Saturday, July 27, 2019

DHYAN

अध्यात्म में ध्यान के ऊपर बहुत चर्चा की गई है और वास्तव में ध्यान ही अध्यात्म का सार है। ध्यान क्या है इसके बारे में समझने के लिए कहा जा सकता है कि व्यक्ति हर समय कुछ ना कुछ ध्यान अर्थात चिंतन करता ही रहता है। मनुष्य यदि इस ध्यान को ही प्रभु की ओर लगा दें तो वह ब्रह्मस्वरूप हो जाता है। अंतर की ओर लगाया गया ध्यान आंतरिक आध्यात्मिक जागृति का कारण  बन जाता है। वास्तव में ध्यान द्वारा पूर्ण रुप से निर्विचार होकर समाधिस्थ हो जाना ही ध्यान की पराकाष्ठा है।
अंग्रेजी में ध्यान को मेडिटेशन (Meditation) कहते हैं। हिंदी में इसको बोध का आ जाना कहा जा सकता है। अर्थात इंसान का होश में आ जाना ही ध्यान की प्राप्ति है। इसके लिए हम दूसरे शब्द भी प्रयोग में ला सकते हैं - होश, साक्षीभाव बोध, दृष्टा भाव आदि।  ध्यान ही एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा मनुष्य अपनी आत्मा को इस लोक से अमरलोक ले जा सकता है। ध्यान के द्वारा मनुष्य की चित्तवृति एकाग्रचित हो जाती है अर्थात ध्यान द्वारा चित्त ठहर जाता है। ध्यान करने से एक योगी की आंतरिक आध्यात्मिक शक्तियां इतनी बढ़ चले जाती हैं कि ब्रह्मांड की हर वस्तु उसकी पकड़ के अंदर आ जाती है। 
कुछ व्यक्ति विभिन्न क्रियाओं को ही ध्यान समझने लगते हैं जैसे की सुदर्शन क्रिया आदि और व्यक्ति इन विधियों को ही ध्यान करने की भूल कर बैठता है।  बहुत से गुरू, महात्मा तथा संत ध्यान करने की विभिन्न प्रकार की विधियां बताते हैं। लेकिन वह ध्यान और इन विधियों के अंतर को स्पष्ट नहीं बताते। वास्तव में ध्यान और इन क्रियाओं में अंतर है। क्रिया तो एक हथियार के समान है क्रिया एक साधन है जो कि साध्य नहीं है।  सिर्फ आंखें  बंद कर लेना और विशेष मुद्रा में बैठ जाना ही ध्यान नहीं है। किसी मूर्ति आदि का ध्यान करना तथा माला जपना भी ध्यान नहीं कहा जा सकता। 
हमारे अंतर्मन में हमेशा विभिन्न प्रकार की कल्पनाएं तथा विचार आते रहते हैं जिससे कि मन मस्तिष्क में हमेशा एक कोलाहल जैसी स्थिति बनी रहती है। कभी कभी जीवन में किसी दुखद घटना को हम याद नहीं करना चाहते लेकिन वह हमें बार-बार याद आती रहती है और चाह कर भी हम उससे अलग नहीं हो पाते। हम नहीं चाहते कि ऐसे विचार हमारे मन-मस्तिष्क में आए लेकिन यह बार-बार आते ही रहते हैं और इससे हमारा मस्तिष्क और हम स्वयं ही कमजोर होते जाते हैं। ध्यान द्वारा हम इन अनचाही कल्पना तथा विचारों से अपने मन को हटाकर शुद्ध तथा निर्मलकर आध्यात्मिक स्थिति को प्राप्त कर सकते हैं। ध्यान जैसे-जैसे अपनी पराकाष्ठा को प्राप्त करता है साधक साक्षी भाव में स्थित होता जाता है। एक समय आता है कि साधक के ऊपर विचार कल्पना तथा भावों का किसी प्रकार का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। मस्तिष्क तथा मन एकदम शांत हो जाता है जो वास्तव में ध्यान का प्रारंभिक एवं मूलभूत स्वरूप होता है। हमारे दैनिक जीवन में विभिन्न प्रकार के अतीत के सुख दुख के विचारों में खोए रहना या विभिन्न कल्पनाओं में खोया रहना या विभिन्न प्रकार की लोभ लालचकारी  आकांक्षाओं में खोया रहना, ध्यान प्रक्रिया के लिए बाधक सिद्ध होता है। इसके बारे में हाथरस वाले संत तुलसी साहिब जी ने कहा है:
चश्म दिल से देख तू, क्या क्या तमाशे हो रहे ।
दिल सतां क्या क्या है, तेरे दिल सताने के लिए ।
ध्यान गैरों का उठा, उसके बैठने के लिए ।
एक दिल लाखों तमन्ना, उसपे भी ज्यादा हवस ।
फिर ठिकाना है कहाँ, उसको बैठने के लिए ।
ध्यान द्वारा मन, इंद्रियां, बुद्धि, चित्त और अहंकार आदि सब आत्मा में लीन हो जाते हैं तथा साधक के अंदर दृष्टा भाव अर्थात साक्षीभाव आ जाता है। ध्यान करते करते ध्यान की गहनता से इंसान ऐसी अवस्था में चला जाता है जहां मनुष्य का शरीर तो सो जाता है लेकिन मनुष्य की चेतनता आंतरिक रुप से पूर्ण रुप से जागृत हो जाती है। साधक त्रिकालदर्शी हो जाता है। साधक अपने अंतर में विभिन्न प्रकार के दिव्य मंडलों के दर्शन करने लगता है, जहाँ उसे अद्भुद नज़ारे भी देखने को मिलते है तथा उनकी यात्राए करता है। इन यात्राओं के उपरांत साधक एक ऐसी यात्रा पर निकलता है जहाँ दिव्य मंडलों के नज़ारे भी नहीं रहते हैं। वहाँ दृश्य भाव समाप्त हो जाता है अब वह अद्वैत में प्रवेश करता है जिसके फलस्वरूप सम्पूर्ण मोक्ष प्राप्त करता है। इसके लिए एक सक्षम तथा पूर्ण सद्गुरु की आवश्यकता होती है क्योंकि यह सब पूर्ण सद्गुरु की कृपा से ही संभव है। यह स्थिति कुछ इस प्रकार है:
अब कह कहौं कछु कहि न जाय । जब हम तुम तुम हम रहे बिलाय ॥
जस लवन परयो है सिंधु माहि । जेहि खोजत पावत कछुक नाहि ॥
अस जीव ब्रह्म को मिटयो भेद । संसार भरम को भयो निषेध ॥
जस बरफ रूप अरु जलाकार । दोऊ भिन्न भिन्न दीखत न सार ॥
जस खंड खिलौना रूप रंग । बहु भौतिन्ह कर आकार ढंग ॥
जब खाँड गली है मिटा भेक । तब खाँड खिलौना एक मेक ॥
जस ताने बाने एक सूत । अस ब्रहमहि दरसे जीवभूत ॥
कहते संत आतम परकास । ज्यों घट बाहर भीतर अकास ॥
साधक अपने आप में तथा ब्रह्म में एकरूपता महसूस करने लगता है। इस स्थिति को हम इस प्रकार भी समझ सकते हैं जैसे एक स्त्री ने सपने में देखा कि उसका शिशु गुम हो गया है और वह परेशान है। जैसे ही उस स्त्री की घबराहट में नींद खुली तो देखा कि बेटा तो पास ही में सोया है। इसी तरह परमात्मा अपने अंदर से ही प्रकट हो जाता है। लेकिन साधारण इंसान अज्ञानता के कारण मन के भ्रम जाल के कारण प्रभु को कहीं दूर ही समझता है। 
ज्यों तिरिया सपने सुत खोयो, सपने में अकुलायी । 
जाग परी पलंग पर पायो, न कहीं गयो न आयो ॥ 
संत कबीर जी ने भी कहा है कि मृग की नाभि में सुगंध फैलाने वाली कस्तूरी होती है परंतु वह यह भ्रम में रहता है कि शायद सुगन्ध जंगल से आ रही है और वह इस सुगन्ध की तलाश में जंगल में इधर उधर घूमता रहता है।
मृगा नाभि बसे कस्तूरी, वन वन खोजत धाये ॥
संत नानक देव जी महाराज ने इस विषय में फरमाया है कि:
परम समाधि की जो मिति जानै । परम तत्त कौ तबहि पछानै ॥
परै ते परै पर मिति जब आवै । तब नानक परम समाधि समावै ॥
शब्दि नादु की सुरति समावै । नानक सुन्न समाधि लगावै ॥
सर्ब निरंतरि अलखु परधाने । एको एकी ब्रह्म पछानै ॥
सप्त ध्यान धरै मन मारि । तब लागी धुन शब्द मँझारि ।
काटि कर्म होवै नि:कर्मा ।
आवागवन मिटै गुर धरमा ।
पारसु परसि परम पदु पावै ।
नानक सुन्न समाधि लगावै ।
संत पलटू साहिब जी महाराज ने इस विषय में फरमाया है कि:
बांध सुरत की डोरी सब्द में पिलैगा ।
अरे हाँ पलटू ज्ञान ध्यान के पार ठिकाना मिलैगा ॥
लागी सहज समाधि सब्द ब्रह्माण्ड में फूटा ॥
संत कबीर साहिब जी महाराज ने इस विषय में फरमाया है कि:
सतगुरु मिले जेहि देहि लखाई । सुरति निरंतर ध्यान बताई ।
मकर तार तहँ लागी डोरी । पहुंचे हंस नाम की सोरी ।
जब लग ध्यान विदेह न आवे । तब लग जिव भव भटका खावे ।
ध्यान विदेह और नाम विदेहा ? दोउ लखि पावे मिटे संदेहा ।
कहे कबीर मुक्ति तब पावे । सुरति निरति ले तब समावे ।
उन्मुनि ध्यान रहो लौ लाई । अजपा जपो सदा दिल भाई ।
सहज शून्य जो ध्यान लगावै । भवजल तरत वार नहिं लावै ।
सुरति शब्द लै सहज समावै । सहज समाधि परमपद पावै ।
जब भी हम कोई कार्य करते हैं तो हमारी ऊर्जा बाहर की ओर चलती है अर्थात गति करती है लेकिन जब हम कुछ भी नहीं करते तो यही ऊर्जा अंतर्मुखी हो जाती है। इसी का उपयोग ध्यान के समय होता है। असलियत में ध्यान एक ऐसी अवस्था है जिसमें मनुष्य को कुछ भी नहीं करना होता है अर्थात उसको अपने आप में पहले खाली होना होता है। तब ध्यान अपने आप में घटित हो जाता है। इसको ऐसे कहा जाता है कि बिना कुछ करे सब कुछ हो जाता है। ध्यान में जब ऐसी अवस्था आती है कि आप कुछ भी नहीं कर रहे होते तब ही वह ध्यान का फूल हमारे अंदर खिलता है अर्थात शारीरिक रूप से भी हम कुछ भी ना करें, मन से भी कुछ ना करें, इंद्रियों से भी कुछ नहीं करें  और पूर्ण रुप से विचार शून्य हो जाए। 
इसको हम दूसरे शब्दों में इस प्रकार भी कह सकते हैं कि कुछ करना अर्थात अंतर से बाहर की ओर जाने का रास्ता अपनाना और कुछ नही करना बाहर से अंदर की ओर जाने का रास्ता अपनाना। वास्तव में अंतर में ही असलियत है बाहर तो सब झूठा और नाशवान है। अंतर में जाना यह बहुत बड़े धैर्य का कार्य है क्योंकि विचार और भाव धीरे धीरे ही गायब होते हैं। ध्यान में शुरूआती अवस्था में प्राय: अंधकार ही नजर आता है क्योंकि हम उस प्रकाश को देखने के लिए अभ्यस्त नहीं है और हमारी एकाग्रता नही बनी होती है जो कि अभ्यास द्वारा धीरे धीरे आती है। इसको हम एक उदाहरण के माध्यम से समझ सकते हैं। यदि आप बाहर धूप की रोशनी से जाकर अपने कमरे के अंदर जाते हैं तो आपको अपने कमरे के अंदर अंधेरा ही नजर आता है। लेकिन अगर आप वहाँ शांति से कुछ देर बैठ जाएं तो आप को वहाँ रखी सभी वस्तुएं साफ-साफ नजर आने लगती है। इसी प्रकार ध्यान में भी  धैर्य की आवश्यकता है। ध्यान में आपके विचार और भाव इसी प्रकार गायब होने लगते हैं तो आप प्रकाश की ओर बढ़ने लगते हैं। यह गहराई में बहुत अधिक प्रतीक्षा करने वाली जैसी स्थिति होती है। अपने आपको जानने के लिए बहुत अधिक धैर्य की आवश्यकता पड़ती है। धैर्य के साथ ध्यान करते-करते आपको एक मंदम मंदम सा प्रकाश नजर आने लगता है। इस प्रकाश का अंदाजा आप लगा सकते हैं उस प्रकाश से जो भोर में सूर्योदय से पहले आकाश में नज़र आता है । यह वास्तव में सूरमाओं का कार्य है। यह बहुत ही साहस का कार्य है। यहाँ से शुरू कर एक साधक गुरु कृपा तथा मेहनत से अधिक प्रकाश की ओर बढ़ाने लगता है। साधक समाधिस्थ होने लगता है उसका शरीर सुन्न होने लगता है तथा वह शरीर से निकाल कर अंतरीय मंडलों की यात्रा करने लगता है। एक अवशठा ऐसी आती है जब साधक अंतरीय मंडलों को भी पर लेता है और माया के घेरे से पार होकर परम पिता परमेश्वर के साथ अखंड आनंद में विलीन हो जाता है। कार्य कठीन है लेकिन जिसको प्रभु प्राप्ति की चाह है वह इसे गुरु कृपा से आसानी से कर जाता है। इसी संबंध में संत कबीर साहब जी ने कहा है :
कामी क्रोधी लालची इनसे भक्ति न होय । 
भक्ति करे कोई सूरमा जाति बरन कुल खोय ॥ 

ध्यान की पराकाष्ठा


साधक जब ध्यान की गहराई में पहुंचता है तो विदेह हो जाता है कबीर साहिब जी इस संबंध में बताते हैं कि विदेही साधक के सभी भ्रम संताप समाप्त हो जाते हैं। साधक विदेह होने की स्थिति को पूर्ण सद्गुरु द्वारा प्रदत्त विदेह नाम की सहायता से ही प्राप्त कर सकता है। यह ऐसा नाम है जिसको अक्षरों द्वारा लिखा नहीं जा सकता है, न इसको बोला जा सकता है। यह कोई मंत्र या शब्द नहीं है क्योंकि कहा गया है “जित्ते मंत्र जगत के माही, सतलोक पहुँचावत नाही”। यदि साधक का ध्यान विदेह में एक क्षण के लिए भी अवस्थित हो जाता है तो वह अखंड आनंद की अनुभूति को पा लेता है जो चिर स्थायी रहती है । अत: इस दुनिया का कोई भी मंत्र या शब्द साधक को ध्यान की पराकाष्ठा तक ले जाने में सक्षम नहीं है। संत कबीर कहते हैं :
जब लग ध्यान विदेह न आवे । तब लग जीव भव भटका खावे ॥
ध्यान विदेह और नाम विदेहा । दौउ लखि पावे मिटे संदेहा ॥
छिन एक ध्यान विदेह समाई । ताकि महिमा वरणि न जायी ॥
काया नाम सबै गोहरावे । नाम विदेह विरला कोई पावे ॥
बिनु रसना के नाम जाप समाई । तासो काल रहे मुरझाई ॥
नहि वह शब्द न सुमिरन जापा । पुराण वस्तु काल दिखलापा ॥
सूक्ष्म सहज पंथ है पूरा । ता पर चढ़ो रहे जन सूरा ॥
सार नाम सद्गुरु से पावे । नाम डोर गही लोक सीधे ॥
धर्मराय ताको सिर नावे । जो हंसा नि:तत्व समावे ॥
सार शब्द विदेह स्वरूपा । नि: अक्सर वह रूप अनूपा ॥
तत्व प्रकृति भाव सब देहा । सार शब्द नि:तत्व विदेहा ॥
किसी संत ने बहुत ही खूबसूरत लिखा है:
राम खुदा कहैं सब, नाम कोई बिरला नर पावै ॥
है बिन अक्षर नाम, मिलै बिना दाम सदा सुखकारी ॥
वाई शख्स को मिलै, जिन आस मारी ॥
बहुतक शौरा लिए कमंडल, कहै बहु वाणी ॥
चेतन ब्रह्म ताही नहीं जानी ॥
लंबे केश, संत के भेष, दृव्य हरी लेत ॥
मंत्र दे कानन भरमावै ॥
ऐसे गुरु मत करै, फंद मत पड़े, मंत्र सिखलावै ॥
जब रूक जाये कंठ, मंत्र काम नहीं आवे ॥
ऐसे गुरु कर ले भृंग, सदा रहे जो संग, लोक चौथा दर्शावै ॥
राम खुदा कहै सब, नाम कोई बिरला नर पावै ॥
इसी नि:अक्षर शब्द के बारे में बहुत से संतो ने वर्णन किया है। उन्होने स्पष्ट कहा है कि मुक्ति प्रदान करने वाला शब्द अक्षरों के परे है। कहा है कि –
मेरुदंड पे डारी दुलेची, जोगी तारी लाया ॥
ता सुमिर की खाक उढ़ानी, तो कहाँ है रैन तुम्हारी ॥
इंगला बिनशै पिंगला बिनशै, बिनशै सुषमना नाड़ी ॥
जब त्रिकुटी की खाक उढ़ानी, तो कहाँ है रैन तुम्हारी ॥
अद्वैत बैराग कठिन है भाई, अटके मुनिवर जोगी ॥
अक्षर ही को सत्य बतावै, ऐसे झूठे मुक्त वियोगी ॥
अक्षरतीत शब्द एक बाका, अजपहु ही की जो है नाका ॥
उर्द्ध में रहे अर्द्ध में आवै, तब जाये ॥
ता लखे जो जोगी, फिर जन्म नहीं होये ॥
उक्त सभी वाणियों से स्पष्ट हो जाता है कि यदि कोई तथाकथित संत महात्मा आपको मंत्र आदि के जाप से परमात्मा प्राप्ति का रास्ता बताता है तो यह निरर्थक ही है। जिससे साधक की मेहनत बेकार ही जाती है क्योंकि सही युक्ति से ही मुक्ति है। ध्यान करने के मार्ग के बारे में हमारी वैबसाइट के “मूलभूत जानकारी” कॉलम के अंतर्गत दीक्षाएं नाम लेख से अधिक जानकारी प्राप्त की जा सकती है ।

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