Tuesday, August 29, 2017

अर्ध मत्स्येंद्रासन के लाभ

यह एक ध्यानात्मक आसन है जो शारीरिक रूप से भी बहुत अधिक उपयोगी है| मत्स्येंद्रासन की आधी क्रिया को लेकर ही अर्धमत्स्येंद्रासन अधिक प्रचलित हुआ| यह रीढ़ की हड्डियों के साथ उनमे से निकलने वाली नाड़ियो को बहुत ही आसानी से पुष्ट करता है| इस आसान के महत्व को समझते हुए ही इसके लाभ का वर्णन हठयोग प्रदीपिका में किया गया है| घरेण्ड संहिता में भी इस आसन का सम्पूर्ण विवरण दिया गया है|

अर्धमत्स्येंद्रासन करने की विधि

हठयोग प्रदीपिका और घरेण्ड संहिता में वर्णित आसन भिन्न भिन्न है| हठयोग प्रदीपिका वर्णित आसन आसन की साधारण विधि अधिक प्रचलन में है| आइये जानते है इसकी विधि-

पहली विधि

हठयोगप्रदीपिका के अनुसार, इस आसान को करने के लिए, दायें पैर को बायीं पैर की जांघ के मूल में रखकर और बाये पैर को दाहिने घुटने के बाहर निकालते हुए शरीर को ऐंठकर, हाथो को विपरीत दिशा में पकड़कर बैठना ही एक पैर से कर लेने के बाद इसी प्रकार से बाये पैर से भी किया जाता है|
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दूसरी विधि

मत्स्येंद्रासन थोड़ा कठिन आसन है इसलिए आप अर्ध मत्स्येंद्रासन भी कर सकते है| जिसकी विधि कुछ इस प्रकार है-
इसे करने के लिए सबसे पहले समतल जमीन पर पेरो को लम्बा करके बैठ जाएं| इसके बाद बाये पैर को घुटने की ओर से मोड़े तथा एड़ी को गुदाद्वार के नीचे रखें| अब दाहिने पैर को घुटने से मोड़ते हुए, बाये पैर की जंघा के पीछे की तरफ ले जाकर जमीन पर रख दें| अब बाये हाथ को दाहिने पैर के घुटने से पार करके अर्थात घुटने को बगल में दबाते हुए बायें हाथ से दाहिने पैर का अँगूठा पकड़ें। अब दाहिना हाथ पीठ के पीछे से घुमाकर बाये पैर की जांघ का निम्न भाग पकड़ें। सिर को दाहिनी ओर इतना घुमाएँ की ठोड़ी और बायाँ कंधा एक सीध में आ जाए तथा ध्यान रखें की यह नीचे की ओर ना झुकें। छाती और गर्दन को सीधा और तना हुआ रखें|
यह एक तरफ का आसन हुआ। इस प्रकार पहले दाहिने पैर मोड़कर, एड़ी गुदाद्वार के नीचे दबाकर दूसरी तरफ का आसन भी करें। प्रारंभ में इस आसन को कुछ समय के लिए करें, फिर अच्छी तरह अभ्यासरत हो जाने पर आप इसकी समयावधि को बड़ा सकते है|

अर्ध मत्स्येंद्रासन के लाभ 

  1. इस आसन के अभ्यास से मेरुदण्ड याने रीढ़ हड्डी मजबूत होती है और शरीर में स्फूर्ति बनी रहती है|
  2. पेट के सभी अंगो के लिए यह फायदेमंद होता है| साथ ही रीढ़ की हड्डियों से निकलने वाली नाड़ियो की भी बहुत अच्छे से कसरत हो जाती है|
  3. इसके अभ्यास से जठराग्नि तीव्र होती है| इसके तीव्र होने से कब्ज, अपच की समस्या दूर होती है, साथ ही लिवर ठीक तरह से कार्य करता है जिससे पीलिया या अन्य लिवर के रोगो में राहत मिलती है|
ऊपर अपने जाना Ardha Matsyendrasana in Hindi, यह योगासन थोड़ा कठिन है इसलिए इसे किसी योग शिक्षक की मदद से प्रारम्भ करें, अभ्यासरत हो जाने के पश्चात् आप इसे आसानी से घर पर कर सकते है|



Saturday, August 26, 2017

ॐ मंत्र

ॐ मंत्र _ AUM Mantra से तो हम सभी परिचित हैं, लेकिन क्या इसके लाभ भी जानते हैं? मुझे इस लेख को प्रारम्भ करने की अनुमति दीजिए। यह अकेला ऐसा मंत्र है जिसका उच्चारण एक मूक भी कर सकता है। सचमुच ये हैरान कर देने वाली बात है। आप इसे अपनी जीभ हिलाये बिना ॐ का उच्चारण करने का प्रयास करिए। ॐ के तीन तत्व अ, उ और म हैं, जिन्हें वेद से लिया गया है। यह तीन वर्ण परम ब्रह्म को दर्शाते हैं।
यदि आप ध्वनि की प्रकृति पर ध्यान दें तो आपको पता चलेगा कि यह तभी उत्पन्न होती है जब कोई दो वस्तुएँ आपस में टकराती हैं। उदाहरण के लिए – धनुष और प्रत्यंचा, ढोलक और हाथ, दो मुख ग्रंथियाँ, तट से समुद्र की लहर, पत्तियों से हवा, सड़क पर गाड़ी के पहिए इत्यादि। संक्षेप में कहा जाए तो हमारे आप पास की सभी ध्वनियाँ दृश्य और अदृश्य वस्तुओं द्वारा उत्पन्न की जाती हैं, उनके आपस में लड़ने या एक साथ कम्पन करने से वायु के कणों की तरंगें उत्पन्न जिनसे ध्वनि का जन्म होता है।

ॐ का रहस्य

परन्तु ॐ मंत्र की ध्वनि इससे अलग है, यह स्वयं उत्पन्न होती है। ॐ मंत्र की ध्वनि ही पहली ध्वनि है और इसी में सभी ध्वनियाँ निहित हैं।
ॐ मंत्र के उच्चारण से चिकित्सीय, मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक लाभ होते हैं। भले ही आप ॐ मंत्र का अर्थ नहीं जानते हैं या आपकी शब्द में आस्था नहीं है लेकिन तब भी आप इसके लाभ प्राप्त कर सकते हैं।
ॐ के उच्चारण से जो ध्वनि उत्पन्न होती है, वही इस ब्रह्मांड की उत्पत्ति के समय प्रथम ध्वनि थी। ॐ की ध्वनि को प्रणव भी कहते हैं, क्योंकि यह जीवन और श्वास की गति को बनाए रखती है।
विज्ञान ने भी ॐ के उच्चारण और उसके लाभ को प्रमाणित किया है। यह धीमी, सामान्य और पूरी साँस छोड़ने में सहायता करती है। यह हमारे श्वसन तंत्र को विश्राम देता है और नियंत्रित करता है। साथ ही यह हमारे मन-मस्तिष्क को शांत करने में भी लाभप्रद है।

ॐ मंत्र के उच्चारण के लाभ

ॐ का ओ; अ और उ से मिलकर बनता है। यह ध्वनि वक्ष पिंजर _ Thoracic Cage को कंपित करती है, जो हमारे फेफड़े में भरी हवा के साथ सम्पर्क में आता है जिससे ऐलवीलस की मेम्ब्रेन की कंपन करने लगती है। यह प्रक्रिया फेफड़े की कोशिकाओं _ Pulmonary Cells को उत्तेजित करती है, जिससे फेफड़े में श्वास उचित मात्रा में आती जाती रहती है। नई रिसर्च से यह भी सामने आया है कि यह कंपन अंत: स्रावी ग्रंथियों _ Endocrine Glands को प्रभावित करता है, जिससे चिकित्सा में इसका अद्भुत महत्व है। अउ की ध्वनि से विशेषकर पेट के अंगों और वक्ष पिंजर को आंतरिक मसाज _ Internal Massage मिलता है, जबकि म के कंपन से हमारे कपाल की नसों में कंपन होता है।

ॐ मंत्र के चिकित्सीय लाभ

ॐ हमारे जीवन को स्वस्थ बनाने का सबसे उत्तम मार्ग है।
1. नियमित ॐ का मनन करने से पूरे शरीर को विश्राम मिलता है और हार्मोन तंत्र नियंत्रित होता है
2. ॐ के अतिरिक्त चिंता और क्रोध पर नियंत्रण पाने का इससे सरल मार्ग दूसरा नहीं है
3. ॐ का उच्चारण प्रदूषित वातावरण में यह पूरे शरीर को विष मुक्त करता है
4. ॐ का मनन हृदय और रक्त संचार प्रणाली को सुदृढ़ करता है
5. ॐ के उच्चारण से यौवन और चेहरे पर कांति आती है
6. ॐ के जप से पाचन तंत्र सुदृढ़ होता है
7. थकान के बाद ॐ का मनन आपको नई ऊर्जा से भर देता है
8. अनिद्रा रोग से छुटकारा पाने में ॐ का बहुत महत्व है। सोते समय इसका नियमित मनन करें।
9. थोड़े से प्रयास में ॐ की शक्ति आपके फेफड़ों और श्वसन तंत्र को सुदृढ़ बनाना है।

ॐ मंत्र के मनोवैज्ञानिक चिकित्सा में लाभ

1. ॐ की शक्ति आपको दुनिया का सामना करने की शक्ति देती है।
2. ॐ का नियमित मनन करने से आप क्रोध और हताशा से बचे रहते हैं।
3. ॐ की गूंज आपको स्वयं को नियंत्रित करने में सक्षम बनाती है। आप स्वयं में नया उत्साह महसूस करते हैं।
4. ॐ की ध्वनि से आपके पारस्परिक सम्बंध सुधरते हैं। आपके व्यक्तित्व में आने वाला बदलाव लोगों को आकर्षित करता है और लोग आपसे ईष्या करना छोड़ देते हैं।
5. आप अपने जीवन के उद्देश्य और उसकी प्राप्ति की ओर अग्रसर होते हैं और आपके चेहरे पर मुस्कान बनी रहती है।
6. नई उमंग और स्फूर्ति आती है। आप में सजगता और सर्तकता बढ़ती है।

ॐ मंत्र के मनन के अन्य लाभ

1. ॐ मंत्र आपको सांसरिकता से अलगकर करके आपको स्वयं से जोड़ता है।
2. अवसाद के समय ॐ मंत्र का जाप करने से आपको मन की शांति मिलती है और शक्ति संचार होता है। इससे आप शुद्ध हो जाते हैं, साथ साथ आपमें सर्वव्यापी प्रकाश और चेतना का संचार होता है।
3. जो लोग ॐ का उच्चारण करते हैं उनकी वाणी मधुर होती है। आप टहलते हुए भी ॐ मंत्र का जाप कर सकते हैं। आप ॐ मंत्र को गा और गुनागुना भी सकते हैं।
4. ॐ मंत्र गुनगुनाने से आप मन शांत और एकाग्र रहता है, जो आध्यत्मिक रूप से आपको स्वयं से जोड़ता है।
5. जो लोग प्रतिदिन ॐ मंत्र का मेडिटेशन करते हैं, उनके चेहरे और आंखों में अनोखी चमक होती है।
ॐ मंत्र का जाप श्वास छो‌ड़ते समय किया जाता है, जिससे यह धीमी, सामान्य और सम्पूर्ण होती है। अउ ध्वनि का प्रसार मृत वायु को कम स्थान देता है, और धीमे सांस लेने के कई लाभ होते है, जिन्हें आप योगियों से जान सकते हैं।

ॐ मंत्र का जाप

इसलिए आज से ही ॐ मंत्र का जाप प्रारम्भ करके इसके लाभ प्राप्त करिए।
आरम्भ करने के लिए इन टिप्स को फ़ॉलो करें –
1. शांत स्थान पर आरामदायक स्थिति में बैठिए।
2. आंखें बंद करके शरीर और नसों में ढीला छोड़िए।
3. कुछ लम्बी सांसें लीजिए।
4. ॐ मंत्र का जाप करिए और इसके कंपन महसूस कीजिए।
5. आराम महसूस होने तक ॐ मंत्र का जाप करते रहिए।
6. चित्त के पूरी तरह शांत होने पर अपनी आंखें खोलिए।
ॐ मंत्र का जाप वह सीढ़ी है जो आपको समाधि और आध्यात्मिक ऊँचाइयों पर ले जाती है।
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ॐ' को "मणिपुर" चक्र में अवस्थित माना जाता है

ऋगवेद में मौजूद है गायत्री मंत्र। अनादि काल से सनातनधर्मी इसे सर्वाधिक श्रद्धेय मंत्र के रूप में स्‍वीकार करते आए हैं। ये मंत्र इस प्रकार है। 

'ॐ भूर्भुव: स्व:
तत्सवितुर्वरेण्यं
भर्गो देवस्य धीमहि,
धीयो यो न: प्रचोदयात्'

दरअसल गायत्री मंत्र की शुरुआत ही 'ॐ' ध्‍वनि से ही होती है। आदि शंकराचार्य के अनुसार गायत्री मंत्र प्रणव 'ॐ' का ही विस्‍तृत रूप है। आध्‍यात्मिक जीवन का श्रीगणेश इसी मंत्र के चिंतन से आरंभ होता है। आइए गायत्री मंत्र और 'ॐ' के रहस्‍य को इस प्रकार समझने का प्रयास करें। 

नाम की खोज

ॐ  -    ओम (प्रणव अक्षर)
भूः  -   भू-मंडल, भूलोक
भुवः - अंतरिक्ष लोक, गृह मंडल
स्वः -  स्वर्ग लोक, अंतरिक्ष में चक्‍कर लगाती आकाशगंगाएं

रूप की खोज 

तत् -  वह परमात्मा
सवित – ईश्वर, बनाने वाला (सूरज)
वरेण्यम - वंदना करने योग्य

उपासना  

भर्गो -  तेज का, प्रकाश का
देवस्य -  देवताओं का
धीमहि -  ध्यान करते हैं

प्रार्थना 

धियो - बुद्धि
यो - जो कि
नः - हमें
प्रचोदयात - सन्मार्ग पर प्रेरित करें

इस प्रकार 'ॐ' तथा गायत्री मन्त्र का पूर्ण अर्थ बनता है : 
''हमारा पृथ्वी मंडल, गृह मंडल, अंतरिक्ष मंडल तथा सभी आकाशगंगाओं की गतिशीलता से उत्पन्न महान शोर ही ईश्वर की प्रथम पहचान प्रणव अक्षर 'ॐ' है और वह परमात्मा जो अनेकानेक रूप प्रकाश के रूप में प्रकट है, वंदनीय है। उस परमात्मा के प्रकाश का हम ध्यान करें और यह प्रार्थना भी करें कि  वह हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर लगाये रखे ताकि सद्बुद्धि हमारे चंचल मन को नियंत्रण में रख सके और साधक को ब्रह्म की अनुभूति करा सके। 

'ॐ' का परिचय 

अक्षरात्मक 

इसका वर्णन वेद, उपनिषद विशेषकर माण्डूक्योपनिषद में मिलता है। इसके 12 मन्त्रों में केवल 'ॐ' के विभिन्न पदों, उसके स्वरूप, उसकी विभिन्न मात्राओं तथा तन्मात्रों आदि का वर्णन है। 

ध्वन्यात्मक 

इसका वर्णन करते हुए महर्षि पतंजलि समाधिपाद के 27वें सूत्र में कहते हैं कि 'तस्य वाचक प्रणवः' अर्थात्, उस ईश्वर नामक चेतन तत्व विशेष के अस्तित्व का बोध करने वाला शब्द ध्वन्यात्मक 'ॐ' है। 

अनेक संत महात्माओं ने भी 'ॐ' के ध्वन्यात्मक स्वरुप को ही ब्रह्म माना है तथा 'ॐ' को "शब्द ब्रह्म" भी कहा है।

'ॐ' का उद्गम 


अब मुख्य प्रश्न यह है कि यदि 'ॐ'  एक दिव्य ध्वनि है तो इसका उद्गम क्या है? यदि ब्रह्माण्ड में कतिपय ध्वनि तरंगे व्याप्त हैं तो इनका कारक क्या है? क्योंकि, यह तो विज्ञान का सामान्य सा नियम है कि कोई भी ध्वनि स्वतः उत्पन्न नहीं हो सकती। जहां हरकत होगी वहीं ध्वनि उत्पन्न होगी चाहे वह इन स्थूल कानों से सुनाई दे या नहीं। 

ऊपर लिखे गायत्री मन्त्र के अर्थ में कहा गया कि हमारा पृथ्वी मंडल, गृह मंडल, अंतरिक्ष मंडल तथा सभी आकाशगंगाओं की गतिशीलता से उत्पन्न महान शोर ही ईश्वर की प्रथम पहचान प्रणव अक्षर 'ॐ' है। 

वैज्ञानिक चिंतन


विभिन्न ग्रहों से आ रही विभिन्न ध्वनियों को ध्यान की उच्चतम स्थित में जब मन पूरी तरह विचार शून्य हो, सुना जा सकता है। ऋग्वेद के नादबिंदु उपनिषद् में आंतरिक और आत्मिक मंडलों में शब्द की ध्वनि को समुद्र की लहरों, बादल, ढोल, पानी के झरनों, घंटे जैसी आवाज़ के रूप में सुने जाने का वर्णन है। हठ योग प्रदीपिका में भंवर की गुंजार, घुंगरू, शंख, घंटी, खड़ताल, मुरली, मृदंग, बांसुरी और शेर की गरज जैसी ध्वनियों का वर्णन है। 

गायत्री मन्त्र में 'ॐ' को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि पृथ्वी मंडल, गृह मंडल एवं अंतरिक्ष में स्थित आकाशगंगाओं की गतिशीलता से उत्पन्न सामूहिक ध्वनियां ही 'ॐ' की दिव्य ध्वनि है। यह अब कपोल कल्पना नहीं वास्तविकता है। विभिन ग्रहों की ध्‍वनियों को अमेरिकी स्‍पेस एजेंसी नासा के वैज्ञानिकों ने रिकॉर्ड किया है, इन्‍हें प्‍लैनेट साउंड के नाम से इंटरनेट पर भी सर्च करके सुना जा सकता है। 

बहुत ज्‍यादा शक्‍तिशाली है मंत्र 'ॐ'

विद्वानों का मत है कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में सदा 'ॐ' की ध्वनि ही गतिमान रहती है। 'ॐ' को सर्वाधिक शक्‍तिशाली माना गया है। किसी भी मंत्र से पहले यदि 'ॐ' जोड़ दिया जाए तो वह पूर्णतया शुद्ध और शक्ति-सम्पन्न हो जाता है। किसी देवी-देवता, ग्रह या अन्‍य मंत्रों के पहले 'ॐ' लगाना आवश्यक होता है, जैसे, श्रीराम का मंत्र, 'ॐ रामाय नमः', विष्णु का मंत्र, 'ॐ विष्णवे नमः', शिव का मंत्र 'ॐ नमः शिवाय' आदि। 

कहा जाता है कि 'ॐ' से रहित कोई मंत्र फलदायी नही होता, चाहे उसका कितना भी जाप हो। वैसे मंत्र के रूप में एकमात्र 'ॐ' भी पर्याप्त है। 'ॐ' का दूसरा नाम प्रणव (परमेश्वर) है। "तस्य वाचकः प्रणवः" अर्थात् उस परमेश्वर का वाचक प्रणव है। इस तरह प्रणव अथवा 'ॐ' एवं ब्रह्म में कोई भेद नहीं है। 'ॐ' अक्षर है इसका क्षरण अथवा विनाश नहीं होता। छान्दोग्योपनिषद् में ऋषियों ने कहा है, "ॐ इत्येतत् अक्षरः"। अर्थात्, 'ॐ' अविनाशी, अव्यय एवं क्षरण रहित है।

मूल ध्‍वनियों को जानें 


अ उ म् के मेल से ही बना है 'ॐ'। इनमें, "अ" का अर्थ है आर्विभाव या उत्पन्न होना, "उ" का तात्पर्य है उठना, उड़ना अर्थात् विकास, "म" का मतलब है मौन हो जाना अर्थात् "ब्रह्मलीन" हो जाना। 'ॐ' सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और पूरी सृष्टि का प्रतिबिंब है। 

ध्यान बिन्दुपनिषद् के अनुसार 'ॐ' मन्त्र की विशेषता यह है कि पवित्र या अपवित्र सभी स्थितियों में जो इसका जप करता है, उसे लक्ष्य की प्राप्ति अवश्य होती है। जिस तरह कमल-पत्र पर जल नहीं ठहरता है, ठीक उसी तरह जप-कर्ता पर कोई कलुष नहीं लगता। सनातन धर्म ही नहीं, भारत के अन्य धर्म-दर्शनों में भी 'ॐ' को महत्व प्राप्त है। बौद्ध-दर्शन में "मणिपद्मेहुम" का प्रयोग जप एवं उपासना के लिए प्रचुरता से होता है। इस मंत्र के अनुसार 'ॐ' को "मणिपुर" चक्र में अवस्थित माना जाता है। यह चक्र दस दल वाले कमल के समान है। जैन दर्शन में भी 'ॐ' के महत्व को दर्शाया गया है। 

श्रीगुरु नानक देव जी ने 'ॐ' के महत्व को प्रतिपादित करते हुए लिखा है, " इक ओंकार सतनाम करता पुरख निर्भौ निर्वैर अकाल मूरत....''। यानी 'ॐ' सत्यनाम जपने वाला पुरुष निर्भय, वैर-रहित एवं "अकाल-पुरुष के" सदृश हो जाता है। 'ॐ' इस अनंत ब्रह्माण्ड का नाद है (वैज्ञानिक और आध्‍यात्‍मिक दोनों रूपों में) एवं मनुष्य के अंत: स्‍थल में स्थित परम् ब्रह्म का प्रतीक।

ओम का महत्व | Importance of Om

ॐ की सार्थकता को व्यक्त करने से पूर्व इसके अर्थ का बोध होना अत्यंत आवश्यक है. ॐ की ध्वनि संपूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त है जो जीवन की शक्ति है जिसके होने से शब्द को शक्ति प्राप्त होती है यही 'ॐ का रूप है.
ॐ का उच्चारण तीन ध्वनियों से मिलकर बना यह है इन ध्वनियों का अर्थ वेदों में व्यक्त किया गया है जिसके अनुसार इसका उच्चारण किया जाता है. ध्यान साधना करने के लिए इस शब्द को उपयोग में लाया जाता है.
सर्वत्र व्याप्त इस ध्वनि को ईश्वर के समानार्थ माना गया है यही उस निराकार अंतहीन में व्याप्त है. ॐ को जानने का अर्थ है ईश्वर को जान लेना. समस्त वेद ॐ के महत्व की व्याख्या करते हैं. अनेक विचारधाराओं में ॐ की प्रतिष्ठा को सिद्ध किया गया है.
परमात्मा की स्तुति सृष्टि, स्थिति और प्रलय का संपादन इसी ॐ में निहीत है. सत्‌ चित्‌ आनंद की अनुभूति भी इसी के द्वारा संभव है. समस्त वैदिक मंत्रों का उच्चारण ॐ द्वारा ही संपन्न होता है. वेदों की ऋचाएं, श्रुतियां ॐ के उच्चारण के बिना अधूरी हैं.  भौतिक, दैविक और आध्यात्मिक शांति का सूचक मंत्र है यह ॐ. '
प्राण तत्व का उल्लेख करते हुए ॐ की ध्वनियों के साथ प्राण के सम्बन्ध को दर्शाया जाता है.
ॐ को अपनाकर ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है. साधना तपस्या के द्वारा ॐ का चिन्तन करके व्यक्ति अपने सहस्त्रो पापों से मुक्त हो जाता है तथा मोक्ष को प्राप्त करता है. इसे प्रणव मंत्र भी कहा जाता है. यह ब्रह्मांड की अनाहत ध्वनि है और संपूर्ण ब्रह्मांड में यह अनवरत जारी है इसका न आरंभ है न अंत. तपस्वी और साधक सभी इसी को अपनाते हुए प्रभु की भक्ति में स्वयं को मग्न कर पाते हैं. जो भी ॐ का उच्चारण करता रहता है उसके आसपास सकारात्मक ऊर्जा का संचार होने लगता है. ऊँ शब्द अ, उ, म इन तीनों ध्वनियों से मिलकर बना है जिन्हें ब्रह्मा, विष्णु और महेश का प्रतीक भी कहा जाता है.
ॐकार बारह कलाओं से युक्त माना गया है इसकी सभी मात्राएं महत्वपूर्ण अर्थों को व्यक्त करती हैं. इसकी बारह कलाओं की मात्राओं में पहली मात्रा घोषिणी है, दूसरी मात्रा विद्युन्मात्रा, तीसरी पातंगी, चौथी वायुवेगिनी, पांचवीं नामधेया, छठी को ऐन्द्री, सातवीं वैष्णवी, आठवीं शांकरी, नौवीं महती, दसवीं धृति, ग्यारहवीं मात्रा नारी और बारहवीं मात्रा को ब्राह्मी नाम दिया गया है. ॐ को अनुभूति से युक्त करने के लिए साधक अ एवं म अक्षर को पाकर ॐ को अपने भीतर आत्मसात करता है. प्रारम्भिक अवस्था में विभिन्न ॐ स्वरों में सुनाई पड़ती है परंतु धीरे-धीरे अभ्यास द्वारा इसके भेद को समझा जा सकता है. आरंभ में यह ध्वनि समुद्र, बादलों तथा झरनों से उत्पन्न ध्वनियों जैसी सुनाई पड़ती है लेकिन बाद में यह ध्वनि नगाड़े व मृदंग के शोर की ध्वनि सुनाई पड़ती है. और अन्त में यह यह मधुर तान जैसे बांसुरी एवं वीणा जैसी सुनाई पड़ती है.
ॐ के चिन्तन मनन द्वारा समस्त परेशानियों से मुक्त हो चित को एकाग्र करके साधक भाव में समाने लगता है. इसमें लीन व्यक्ति विषय वासनाओं से दूर रहता है और परमतत्त्व का अनुभव करता है. अनेक धार्मिक क्रिया कलापों में 'ॐ' शब्द का उच्चारण होता है, जो इसके महत्व को प्रदर्शित करता है. प्राचीन धार्मिक ग्रंथों के अनुसार ब्रह्मांड के सृजन के पहले यह मंत्र ही संपूर्ण दिशाओं में व्याप्त रहा है सर्वप्रथम इसकी ध्वनि को सृष्टि का प्रारंभ माना गया है. ॐ के महत्व को अन्य धर्मों ने भी माना है. ॐ से के उच्चारण से मन, मस्तिष्क में शांति का संचार होता है
ॐ के विविध अंगों का पूर्ण रूप से विवेचन एवं विश्लेषण किया गया है. जिसमें ॐ की मात्राएं इसकी सार्थकता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है यह एक रहस्यात्मक ज्ञान है  जिसे जो सहज भाव द्वारा ग्रहण कर सकता है वही परम सत्य को जान सकता है.

Friday, August 11, 2017

Ashatang Yog

सूत्र के रचनाकार पतंजलि को कौन नहीं जानता हैं पतंजलि को शेषनाग का अवतार कहा जाता हैं। भारतीय दर्शन साहित्य पतंजलि ने 3 प्रमुख ग्रन्थ लिखे हैं – योगसूत्र ग्रन्थअष्टाध्यायी पर भाष्य ग्रन्थ और आयुर्वेद पर ग्रन्थ।

पतंजलि ने ही सबसे पहले योग विद्या को व्यवस्थित रूप दिया था। पतंजलिअष्टांग योग के जनक हैं| पतंजलि के अष्टांग योग में धर्म और दर्शन की सभी  विद्याओं के समावेश के साथ-साथ आपके शरीर और मन के विज्ञान का भी मिश्रण हैं|

अष्टांग योग को राजयोग के नाम से भी जाना जाता है। योग के आठ अंगों में  सभी प्रकार के योग समल्लित हो जाते है। भगवान बुद्ध का आष्टांगिक मार्ग भी योग के उक्त आठ अंगों का ही भाग है। पतंजलि के ‘योग सूत्र’ ग्रन्थ में लिखित अष्टांग योग बुद्ध के आष्टांगिक मार्ग के बाद की रचना है।

अष्टांग योग :
अष्टांग योग से तात्पर्य योग के आठ अंगो से हैं। पतंजलि ने योग की सभी विद्याओं को आठ अंगों में विभाजित कर दिया था। 200 ईसा पूर्व के दौरान ही  पतंजलि ने योग क्रियाओ को योग-सूत्र नामक ग्रन्थ में लिपिबद्ध कर दिया था|  योग-सूत्र ग्रन्थ के रचनाकार होने की वजह से महर्षि पतंजलि को योग के पिता भी कहा जाता है।
पतंजलि के योग सूत्र में वर्णित ये आठ अंग हैं-

1)    यम
2)    नियम
3)    आसन
4)    प्राणायाम
5)    प्रत्याहार
6)    धारणा
7)    ध्यान
8)    समाधि

उपरोक्त आठ अंगों के अलावा इन अंगो के उप अंग भी हैं। लेकिन वर्तमान समय में  योग के तीन ही अंग प्रचलित हैं

1)    आसन
2)    प्राणायाम
3)    ध्यान मुद्राये

योग सूत्र : 200 ईसा पूर्व में महर्षि पतंजलि द्वारा लिखित 'योगसूत्रयोग दर्शन का पहला सबसे व्यवस्थित और वैज्ञानिक अध्ययन माना जाता है। योगदर्शन चार विस्तृत भाग में विभाजित हैं  इन भाग को  पद कहा गया है| ये चार पद निम्नलिखित हैं

1)    समाधिपद
2)    साधनपद
3)    विभूतिपद
4)    कैवल्यपद

समाधिपद का मुख्य विषय मन  की विभिन्न वृत्तियों का नियमित कर समाधि के द्वारा आत्म साक्षात्कार को करना है। साधनपद में पाँच बहिरंग साधन- यम,नियमआसनप्राणायाम और प्रत्याहार का पूर्ण वर्णन है। विभूतिपद में अंतरंग तीन धारणाये  ध्यान और समाधि का पूर्ण वर्णन है। इसमें योग को करने से प्राप्त होने वाली सभी सिद्धियों का भी वर्णन किया हुआ है| कैवल्यपद मुक्ति की वह सबसे उच्च अवस्था है जहाँ एक योग साधक अपने जीवन के मूल स्रोत से एकीकरण हो जाता है।

महर्षि पतंजलि ने दुसरे और तीसरे पद में अष्टांग योग साधन का उपदेश दिया हैउसका संक्षिप्त विवरण निम्न है:-

1)    यम: शरीर की, वाणी की और मानसिक शांति के लिए अहिंसा का मार्ग अपनानाझूठ न बोलनाचोरी न करनाब्रह्मचर्य आदि का पालन करना  आदि पाँच आचरण हैं। इनका पालन जो मनुष्य नहीं करता हैं वह व्यक्ति अपने जीवन और समाज दोनों को दुष्प्रभावित करता हैं।

2)  नियम: मनुष्य को कर्तव्य का पालन करना तथा जीवन को सुव्यवस्थित तरीके से चलने हेतु कुछ नियमों का पालन किया जाता है। इनके अंतर्गत शौच या शारीरिक शुद्धिसंतोष करनातप करना,स्वाध्याय में तल्लीन रहना  तथा ईश्वर का समावेश है। शौच में बाह्य तथा आन्तरिक दोनों ही प्रकार की शुद्धि सम्मिलित है।

3)    आसन: पतंजलि ने स्थिर तथा सुखासन में बैठने की क्रिया को आसन के नाम से सम्बोधित किया है। वास्तव में अष्टांग आसन हठयोग का एक मुख्य विषय ही तो है।

4)    प्राणायाम: योग में नाड़ी के साधन और उनकी जागृति के लिए किया जाने वाला सांसों को अन्दर और बहार छोड़ना ही प्राणायाम है। प्राणायाम मन की चंचलता पर अंकुश लगाने और मन को अकग्र करने में बहुत सहायक है।

5)    प्रत्याहार: इंद्रियों को विषयों से दूर हटाने का नाम ही प्रत्याहार है। प्रत्याहार के माध्यम से इन्द्रियो पर विजय पाई जा सकती हैं|

6)    धारणा: मन को एक स्थान पर पूर्णत: केंद्रित करना ही धारणा है।

7)    ध्यान: जब ध्येय वस्तु का स्मरण करते हुए मन को उसी दिशा में एकाग्र कर लिया जाता है तो उसे ध्यान कहते हैं। पूर्ण ध्यान की स्थिति में आपका ध्यान किसी एक विषय पर पूर्णतया केन्द्रित हो जाता हैं|

8)    समाधि: यह आपके मन की वह अवस्था है जिसमें आपका मन पूरी तरह से ध्येय वस्तु के चिंतन में तल्लीन हो जाता है। किसी और विषय-वस्तु में उसका मन नहीं भटकता हैं योग दर्शन में समाधि के द्वारा ही मोक्ष प्राप्ति संभव है।



उक्त आठ अंगों के अपने-अपने उप अंग भी हैं। वर्तमान में योग के तीन ही अंग प्रचलन में हैं- आसन, प्राणायाम और ध्यान। अब Ashtanga Yoga in Hindi के आठ अंगों की बात करते हैं। यम ,पांच हैं, – अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य ,और अपरिग्रह। इसी तरह नियम भी पांच होते हैं। ये हैंशौच (तन मन की शुद्धि करना), संतोष, तप, स्वाध्याय (खुद को जानना कि मैं कौन हूं) और ईश्वरप्राणिधान (ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण) आसन का मतलब है, बिना हिले-डुले सुख से बैठना। प्राणायाम में शरीर को चलाने वाली प्राणऊर्जा को बढ़ाकर काबू में किया जाता है। इसी तरह प्रत्याहार में बाहरी विषयों से मन इंद्रियों को हटाया जाता है और धारणा में भटकते मन को एक स्थान पर लाया जाता है। इसके बाद बारी आती है ध्यान की, जिसका मतलब है अपने स्वरूप का अनुभव करना। अंतिम पायदान है समाधि यानी अपने शुद्ध आत्मस्वरूप में ही टिके रहना।
यम
कायिक, वाचिक तथा मानसिक इस संयम के लिए अहिंसा, सत्य, अस्तेय चोरी करना, ब्रह्मचर्य जैसे अपरिग्रह आदि पाँच आचार विहित हैं। इनका पालन करने से व्यक्ति का जीवन और समाज दोनों ही दुष्प्रभावित होते हैं।
नियम
मनुष्य को कर्तव्य परायण बनाने तथा जीवन को सुव्यवस्थित करते हेतु नियमों का विधान किया गया है। इनके अंतर्गत शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर प्रणिधान का समावेश है। शौच में बाह्य तथा आन्तर दोनों ही प्रकार की शुद्धि समाविष्ट है।
आसन
पतंजलि ने स्थिर तथा सुखपूर्वक बैठने की क्रिया को आसन कहा है। परवर्ती विचारकों ने अनेक आसनों की कल्पना की है। वास्तव में आसन हठयोग का एक मुख्य विषय ही है। इनसे संबंधितहठयोग प्रतीपिका’ ‘घरेण्ड संहितातथायोगाशिखोपनिषद्में विस्तार से वर्णन मिलता है।
प्राणायाम
योग की यथेष्ट भूमिका के लिए नाड़ी साधन और उनके जागरण के लिए किया जाने वाला श्वास और प्रश्वास का नियमन प्राणायाम है। प्राणायाम मन की चंचलता और विक्षुब्धता पर विजय प्राप्त करने के लिए बहुत सहायक है।

प्रत्याहार
इंद्रियों को विषयों से हटाने का नाम ही प्रत्याहार है। इंद्रियाँ मनुष्य को बाह्यभिमुख किया करती हैं। प्रत्याहार के इस अभ्यास से साधक योग के लिए परम आवश्यक अन्तर्मुखिता की स्थिति प्राप्त करता है।
धारणा
चित्त को एक स्थान विशेष पर केंद्रित करना ही धारणा है। वैसे तो शरीर में मन को स्थिर करने मुख्य स्थान मस्तक, भ्रूमध्य, नाक का अग्रभाग, जिह्वा का अग्रभाग, कण्ठ, हृदय, नाभि आदि हैं परन्तु सर्वोत्तम स्थान हृदय को माना गया है। हृदय प्रदेश का अभिप्राय शरीर के हृदय नामक अंग के स्थान से हो कर छाती के बीचों बीच जो हिस्सा होता है उससे है।
ध्यान
जब ध्येय वस्तु का चिंतन करते हुए चित्त तद्रूप हो जाता है तो उसे ध्यान कहते हैं। पूर्ण ध्यान की स्थिति में किसी अन्य वस्तु का ज्ञान अथवा उसकी स्मृति चित्त में प्रविष्ट नहीं होती।
समाधि
यह चित्त की अवस्था है जिसमें चित्त ध्येय वस्तु के चिंतन में पूरी तरह लीन हो जाता है। योग दर्शन समाधि के द्वारा ही मोक्ष प्राप्ति को संभव मानता है।
समाधी की दो श्रेणियाँ होती है, सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात| सम्प्रज्ञात समाधि का मतलब वितर्क, विचार, आनंद से है और असम्प्रज्ञात में सात्विक, राजस और तामस सभी प्रकार की वृतियों की रोकधाम हो जाती है|


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