Thursday, August 3, 2017

संकल्प का क्या अर्थ है?

Saturday, February 13, 2016

संकल्प का क्या अर्थ है?


एक व्यक्ति ने किसी फकीर से पूछा कि प्रभु को पाने का मार्ग क्या है? उस फकीर ने उसकी आंखों में झांका। वहां प्यास थी। वह फकीर नदी जाता था। उसने उस व्यक्ति को भी कहा’ मेरे पीछे आओ। हम स्नान कर लें, फिर बताऊंगा।’ वे स्नान करने नदी में उतरे।

वह व्यक्ति जैसे ही पानी में डूबा, फकीर ने उसके सिर को जोर से पानी में ही दबा कर पकड़ लिया। वह व्यक्ति छटपटाने लगा। वह अपने को फकीर की दबोच से मुक्त करने में लग गया। उसके प्राण संकट में थे। वह फकीर से बहुत कमजोर था, पर क्रमश: उसकी प्रसुप्त शक्ति जागने लगी।

फकीर को उसे दबाए रखना असंभव हो गया। वह पूरी शक्ति से बाहर आने में लगा था और अंततः वह पानी के बाहर आ गया। वह हैरान था! फकीर के इस व्यवहार को समझ पाना उसे संभव नहीं हो रहा था। क्या फकीर पागल था? और फकीर जोर से हंस भी रहा था।


उस व्यक्ति के स्वस्थ होते ही फकीर ने पूछा :’ मित्र, जब तुम पानी के भीतर थे, तो कितनी आकांक्षाएं थीं? वह बोला’ आकांक्षाएं? आकांक्षाएं नहीं, बस एक ही आकांक्षा थी कि एक श्वास, हवा कैसे मिल जाए?’ वह फकीर बोला.’ प्रभु को पाने का रहस्य—सूत्र, सीक्रेट यही है। यही संकल्प है। संकल्प ने तुम्हारी सब सोई शक्तियां जगा दीं। संकल्प के उस क्षण में ही शक्ति पैदा होती है और व्यक्ति संसार से सत्य में संक्रमण करता है।


संकल्प से ही संसार से सत्य में संक्रमण होता और संकल्प से ही स्वप्न से सत्य में जागरण होता है। विदा के इन क्षणों में मैं यह स्मरण दिलाना चाहता हूं।


संकल्प चाहिए। और क्या चाहिए? और चाहिए साधना सातत्य। साधना सतत होनी चाहिए। पहाड़ों से जल को गिरते देखा है? सतत गिरते हुए जल के झरने चट्टानों को तोड़ देते हैं।


व्यक्ति यदि अज्ञान की चट्टानों को तोड्ने में लगा ही रहे तो जो चट्टानें प्रारंभ में बिलकुल राह देती नहीं मालूम होती हैं, वे ही एक दिन रेत हो जाती हैं, और राह मिल जाती है।


राह मिलती तो निश्चित है, पर वह बनी बनाई नहीं मिलती है। उसे स्वयं ही, अपने ही श्रम से बनाना होता है। और यह मनुष्य का कितना सम्मान है! यह कितना महिमापूर्ण है कि सत्य को हम स्वयं अपने ही श्रम से पाते हैं!

साधनापथ 

ओशो 

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