जितना आप संकल्प लेंगे, उतनी ही
संकल्प-शक्ति क्षीण होती है।
संकल्प-शक्ति विकसित नहीं होती है संकल्प लेने से
एक मित्र ने पूछा है कि मैं कहता हूं, क्रोध, लोभ
इत्यादि का कोई नियम, कोई नियंत्रण, कोई संकल्प, कोई व्रत नहीं लेना चाहिए—कि आज
से मैं क्रोध नहीं करूंगा। उन्होंने पूछा है कि एक तरफ तो आप यह कहते हैं कि ऐसा
संकल्प नहीं करना चाहिए और दूसरी तरफ आप कहते हैं कि संकल्प की शक्ति होनी चाहिए!
इन दोनों बातों में उन्हें विरोध मालूम पड़ा। इन्हें
समझना ठीक होगा। पहली बात, जो आदमी यह कहता है कि आज से मैं क्रोध नहीं करूंगा, वह
ऐसा क्यों कहता है? उसे पता है कि वह क्रोध करेगा, इसीलिए कहता है न? उसे मालूम है
कि वह करेगा, इसीलिए संकल्प लेगा। अगर उसे पता है कि कल से क्रोध होना ही नहीं है
तो वह व्रत नहीं लेगा।
आपने कभी कसम खायी है कि आज से अब दीवार से नहीं
निकलूंगा, दरवाजे से ही निकलूंगा! आपने कभी कसम नहीं खायी है, क्योंकि आप जानते
हैं कि दीवार से कभी निकलते ही नहीं। दरवाजे से ही निकलते हैं। और अगर एक आदमी
मंदिर में खड़ा हुआ है...मैंने जो कहा है—कि कल से मैंने बिलकुल पक्का कर लिया है,
चाहे कुछ भी हो जाए, दीवार से नहीं निकलूंगा तो आप सब चैंककर देखेंगे कि क्या यह
आदमी दीवार से निकलता रहा है? और कल भी उसको दीवार से निकलने की आशा है, कल्पना
है, आकांक्षा है?
जब एक आदमी कहता है कि मैं कल से क्रोध नहीं करूंगा,
तब वह आदमी जानता है कि कल मैं क्रोध करने वाला हूं, उसी के खिलाफ वह संकल्प लेता
है! संकल्प किसके खिलाफ ले रहे हैं? किसी दूसरे के खिलाफ? नियंत्रण, व्रत, नियम सब
अपने ही खिलाफ किये जाते हैं! मुझे पता है, मैं कल भी क्रोध करूंगा। भली-भांति पता
है। और जितने जोर से मुझे पक्का विश्वास है कि कल क्रोध करूंगा, उतने ही जोर से
मैं कसम खाता हूं कि कल नहीं करूंगा क्रोध! किसके खिलाफ कर रहा हूं? अपने ही
खिलाफ!
और अपने खिलाफ, जो आयोजन होता है, उसमें व्यक्तित्व
टूट जाता है। एक व्यक्तित्व कहता है, नहीं करूंगा और दूसरा व्यक्तित्व कहता है कि
करूंगा! अब इसको भी थोड़ा ध्यान से समझ लेना कि मैं क्रोध करूंगा, यह संकल्प कभी
आपने लिया था जिंदगी में? कभी आपने यह व्रत लिया था कि मैं क्रोध करूंगा?
यह आपने कभी नहीं लिया था, यह नैसर्गिक था। और यह आप
ले रहे हैं कि मैं क्रोध नहीं करूंगा, यह नैसर्गिक नहीं है, यह कृत्रिम है। जो
नैसर्गिक होगा, वह मजबूत सिद्ध होगा। जो कृत्रिम होगा, वह मजबूत सिद्ध नहीं होगा।
नैसर्गिक और कृत्रिम की लड़ाई जब होगी तो कृत्रिम हारेगा और नैसर्गिक जीतेगा। आप
अपने को दो हिस्सों में तोड़ रहे है। आपका निसर्ग, आपकी प्रकृति कुछ कह रही है, कि
करेंगे क्रोध और आपकी सीखी हुई बुद्धि, आपका कांशस माइंड, चैतन्य चित्त कह रहा है
कि नहीं, अब हम क्रोध नहीं करेंगे!
आपको पता नहीं है कि प्रकृति बहुत बलवान है और आपके
ये संकल्प बहुत ना-कुछ हैं। इसका कोई मूल्य नहीं है। कल जब क्रोध का झंझावात
आयेगा, तब संकल्प पता नहीं कहां उड़ जायेगा सूखे पत्तों की तरह। जैसे एक सूखा पत्ता
जमीन पर पड़ा है। अभी हवा नहीं चल रही है और वह सूखा पत्ता कहता है, कसम खाते हैं,
अब नहीं उड़ेंगे। अब कसम खाते हैं, कल से चाहे कुछ भी हो जाये, उड़ेंगे नहीं! सूखा
पत्ता सड़क पर कसम खा रहा है। अभी हवा नहीं चल रही है। पत्ते को पक्का लग रहा है।
ठीक है, जमीन पर पड़ा है, कसम खाते हैं, अब नहीं उड़ेंगे। लेकिन पत्ता कसम क्यों खा
रहा है कि नहीं उड़ेंगे?
पत्ते को पुराना अनुभव है, जब भी हवा चली है, उड़ना
पड़ा है। उन्हीं के खिलाफ कसम खा रहा है। लेकिन कसम पत्ता खा रहा है। और पत्ते को
पता नहीं है कि सूखा पत्ता है, इसकी ताकत कितनी है! अगर प्रकृति का झंझावात और
आंधी उठेगी और हवाएं चलेंगी, तब कहां इसकी कसम रहेगी। सूखे पत्ते की कोई कसम रहने
वाली है? जरा आयेगी हवा, पत्ता उड़ने लगेगा! जब हवा चली जायेगी, पत्ता गिर जायेगा।
फिर हवा चलेगी, फिर मन में कहेगा, आज टूट गया; लेकिन कल से अब पक्का करते हैं। कल
चलेंगे किसी संन्यासी के पास, किसी मुनि के पास और जाकर हाथ जोड़कर मंदिर में
प्रार्थना करके कसम खायेंगे कि अब नहीं, अब हम अणुव्रत लेते हैं कि अब नहीं
उड़ेंगे। इस पत्ते का क्या मतलब है?
जिस चेतन मन में हमने सारी बातें कही हैं, उसकी ताकत क्या है? वह जो अचेतन प्रकृति
हमारे भीतर खड़ी है—ताकत है मेरी? आपके व्रत का, आपके मन में पता भी नहीं रह
जायेगा। अभी आपने कसम खा ली कि कल से क्रोध नहीं करेंगे। और आज आपका व्रत खंडित हो
गया! आपको नींद में व्रत का पता होगा? आप कहेंगे, व्रतों का पता रहेगा? लेकिन नींद
में पता क्यों नहीं रहेगा? क्योंकि जिस मन ने कसम खायी है, वह बहुत छोटा-सा मन है।
और जिस मन ने कसम नहीं खायी है, वह बहुत बड़ा मन है। वह नींद में भी जागा होगा।
नींद में भी क्रोध चलेगा, नींद में भी छुरा मारा जायेगा, नींद में भी हत्या होगी।
मनुष्य की प्रकृति के रूपांतरण का सवाल है, मनुष्य के
निर्णय का नहीं।
प्रकृति बड़ी है, निर्णय हमेशा कमजोर है।
तो मैं कहता हूं, निर्णय मत लेना। समझ लो प्रकृति को
कि क्या है मेरी प्रकृति? क्रोध क्या है? और जिस दिन प्रकृति की पूरी समझ आ
जायेगी—प्रकृति की समझ, प्रकृति से ज्यादा शक्तिशाली है, क्योंकि समझ भी प्रकृति
की गहनतम, और गहरे से गहरा रूप है। समझ भी प्रकृति की है। वह आपकी नहीं है समझ भी!
वह भी प्रकृति से जन्मती है, विकसित होती है और फैलती है।
जो व्यक्ति अपने चित्त की पूरी प्रकृति को समझ लेता
है, जागरूक हो जाता है, पूरे चित्त को पहचान लेता है, वह कसम नहीं खाता है। वह यह
नहीं कहता कि अब मैं क्रोध नहीं करूंगा! वह यह कहता है कि क्रोध गया, अब क्रोध
कैसे करुंगा! अगर मौका आ जायेगा तो क्रोध कैसे करुंगा! जो भी अपने भीतर क्रोध को
समझ लेता है, वह यह कहेगा, अब बड़ी मुश्किल हो गयी—कल अगर मौका आ गया तो क्रोध कैसे
करूंगा! क्योंकि समझने के बाद क्रोध करना असंभव है। वह ऐसे ही है, जैसे जानते हुए
गड्ढे में गिरना। आंखें खुली हैं और कांटों में चले जायें, वह वैसा ही है। आंखें
खुली हैं और दीवार से टकरायें, यह वैसा ही है। जानना है, संकल्प नहीं लेना है।
फिर उन्होंने पूछा है कि लेकिन आप कहते हैं,
संकल्प-शक्ति चाहिए? तो उसका क्या मतलब है?
उसका मतलब ही यह है कि जितना आप संकल्प लेंगे, उतनी
ही संकल्प-शक्ति क्षीण होती है। संकल्प-शक्ति विकसित नहीं होती है संकल्प लेने से।
असल में जब सब संकल्प-विकल्प गिर जाते हैं, तब मनुष्य के भीतर संकल्प शुरू होता
है, तब उसे संकल्प लेना नहीं पड़ता है। संकल्प शक्ति होती है उसके भीतर। और जो भी
उसके पूरे प्राण चाहते हैं, वह हो जाता है, उसके निर्णय नहीं लेने पड़ते हैं कि ऐसा
हो, ऐसा मैं करूं। उसका पूरा काम—जो चाहता है, वह हो जाता है! उसके भीतर संकल्प का
अर्थ है: जिसके भीतर विकल्प नहीं रह गये।
जिस आदमी के चित्त में विकल्प उठते ही नहीं, उसके
भीतर संकल्प है।
विकल्पों से विदा होने पर संकल्प रह जाता है।
संकल्प का मतलब है: वही ऊर्जा, वही शक्ति, जो
परमात्मा की है। वही काम करने लगती है। फिर आदमी ऐसा नहीं कहता है कि मैं ऐसा
करूंगा। वह कहता है कि ऐसा हो रहा है। वैसा आदमी च्वाइस भी नहीं करता, चुनाव भी
नहीं करता। वह यह कहता है कि मैं युक्त होता हूं और यह करता हूं। उसके पूरे
प्राणों को जो ठीक लगता है, वह वही करता है। चुनाव भी नहीं करता! वह यह भी नहीं
कहता कि मैं फलां चीज छोड़ता हूं! क्योंकि हम छोड़ते उसी चीज को हैं, जिसके पीछे
हमारा कोई लगाव होगा।
जब एक आदमी कहता है कि मैं बांये जाऊं कि दांये, तो
उसके भीतर जो निर्णय होता है...वह माना कि मेजार्टी का निर्णय है, डेमोक्रेटिक
निर्णय है। पचास प्रतिशत दिमाग कहता है कि चलो, बांये चले चलो, उनचास प्रतिशत
दिमाग कहता है कि दांये चलो। फिर वह बांये चला जाता है। क्योंकि उनचास प्रतिशत
दिमाग में रहा कि दांये चलो—दस-पच्चीस कदम गया है, तो लगता है कि कहीं भूल तो नहीं
हो गयी है—दो प्रतिशत! दांये ही चले जायें! उनचास प्रतिशत कहने लगता है कि गलती
हुई जा रही है, इसी पर चलते तो बहुत अच्छा था! यह आदमी डोलता है। यह कभी तय नहीं
कर पाता है।
ऐसे लोग हैं कि घर में ताले लगाकर निकलते हैं, दस कदम
के बाद खयाल आता है कि फिर से लौटकर देख लें कि ताला ठीक से लगा है कि नहीं!
क्योंकि दिमाग कहता है, देखा था कि नहीं देखा था? एक हिस्सा कहता है कि देखा तो
था। लेकिन दूसरा हिस्सा कहता है कि संदिग्ध है, चलें लौटकर देख लें! लेकिन वह आदमी
यह नहीं जानता कि लौटकर देखकर फिर दस कदम बाद यही हालत हो जायेगी! कुछ लोग जिंदगी
भर लौट-लौट कर ताला ही देखते रह जाते हैं! और निरंतर विकल्प करते रहते हैं—यह करो,
यह करो। उनके दिमाग में यही चलता रहता है।
-ओशो
नेति-नेति
संकल्प-शक्ति विकसित नहीं होती है संकल्प लेने से
जिस चेतन मन में हमने सारी बातें कही हैं, उसकी ताकत क्या है? वह जो अचेतन प्रकृति हमारे भीतर खड़ी है—ताकत है मेरी? आपके व्रत का, आपके मन में पता भी नहीं रह जायेगा। अभी आपने कसम खा ली कि कल से क्रोध नहीं करेंगे। और आज आपका व्रत खंडित हो गया! आपको नींद में व्रत का पता होगा? आप कहेंगे, व्रतों का पता रहेगा? लेकिन नींद में पता क्यों नहीं रहेगा? क्योंकि जिस मन ने कसम खायी है, वह बहुत छोटा-सा मन है। और जिस मन ने कसम नहीं खायी है, वह बहुत बड़ा मन है। वह नींद में भी जागा होगा। नींद में भी क्रोध चलेगा, नींद में भी छुरा मारा जायेगा, नींद में भी हत्या होगी।
नेति-नेति
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