Wednesday, July 24, 2019

YOG AUR VIGYAN

विज्ञान और योग में यदि देखा जाए तो कोई विशेष अंतर नहीं है। हालांकि विज्ञान जहां समाप्त होता है, योग वहीं से प्रारंभ होता है। खोजी मन यदि इस बात का चितंन करे तो पाएगा कि विज्ञान बाहर की ओर कार्यरत है, जबकि योग अंदर की ओर। अर्थात विज्ञान भौतिक जगत को आगे बढ़ता है, जबकि योग मनुष्य को प्रकृति से जोड़ता है। ऐसा माना जाता है कि मनुष्य प्रकृति का ही एक अंग है। जब विज्ञान जनित वस्तुएं मनुष्य को इससे विमुख करने लगी हैं तो योग ही वह मार्ग है जिसे अपना कर मनुष्य फिर प्रकृति के साथ जुड़ सकता है। इस बात को इस तरह से समङों कि मेरुदंड के दोनों धनात्मक और ऋणात्मक विद्युत प्रवाह अनवरत चलते रहते हैं, जिसे पिंगला और इड़ा कहते हैं। विज्ञान उसे प्रोटॉन और इलेक्ट्रॉन कहता है। विज्ञान के शोध की तरह योगीजन अपनी ऊर्जा को निरुद्देश्य बर्बाद न करके उध्र्व प्रवाह देकर कुंडलिनी जाग्रत करते हैं। यह योगी पर आधारित है कि वह अपनी ऊर्जा का प्रयोग किस प्रकार करता है। इसी से योगियों के स्वभाव में परिवर्तन हो जाता है। इस स्वभाव के दो क्रियात्मक रूप हैं-एक गति का और दूसरा अवरोध का। विज्ञान के अनुसंधानकर्ता अंतरिक्ष में यही कर रहे हैं। यूरेनियम ईंधन से न्यूट्रॉन का योग मिलकर शीतल जल का प्रवाह होता है वहीं संघात करके प्लूटोनियम का निर्माण होता है जो रक्षात्मक भी है और संहारक भी। योगी अपनी शक्ति को गति देकर, संकल्प को प्राप्त कर, समय-समय पर शब्दों के माध्यम से सदुपयोग कर लेते हैं, जबकि विज्ञान इसे एकत्र कर दुनिया को मौत का भय दिखाता है।१विज्ञान ने अपनी खोज के लिए भिन्न-भिन्न नियमों, सूत्रों और तरह-तरह की प्रयोगशालाएं बनाई हैं और योग ने भी भिन्न-भिन्न क्रियाओं को जन्म दे रखा है। प्रयोगकर्ता अपने संरक्षक के सानिध्य में रहकर धीरे-धीरे प्रयोग करके अपनी खोज में सफलता पा सकता है। कर्म योग, भक्ति योग, राज योग, क्रिया योग, भाव योग, लय योग, ज्ञान-योग आदि अनेक योग आज मनुष्य के जीवन क्रम में घर बनाए बैठे हैं। योग हमारे जीवन में बोधितत्व का मार्ग प्रशस्त करता है। योग जीवन का आधार है। इसलिए इसके महत्व को समझकर इसे जीवन में उतारने का प्रयास जरूर करें।
महायोगी पायलट बाबा

योग आत्मा का विषय है जो स्वानुभूति कराता है। मानव के विचारों को एकाग्र कर भौतिक से सूक्ष्म, सूक्ष्म से अतिसूक्ष्म तक ले जाकर आत्मीय-बोध कराता है। योग का संबंध अंत:करण और बाह्य दोनों से है। योग मानव को इहलौकिक और पारलौकिक दोनों की यात्र कराता है। योग शरीर, मन और इंद्रियों की क्रिया है। एकमात्र योग ही ऐसी क्रिया है जो मन को वश में करने का मार्ग बताती है। योग जन्म से ही प्राप्त है। आसन-योग नहीं है। यह योग की एक बहिमरुखी क्रिया है जो शरीर को स्वस्थ रखती है, परंतु आसन को ही लोगों ने योग समझ लिया है। वैसे तो योग अनेक हैं और इसके सहयोग के बगैर बोधितत्व सत्य की प्राप्ति भी नहीं है। इसीलिए भक्ति के साथ योग है, ज्ञान के साथ भी योग है, क्रिया के साथ भी योग है, संकल्प के साथ भी योग है। 
योग एक विज्ञान है, जीवन जीने की विधि है। योग एक व्यवस्थित नियम को प्रतिपादित करता है। योग शरीर को अनुशासित ढंग से रखता है। मन को उद्देश्यपूर्ण दिशा में चलने का बोध देता रहता है। योग एक प्रयोग भी है, क्योंकि यही मनुष्य को प्रकृति के अनुकूल चलने के लिए प्रेरित करता है। विचार गति है, भाव उत्पत्ति है और शब्द अभिव्यक्ति है। योग में सबका अपना महत्वपूर्ण योगदान है। यह पूरी तरह से शरीर के धर्म का प्रकृति के अनुकूल बोध कराता है। 
मानव शरीर में ही संपूर्ण ब्रrांड का वैभव छिपा है। जिसे पहचानना और जानना आवश्यक है। संपूर्ण ब्रrांड की चेतना और प्रारूप को पाकर भी मानव सांसारिक वाटिका में भटकता रहता है। आकाश और घटाकाश का भेद जानते हुए भी मनुष्य ब्रrा और काया का विमोचन नहीं कर पाता। किनारे की खोज में लक्ष्य के भेदन में सामंजस्य स्थापित करता हुआ, वह स्वत: एक दिन अपने आपको जीवन तट पर खड़ा पाता है। समय दूर फेंक देता है, जीवन ढलने लगता है। तब व्यक्ति जन्म के उद्देश्य को लेकर प्रायश्चित करने लगता है, लेकिन तब वक्त समझौता करना छोड़ देता है। नदियों में जब पानी का बहाव रुक गया तब संगम स्थल तक नहीं पहुंचने के लिए पश्चाताप करने के सिवाय है ही क्या? इसलिए मेरा संदेश है कि योग को माध्यम बनाकर आज और अभी से शरीर रूपी प्रयोगशाला का उपयोग कर सदैव संकल्पित स्वरूप को प्राप्त कर ब्रह्ममय जीवन जिएं

विज्ञान और योग ‌- मंजिल एक ही, पर अलग हैं राहें


वास्तव में देखा जाए तो आध्यात्म का विज्ञान के साथ कोई पंगा नहीं है। विज्ञान किसी आध्यात्मिक प्रक्रिया से अलग नहीं है। बस इसमें इस्तेमाल होने वाले तरीके और दृष्टिकोण अलग हैं, लेकिन बुनियादी तौर पर दोनों ही अस्तित्व की प्रकृति को जानना चाहते हैं।
अज्ञात की खोज में विज्ञान एक खास दिशा में आगे बढ़ रहा है। जैसे-जैसे विज्ञान प्रगति कर रहा है, उसकी कोशिश है कि वह हर चीज को ज्ञान में बदल दे।
विज्ञान किसी आध्यात्मिक प्रक्रिया से अलग नहीं है। यहां विज्ञान से मेरा मतलब मौलिक विज्ञान से है। हां, तकनीक से समस्या जरूर है, क्योंकि कई तकनीकें साफतौर पर हानिकारक हैं।
जो कुछ भी अपरिचित है, हम उससे परिचित होना चाहते हैं। इसलिए पिछले सौ-डेढ़ सौ सालों में वैज्ञानिक समुदाय ने एक असाधारण प्रयास किया है। हमने तरह-तरह के ऐसे उपकरणों का आविष्कार किया है, जो तीसरी आंख की तरह काम करते हैं। इनसे हम उन वस्तुओं को भी देख सकते हैं, जिन्हें नंगी आंखों से नहीं देखा जा सकता। फिर चाहे वह सूक्ष्मदर्शी हो या दूरबीन, ये सभी विज्ञान की तीसरी आंख हैं। लेकिन इन यंत्रों की मदद से सूक्ष्म जीवों से लेकर तारों और आकाशगंगाओं तक को देख लेने पर भी कुछ सार्थक जानकारी हासिल नहीं हो सकी है, बल्कि इन चीजों की वजह से जिंदगी पहले से ज्यादा रहस्यमय हो गई है।
जब आप रात में आकाश की तरफ देखते हैं तो आपको कितने तारे दिखाई देते हैं? क्या आपने कभी उन्हें गिनने की कोशिश की है? मैंने की है। जब मैं छोटा था तो मैंने तारों को गिनने की भरपूर कोशिश की थी और लगभग तीन-चार हजार तारे गिन भी लिए थे। पर गिनते-गिनते वे सब गड्डमड्ड हो गए। लेकिन मुझे लगता है कि वहां करीब आठ हजार तारे और हो सकते हैं। हम अपनी नंगी आंखों से शायद दस से पंद्रह हजार तारे देख सकते हैं। लेकिन आज हमारे पास शक्तिशाली टेलिस्कोप हैं, जिनकी मदद से हम दो खरब से भी ज्यादा तारे देख सकते हैं। सवाल यह है कि इन सबके बावजूद इस संसार का रहस्य कम हुआ है या और बढ़ गया है? बढ़ गया न? आप वैज्ञानिक प्रक्रिया को जितना सुलझाते हैं, यह संसार उतना ही रहस्यपूर्ण होता चला जाता है।
अगर आप सौ साल पहले किसी पत्ते को देखते, तो आपको वह सिर्फ एक पत्ता नजर आता। लेकिन आज यह सिर्फ पत्ता नहीं है। हम इस बात से परिचित हैं कि उस पत्ते में अनगिनत तरह की चीजें चल रही हैं, लेकिन फिर भी हम उस पत्ते को पूरी तरह नहीं जानते।
तो ज्ञान तक पहुंचने के ये तरीके - जिंदगी को उधेडक़र के, उसका चीड़-फाड़ करके जानने की कोशिश करना - कारगर नहीं हैं।
यह आध्यात्मिक खोज से खास अलग नहीं है। बस इसमें इस्तेमाल होने वाले तरीके और दृष्टिकोण अलग हैं, लेकिन बुनियादी तौर पर दोनों ही अस्तित्व की प्रकृति को जानना चाहते हैं।
क्योंकि हम जिंदगी की तहों को जितना खोलते हैं, ये उतनी ही जटिल होती जाती है। अगर विज्ञान की कोई तकनीकी उपशाखा नहीं होती, अगर इससे किसी भी तरह के फायदे नहीं होते, तो विज्ञान को पूरी तरह से एक निरर्थक प्रयास समझकर खारिज कर दिया गया होता। आज दुनिया के ज्यादातर लोग असली विज्ञान से अनजान हैं। वे बस टेक्नोलॉजी यानी तकनीक को ही जानते हैं, क्योंकि वे उसी का आनंद ले रहे हैं। तकनीक विज्ञान की एक शाखा है, उसका परिणाम है, लेकिन विज्ञान नहीं है।
वास्तव में देखा जाए तो आध्यात्म का विज्ञान के साथ कोई पंगा नहीं है। विज्ञान किसी आध्यात्मिक प्रक्रिया से अलग नहीं है। यहां विज्ञान से मेरा मतलब मौलिक विज्ञान से है। हां, तकनीक से समस्या जरूर है, क्योंकि कई तकनीकें साफतौर पर हानिकारक हैं। इस संसार में हम जो कुछ भी करने की कोशिश कर रहे हैं, वह उन चीजों को करने का बेतुका तरीका है। कई जगहों पर तकनीक का विकास बहुत ही अवैज्ञानिक तरीके से हुआ है।
अब अगर हम विज्ञान पर आएं, तो मुझे लगता है कि यह सिर्फ इस अस्तित्व की प्रकृति को जानने की एक चाहत है। यह आध्यात्मिक खोज से खास अलग नहीं है। बस इसमें इस्तेमाल होने वाले तरीके और दृष्टिकोण अलग हैं, लेकिन बुनियादी तौर पर दोनों ही अस्तित्व की प्रकृति को जानना चाहते हैं।
देखिए, जब हम आध्यात्मिक व्यक्ति की बात करते हैं तो दुर्भाग्य से लोग उसे भगवान का भक्त समझ लेते हैं। दरअसल एक आध्यात्मिक व्यक्ति की रुचि भगवान में नहीं होती। वह बस वही जानना चाहता है, जो सत्य है। अपने मत या मान्यताओं को ही सही साबित करने में हमारी कोई दिलचस्पी नहीं है, क्योंकि हमारी कोई मान्यता है ही नहीं।
मुझे लगता है कि वैज्ञानिकों की जिज्ञासाएं तो अपनी जगह ठीक हैं, लेकिन कभी-कभी उनका यह विश्वास कि उनकी सभी जिज्ञासाओं का मूल कारण भौतिक ही होगा, उन्हें असहाय बना देता है। अत: मेरे हिसाब से विज्ञान की तरक्की में रुकावट पैदा कर देने वाला मुख्य तत्व यही है।
जब हम आध्यात्मिकता की बात करते हैं तो हम इस सृष्टि की परतें उधेडऩे की कोशिश नहीं करते। ऐसा करने से यह सृष्टि और भी ज्यादा जटिल हो जाएगी। इसीलिए योगियों का चीजों को देखने का नजरिया अलग ही होता है। हम अंदर की ओर देखते हैं। जब आप अपने भीतर की तरफ देखते हैं तो एक अलग ही आयाम खुलता है। अब चीजें जटिल होने की बजाय सरल होती जाती हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हमारा मानना है कि जो लोग अपने भीतर देखते हैं, उनके पास एक तीसरी आंख होती है जिससे वे वह सब देख सकते हैं जो दूसरे नहीं देख पाते। उन्होंने जीवन को एक नई स्पष्टता दी है।
तो योग और अध्यात्म का यह मूल स्वभाव है कि अगर आप पूरी तरह से अस्तित्वहीन हो जाते हैं, तभी आप इस सृष्टि को जान पाएंगे।
मुझे लगता है कि वैज्ञानिकों की जिज्ञासाएं तो अपनी जगह ठीक हैं, लेकिन कभी-कभी उनका यह विश्वास कि उनकी सभी जिज्ञासाओं का मूल कारण भौतिक ही होगा, उन्हें असहाय बना देता है।
यदि आप इस जगत में ही घूमते रहेंगे, तो आप पेड़ की एक पत्ती को भी नहीं समझ पाएंगे। अगर आप लाखों साल पेड़ की एक पत्ती को समझने में ही लगा दें, तब भी जरूरी नहीं है कि आप उसे पूरी तरह से जान पाएं। इसका एक ही तरीका है। अगर आप अस्तित्वहीन हो जाएं, तो इस अस्तित्व की प्रकृति आपके सामने स्पष्ट हो जाएगी और आप इसे समझ पाएंगे। अध्यात्म का सार यही है कि आप अपने आप में डूब जाएं, क्योंकि यही सृष्टि है।
अपने भीतर ही इस जगत को जानने की जिज्ञासा आपके अंदर एक चमत्कारिक अंतर पैदा कर देती है। इस फर्क को महसूस करने से आपको इतनी आजादी मिलती है कि आप अपने जीवन को ऐसे तरीकों से जीने लगते हैं, जिनकी आपने कल्पना भी नहीं की होती। फिर जीवन ऊर्जा को आप ऐसे तरीकों से इस्तेमाल करने लगते हैं, जो कभी आपके लिए संभव ही न थे।
ज्ञान तक पहुंचने के दो तरीके हैं - विज्ञान और योग। विज्ञान जिंदगी को उधेडक़र के, उसका चीड़-फाड़ करके जानने की कोशिश करता है। जब हम आध्यात्मिकता की बात करते हैं तो हम इस सृष्टि की परतें उधेडऩे की कोशिश नहीं करते। हम अंदर की ओर देखते हैं।
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योग और ध्यान को, भारत की ही तरह, यूरोप में भी मूल रूप से एक धार्मिक-आध्यात्मिक विषय ही माना जाता था। उनकी उपयोगिता को लेकर गंभीर क़िस्म के वैज्ञानिक शोध नहीं होते थे। किंतु अब वैज्ञानिक जितना ही अधिक शोध कर रहे हैं, उतना ही अधिक मुग्ध हो रहे हैं।  
लंबे समय तक यूरोप वालों के लिए भी योग का अर्थ शरीर को खींचने-तानने और ऐंठने-मरोड़ने की एक कठिन भारतीय 'हिंदू' कला से अधिक नहीं था। 'हिंदू' शब्द उसकी व्यापक स्वीकृति और वैज्ञानिक अनुमति में मनोवैज्ञानिक बाधा डालने के लिए कभी-कभार अब भी उसके साथ जोड़ा जाता है।
विज्ञान के लिए वह सब प्राय: अवैज्ञानिक और अछूत रहा है, जिसका आत्मा-परमात्मा जैसी अलौकिक, अभौतिक अवधारणाओं से कुछ भी संबंध हो। जो कुछ अभौतिक है, नापा-तौला नहीं जा सकता, विज्ञान की दृष्टि से उसका अस्तित्व भी नहीं हो सकता। हालांकि महान भौतिकशास्त्री अलबर्ट आइनश्टाइन भी मानते थे कि भौतिकता से परे भी कोई वास्तविकता है। 
जर्मनी की डॉ. डागमार वूयास्तिक को भौतिकता से परे ऐसी ही एक वास्तविकता का पता लगाने का काम सौंपा गया हैं। वूयास्तिक ने भारतविद्या (इंडोलॉजी) में डॉक्टरेट की है। भारत की पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों का अध्ययन उनका प्रिय विषय रहा है। 
यूरोपीय संघ की वैज्ञानिक शोध परिषद से मिले 14 लाख यूरो (इस समय 1यूरो =74 रुपए) के एक आरंभिक अनुदान के आधार पर तीन सदस्यों की उनकी टीम, 2015 के वसंतकाल से, ऑस्ट्रिया के वियेना विश्वविद्यालय में ''औषधि, अमरत्व और मोक्ष'' नाम की एक परियोजना पर काम कर रही है। सोचने की बात है कि भारत में अमरत्व और मोक्ष जैसी बातों की खिल्ली उड़ाई जाती है, जबकि यूरोपीय संघ उनकी वैज्ञानिक विवेचना जानना चाहता है।  

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अमरत्व और मोक्ष की खोज : डॉ. वूयास्तिक का कहना है कि उनकी टीम संस्कृत में लिखी पुरानी पांडुलिपियों और हिंदी-अंग्रेज़ी में उपलब्ध पुस्तकों की सहायता से ''औषधि, अमरत्व और मोक्ष'' के ऐतिहासिक एवं दार्शनिक पक्ष का अध्ययन कर रही है। इसके लिए तीन कार्यक्षेत्र चुने गए हैं – दो हज़ार वर्ष तक पुरानी आयुर्वेदिक पांडुलिपियां, ऐसे रासायनिक पदार्थों संबंधी साहित्य, जिनमें अमृत जैसे जादुई प्रभाव वाली दवाओं का वर्णन मिलता है, और हठयोग संबंधी 15वीं सदी तक की पांडुलिपियां व साहित्य।
सबसे अधिक ध्यान हठयोग के बारे में उन पांडुलिपियों और पुस्तकों पर दिया जाएगा, जिनमें आसनों और प्राणायाम द्वारा हर प्रकार की बीमारियों से लड़ने-बचने की विधियों का वर्णन किया गया है। डॉ. वूयास्तिक का मानना है कि आसन, प्राणायाम और ध्यान पर आधारित तीन अंगों वाले हठयोग से ही प्राचीन भारत के ऋषि-मुनि निरोग रहते और दीर्घायु होते थे।
पिछले 20-25 वर्षों से यूरोप में योग की, विशेषकर हठयोग, की जब से धूम मची है, चिकित्सा, स्वास्थ्य और मनोविज्ञान में उस पर शोधकार्यों की भी बाढ़ आ गई है। उसकी उपयोगिता और कारगरता के बारे में नित नए सामाचार आने लगे हैं। नियमित रूप से हठयोग लगभग सभी बीमारियों को दूर रखने की रामबाण दवा सिद्ध हो रहा है। उसकी सहायता से पीठ और कमर-दर्द को दूर करने से लेकर हृदयरोगों और कैंसर तक की रोकथाम या उनकी डॉक्टरी चिकित्सा के बाद  स्वास्थ्यलाभ और पुनर्वासन (रिहैबिलिटेशन) की गति को तेज़ किया जा सकता है।  
डॉक्टर छोड़ें, योगी को ढूंढें : एंटिबायॉटिक गोलियां निगलने के बदले एक घंटा योगाभ्यास करें। उच्च रक्तचाप की दशा में 'बीटा-ब्लॉकर' लेने बदले ध्यान लगाएं (मेडिटेशन करें)। यानी डॉक्टर के दवाख़ाने के बदले किसी योग-स्कूल में जाएं। कह सकते हैं कि यह सलाह है ब्रिटेन में एक्सेटर विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों की, जिन्होंने धमनी-काठिन्य (आर्टेरियोस्क्लेरॉसिस) जनित हृदयरोगों पर अंतरराष्ट्रीय अध्ययनों का मूल्यांकन किया है।
विभिन्न देशों में हुए इन अध्ययनों का निचोड़ यह है कि योगाभ्यास और ध्यान करने से रक्तवसा (कोलोस्ट्रॉल) की मात्रा और मोटापे को घटाया जा सकता है। हृदयशूल (ऐंजाइना पेक्टरिस) और रक्तवाहिकाएं तंग हो जाने पर सही क़िस्म के नियमित योगासनों से लाभ मिलता है।
यूरोप में हुए अध्ययनों से पता चलता है कि हठयोग बीमारियों की रोकथाम तो करता ही है, पर यदि कोई व्यक्ति योग नहीं भी करता रहा हो और बीमार पड़ जाए, तो उसकी उपचार-योजना में हठयोग को शामिल करने पर रक्त के विभिन्न घटकों की मात्राओं में अनुकूल सुधार लाया जा सकता है। विभिन्न हार्मोनों के स्राव सामान्य स्तर पर आने लगते हैं। जोड़ों में मानो चिकनाहट बढ़ जाती है। बैक्टीरिया और वायरस से लड़ने की शरीर की रोग-प्रतिरक्षण प्रणाली और भी शक्तिशाली बनती है।
नियमित रूप से हठयोग करने पर रक्त में 'इंटरल्यूकीन-6' (आईएल-6) नाम के प्रोटीन का संकेंद्रण घटता है। यह एक ऐसा प्रोटीन है, जिस की मात्रा रक्त में बढ़ने से हृदयरोग, मस्तिष्काघात (लकवा), मधुमेह2 (डायबेटीज़2) या जोड़ों में दर्द जैसी बीमारियां होती हैं। शरीर के भीतरी अंगों में जलन या सूजन पैदा करने में भी इस प्रोटीन की भूमिका होती है।

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नियमित योगाभ्यास है सबसे कारगर दवा : योगाभ्यास उन बीमारियों के विरुद्ध सबसे कारगर और उपप्रभाव (साइड इफ़ेक्ट) रहित सुरक्षित दवा के समान है, जो हमारी आधुनिक रहन-सहन की देन हैं – जैसे हाथ-पैर और कमर में दर्द, मधुमेह जैसी चयापचय (मेटबॉलिज़्म) में गड़बड़ी की बीमारियां, सांस, हृदय और रक्तंचार की बीमारियां, यहां तक कि मानसिक बीमारियां भी। महिलाओं के बीच योगाभ्यास की सबसे अधिक लोकप्रियता का एक प्रमुख कारण यह है कि मासिकधर्म के कष्टों, गर्भधारण होने या नहीं होने की समस्याओं या रजोविराम जैसी अवस्थाओं की शारीरिक ही नहीं, मानसिक परेशानियां कम करने में योगाभ्यास से सहायता मिलती है। 
  
जर्मनी में लापज़िग के डॉक्टर डीट्रिश एबर्ट 1980 वाले दशक से ही एक उपचारविधि के तौर पर हठयोग की उपयोगिता का अध्ययन करते रहे हैं। वे इस विषय पर लाइपज़िग विश्वविद्याल के मेडिकल छात्रों की क्लास भी लेते हैं। उनका कहना है कि ऐसे वैज्ञानिक अवलोकनों की कमी नहीं है, जो शरीरक्रिया (फ़िजियोलॉजी) पर योग के बहुत अनुकूल प्रभावों की पुष्टि करते हैं।
पूर्वी जर्मनी के ग्राइफ्सवाल्ड विश्वविद्यलय के छात्रों के बीच इसी प्रकार के एक ताज़ा अध्ययन में देखा गया कि उन्हें 10 सप्ताह तक हठयोग कराने के बाद हृदय की धड़कन और रक्तचाप के बीच तालमेल रखने वाली तथाकथित ''बैरो-रिफ्लेक्स'' प्रणाली में स्पष्ट सुधार आ गया था। 'बैरोरिसेप्टर' कहलाने वली विशेष प्रकार की तंत्रिका कोशिकाओं (न्यूरॉन) की बनी यह प्रणाली महाधमनी के हृदय के पास वाले घुमाव में काम करती है। वहां वह रक्तप्रवाह की मात्रा को नियंत्रित करते हुए उच्च या निम्न रक्तचाप के अनुपात में हृदय के धडकने की गति घटाने या बढ़ाने की क्रिया में सहभागी बनती है।
रोगप्रतिरक्षण प्रणाली बने और भी प्रभावशाली : नॉर्वे के वैज्ञानिकों ने हाल ही में पाया कि हठयोग बहुत थोड़े ही समय में शरीर की रोगप्रतिरक्षण प्रणाली (इम्यून सिस्टम) पर अनुकूल प्रभाव डालने लगता है। नियमित हठयोग न केवल तनाव घटाता है, हड्डियों को भी मज़बूत करता है, अवसाद (डिप्रेशन) और कमर या पीठ के दर्द को कम करता है और गंभीर क़िस्म के हृदयरोगों का ख़तरा भी टालता है। नॉर्वे की विज्ञान पत्रिका 'प्लोस वन' में प्रकाशित एक लेख के अनुसार, वहां के वैज्ञानिकों नेइन प्रभावों को रोगप्रतिरक्षण प्रणाली की तथाकथित 'टी' (T) कोशिकाओं के जीनों में आए परिवर्तनों के द्वारा प्रमाणित किया है। 
इस अध्ययन के लिए नॉर्वे में दस लोगों को एक सप्ताह तक हठयोग के तीनों अंगों यानी आसनों, प्राणायाम और ध्यानधारण का अभ्यास कराया गया। चार-चार घंटे चलने वाले अभ्यास-सत्रों से पहले और बाद में प्रतिभागियों के रक्त-नमूने लिए गए और प्रयोगशाला में उनकी तुरंत जांच की गई। दस दिन बाद पाया गया कि रोगप्रतिरक्षण प्रणाली की 'टी' कोशिकाओं के 111 जीन पहले की अपेक्षा बदले हुए थे। तुलना के लिए, जो लोग दौड़ लगाते या कोई पश्चिमी नृत्य करते हैं, उनके प्रसंग में मुश्किल से 38 जीन ही बदले हुए मिलते हैं।
जीन तक में नवजीवन का संचार : इस अध्ययन की रिपोर्ट में कहा गया है कि ''हठयोग करने के दो घंटों के भीतर ही 'टी' कोशिकाओं के जीनों में परिवर्तन होने लगा था... इसका अर्थ यही है कि योगाभ्यास जैव-आणविक स्तर पर तुरंत और दीर्धकालिक प्रभाव डालने लगता है।'' इस परिणाम का एक दूसरा अर्थ यह भी निकलता है कि आजकल योग के कुछेक हल्के-फुल्के आसन कर लेने का जो फ़ैशन चल पड़ा है, उससे योगाभ्यास का पूरा लाभ नहीं मिल सकता। आसनों के बाद प्राणायाम और ध्यानधारण नहीं करने पर सारा लाभ अधूरा और अस्थायी ही सिद्ध होगा। भारतीय ऋषियों-मुनियों ने प्राणायाम और ध्यानधारण को व्यर्थ ही हठयोग का अंग नहीं बनाया था।



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