो तुम कल तक पकड़े थे.”
लेकिन मज़ा ये है कि जिसे छोड़ो, छोड़ने के कारण ही वो और पकड़ जाता है. लेकिन वो थोड़ी गहरी बात है, वो एकदम से दिखाई नहीं पड़ती.
कहा, “छोड़ दो सब! क्रोध को भी छोड़ दो! संन्यासी हो जाओ, शान्त हो जाओ!”
अब कोई क्रोध को छोड़ सकता है?
अब कोई क्रोध को छोड़ सकता है?
वो आदमी संन्यासी हो गया. उसने तत्क्षण वस्त्र फेंक दिए और नग्न हो गया. और उसने कहा कि, “मुझे दीक्षा दें, इसी क्षण!”
मुनि बहुत हैरान हुए, बहुत लोग उन्होंने देखे थे, ऐसा संकल्पवान आदमी नहीं देखा था जो इतनी शीघ्रता से संन्यासी हो जाए.
उन्होंने कहा कि, “तू अद्भुत है! तेरा संकल्प महान है! तेरा संयम महान है! तू इतनी शीघ्रता से संन्यासी होने को तैयार हो गया है सब छोड़कर!”
लेकिन मुनि को भी पता नहीं कि ये क्रोध ही है. ये क्रोध का ही दूसरा रूप है. वो आदमी, जो अपनी पत्नी को एक क्षण में धक्का दे सकता है, वो एक क्षण में नंगा खड़ा होकर संन्यासी भी हो सकता है. इन दोनों बातों में विरोध नहीं है. ये एक ही क्रोध के दो रूप हैं.
मुनि बहुत प्रभावित हुए थे. उन्होंने उसे दीक्षा दे दी और उसका नाम रख दिया...शान्तिनाथ. वो मुनि शान्तिनाथ हो गया. और भी शिष्य थे मुनि के, लेकिन उस मुनि शान्तिनाथ का मुक़ाबला करना बहुत मुश्किल था, क्योंकि उतना क्रोधी उनमें कोई भी नहीं था. दूसरे दिन में एक बार भोजन करते, तो शान्तिनाथ दो-दो दिन तक भोजन नहीं करते.
क्रोधी आदमी कुछ भी कर सकता है!
दूसरे सीधे रास्ते पे चलते थे, तो मुनि शान्तिनाथ उल्टे, काँटों भरे रास्ते पे चलते! दूसरे छाया में बैठते थे, तो मुनि शान्तिनाथ धूप में खड़े रहते! सूख गया शरीर, कृश हो गया, काला पड़ गया, पैर में घाव पड़ गए... लेकिन मुनि की कीर्ति फैलनी शुरू हो गई, कि मुनि महान तपस्वी हैं.
वो सब क्रोध ही था, जो स्वयं पर लौट आया था, वो क्रोध था, जो दूसरों पे प्रकट होता रहा था, अब वो अपने पर ही प्रकट हो रहा था.
सौ में से निन्यानबे तपस्वी स्वयं पर लौटे हुए क्रोध का परिणाम होते हैं. दूसरों को सताने की चेष्टा रूपान्तरित होके ख़ुद को सताने की चेष्टा भी बन सकती है. असल में, सताने की इच्छा असली सवाल है. किसको सताने का, ये बड़ा सवाल नहीं है. दूसरों को भी सताया जा सकता है, ख़ुद को भी सताया जा सकता है. सताने में मज़ा है, क्रोधी आदमी का रस है.
अब उसने दूसरों को सताना बन्द कर दिया था, क्योंकि दूसरे तो थे ही नहीं...अब तो वही था, अपने को ही सता रहा था. और एक, पहली बार एक नई घटना घटी थी...दूसरों को सताने में लोग अपमान करते थे, ख़ुद को सताने में लोग सम्मान करने लगे थे! लोग कहते थे महातपस्वी!
मुनि की कीर्ति फैलती गई. जितनी कीर्ति फैलती गई, मुनि अपने को उतना ही टॉर्चर, उतना ही अपने साथ दुष्टता करते चले गए. जितनी उन्होंने दुष्टता की, उतना यश, उतना सम्मान. दो-चार वर्षों में ही गुरू से भी ज़्यादा उनकी प्रतिष्ठा हो गई.
फिर वे देश की राजधानी में आए.
मुनियों को देश की राजधानी में जाना बहुत ज़रूरी रहता है. अगर आप संन्यासियों को खोजना चाहते हों तो हिमालय जाने की कोई ज़रूरत नहीं है, देश की राजधानियों में चले जाइए और वहाँ सब मुनि और सब संन्यासी अड्डा जमाए हुए मिल जाएँगे.
वो मुनि भी राजधानी की तरफ़ चले. राजधानी में पुराना एक मित्र रहता था. उसे ख़बर मिली, वो बहुत हैरान हुआ कि जो आदमी इतना क्रोधी था, वो शान्तिनाथ हो गया! चमत्कार है! जाऊँ, दर्शन करूँ.
वो मित्र दर्शन करने आया. मुनि अपने तख़त पर सवार थे. देख लिया, मित्र को पहचान भी गए.
लेकिन जो लोग भी तख़त पे सवार हो जाते हैं, वो कभी किसी को आसानी से नहीं पहचानते. फिर पुराने दिनों के साथी को पहचानना ठीक भी न था. उससे हम भी कभी इसी जैसे रहे हैं, इसका पता चलता है.
देख लिया, पहचाने नहीं. मित्र भी समझ गया कि पहचान तो लिया है, लेकिन फिर भी पहचान नहीं रहे हैं.
आदमी ऊपर चढ़ता ही इसलिए है कि जो पीछे छूट जाएँ, उनको पहचाने न. और जब बहुत लोग उसको पहचानने लगते हैं, तो वो सबको पहचानना बन्द कर देता है. पद के शिखर पर चढ़ने का रस ही ये है...तुम्हें सब पहचानें, लेकिन तुम्हें किसी को न पहचानना पड़े.
मित्र पास सरक आया और उसने पूछा कि, “मुनि जी! क्या मैं पूछ सकता हूँ आपका नाम क्या है?”
मुनि जी को क्रोध आ गया. कहा, “अख़बार नहीं पढ़ते हो! रेडियो नहीं सुनते हो! मेरा नाम पूछते हो? मेरा नाम जगत-ज़ाहिर है, मेरा नाम है मुनि शान्तिनाथ!”
उनके बताने का ढ़ँग, मित्र समझ गया है कि कोई बदलाहट तो नहीं हुई है, आदमी तो ये वही है, सिर्फ़ नग्न खड़ा हो गया है.
उनके बताने का ढ़ँग, मित्र समझ गया है कि कोई बदलाहट तो नहीं हुई है, आदमी तो ये वही है, सिर्फ़ नग्न खड़ा हो गया है.
दो मिनट दूसरी बात चलती रही. मित्र ने फिर पूछा कि, “महाराज! मैं भूल गया, आपका नाम क्या है?”
मुनि की तो आँखों में आग जल उठी. उन्होंने कहा, “मूढ़! नासमझ! इतनी भी बुद्धि नहीं है! अभी मैंने तुझसे कहा था कि मेरा नाम मुनि शान्तिनाथ है. मेरा नाम है मुनि शान्तिनाथ.”
मित्र, दो मिनट और दूसरी बातें चलती रहीं, सुनता रहा. फिर उसने पूछा कि, “महाराज! मैं भूल गया, आपका नाम क्या है?”
मुनि ने डण्डा उठा लिया और कहा कि, “सिर तोड़ दूँगा! नाम समझ में नहीं आता? मेरा नाम है मुनि शान्तिनाथ!”
तो उस मित्र ने कहा, “सब समझ में आ गया. वही समझ में आने के लिए तीन-तीन बार पूछ रहा हूँ. नमस्कार है! आप वही के वही हैं, कोई फ़र्क़ नहीं! आप वही के वही हैं, कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा!”
- ओशो (सम्भोग से समाधि की ओर)
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